वित्त प्रशासन की समस्याएं और सम्भावनाएं | वित्तीय प्रबंध का अर्थ एवं परिभाषा प्रकृति अथवा विशेषताएँ | Financial Management in Hindi
वित्त प्रशासन की समस्याएं और सम्भावनाएं
वित्त प्रशासन की समस्याएं और सम्भावनाएं
- वित्त व्यवसाय का मूलाधार है। कोई भी व्यवसाय वित्त के बगैर न तो प्रारम्भ किया जा सकता है और न उसका विकास सम्भव है। व्यवसाय की सफलता वित्त की पर्याप्त एवं वित्त के प्रभावपूर्ण प्रबंध पर निर्भर करती है। व्यक्तिगत व्यावसायिक संगठनों (एकाकी स्वामित्व एवं साझेदारी संगठनों) की वित्तीय व्यवस्था करना सरल होता है। इनका स्वरूप व्यक्तिगत होता है तथा इनकी वित्तीय आवश्यकताएँ सीमित होती हैं। परन्तु व्यावसायिक संगठनों का स्वरूप अव्यक्तिगत होने पर उनकी वित्तीय व्यवस्था करना अधिक कठिन हो जाता है। निगम उपक्रमों की वित्त व्यवस्था उनके अव्यक्तिगत स्वरूप तथा वित्त की अधिक मात्रा में आवश्यकता के कारण अत्याधिक जटिल एवं कठिन होती हैं। वित्तीय प्रबंध इन जटिलताओं एवं कठिनाइयों का समाधान करता है। यहाँ पर हम पहले वित्तीय प्रबंध का अर्थ स्पष्ट करने से पूर्व वित्त के प्रकार तथा उनका अर्थ जानना चाहेंगे।
सामान्यतः वित्त के निम्न दो प्रकार बताये गये हैं:
1. सार्वजनिक वित्त (Public Finance) तथा
2. निजी वित्त (Private
Finance)
सार्वजनिक वित्त का
तात्पर्य राजकीय वित्त से होता है। सार्वजनिक वित्त में इस बात का अध्ययन किया
जाता है कि विभिन्न सार्वजनिक सत्ताएँ किस प्रकार अपनी वित्तीय व्यवस्था करती हैं।
सार्वजनिक सत्ताओं में केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारें तथा
स्थानीय निकाय सम्मिलित होते हैं। सार्वजनिक वित्त में यह देखा जाता है कि
सार्वजनिक सत्ताएँ किस प्रकार अपनी आय प्राप्त करती हैं तथा इस आय को किस प्रकार
सार्वजनिक हित में व्यय करती हैं। सार्वजनिक वितरण में सार्वजनिक ऋण को भी शामिल
किया जाता है। संक्षेप में, सार्वजनिक वित्त में सार्वजनिक आय व्यय तथा ऋण
सिद्धान्तों एवं व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।
निजी वित्त का तात्पर्य
निजी व्यक्तियों एवं संस्थाओं के वित्त से होता है। इसके अन्तर्गत इस बात का
अध्ययन किया जाता है कि विभिन्न व्यक्ति तथा निजी संस्थाएँ किस प्रकार आय प्राप्त
करती हैं तथा उस आय को किस प्रकार अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यय करती
हैं। निजी वित्त को तीन उप-विभागों में बाँटा जा सकता है- वैयक्तिक वित्त (Personal
Finance) व्यावसायिक वित्त (Business Finance) तथा गैर-लाभ
कमाने वाली संस्थाओं का वित्त (Non-profit Earning Institution Finance) वैयक्तिक वित्त
में व्यक्ति के द्वारा दैनिक कार्यों में धन के प्रबंध की आधारभूत बातों का अध्ययन
किया जाता है। व्यावसायिक वित्त में लाभोपार्जन के उद्देश्य से संचालित किये जाने
वाले उपक्रमों की वित्तीय व्यवस्था का अध्ययन किया जाता है। गैर-लाभ कमाने वाली
संस्थाओं के वित्त में शैक्षिक, मूर्त तथा धार्मिक संस्थाओं के वित्त संबंधी
सिद्धांतो एवं व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है।
वित्त के उपरोक्त प्रकारों के अतिरिक्त आज वित्त के नये-नये क्षेत्र वित्त की विशिष्ट आवश्यकताओं एवं समस्याओं के समाधान हेतु विकसित हुए हैं जैसे बड़े उपक्रमों की वित्तीय व्यवस्था के लिए संस्थागत वित्त (Institutional Finance) का विकास हुआ है। अनेक विशिष्ट औद्योगिक वित्त संस्थाएँ इस कार्य के लिए स्थापित हुई हैं जैसे भारतीय औद्योगिक वित्त निगम, भारतीय औद्योगिक विकास बैंक, राज्य वित्त निगमें आदि। दुनिया के सभी देशों का विदेशी व्यापार तेजी से बढ़ रहा है। विदेशी व्यापार की सुगम वित्त व्यवस्था तथा जटिल प्रक्रियाओं को हल करने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय वित्त (International Finance) का विकास हुआ तथा अनेक नई राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ वित्त की व्यवस्था हेतु स्थापित की गई हैं। विदेशी मुद्रा एवं विनियम सम्बन्धी समस्यायें भी इसी के अन्तर्गत हल की जाती हैं।
व्यावसायिक वित्त का
संबंध लाभोपार्जन के उद्देश्य से संचालित किये जाने वाले उपक्रमों की वित्तीय
व्यवस्था करने से होता है। यह एक व्यापक शब्द है, इसका वास्तविक अर्थ समझने
के लिए व्यवस्था एवं वित्त शब्दों का अर्थ समझना आवश्यक है। सामान्य बोलचाल की भाषा
में व्यवसाय का अर्थ किसी छोटी अथवा बड़ी दुकान अथवा स्टोर में वस्तुओं के बेचने
से लिया जाता है। परन्तु यह व्यवसाय का बहत संकुचित अर्थ है। व्यवसाय का विस्तृत
अर्थ उन समस्त मानवीय क्रियाओं से है जो लाभ के उद्देश्य से संचालित की जाती हैं
और जिनके द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की वस्तुएँ एवं सेवाएँ उत्पादित की जाती हैं।
इस अर्थ में कृषि, मत्स्य पालन, खनन, औद्योगिक, वाणिज्यिक तथा
परिवहन के कार्य व्यवसाय के अन्तर्गत आते हैं। इस तरह वकालत, डॉक्टरी, नर्सिंग, लेखांकन आदि
सेवाएँ व्यवसायिक क्रियाएँ हैं जिनके द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि होती
है। वित्त का तात्पर्य मुद्रा से होता है तथा वित्त में इस बात का अध्ययन किया
जाता है कि किस प्रकार परिवार, व्यवसायी, विनियोक्ता, सरकारें तथा
वित्तीय संस्थाएँ अपनी मुद्रा का प्रबन्ध अथवा संचालन करती हैं। अतः अब हम कह सकते
हैं कि व्यावसायिक वित्त का तात्पर्य समस्त प्रकार के व्यावसायिक संगठनों की समस्त
क्रियाओं की वित्तीय व्यवस्था करना होता है। व्यावसायिक वित्त के व्यावसायिक
आवश्यकताओं के लिए विभिन्न साधनों से उचित शर्तों पर वित्त प्राप्त करना तथा
व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उसका उपयोग एवं प्रबंध करना शामिल है।
व्यावसायिक वित्त का
प्रादुर्भाव (Evolution of Business Finance)
- बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ होने के पूर्व तक वित्त का अध्ययन अर्थशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता था, परन्तु बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ होने के बाद छोटे उद्योगों के विलीनीकरण द्वारा बड़े उद्योगों की स्थापना होने से प्रबंधकों के सामने बड़े उद्योगों की वित्तीय व्यवस्था करने की समस्याएँ उत्पन्न हुई। इन समस्याओं के समाधान में वित्त विषय का विशेष योगदान होने के कारण वित्त का एक पृथक विषय के रूप में अध्ययन किया जाने लगा। अधिकांश बड़े उपक्रम, निगम पद्धति पर संगठित होने के कारण निगम वित्त' के नाम से अनेक पुस्तकें इस विषय पर प्रकाशित हुई। 'निगम वित्त' नामक पुस्तकों में निगमों के प्रवर्तन, पूँजीकरण, पूँजी ढाँचे के चुनाव, प्रतिभूतियों के विपणन, वित्तीय अनुबंधों की शर्तों आदि का विस्तृत वर्णन देखने को मिलता है। इसलिए व्यावसायिक वित्त विषय प्रारम्भ में वर्णनात्मक विषय था । विषय के प्रारम्भिक विकासकर्ताओं में ग्रीव, मीड, डेविंग, लिओन आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
- तीसा की महान मंदी के पूर्व तक "निगम-वित्त में विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों से वित्तीय साधन प्राप्त करने तथा वित्तीय संस्थाओं के कार्यों एवं भूमिका को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में अमेरिका के आर्थिक पटल पर रेडियो, रसायन, इस्पात, मोटरगाड़ी जैसे नवीन उद्योगों का तेजी से विकास हुआ तथा राष्ट्रीय विज्ञापन, उन्नत वितरण विधियों एवं ऊँचा लाभों का महत्त्व बढ़ गया। तीसा की महान् मंदी के परिणामस्वरूप अधिकांश व्यवसायों के सामने तरलता की विकट समस्या उत्पन्न हो गई थी। व्यवसायी लोग अपने व्यवसाय की दिन-प्रति-दिन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से वित्त प्राप्त करने में अत्याधिक कठिनाईयाँ अनुभव करने लगे थे। इसलिए उन्हें तरलता की माँग को पूरा करने के लिए अपने निर्मित माल के स्टॉक को शीघ्र तथा अधिक मात्रा में बेचने के लिए विवश होना पड़ता था, परन्तु माल के मूल्यों में कमी के कारण उन्हें पर्याप्त वित्त उपलब्ध नहीं हो पाता था। इससे फर्मों के वित्तीय प्रबंधन में अनेक परिवर्तन हुए। वित्तीय नियोजन एवं नियंत्रण को अधिक महत्व दिया जाने लगा। मंदी के समय वित्तीय प्रबंधकों द्वारा व्यावसायिक संगठनों को दिवालिया तथा बंद होने की समस्या से बचाने के लिए रक्षात्मक नीति का अनुसरण किया गया। भूतकाल की तरह से व्यावसायिक वित्त के क्षेत्र में इस दशक में भी फर्मों के जीवन काल में घटित होने वाले वित्तीय संकटों पर ही अधिक ध्यान दिया जाता था।
- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उद्योगों के पुनर्गठन ने शान्तिकालीन आवश्यकताओं के लिए व्यवसाय के सामने पूँजी बाजार में बड़ी मात्रा में पूँजी प्राप्त करने की समस्याएँ उत्पन्न की। बीसवीं शताब्दी के इस पंचक दशक में भी वित्तीय विशेषज्ञों ने भूतकाल की तरह से उद्योगों को ऐसे वित्तीय ढाँचे को चुनने को अधिक महत्व प्रदान किया जो युद्धोपरान्त के समायोजनों के दबाव एवं भार को वहन कर सकें। इस प्रकार व्यावसायिक वित्त को परम्परागत धारण, जिसका विकास बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शुरू हुआ था, 1950 तक अत्याधिक लोकप्रिय रही। सन् 1950 के बाद अनेक नवीन परिवर्तन हुए जिनके कारण व्यावसायिक वित्त की परम्परागत विचारधारा का महत्त्व समाप्त हो गया तथा व्यावसायिक वित्त की नवीन विचारधारा का विकास हुआ। बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में अमेरिका की अर्थव्यवस्था में एक तरफ व्यावसायिक क्रियाओं में तेजी से वृद्धि हुई तथा दूसरे तरफ निराश स्टॉक एक्सचेन्ज तथा कठोर मुद्रा बाजार की परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। ऐसी स्थिति में लाभ विश्लेषण की तुलना में रोकड विश्लेषण को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। वित्तीय विशेषज्ञों को यह दायित्व सौंपा गया कि वे फर्म के रोकड़ प्रवाहों को इस प्रकार नियन्त्रित करें जिससे फर्म अपने उद्देश्यों को संतोषप्रद ढंग से पूरा कर सके तथा अपने दायित्वों को देय होने पर चुका सके। अब संस्थागत तथा बाह्य वित्त की अपेक्षा फर्म के दिन-प्रति-दिन के कार्यों की वित्तीय व्यवस्था को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाने लगा। रोकड़ पूर्वानुमान, रोकड़ बजट प्राप्य बिलों के प्रबंध, क्रय विश्लेषण तथा सामग्री नियन्त्रण आदि को वित्तीय प्रबंध में विशेष स्थान दिया जाने लगा ।
- इस शताब्दी के छठे दशक में व्यावसायिक वित्त के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोण में जो परिवर्तन दिखायी दिया था वह 1960 के बाद अधिक तेज हो गया। 1960 के बाद प्रतिष्ठित उद्योगों में लाभ के अवसर कम होने तथा मुद्रा बाजार की आसान स्थिति के कारण पूंजी को ऐसे क्षेत्रों में विनियोजित करने की समस्या उत्पन्न हुई जिसमें अधिक लाभ के अवसर विद्यमान हों। ऐसे समय में वित्तीय प्रबंधकों को यह दायित्व सौंपा गया कि वे ऐसी औद्योगिक परियोजना का चुनाव करें जिससे भविष्य में फर्म को अनुकूल लाभ प्राप्त हो सके। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु वित्तीय प्रबंधकों द्वारा पूँजी बजट परियोजना मूल्यांकन, पूँजी व्यय नियंत्रण जैसी नई तकनीकों का विकास किया गया। अब व्यावसायिक वित्त का अध्ययन वर्णनात्मक न रह कर विश्लेषणात्मक हो गया है तथा इस विषय का नाम 'निगम वित्त' अथवा 'व्यावसायिक वित्त' से बदल कर प्रबंधकीय वित्त' अथवा वित्तीय प्रबंध हो गया।
वित्तीय प्रबंध का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Financial Management)
वित्तीय प्रबंध
व्यावसायिक प्रबंध का एक कार्यात्मक क्षेत्र है तथा यह संपूर्ण प्रबंध का ही एक
भाग होता है। वित्तीय प्रबंध उपक्रम के वित्त तथा वित्तीय क्रियाओं के सफल तथा
कुशल प्रबंध के लिए जिम्मेदार होता है। यह कोई उच्चकोटि के लेखांकन अथवा वित्तीय
सूचना प्रणाली नहीं होता है। यह फर्म के वित्त तथा वित्त से संबंधित पहलुओं पर
निर्णय करने तथा नीति निर्धारित करने से संबंधित क्रियाओं का समूह होता है। इसमें
पूँजी, रोकड, प्रवाह, साख, मूल्य एवं लाभ
नीतियाँ, निष्पत्ति नियोजन एवं मूल्यांकन तथा बजटरी नियंत्रण नीतियाँ
एवं प्रणालियाँ शामिल होती हैं। बजटरी नियंत्रण एवं प्रणालियाँ प्रमुख रूप से
वित्तीय प्रबंध के क्षेत्र में आती हैं। परन्तु ये अन्य विभागों के सहयोग एवं
सहमति के बगैर प्रभावपूर्ण ढंग से कार्यान्वित नहीं किये जा सकते हैं। वित्तीय
प्रबंध उपक्रम के व्यापक हितों का प्रतिनिधित्व करता है। तथा वह इनके लिए संस्था
का रखवाला कुत्ता होता है। वित्तीय प्रबंध का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कुछ
परिभाषाओं का अध्ययन किया जा सकता है :
(i) हॉवर्ड एवं उपटन
(Howard and Upton) : के शब्दों में, "वित्तीय प्रबंध
नियोजन तथा नयंत्रण का वित्त कार्य पर लागू करना है।"
(ii) वैस्टन एवं ब्राइगम (Weston and Brigham) : के अनुसार, "वित्तीय प्रबंध वित्तीय निर्णय लेने की वह क्रिया है जो व्यक्तिगत उद्देश्यों और उपक्रम के उद्देश्यों में समन्वय स्थापित करती है।"
(iii) जे. एल. मैसी (J. L.
Massie ) : के अनुसार, "वित्तीय प्रबंध एक
व्यवसाय की वह संचालनात्मक प्रक्रिया है। जो कुशल प्रचालनों के लिए आवश्यक वित्त
को प्राप्त करने तथा उसका प्रभावशाली ढंग से उपयोग करने के लिए दायी होता है।
(iv) जे. एफ. ब्रेडले (J. F. Bradley ) के अनुसार, "वित्तीय प्रबंध व्यावसायिक प्रबंध का वह क्षेत्र है जिसका संबंध पूँजी के विवेकपूर्ण उपयोग एवं पूँजी साधनों के सतर्क चयन से है ताकि व्यय करने वाली इकाई (फर्म) अपने उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर बढ़ सके।
(v) इजरा सोलोम (Ezra
Soloman) : के अनुसार, "वित्तीय प्रबंध का
तात्पर्य एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक स्रोते अर्थात् पूँजी कोष के कुशलतम उपयोग से
होता है।
(vi) व्हीलर (Wheeler )
: के अनुसार, "वित्तीय प्रबंध का अर्थ उस क्रिया से होता है जो उपक्रम के
उद्देश्यों एवं वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतू पूँजी कोषों के संग्रहण एवं
उनके प्रशासन से संबंध रखती है। उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है
वित्तीय प्रबंधन व्यावसायिक प्रबंधन का एक वह क्षेत्र है जिसके अन्तर्गत व्यवसाय
की वित्तीय क्रियाओं एवं वित्त कार्य का कुशल संचालन किया जाता है। इसके लिए
नियोजन, आबंटन एवं नियंत्रण कार्य किये जाते हैं।
वित्तीय प्रबंधन की प्रकृति अथवा विशेषताएँ
(Nature or Characteristics of Financial Management)
आधुनिक विचारधारा के
अनुसार वित्त कार्य व्यावसायिक प्रबंध में अत्याधिक महत्वपूर्ण है। अतः इससे
वित्तीय प्रबंधक की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण बन गई है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार
वित्त कार्य अथवा वित्तीय प्रबंध की अग्रविशेषताएँ होती हैं।
1. व्यावसायिक प्रबंधन का एक अभिन्न अंग (An indispensable organ of business management )
वित्तीय प्रबंध
की परंपरागत विचारधारा के प्रचलन के समय वित्तीय प्रबंधक को व्यवसाय के प्रबंध में
अमहत्त्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता था, परन्तु आधुनिक व्यवसायिक
प्रबंध में वित्तीय प्रबंध व्यावसायिक प्रबंध का एक प्रमुख अंग है तथा वित्तीय
प्रबंधक उच्च प्रबंध टोली के सक्रिय सदस्यों में से एक होता है। व्यवसाय की
गतिविधि के साथ वित्त का प्रश्न जुड़ा हुआ है, अतः वित्तीय प्रबंधक सभी
महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक निर्णयों में आधारभूत भूमिका निभाता है।
2. सतत् प्रक्रिया (Continuous Process) :
परंपरागत वित्तीय प्रबंध की धारणा के अन्तर्गत वित्तीय
प्रबंध की प्रक्रिया निरन्तर नहीं चलती थी, बल्कि यह प्रक्रिया कुछ
विशिष्ट घटनाओं के घटित होने पर जाग्रत होती थी तथा उनसे उत्पन्न वित्त प्राप्ति
की समस्याओं के समान होने पर मंद हो जाती थी। परन्तु आधुनिक विचारधारा के अनुसार
वित्तीय प्रबंध की प्रक्रिया सतत् चलने वाली प्रक्रिया है तथा व्यवसाय की सफलता के
लिए वित्तीय प्रबंधक को निरंतर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ती है।
3. वर्णनात्मक कम तथा विश्लेषणात्मक अधिक (Less descriptive and more analytical)
परंपरागत वित्तीय प्रबंध वर्णनात्मक अधिक तथा विश्लेषणात्मक कम था, जबकि आधुनिक वित्तीय प्रबंध वर्णनात्मक कम तथा विश्लेषणात्मक अधिक है। आज वित्तीय विश्लेषण की सांख्यिकीय तथा गणितात्मक विधियाँ विकसित हो गई हैं, जिनके द्वारा किन्हीं दी हुई आन्तरिक तथा बाह्य परिस्थितियों के संदर्भ में संभावित विकल्पों में से श्रेष्ठ विकल्प को चुना जा सकता है।
4. लेखांकन कार्य से भिन्न (Different from accounting function ) :
बहुत से लोग वित्त कार्य
तथा लेखांकन कार्य को एक ही मानते हैं, क्योंकि दोनो में बहुत सी
शर्तें एवं अभिलेख (Terms and records) एक समान ही होते हैं, परन्तु वित्त
कार्य लेखांकन कार्य से भिन्न होता है। लेखांकन कार्य में वित्तीय एवं संबंधित
समंकों का संग्रहण किया जाता है जबकि वित्त कार्य में इनका निर्णयों के लिए
विश्लेषण एक उपयोग किया है।
5. केन्द्रीयकृत स्वभाग (Centralised nature of finance function) :
आधुनिक व्यावसायिक प्रबंध के विभिन्न क्षेत्रों
में वित्तीय प्रबंध का स्वभाव केन्द्रीयकृत है। जहाँ उत्पादन, विपणन तथा
कर्मचारी प्रबंध के कार्यों का अत्याधिक विकेन्द्रीकरण सम्भव है। वहाँ दिन कार्य
का व्यावहारिक दृष्टिकोण से विकेन्द्रीयकरण वांछनीय नहीं है तथा वित्त कार्य के
केन्द्रीय कारण द्वारा ही व्यवसाय के उद्देश्यों को अधिक प्रभावशाली ढंग से
प्राप्त किया जा सकता है।
6. व्यापक क्षेत्र (Wide scope )
वित्तीय प्रबंध का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। वित्तीय प्रबंध
का कार्य उपक्रम की अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं के लिए साधनों को
प्राप्त करना, उनका आबंटन करना तथा अनुकूलतम उपयोग करना है। वित्तीय
प्रबन्ध लेखांकन अंकेक्षण, लागत लेखांकन, व्यावसायिक बजटन, रोकड व साख
प्रबंध सामग्री प्रबंधन आदि के लिए भी उत्तरदायी होता है।
7. उच्च प्रबंधकों के निर्णय में सहायक (Helpful in decisions of top management) :
वित्तीय प्रबंध
की आधुनिक विचारधारा के अनुसार वित्तीय प्रबंधक उपक्रम के सर्वोच्च प्रबंध को निर्णय
लेने में सहायता पहुँचाता है। वित्तीय प्रबंधक उपक्रम की वित्तीय स्थिति तथा किसी
अवधि विशेष के कार्यों की निष्पत्ति के संबंध में आवश्यक तथ्य, आंकड़े तथा
प्रतिवेदन उच्च प्रबंधकों को प्रस्तुत करता है जिनके आधार पर उच्च प्रबंधक ठोस
निर्णय लेते हैं। इसलिए आजकल वित्तीय प्रबंधक अथवा नियंत्रक संचालक मण्डल सदस्य
होता है।
8. कार्य निष्पति का मापक (Measurement of performance ) :
आधुनिक युग में व्यावसायिक उपक्रम में विभिन्न
कार्यों की निष्पत्ति (Performance) को वित्तीय परिणामों (Financial
Results ) में मापा जाता है। यदि एक उपक्रम पूर्व निर्धारित यात्रा
में आगम प्राप्त कर सका है तथा लागतों को उचित स्तर पर रख सका है तो वह अपने लाभ
उद्देश्य अथवा संपदा के मूल्य को अधिक करने के उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल
होता है। वित्तीय प्रबंधक को संस्था के लिए तरलता तथा लाभदायकता के कार्यों (Liquidity
and Profitability Functions) को पूरा करना होता है। इन कार्यों के लिए उसे
जोखिम तथा लाभदायकता का सही विभाजन करना होता है। ऐसा करने पर ही वांछित निष्पत्ति
का स्तर प्राप्त किया जा सकता है।
9. उपक्रम के अन्य विभागों से समन्वय आवश्यक (Co-ordination with other departments of the enterprise) :
एक वित्तीय प्रबंधक उपक्रम के अन्य विभागों के सहयोग तथा
समन्वय के बगैर प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य नहीं कर सकता है। हर विभाग के कार्यों का
वित्तीय परिणामों पर प्रभाव पड़ता है, अतः किसी भी एक अन्य
विभाग के असहयोग की स्थिति में वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं। वित्त कार्य
का अन्य सभी कार्यों से पूर्ण समन्वय आवश्यक होता है।
10. वित्तीय नियोजन, नियंत्रण एवं अनुवर्तन (Financial planning control and follow up)
आधुनिक विचारधारा के
अनुसार वित्तीय प्रबंध में साधनों की प्राप्ति तथा उपयोग के लिए योजना बनाना, उनके अनुसार साधन
प्राप्त करना, प्रभावी उपयोग करना, बजट के अनुसार नियंत्रण
करना विचलनों की खोज करना तथा अनुवर्तन (Feedback) द्वारा सुधारात्मक कार्य
करना शामिल होता है।
11. सभी प्रकार के संगठनों पर लागू (Applicable to all types of organisations ) :
वित्तीय प्रबंध सभी प्रकार के संगठनों में लागू होता है, चाहे वे संगठन निर्माणी हों अथवा सेवा संगठन हों अथवा एकांकी स्वामित्व वाले अथवा नियमित संगठन। यह गैर लाभकारी संगठनों की क्रियाओं पर भी लागू होता है।
Post a Comment