पृथ्वी और चंद्रमा |चंद्रमा और पृथ्वी के बीच संबंध |ग्रहण और चंद्रकलाएं सूर्य ग्रहण- चंद्र ग्रहण चंद्रकलाएं |Earth and Moon Relation in Hindi

चंद्रमा और पृथ्वी के बीच संबंध , ग्रहण और चंद्रकलाएं सूर्य ग्रहण-  चंद्र ग्रहण चंद्रकलाएं

पृथ्वी और चंद्रमा |चंद्रमा और पृथ्वी के बीच संबंध |ग्रहण और चंद्रकलाएं सूर्य ग्रहण-  चंद्र ग्रहण चंद्रकलाएं |Earth and Moon Relation in Hindi
 

 पृथ्वी और चंद्रमा (Earth and Moon)

  • चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है तथा पृथ्वी की परिक्रमा करता है। पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए वह स्वयं अपने अक्ष पर घूर्णन भी करता है। चंद्रमा का अक्ष तल पृथ्वी के अक्ष तक के साथ 58.48° का कोण बनाता है। चंद्रमा का अक्ष पृथ्वी के अक्ष के लगभग समान्तर है। चंद्रमा का व्यास 3, 480 कि.मी. तथा द्रव्यमानपृथ्वी के द्रव्यमान का लगभग 1/81 है। पृथ्वी के ही समान इसका परिक्रमण पथ भी दीर्घवृत्ताकार है। 
  • चंद्रमा के अपने परिक्रमण पथ में पृथ्वी के निकटतम होने की स्थिति को उप कहा जाता हैतथा दूरतम होने की स्थिति को अपभू कहा जाता है। अतः पृथ्वी तथा चंद्रमा के बीच की दूरी में परिवर्तन होता रहता है। उपभू (Perigee) की अवस्था में इनके बीच की दूरी 356,000 कि.मी. होती है तथा अपभू (Apogee) की स्थिति में यह दूरी लगभग 407,000 कि.मी. होती है। 

  • चंद्रमा एक महीने की अवधि में पृथ्वी के चारों ओर एक बार परिक्रमा करता है। इस दृष्टिकोण से अपभू और उपभू मासिक परिस्थितियां हैं। सूर्य के संदर्भ में चंद्रमा की परिक्रमा की अवधि 29.53 दिन (29 दिन, 12 घंटे 44 मिनट और 2.8 सैकेंड) होती है। इस समय को एक साइनोडिक मास कहते हैं। 


  • नक्षत्र समय दृष्टिकोण से चंद्रमा लगभग 274 दिन ( 27.32 दिन था 27 दिन 7 घंटे 43 मिनट और 11.6 सैकेंड में पुन: उसी स्थिति में होता है। 27 दिन की यह अवधि एक नक्षत्र मास कहलाती है। यह यही अवधि होती है जिससे चंद्रमा पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण करता है।
  • इस प्रकार  सूर्य के संदर्भ में पृथ्वी की परिक्रमा  करने में चंद्रमा को जो  समय लगता  है यह वह नक्षत्र  मास की अपेक्षा अधिक लम्बा  समय होता है। ऐसा होने का वास्कातविक काटन  पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा किया जाना है जिसके कारण चंद्रमा को सूर्य तथा पृथ्वी के सन्दर्भ में   अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त करते. के लिए अपेक्षाकृत अधिक दूरी तय करनी पड़ती है।

 

  • जैसा कि पहले बताया गया है कि पृथ्वी के समान चंद्रमा भी अपनी धुरी  पर घूर्णन  करता है। अपने अक्ष पर एक चक्कर लगाने में उसे जो समय लगता है यह एक नक्षत्र मास के समान होता है। चंद्रमा और पृथ्वी के बीच इन संबंधों के परिणामस्वरूप हम पृथ्वी से हमेशा चंद्रमा के एक ही भाग को देखते हैं। पृथ्वी से चंद्रमा का संपूर्णत नहीं देखा जा सकता। इसका केवल 59%  (चंद्रमा के कुल तल का भाग) भाग ही पृथ्वी से दिखाई देता है तथा शेष ४१% भाग हम कभी नहीं देख पाते। वास्तविक रूप में किसी एक समय हम चन्द्रमा का केवल 50 प्रतिशत भाग ही देखते हैं तथा 9 प्रतिशत भाग समय-समय पर दृश्यमान होता जब चंद्रमा के प्रकाशित भाग की स्थिति में परिवर्तन होता है।

 

ग्रहण और चंद्रकलाएं 

  • किसी  खगोलीय पिंड के पूर्ण या आंशिक रूप से अंधकारमय हो जाने उया  किसी अन्य खगोलीय पिंड के उसके प्रकाश मार्ग में से गुजरने के कारण ग्रहण होता है। यधपि ग्रहण  किसी  भी  खालोगीय पिंड का हो सकता है परंतु पृथ्वी से दिखने वाले दो प्रकार के ग्रहण सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। ये दो ग्रहण है चंद्र ग्रहण तथा सूर्य ग्रहण। 
  • ग्रहण तब होता है जब किसी खगोलीय पिंड की छाया किसी अन्य खगोलीय पिंड पर पड़ती है। ग्रहण की स्थिति उत्पन्न करते वाली छाया का आंतरिक भाग शंकु आकार का होता है जिसे Umbra कहा जाता है तथा बाहरी हल्की छाया वाले भाग को Penumbra कहा जाता है.
  • पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए उसका उपग्रह (चंद्रमा) सूर्य की भी परिक्रमा करता है। चंद्रमा की कक्षा में पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर कक्षा के सापेक्ष 59 का झुकाव है। इस प्रकार चंद्रमा पृथ्वी के कक्षा तल को महीने में दो बार काटता है। जब चंद्रमा पृथ्वी के परिक्रमण पथ से गुजरता है अथवा जब पृथ्वी एवं चंद्रमा के परिक्रमण पथ एक दूसरे की परस्पर काटते हैं तो प्राप्त बिंदुओं को nodes कहते और चंद्रमा एक सीधी रेखा में स्थित हो तो ऐसी स्थिति को सायजिगी या युन-वियुति कहते हैं

 

सूर्य ग्रहण- 

  • पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने के कारण चंद्रमा अपनी प्रत्येक परिक्रमा में सूर्य और पृथ्वी के बीच से गुजरता है। ऐसी स्थिति में चंद्रमा सूर्य की पूर्ण या आंशिक रूप से छुपा देता है। इस परिस्थिति को सूर्य ग्रहण कहते हैं। अन: जब सूर्य तथा चंद्रमा दोनों पृथ्वी के एक ही ओर होते हैं तो सूर्य ग्रहण होता है। ऐसी स्थिति में पृथ्वी से चंद्रमा को नहीं देखा जा सकता है क्योंकि इस समय चंद्रमा का प्रदीप्न भाग पृथ्वी से परे होता है। इसीलिए सूर्य ग्रहण अमावस्या के दिन होते है। 
  • सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण पूर्ण तथा आंशिक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। पूर्ण सूर्य ग्रहण की स्थिति चंद्रमा और सूर्य के पृथ्वी में दिखने वाले व्यास के एक समान होने पर अथवा चंद्रमा के व्यास के बड़ा होने पर होती है। पृथ्वी से दिखाई देने वाले व्यासों में यह अंतर पृथ्वी एवं चंद्रमा के बीच दूरी पर निर्भर करता है। 
  • यदि  चंद्रमा का पृथ्वी से दिखने वाला व्यास सूर्य से छोटा होगा तो वह सूर्य को अदृश्य कर पाने में असमर्थ होगा। ऐसी स्थिति में सूर्य का कुछ भाग एक छल्ले के समान  चंद्रमा के चारों ओर दिखाई पड़ेगा। इसे आंशिक या वलय सूर्यग्रहण कहते हैं ।पृथ्वी के घूर्णन करने और चंद्रमा के पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा करने के कारण चंद्रमा की छाया पृथ्वी तल होकर गुजरती है। इस छाया वाले क्षेत्र से पृथ्वी से  सूर्य को नहीं देखा जा सकता। इस स्थिति को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। इस छाया  के क्षेत्र को संपूर्णता का क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्र 260 कि.मी. चौड़ा होता है। इस क्षेत्र में पूर्ण सूर्य ग्रहण देखा जाता है। इस क्षेत्र के बाहर दोनों ओर ग्रहण के समय भी सूर्य का कुछ भाग दिखाई देता रहता है और ग्रहण आंशिक होता है। जब सूर्य, - चंद्रमा और पृथ्वी एक सीधी रेखा में नहीं होते तो भी सूर्य ग्रहण आंशिक होता है,

 

  • बिना किसी संपूर्णता के क्षेत्र के पूर्ण सूर्य ग्रहण केवल थोड़े से समय के लिए होता है । साधारणतः यह 7.5 मिनट से अधिक समय के लिए नहीं होता है। इसका कारण सूर्य तथा पृथ्वी की पारस्परिक स्थिति में परिवर्तन होते रहना है।

 

चंद्र ग्रहण - 

  • जैसे कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है वैसे ही चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करता है। इन परिक्रमाओं के परिणामस्वरूप पृथ्वी को भी चंद्रमा तथा सूर्य के बीच से गुजरना पड़ता है जिस कारण चंद्र ग्रहण होता है। 
  • चंद्र ग्रहण तब होता हैजब सूर्य तथा चंद्रमा पृथ्वी के दोनों ओर परस्पर विपरीत दिशा में होते हैं। इस स्थिति में चंद्रमापृथ्वी की छाया पड़ने के कारण अंधकारमय हो जाता है। (इसलिए चंद्रग्रहण पूर्णमासी के दिन होता है। 
  • यदि सूर्यचंद्रमा और पृथ्वी की स्थिति पूर्णतया एक सीधी रेखा तथा एक ही तल में नहीं होती है तो चंद्रग्रहण पूर्ण ग्रहण न होकर आंशिक रह जाता है।
  • पूर्ण ग्रहण के लिए आवश्यक है कि पृथ्वीचंद्रमा और सूर्य न केवल एक सीधी रेखा में हों बल्कि एक ही तल पर भी हों। यही कारण है कि प्रत्येक अमावस्या तथा पूर्णमासी को ग्रहण नहीं होते । 
  • चंद्र ग्रहण भी पूर्ण या आंशिक रूप से हो सकता है। जब चंद्रमा पूरी तरह "से पृथ्वी की छाया से ढक जाता है तो पूर्ण चंद्र ग्रहण होता है। इसके विपरीत जब यह पृथ्वी की छाया से पूर्णतया ढका नहीं होता है तो ग्रहण केवल आंशिक होता है और चंद्रमा का कुछ भाग दिखाई देता रहता है। 
  • सामान्यतया एक वर्ष में पांच सूर्य ग्रहण और तीन चंद्र ग्रहण होते हैं परंतु किसी स्थान विशेष से एक निश्चित समय अवधि में चंद्र ग्रहण अधिक दिखाई पड़ेंगे। इसका कारण है कि जहां चंद्र ग्रहण संपूर्ण गोलार्द्ध में दिखाई पड़ता है वहीं सूर्य ग्रहण केवल विश्व के एक भाग में ही दिखाई देता है। 
  • पूर्णतया एक जैसे ग्रहण 18 वर्षों के अंतराल के बाद दिखाई पड़ते हैं। इस अवधि को saros अवधि कहते हैं। इस समय अवधि में पृथ्वीसूर्य और चंद्रमा अपनी उसी पारस्परिक परिस्थिति में पुनः वापस आ जाते हैं।

 

चंद्रकलाएं - 

  • जब सूर्य और चंद्रमा दोनों पृथ्वी के एक ही ओर होते हैं तो इस स्थिति को चन्द्रमास (Synodic month) का आरंभ माना जाता है। चंद्रमा इस समय पृथ्वी से नजर नहीं आता है और इस स्थिति को 'अमावस्याकहा जाता है इस स्थिति के 3.75 दिन बाद चंद्रमा का केवल एक पतला भाग दिखाई पड़ने लगता है। इस स्थिति को क्रिसेंट चंद्रमा (crescent moon) तथा अमावस्या से 7.5 दिन बाद की स्थिति को पहला चतुर्थक कहते हैं। इस समय चंद्रमा आधा दिखाई पड़ता है। 
  • अमावस्या के लगभग 11.25 दिन बाद 3/4 चंद्रमा प्रकट होता है । इस स्थिति को gibbous moon कहते हैं। 
  • जब चंद्रमा का संपूर्ण भाग पृथ्वी से दिखाई पड़ता है तो उसे पूर्ण चंद्रमा कहते हैं और इस स्थिति को 'पूर्णमासीकहा जाता है । यह स्थिति अमावस्या के 14.75 दिन के पश्चात् उत्पन्न होती है।
  • चन्द्रमास के शेष दिनों में चंद्रमा की यही स्थितियां पुनः उलटे क्रम में दोहराई जाती हैं। चंद्रमा के पुनः पूरी तरह से अदृश्य हो जाने परलगभग 29 दिन की अवधि में एक चन्द्रमास पूर्ण हो जाता है।
  • अमावस्या से पूर्णमासी तक की अवधि को शुक्ल पक्ष तथा पूर्णमासी से अमावस्या तक की अवधि को कृष्ण पक्ष कहते हैं।

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