लोक व्यय : वर्गीकरण, लोक व्यय तथा निजी व्यय में अंतर | Clarification, difference between public and private expenditure

लोक व्यय : वर्गीकरण, लोक व्यय तथा निजी व्यय में अंतर 
(Clarification, difference between public and private expenditure)

लोक व्यय : वर्गीकरण, लोक व्यय तथा निजी व्यय में अंतर | Clarification, difference between public and private expenditure


लोक व्यय प्रस्तावना (Introduction)

 

लोक व्यय उस व्यय को कहते हैं, जो लोक सत्ताओं-अर्थात् केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय सरकारों के द्वारा या तो नागरिकों की सामूहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए किया जाता है अथवा उनके आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण में वृद्धि करने के लिए आजकल सरकारी व्यय की मात्रा संसार के प्रायः सभी देशों में निरंतर बढ़ रही है। इसका कारण यही है कि विभिन्न क्षेत्रों तथा मोर्चों पर सरकार तथा अन्य लोक निकायों (Public bodies) के कार्यों का निरंतर विस्तार हो रहा है। 19वीं शताब्दी में तो सरकारी व्यय के सिद्धांत को अधिक आवश्यक नहीं माना जाता था क्योंकि उन दिनों सरकार के कार्यों का क्षेत्र बड़ा सीमित था, किंतु 20वीं शताब्दी में शिक्षा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे सामाजिक मामलों में तथा वाणिज्यिक व औद्योगिक मामलों में जैसे- रेलवे, सिंचाई, बिजली तथा ऐसी ही अन्य प्रयोजनाओं के क्षेत्र में राज्य के कार्यों का अत्यधिक विस्तार हुआ है, अतः उनके कारण सरकारी व्यय में भारी वृद्धि हुई है। सरकारी व्यय की प्रकृति तथा मात्रा के कारण और इस कारण कि यह अनेक प्रकार से देश के आर्थिक जीवन को प्रभावित कर सकता है, इसका महत्व काफी बढ़ गया है। उदारिण के लिए, सरकारी व्यय उत्पादन तथा वितरण के स्तर को और आर्थिक क्रियाओं के सामान्य स्तर को प्रभावित कर सकता है।

 

लोक व्यय प्राचीन विचारधारा (Classical Views )

 

प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक व्यय पर बहुत कम ध्यान दिया था। तत्कालीन राज्य का कार्यक्षेत्र सीमित होने के कारण उन्होंने सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत को आवश्यक नहीं समझा। शास्त्रीय या प्राचीन अर्थशास्त्री व्यक्तिगत आर्थिक स्वतंत्रता पर जोर देते थे। वे नहीं चाहते थे कि राज्य अर्थव्यवस्था में अनावश्यक हस्तक्षेप करे। यही वह कारण है, जिससे शास्त्रीय अर्थशास्त्री राज्य के कार्यक्षेत्र को सीमित रखना चाहते थे। जे. बी. से. (J.B.Say) के विचारानुसार, "वित्त की सारी योजनाओं में सर्वोत्तम वह है, जिसमें कम खर्च किया जाये।" एडम स्मिथ का मत था कि राज्य के कार्य न्याय, प्रतिरक्षा और कुछ सार्वजनिक सेवाओं के प्रबंध तक ही सीमित रहने चाहिए। एक अमेरिकन आलोचक के मतानुसार, "पुराने अंग्रेज लेखकों को व्यय के सिद्धांत की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सरकार के संबंध में उनका जो सिद्धांत था, उसका तात्पर्य था सरकारी कार्यों की एक निश्चित सीमा।"

 

सर पारनेल के शब्दों में- "सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने तथा विदेशी आक्रमणों में रक्षा के लिए अति आवश्यक व्यय से अधिक व्यय का प्रत्येक भाग अपव्यय है तथा जनता पर अन्यायपूर्ण तथा अत्याचारपूर्ण भार है। इस प्रकार प्राचीन अर्थशास्त्री राज्य के कार्यों को सीमित रखना चाहते थे, क्योंकि वे सरकारी कार्यों को प्रायः अनुत्पालक तथा समाज को कोई विशेष लाभ न देने वाले मानते थे।

 

लोक व्यय आधुनिक विधारधारा (Modern Views )

 

आजकल प्राचीन अर्थशास्त्रियों की उपर्युक्त विचारधारा को सही नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वर्तमान युग के राज्य प्राचीन युग के राज्यों की भांति पुलिस राज्य न होकर, कल्याणकारी राज्य हैं। कल्याणकारी राज्य को जनता का अधिक कल्याण कार्य करना पड़ता है, जिसमें सरकार को सार्वजनिक कल्याण और आर्थिक विकास के लिए अनेक उद्देश्यों को पूरा करने हेतु भारी मात्रा में व्यय करना पड़ता है। यही कारण है कि वर्तमान राज्यों के कार्यों में पर्याप्त वृद्धि हो गई है। आजकल सार्वजनिक व्यय प्रायः निम्नलिखित कार्यों के लिए किया जाता है

 

(अ) सुरक्षा के लिए 

(आ) समाज के दलित वर्गों की रक्षा के लिए. 

(इ) समाज के विकास के लिए. 

(ई) सार्वजनिक उद्योगों की स्थापना के लिए, 

(उ) व्यापार-चक्रों के प्रभावों को कम करने के लिए, 

(ऊ) प्राकृतिक प्रकोपों को दूर करने के लिए, 

(ए) जनोपयोगी वस्तुओं के लिए, 

(ए)  प्रशासनिक सेवाओं के लिए

 

लोक व्यय में वृद्धि के कारण 

(Reasons for the Growth of Public Expenditure)

 

1. राज्य की क्रियाओं में वृद्धि ( Increase in the Activities of the State)- 

सरकारें उपभोक्ताओं को निःशुल्क अथवा लागत से कम मूल्य पर जो सेवाएँ उपलब्ध कराती हैं, उनका क्षेत्र अब काफी बढ़ गया है। शिक्षा, जनता का स्वास्थ्य तथा जनता के लिए मनोरंजन की व्यवस्था इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। मकानों तथा चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था वे नये क्षेत्र हैं जिनमें सरकारें प्रविष्ट हो चुकी हैं इन सेवाओं की व्यवस्था सरकार इस सिद्धांत को दृष्टिगत रखकर करती है कि लाभ प्राप्तकर्ता अपने धन से इन सेवाओं का जितना उपयोग कर सकते हैं, उनके मुकाबले यदि सरकार इन सेवाओं का अधिक उपभोग करा सके तो वह जनहित में ही होगा।

 

सरकारों ने रेलों तथा सड़कों जैसे सार्वनिक निर्माण के कार्यों पर किये जाने वाले खर्चों में इसलिए काफी वृद्धि की है, ताकि लोगों की कठिनाइयाँ कम की जा सकें और बेकार पड़े श्रम तथा साधनों का उपयोग किया जा सके। इस प्रकार का व्यय देश को मंदी की स्थिति से उबारने की दृष्टि से भी वांचछनीय माना जाता हैं इस संदर्भ में यह माना जा सकता है कि वर्तमान समय में राज्य की क्रियाओं में वृद्धि से संबंधत वैगनर का नियम (Wagner's law) सार्वलौकिक रूप से सही है। वैगनर का कहना था कि राज्य के कार्यों में व्यापक एवं गहन वृद्धि (extensive and intensive increase) की एक स्थायी प्रवृत्ति पाई जाती है। राज्य नये-नये कार्यों को निरंतर अपने हाथ में लेते जा रहे हैं और पुराने कार्यों को और अधिक बड़े पैमाने पर अधिक कुशलता के साथ सम्पन्न कर रहे हैं।" अतः इस बढ़ते हुए कार्यों को सम्पन्न करने के लिए अधिकाधिक सरकारी व्यय को आश्रय लिया जा रहा है।

 

2. औद्योगिक विकास (Industrial Development ) 

औद्योगिक क्रांति ( industrial Revolution) से संसार के अधिकांश देशों के केवल औद्योगिक ढाँचे में ही आमूल परिवर्तन नहीं हुआ अपितु उनका राजनैतिक व सामाजिक रूप भी काफी बदल गया है। औद्योगिक क्रांति के पश्चात् आविष्कारों की लंबी श्रृंखला के कारण जहाँ उत्पादन की विधियों में भारी परिवर्तन हुए, वहाँ इन परिवर्तनों में राजनैतिक व सामाजिक कारणों ने भी अपना योगदान किया । औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि के साथ ही साथ लोगों की आय तथा उनका जीवन स्तर ऊँचा उठा, जनसंख्या के एक बड़े भाग को सहारा मिला और उनमें अपनी नई-नई आवश्यकताओं को संतुष्ट करने की क्षमता आई। इन सब परिवर्तनों के साथ ही, समस्याओं का जनम हुआ, जिसके फलस्वरूप श्रम-संबंधों (labour relations) उद्योग-धन्धों के नियमन, उपभोक्ताओं के संरक्षण, धन तथा आय के वितरण और आर्थिक असुरक्षा से संबंधित सरकार के कार्यों व खर्च में वृद्धि हुई

 

3. सामाजिक सुरक्षा में वृद्धि - 

वर्तमान काल में राज्यों ने सामान्यतया कल्याणकारी राज्यों का रूप धारण कर लिया है और समस्त देश में अपने श्रमिकों को किसी न किसी रूप में सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे देखें कि उद्यमी श्रमिकों को वास्तविक मजदूरी दे रहे हैं या नहीं तथा उनके लिए पर्याप्त रूप से सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गई है या नहीं। इस प्रकार वर्तमान सरकारें अपने नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा जैसे औद्योगिक श्रमिकों के लिए वृद्धावस्था में पेन्शन, आश्रित लाभ निःशुल्क शिक्षा, बीमारी में सहायता, दुर्घटना लाभ, चिकित्सा सुविधा आदि पर बड़ी मात्रा में व्यय करती हैं। इसके अलावा कई सरकारों ने गृ-निर्माण में सहायता तथा बेरोजगारी लाभ की योजनाएँ शुरू की हैं। आजकल सरकार अपने नागरिकों के लिए स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाएँ प्रदान करने के लिए काफी मात्रा में व्यय करती है। भारतवर्ष में भी सन् 1948 में राज्य अधिनियम के अंतर्गत कर्मचारियों को विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं।

 

4. उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का राष्ट्रीयकरण (Nationalisation of Industries and Trades)

व्यापार तथा उद्योगों का राष्ट्रीयकरण सरकार की ओर से किया जाने वाला एक ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा सरकार जनता के लिए न्यूनाधिक रूप से वाणिज्यिक आधार पर वस्तुएँ प्रदान करने की व्यवस्था करती है। सरकार ऐसे उत्तरदायित्व को अपने ऊपर कई कारणों से ले सकती है, जैसे एकाधिकारों (monopolies) अथवा अर्द्ध एकाधिकारों के नियमन की कठिन समस्या के समाधान के लिए उपभोक्ताओं को घटी कीमतों पर वस्तुएँ तथा सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए अथवा गैर-सरकारी आर्थिक गतिविधियों की सीमा निर्धारित करने के लिए। इससे धन तथा आय के वितरण और श्रम की दशाओं में भी सुधार की संभावना रहती हैं। परन्तु राष्ट्रीयकरण किये गये उद्योगों की भाँति पूर्ति के भुगतान तथा उन उद्योगों की स्थापना व संचालन के लिए सरकार को भारी मात्रा में व्यय करने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त सरकार निजी व्यवसाय तथा व्यापार को भी इसलिए अपने अधिकार में ले सकती है जिससे वह समस्याओं को हल कर सके तथा राजकोष ( Treasury ) के लिए अधिक लाभ कमा सके।

 

5. कृषि विकास ( Development of Agriculture ) - 

किसी देश विशेषकर भारत जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्था का कृषि विकास उसकी अर्थ-व्यवस्था के विकास की धुरी होता है। आर्थिक विकास के लिए कृषि तथा गैर-कृषि दोनों क्षेत्रों के विकास करने के लिए सुविधाएँ प्रदान करनी आवश्यक होती है क्योंकि दोनों क्षेत्र परस्पर निर्भर करते हैं। उदाहरणार्थ, कृषि आय में वृद्धि होने से औद्योगिक वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि हो जाती है जिसके फलस्वरूप औद्योगीकरण को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार कृषि तथा उद्योगों में परस्पर निर्भरता होती है। इस निर्भरता को निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है कृषि क्षेत्र का कच्चा माल उद्योगों में परस्पर निर्भरता होती है। इस निर्भरता को निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है- कृषि क्षेत्र का कच्चा माल उद्योगों में आगतों (Inputs ) के रूप में काम में लाया जाता है। इसी प्रकार उद्योगों का निर्गत (outputs) कृषि क्षेत्र में आगतों के रूप में प्रयोग होता है। इस प्रकार भारत जैसे देश में आर्थिक एवं सामाजिक विकास को द्रुतगति प्रदान करने के लिए कृषि ढाँचे को मजबूत करना जरूरी है। इसलिए विकासशील देश अपने कृषि विकास के लिए बड़ी मात्रा में व्यय कर रहे हैं। सरकार किसनों को कम ब्याज दर पर ऋण प्रदान करना, निर्यातों को अनुदान, कृषिगत वस्तुओं का निर्धारित मूल्य पर क्रय, तटकर सुविधा प्रदान करना इत्यादि सुविधाओं पर व्यय करती है। इसके अतिरिक्त सरकार कृषि अनुसंधान एवं कृषिगत साधनों के निर्माण पर काफी मात्रा में व्यय करती है।

 

6. कीमतों को बढ़ने की प्रवृत्ति (Riaing Trend of Prices) 

संसार के प्रत्येक देश में कीमतों में वृद्धि की जो प्रवृत्ति पाई जाती है, उसके कारण भी रकारी व्यय बढ़ता नजर आता है। मूल्य-स्तर में वृद्धि होने के साथ ही सरकारें इस बात के लिए बाध्य हो जाती हैं कि वे उन वस्तुओं व सेवाओं के लिए अधिक धन का भुगतान करें जिन्हें कि वे चाहती हैं और सरकारी कर्मचारियों के वेतन तथा महँगाई भत्ते में वृद्धि करें। यह स्थिति सरकारी व्यय का और विस्तार करती हैं, यद्यपि स विस्तार से यह आवश्यक नहीं है कि सरकारी क्रियाओं में भी वृद्धि हो। इस प्रकार सरकारी व्यय में जो वृद्धि होती है, वह जितनी वास्तविक होती है, उससे कुछ अधिक ही दिखाई देती है।

 

7. प्रतिरक्षा की समस्या ( Problem of Defence ) 

इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि देश की प्रतिरक्षा की समस्या सरकारी खर्च की वृद्धि का एक प्रमुख कारण बन गई है। कोई देश अपनी प्रतिरक्षा के लिए सेनाओं को शक्तिशाली बनाना चाहता है तो दूसरे केवल आत्मरक्षा के लिए ही ऐसा पग उठाने को विवश हो जाते हैं। युद्ध संबंधी हथियारों के निर्माण तथा सेना के रख-रखाव पर भारी धनराशि व्यय करनी होती है। फिर, युद्ध लड़ने की विधियों में दिन-रात जो परिवर्तन होते रहते हैं उनके कारण भी सेना को नये-नये हथियारों की आवश्यकता होती है। इससे पुनः राज्य पर खर्च का भार बढ़ता है। प्रतिरक्षा व्यय में केवल सैनिकों तथा सैनिक सामग्री का व्यय ही सम्मिलित नहीं होता है बल्कि सैनिकों की पेन्शन तथा युद्ध हेतु लिए गये ऋण पर ब्याज भी शामिल होता है। युद्ध के विज्ञान और कला में इतनी अधिक प्रगति हुई है कि आज के शस्त्र कल पुराने तथा अप्रचलित हो जाते हैं जिससे युद्ध व्यवस्था बड़ी खर्चीली हो गयी है। काफी देश सुरक्षा पर अपनी राष्ट्रीय आय का बड़ी मात्रा में व्यय कर रहे हैं। उदाहरणार्थ, पाकिस्तान अपनी राष्ट्रीय आय का लगभग 15 प्रतिशत तथा भारत लगभग 5 प्रतिशत व्यय करते हैं। भारत में यह व्यय 1950-51 में केवल 164.13 करोड़ रू. था जो 1986-87 के बजट में 9728 करोड़ रुपया आँका गया है।

 

8. नगरीकरण या शहरीकरण (Urbanisation ) 

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जनसंख्या का बढ़ता हुआ शहरीकरण भी सरकारी खर्च की वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण है। नगरों पर बढ़ती हुई लागत का नियम पूर्णतया लागू होता है। नगर का आकार बढ़ने के साथ ही साथ जल पूर्ति, यातायात सेवा व उसका नियन्त्रण, पुलिस संरक्षण, स्वास्थ्य तथा सफाई आदि सेवाओं पर किये जाने वाले खर्च की प्रति व्यक्ति लागत भी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्त अस्पतालों, सड़कों, गलियों, रोशनी खेल के मैदान तथा सामुदायिक हॉल आदि के निर्माण व रख-रखाव के कारण तथा जीवनपयोगी अनिवार्य पदार्थों के वितरण व नियंत्रण के कारण भी सरकारों पर खर्च का अतिरिक्त भार पड़ता है।

 

9. सराकर के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन (Change in Attitude Towards Government) 

सरकारी खर्च में कुछ वृद्धि इस कारण भी हुई है क्योंकि पिछले वर्षों में सरकार के प्रति सामान्य दृष्टिकोण में काफी परिवर्तन हुआ है। एक शताब्दी पूर्व तो लोग सरकार के नाम से भी डरते थे और उसे निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शक्ति का प्रतीक समझते थे। किंतु आज इस संबंध में सर्वसामान्य दृष्टिकोण यह है कि सामान्य व्यक्ति के लिए अच्छी वस्तु तथा सभी व्यक्तियों के लिए अधिक सुविधापूर्ण जीवन तब तक उपलब्ध नहीं कराया जा सकता, जब तक कि काफी मात्रा में सरकार पर निर्भर न रहा जाए। सरकार के प्रति दृष्टिकोण में इस परिवर्तन के अनेक कारण हैं, जिनमें से 

कुछ महत्वपूर्ण कारणों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है -

 

(अ) तकनीकी परिवर्तन तकनीकी परिवर्तनों के कारण भी परस्पर निर्भरता की भावना में वृद्धि हुई है तथा इस कारण भी अनेक लोग ऐसी शक्तियों के बीच कार्य करने में असमर्थ रहते हैं जो कि उनके नियंत्रण से पूरी तरह बाहर होती हैं।

 

(ब) जब व्यावसाय तथा उत्पादन की छोटी-छोटी इकाइयाँ हुआ करती थीं- आर्थिक पद्धति एक स्वयं चलित मशीरनी के रूप में अच्छी प्रकार कार्य करती दिखाई देती थी, वही आर्थिक पद्धति जब एकाधिकारी नियंत्रण के अधीन दलदल में फँसी हुई तथा अनेक प्रकार से शोषण सी करती हुई दिखाई देती हैं। इसी के फलस्वरूप सरकार से यह मांग की जाने लगी कि वह व्यावसायिक मंदी का प्रतिरोध करे तथा अर्द्ध-व्यवसाय को संतुलित रखे। कुछ लोग यहाँ तक जोर डालते हैं कि सरकार को आर्थिक स्थिरता बनाये रखने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी चाहिए, परंतु ऐसा होना तभी संभव हैं जबकि सरकारी खर्च में वृद्धि की जाये ।

 

(स) मानव कल्याण- वर्तमान समय में मानवता की भावना के अधिकाधिक विकास के कारण किसी भी देश में विद्यमान व्यापक गरीबी को बहुत बुरा समझा जाता है ओर उसको मिटाने के लिए सामूहिक पग उठाने का सुझाव दिया जाता है। इस स्थिति में सरकार का सहयोग अनिवार्य हो जाता है और सार्वजनिक कल्याण तथा सार्वजनिक निमाण के कार्यों के लिए उसे भारी व्यय का आशय लेना होता है।

 

(द) आर्थिक व राजनीतिक जटिलताएँ यह भी अनुभव किया जाता है कि आजकल राजनीतिक व आर्थिक - समस्याओं की जटिलताएँ बहुत बढ़ गई हैं। अन्य कारणों में भी एक कारण है जो शिक्षा तथा अन्य अनेक ऐसी कल्याणकारी क्रियाओं के लिए बड़ी मात्रा में खर्च की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है जैसे कि चिकित्सा, मकान, पुलिस तथा गृह प्रशासन आदि ।

 

10. आर्थिक विकास (Economic Development ) - 

अल्पविकसित देशों में भी सरकारी व्यय तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे देशों में अधिकतर देश अपने यहाँ तीव्र आर्थिक विकास के कार्यक्रमों को लागू करते हैं। इन कार्यक्रमों के अंतर्गत परिवहन, संचार तथा विद्युत जैसी मूलभूत आर्थिक सेवाओं की व्यवस्था की जाती है। राज्य के लिए यह आवश्यक होता है कि वह उच्च कोटि के आर्थिक व सामाजिक सेवाओं की व्यवस्था करे ताकि उद्योग धंधे तेजी से विकसित हो सकें। इसके अतिरिक्त अधिकांश आधुनिक सरकारों की यह एक नीति बन गई है कि उत्पादन के प्रयासों में निजी व्यक्तियों की मदद की जाए। कृषकों तथा उद्योगपतियों को उत्पादन (bounties) कर्ज (loans) तथा सहायक अनुदान (grant-in-aid) देकर वे ऐसा करती हैं। यही नहीं, विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करके भी सरकार द्वारा उनकी सहायता की जाती है जैसे कि तकनीकी मार्ग-दर्शन तथा कच्चे माल आदि की सहायता

 

11. आर्थिक नियोजन

 सभी देशों ने रूस की आर्थिक नियोजन की सफलता से प्रभावित होकर अपेन आर्थिक विकास नियोजित रूप में करने आरंभ कर दिये हैं। आर्थिक नियोजन में इस प्रकार के प्रयास किये जाते हैं कि उपलब्ध साधनों का इस प्रकार से शोषण किया जाए ताकि चहुँमुखी आर्थिक विकास के साथ लोगों का जीवन-स्तर ऊँचा उठे तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो आर्थिक नियोजन के लिए सरकार को बड़ी-बड़ी परियोजनाएँ बनानी पड़ती हैं जिनको पूरा करने के लिए काफी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। देश व विदेशों से ऋण लेने के पश्चात् भी यदि व्यय की पूर्ति नहीं होती है तो घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रबंध करना पड़ता है । 

 

12. जनसंख्या में वृद्धि - 

सार्वजनिक व्यय में वृद्धि का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण जनसंख्या वृद्धि दर भी है। बढ़ी हुई जनसंख्या के सुख और सुविधाओं के लिए सरकार को काफी मात्रा में व्यय करना पड़ता है। विगत वर्षों में जनसंख्या में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विगत 45 वर्षों में विश्व की जनसंख्या 155 करोड़ से बढ़कर 415 करोड़ हो गई है। भारत की जनसंख्या 1981 की जनगणना के अनुसार 68.38 करोड़ हो गई है। भारत की आबादी में लगभग 25 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हो रही है। जनसंख्या वृद्धि से न केवल राज्य के प्रशासन के व्यय में वृद्धि होती है बल्कि उनके सुख-सुविधाओं की वृद्धि करने पर राज्य के व्यय में वृद्धि हो जाती है। सरकार को बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, आवास आदि पर काफी मात्रा में व्यय करना पड़ता है।

 

13. अन्य कारण- 

(i) मूल्यों में वृद्धि - 

द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् प्रत्येक देश में कीमतों में बहुत वृद्धि हुई है। मूल्य स्तर में वृद्धि के फलस्वरूप सरकार को पहले की अपेक्षा अधिक व्यय करना पड़ रहा है। एक तो सरकार को स्वयं कई वस्तुएँ एवं सेवाएँ खरीदनी पड़ती हैं तथा द्वितीयतः सरकार उत्पादन के लिए जो भी व्यय का अनुमान लगाती है, कीमतों में वृद्धि होने के कारण सरकार को उस उत्पादन पर पहले की अपेक्षा अधिक खर्च करना पड़ता है।

 

(ii) प्रजातंत्र का भार - 

विश्व में अनेक देशों में प्रजातंत्रीय सरकार है। इसके लिए सरकार को मुख्य चुनाव एवं मध्यावधि चुनाव कराने पड़ते हैं जिनको सम्पन्न कराने के लिए सरकार को काफी व्यय करना पड़ता है। इसके अलावा मंत्री एवं अन्य चुने हुए प्रतिनिधियों पर सरकार को काफी व्यय करना पड़ता है। सरकारों को अन्य देशों से भी कूटनीतिक संबंध बनाये रखने पड़ते हैं। दूसरे देशों में राजदूतावास खोलने पड़ते हैं जिन पर भी सरकार को काफी व्यय करना पड़ता है।

 

(iii) अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग 

वर्तमान युग में प्रत्येक देश को दूसरे देशों से आर्थिक सहयोग करना पड़ता है। प्रत्येक सरकार किसी न किसी देश की ऋण, अनुदान एवं अन्य आर्थिक सहायता देती है। इसके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ जैसे- अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ, एशियन बैंक इत्यादि संस्थाओं को भी समय-समय पर सरकार को सदस्यता शुल्क देना होता है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग बनाये रखने के लिए सरकारों को काफी व्यय करना पड़ रहा है।

 

सार्वजनिक व्यय पर वैगनर के विचार (Wagner's views on Public Expenditure ) - जर्मन अर्थशास्त्री वैगनर ( Wagner) का विचार था कि आर्थिक विकास के कारण सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होना आवश्यक है। वृद्धि का यह अनुपात व्यय के रूप में परिवर्तित होने पर प्रति व्यक्ति उत्पादन बढ़ जाता है। इस प्रकार सकल राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने से कुल उपभोग में वृद्धि हो जाती है।

 

डाल्टन के अनुसार वैगनर के नियम तीन दशाओं में लागू होते हैं- 

(1) आर्थिक प्रगति के कारण सार्वजनिक संस्थाओं की कार्य कुशलता, निजी संस्थाओं से अधिक हो जाती है क्योंकि सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा उत्पादित माल अच्छी किस्म का होता है, बाजार में वस्तुओं की कमी नहीं हो पाती है तथा सार्वजनिक क्षेत्र में पूँजी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। 

(2) सार्वजनिक व्यय से ऐसी सेवाएँ उत्पन्न होती हैं जिनका उपयोग सम्पूर्ण समाज कर सकता है जैसे स्कूल, अस्पताल, पार्क इत्यादि। (

3) कुछ ऐसी नवीन सेवाएं जिनको संस्थाएं नहीं कर सकतीं उनको राज्य सम्पन्न कर सकता है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती जा रही है।

 

वैगनर से पूर्व एंजिल का कहना था कि आय में वृद्धि होने से खाद्यान्न पर आय की लोच इकाई से कम हो जाती है, अर्थात् व्यक्ति की आय में वृद्धि होने पर खाद्यान्न पर व्यय घटता जाता है। आय में वृद्धि होने से लोग खाद्यान्न के स्थान पर आरामदायक एवं विलासिता की वस्तुओं पर अधिक व्यय करने लग जाते हैं। वैगनर के मतानुसार सरकारी सेवाओं के लिए आय की लोच इकाई से अधिक होती है।

 

सार्वजनिक व्यय तथा निजी व्यय में अन्तर 

(Difference between Private and Public Expenditure) - 

सार्वजनिक व्यय तथा नीजी व्यय की समस्या सामान्यतया एक जैसी होती हैं। दोनों ही आय-व्यय के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। दोनों ही पर आर्थिक नियम सामान्य रूप से लागू होते हैं। इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में एक जैसी वित्तीय नीति लागू की जाती है किंतु दोनों में कुछ मौलिक अंतर होते हैं, जो निम्नलिखित हैं

 

(1) आय व्यय का समायोजन (Adjustment between loncome and Expenditure ) - 

राज्य पहले अपने व्यय की मात्रा निश्चित कर लेता है, उसके बाद आय प्राप्त करने के प्रयास करता है, जबकि निजी व्यय प्रायः व्यक्ति की आय पर निर्भर करता है। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय के अनुसार ही व्यय करता है। डाल्टन (Dalton) के शब्दों में, "जबकि एक व्यक्ति अपनी आय के अनुसार व्यय को निश्चित करता है, एक राजकीय संस्था अपनी आय को व्यय के अनुसार निश्चित करती है।"

 

( 2 ) लोच का अन्तर (Difference of Elasticity) 

सार्वजनिक व्यय में लोच नहीं पायी जाती। सार्वजनिक व्यय में वृद्धि तो सरलता से की जाती हैं, किंतु उसे कम करना कठिन होता है। दूसरी ओर निजी व्यय में लोच (elasticity) पायी जाती है, क्योंकि इसमें सरलतापूर्वक कमी और वृद्धि की जा सकी है।

 

(3) क्षेत्र का अन्तर (Difference of Scope ) - 

सरकारी व्यय का क्षेत्र विस्तृत होता है, क्योंकि सरकार का कार्य-क्षेत्र पर्याप्त व्यापक होता है, जबकि निजी व्यय का क्षेत्र सीमित होता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का कार्य-क्षेत्र सीमित होता है।

 

(4) व्यय की इच्छा (Willingness of Expenditure) - 

सार्वजनिक व्यय ऐच्छिक नहीं होता। सरकारी आय को सामाजिक कल्याण के लिए व्यय करना आवश्यक होता है, किंतु निजी व्यय व्यक्ति की अपनी अच्छा पर निर्भर करता है। निजी व्यय में व्य की अनिवार्यता नहीं होती। 


5) प्रत्यक्ष लाभ (Direct Benefit ) - 

सार्वजनिक व्यय में प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता जैसे- अकाल, बाढ़, युद्ध आदि पर किये गए व्यय से सरकार को कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता। व्यक्ति को अपने प्रत्येक व्यय से प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होता है ।

 

(6) उद्देश्य (Object) - 

सार्वजनिक व्यय का उद्देश्य सामाजिक कल्याण (Social welfare) होता है, जबकि निजी व्यय का उद्देश्य व्यक्तिगत कल्याण ( Individual welfare) होता है।

 

(7) नियंत्रण (Control) - 

सार्वजनिक व्यय पर संसद का नियंत्रण होता है, जबकि निजी व्यय पर किसी व्यक्ति विशेष का नियंत्रण होता है।

 

(8) मितव्ययिता (Economy)- 

सार्वजनिक व्यय करते समय मितव्ययिता पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, जबकि निजी व्यय के संचालन में मितव्ययिता का पूरा ध्यान रखा जाता है।

 

(9) प्रभाव (Effects) – 

सार्वजनिक व्यय का प्रभाव पूरे समाज या राष्ट्र पर पड़ता है, जबकि निजी व्यय का प्रभाव किसी व्यक्ति विशेष पर ही पड़ता है।

 

लोक व्यय तथा आर्थिक जीवन (Public Expenditure and Economic Life) 

सरकारी व्यय किसी देश के आर्थिक जीवन को कई प्रकार से प्रभावित कर सकता है। उत्पादन तथा वितरण के स्तर में सुधार लाने तथा आर्थिक स्थिरता बनाये रखने के लिए सरकारी व्यय का आश्रय लिया जा सकता है। कृषि तथा उद्योगों के लिए ऋण तथा उपादान स्वीकृति करके उत्पादन के स्तर में वृद्धि की जा सकती है। सरकारी खर्च के द्वारा तकनीकी जानकारी परिहन तथा संचार के साधन और बिजली आदि की व्यवस्था की जा सकती है ताकि उत्पादन वृद्धि को प्रोत्साहन मिले। सरकारी खर्च के द्वारा अत्यावश्यक जीवनोपयोगी पदार्थों तथा पूँजीगत माल का उत्पादन आरम्भ किया जा सकता है और नीजी उद्यमों से प्रतियोगिता की जा सकती है। इस प्रकार, सरकारी खर्च के द्वारा वितरण के सम्पूर्ण ढाँचे में ही परिवर्तन किया जा सकता है। ऐसा एक ओर तो सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाकर तथा सामाजिक सुरक्षा व चिकित्सा सुविधाओं आदि की व्यवस्था करके किया जा सकता है और दूसरी ओर उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करके तथा भूमि का अधिग्रहण करके ऐसा किया जा सकता है। सरकारी व्यय आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में भी पर्याप्त सहायक होता है। मन्दी काल में खर्च को बढ़ाकर तथा मुद्रा-स्फीति में इसे घटाकर ऐसा किया जा सकता है और इस प्रकार देश के आर्थिक जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों को रोका जा सकता है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि सरकारी खर्च सरकार की आर्थिक नीति का एक ऐसा महत्वपूर्ण अस्त्र बन सकता है कि जिसके द्वारा उत्पादन तथा वितरण में सुधार लाया जा सके और आर्थिक स्थिरता कायम रखी जा सके। परंतु यहाँ यह नहीं मान लेना चाहिए कि आर्थिक नीति के केवल इस पहलू से ही वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। अन्य भी बहुत से उपाय हैं जैसे कि मौद्रिक उपाय, आर्थिक नियंत्रण तथा कराधान आदि यदि आर्थिक नीति में उल्लिखित लक्ष्यों को प्राप्त करना है तो इन उपायों को भी इस दिशा में क्रियाशील बनाना होगा। इससे आर्थिक नीति अधिक कारगत तथा प्रभावशाली बन जाएगी।

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