वित्त मन्त्रालय की भूमिका का मूल्यांकन | वित मन्त्रालय की आलोचना |Evaluation of the Role of Finance Ministry
वित्त मन्त्रालय की भूमिका का मूल्यांकन, वित मन्त्रालय की आलोचना
वित्त मन्त्रालय की भूमिका का मूल्यांकन
वित्त मन्त्रालय की भूमिका का मूल्यांकन निम्न प्रकार किया जा सकता है :
1. कार्यपालिका का नियन्त्रण (Control of Executive) :
संसदीय पद्धति के अन्तर्गत बजट पर नियन्त्रण सिद्धान्त तो संसद का माना जाता है क्योंकि बजट के अन्त में संसद की स्वीकृति मिलनी चाहिए, परन्तु व्यवहार में बजट का सारा नियन्त्रण कार्यपालिका का स्थापित हो जाता है क्योंकि कार्यपालिका को ही बजट प्रस्तावित करने का अधिकार होता है चाहे घटाने या हटाने का अधिकार भले ही संसद का है।
2. कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका में सम्बन्धों की घनिष्ठता ( Close Relations between Executive and Legislature ) :
भारत में संसदीय शासन व्यवस्था अपनाई गई है जिसके फलस्वरूप कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में घनिष्ठतम सम्बन्ध स्थापित हो गया है। संसद के प्रति अपने हर कार्य के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से उत्तरदायी रहते हुए मंत्रीगण संसद के नेता के रूप में उभरते हैं।
3. वित्त मंत्रालय की शक्ति में वृद्धि (Increase in the Powers of the Ministry of Finance) :
संसदीय प्रशासन में कार्यपालिका की यह शक्ति अन्त में वित्त मंत्रालय की शक्ति बन जाती है क्योंकि जिस प्रकार पूरा वित्तीय प्रशासन चलता है उनमें वित्त मंत्रालय की भूमिका सर्वप्रथम और अत्यधिक महत्वपूर्ण बन जाती है। उसी के नेतृत्व में सारा बजट तैयार होता है, उसी के निरीक्षण में सारा व्यय किया जाता है।
वित मन्त्रालय की आलोचना (Criticism of Ministry of Finance)
आलोचकों का कथन है कि वर्तमान समय में वित्त मन्त्रालय न केवल वित्तीय पक्ष की बल्कि विकास योजनाओं तथा उद्यमों के कार्यक्रमों की तकनीकी बारीकियों की जाँच करने का प्रयास करता है जिनमें उनकी योग्यता संदिग्ध है। इसके परिणामस्वरूप न केवल अन्य विभाग परेशान होते हैं बल्कि समय नष्ट होता है।
श्री अशोक चन्द्रा ने लिखा है, "अन्त में वित्त मन्त्रालय राजी हो जाता है, लेकिन बहुत सारी बहस के बाद और उसका नियन्त्रण प्रस्थापना प्रस्तावों (Establishment Proposals) पर स्थापित हो जाता है जो पूरी लागत का नगण्य अंश होते हैं, इसलिए वित्त मन्त्रालय मक्खी पर तो लड़ते हैं परन्तु फिर भी उन्हें ऊँट ही निगलना पड़ता है।" व्यय पर व्यापक नियन्त्रण की बात की चर्चा करते हुए अमेरिकी विशेषज्ञ डी. एपलिबी (D. Appleby) ने आलोचना की थी कि, "आवश्यकता इस बात की है कि वित्त मंत्रालय बजाय इसके कि बजट बनाने के पश्चात् खचों पर व्यापक नियन्त्रण लगाए, उसको अपना अधिक ध्यान श्रेष्ठतर बजट निर्माण पर ही केन्द्रित करना चाहिए। वस्तुतः व्यय का गूढ़ एवं लाभप्रद नियंत्रण तो केवल कार्यक्रम योजनायें बनाने वाले अभिकरणों (Agencies) में भी किया जा सकता है। ये अभिकरण उपयुक्त ढंग के बजट कार्यक्रम प्रस्तुत करना उसी समय प्रारम्भ कर सकेंगे जबकि इस श्रेष्ठतर प्रकार से द्वितीय प्रबन्ध के बारे में उन्हें अनुभव होगा।
इस प्रकार वित्त मन्त्रालय अपने उत्तरदायित्व की दृष्टि से उपयुक्त प्रकार का बजट केवल तभी प्रस्तुत कर सकता है जबकि अन्य मन्त्रालय बजट निर्माण का कार्य उन्नत तथा विकसित ढंग से करें। "
ए.डी. गोरवाला का कथन है, "वित्तीय मामलों के सम्बन्ध में, वास्तविक रूप में आवश्यकता नियन्त्रण की है हस्तक्षेप की नहीं। आज जो कुछ हो रहा है वह यह है कि छोटे-छोटे मामलों में उत्तेजनात्मक हस्तक्षेप किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप प्रशासकीय विभागों अर्थात् सरकार के एक बड़े भाग की शक्ति तथा समय का भारी अपव्यय होता है और उसमें निराशा पैदा होती है। यह स्थिति समाप्त की जानी चाहिए।
वित्त मन्त्रालय के सम्बन्ध में अनुमान समिति के सुझाव
(Suggestions of Estimate Committee Regarding Ministry of Finance)
अनुमान समिति ने अपने नवें प्रतिवेदन में इस बात पर जोर दिया कि वित्त मन्त्रालय तथा प्रशासकीय मन्त्रालयों के मध्य समन्वय होना चाहिए और प्रशासकीय मन्त्रालयों को आर्थिक वित्तीय प्राधिकार (Financial Authority) सौंपी जानी चाहिए। समिति की सलाह थी कि प्रशासकीय मन्त्रालयों तथा वित्त मन्त्रालयों के बीच पूर्ण सौहार्द (Cordiality) की स्थापना करने के लिए इस दिशा में सक्रिय कदम उठाए जाने चाहिए ताकि वे एक-दूसरे के पूरक बने रहें और अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति में एक-दूसरे के सहायक रहें। समिति ने अपनी विस्तृत प्रबन्ध के अनेक पक्षों की आलोचना के साथ-साथ निम्नांकित सिफारिशें की थीं :
(1) योजना के कार्यान्वयन का दायित्व :
वित्त मन्त्रालय द्वारा वित्तीय दृष्टिकोण से योजना पर सहमति प्रकट किए जाने के पश्चात् योजना के व्यापक कार्यान्वयन तथा उस पर धन व्यय करने का उत्तरदायित्व संबंधित प्रशासकीय मंत्रालय का होना चाहिए जिसको यह अधिकार भी होना चाहिए कि वह योजना के उपशीर्षकों की धनराशियों में उस सीमा तक परिवर्तन कर सके जहाँ तक की योजना की कुल लागत पर उसका प्रभाव पड़े।
(2) योजना की समुचित रूपरेखा :
किसी भी योजना का आरम्भ करने से पहले उसकी समुचित रूप-रेखा बनाई जानी चाहिए और इस बात की भी पड़ताल की जानी चाहिए कि उस योजना के लिए आवश्यक धन उपलब्ध है या नहीं अथवा उपयुक्त समय पर वह उपलब्ध किया जा सकता है या नहीं।
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