वित्त कार्य का संगठन | आधुनिक वित्त प्रबंधक के कार्य दायित्व | Organisation of Finance Function
वित्त कार्य का संगठन (Organisation of Finance Function)
वित्त कार्य का संगठन
सभी व्यावसायिक संस्थानों में वित्त कार्य समान रूप से लागू होता है, परन्तु वित्त कार्य का संगठन एक उपक्रम से दूसरे उपक्रम में भिन्न होता है। वित्त कार्य का संगठन फर्म की प्रकृति, आकार, परम्परा तथा अन्य विशेषताओं पर निर्भर करता है। उदाहरण के तौर पर एक छोटे उपक्रम में वित्त कार्य के लिए अलग से किसी वित्त अधिकारी की नियुक्ति नहीं की जाती है, बल्कि स्वामी स्वयं ही समस्त वित्त कार्यों को संपन्न करता है। वही उपक्रम की आवश्कताओं का अनुमान लगाकर रोकड़ बजट बनाता है तथा उपक्रम के लिए आवश्यक कोषों की व्यवस्था करता है। ऐसे छोटे उपक्रमों में स्वामी ही समस्त प्राप्तियों एवं भुगतानों को देखता है, साख-सुविधाएँ प्रदान करता है, प्राप्य बिलों की वसूली करता है, नगदी का प्रबंध करता है तथा अतिरिक्त कोषों की व्यवस्था करता है। ऐसे उपक्रमों में वित्त कार्य का कोई व्यवस्थित संगठन नहीं होता है, बल्कि वित्त कार्य उत्पादन तथा विपणन के साथ संलग्न रहता है । परन्त उपक्रम के आकार में विस्तार होने पर वित्त कार्य में विशिष्टीकरण बढ़ता है तथा इस कार्य की व्यवस्था के लिए अलग से विशेषज्ञों की सेवाएं प्राप्त की जाती हैं। मध्यम आकार के व्यावसायिक संगठन में वित्त कार्य को संपन्न करने के लिए वरिष्ठ प्रबंधक, जिसे वित्तीय नियंत्रक, संचालक, वित्त प्रबंधक अथवा कोषाध्यक्ष के नाम से पुकारा जाता है, नियुक्त किया जाता है। यही व्यक्ति साख वसूलियों लेखांकन, विनियोग तथा अंकेक्षण कार्यों को देखता है। वार्षिक रिपोर्ट भी इसी व्यक्ति द्वारा तैयार की जाती है। वह संचालक मंडल से प्रत्यक्ष रूप में संबद्ध होता है। निर्णयन में उसकी भूमिका स्वयं की योग्यता तथा संचालक मंडल में उसकी पहुँच पर निर्भर करती है। बड़े व्यावसायिक उपक्रमों में वित्त प्रबंधक अथवा अधिकारी की स्थिति अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है। सामान्यतया यह कंपनी के शीर्ष प्रबंध टोली का सदस्य होता है। उसका पद वित्त संचालक अथवा उपाध्यक्ष वित्त या वित्त प्रबंधक के नाम से जाना जाता है। बड़ी कंपनियों अथवा निगमों में वित्तीय कार्यों में भी अत्यधिक विशिष्टीकरण हो चला है। वित्त प्रबंधक के लिए यह संभव नहीं है कि वह स्वयं समस्त वित्तीय कार्यों को संपन्न करे तथा सभी अधिकारियों से संपर्क रख सके। अतः वित्त कार्य को दो उपविभागों में बाँट दिया जाता है जो क्रमशः वित्त (Finance) तथा वित्तीय नियंत्रण (Financial Controller) होते हैं, जिनकी व्यवस्था के लिए वित्त प्रबन्धक के नियंत्रण में कोषाध्यक्ष ( Treasurer) हौर वित्त नियंत्रक (Financial Controller) की नियुक्ति की जाती है। इनमें से प्रत्येक के अधीन भी अनेक उप-विभाग होते हैं। बहुत बड़े निगमों में वित्तीय नियोजन एवं नियंत्रण के कार्य को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ऐसी स्थिति में वित्त कार्य प्रबंध संचालक पर ही नहीं छोड़ा जाता है बल्कि संचालक मंडल तथा प्रबंध संचालक के मध्य एक वित्तीय समिति नियुक्त की जाती है, जिसमें कुछ संचालकों के प्रतिनिधि तथा विभिन्न विभागाध्यक्षों अथवा प्रबंधकों को रखा जाता है। इस समिति की अध्यक्षता प्रायः प्रबंध संचालक करता है। वित्त समिति का कार्य संचालक मंडल को वित्तीय नियोजन एवं नियंत्रण के लिए सलाह देना होता है। एक बड़े निगमित उपक्रम के वित्त कार्य के संगठन को निम्नांकित चार्ट में देखा जा सकता है-
चार्ट को देखने से स्पष्ट होता है कि संचालक मंडल को वित्तीय नियोजन एवं नियंत्रण के लिए लिए वित्त समिति संचालक मंडल तथा प्रबंध संचालक के मध्य कार्य करती है। प्रबंध संचालक के अधीन अन्य सलाह देने के विभागाध्यक्षों अथवा उपाध्यक्षों अथवा प्रबंधकों की तरह से वित्त प्रबंधक अथवा उपाध्यक्ष वित्त होता है। वित्त प्रबंधक अथवा उपाध्यक्ष वित्त संस्था के समस्त वित्त कार्यों के लिए दायी होता है। वित्त प्रबंधक के अधीन दो महत्त्वपूर्ण अधिकारी कोषाध्यक्ष तथा वित्त नियंत्रक होते हैं। कोषाध्यक्ष संस्था के बैंकिंग व्यवहार, रोकड़, प्रबंध, वित्त प्राप्ति साख प्रबंध लाभांश वितरण, कर्मचारियों की पेंशन प्रबंध आदि कार्य करता है। वित्त नियंत्रक सामान्य लेखे एवं वेतन, चिट्टे बनाने, वित्तीय वितरण तैयार करवाने, बजट बनाने, आन्तरिक अंकेक्षण करों का नियोजन करने तथा अभिलेखों की सुरक्षा के कार्य करता है। इसी प्रकार कोषाध्यक्ष तथा वित्त नियंत्रक के अधीन अन्य अनेक कर्मचारी होते हैं। जो इनके कार्यों को सरल बनाते हैं।
किसी भी संस्था में वित्त कार्य का संगठन अनेक तत्वों से प्रभावित होता है, जिनमें प्रमुख तत्व निम्न हैं:
1. विभिन्न वित्तीय आवश्यकतायें (Varying Financial Needs):
सभी फर्मों की वित्तीय आवश्यकताएँ समान नहीं होती हैं बल्कि वे उनके व्यवसाय की प्रकृति, आकार तथा वित्तीय क्रियाओं की तीव्रता आदि से प्रभावित होत हैं। उदाहरण के तौर पर एक विनिर्माणकारी फर्म को स्थायी संपत्तियों के क्रय के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है, जबकि सेवा उद्योग में फर्म की वित्तीय आवश्यकताएँ कम होती है। सभी ग्राहकों को प्रदान की जाने वाली सेवाओं से संबंधित वित्तीय प्रणाली विकसित करती है।
2. वित्तीय अधिकारियों की योग्यताएँ (Abilities of Financial Officers) :
जहाँ वित्तीय अधिकारी कम योग्यता वाले होते हैं वहाँ साधारण लेखांकन एवं रिपोर्टिंग संगठन विकसित किया जाता है जो बगैर अधिक वित्तीय विशेषज्ञता के कार्य करता है।
3. वित्तीय प्रणाली (Financial System) :
संस्था द्वारा अपनायी गई वित्तीय प्रणाली बहुत ही परंपरागत प्रणाली से लेकर अत्याधिक आधुनिक प्रणाली हो सकती है। वित्तीय प्रणाली देश की अर्थव्यवस्था, कार्यशैली वित्तीय संस्थाओं एवं वित्तीय बाजारों से प्रभावित होती है, अतः एक संस्था को ऐसी वित्तीय प्रणाली अपनानी चाहिए जो देश के वित्तीय वातावरण के संदर्भ में संस्था की वित्तीय आवश्यकताओं की सुगमता से पूर्ति कर सके। उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर संस्था को अपना वित्तीय संगठन बनाना चाहिए जिसमें योग्य वित्त अधिकारियों की नियुक्ति करके उन्हें विशिष्ट कार्य करने के अधिकार एवं दायित्व सौंपे जाने चाहिएं।
वित्तीय प्रबंधक की बदलती भूमिका भारत के विशेष संदर्भ में
(Changing Role of Financial Manager with Special Reference to India)
- आधुनिक व्यवसाय में वित्तीय प्रबंधक एक आधारभूत स्थान ( Key Position) संभाले हुए है तथा वह उच्च प्रबंध टोली के सक्रिय सदस्यों में से एक होता है। जटिल प्रबन्ध समस्याओं के समाधान में उसकी भूमिका दिन-प्रति-दिन अधिक व्यापक, गहन तथा महत्त्वपूर्ण होती जा रही हैं। वित्तीय प्रबंधक के कार्य केवल लेखे रखना, प्रतिवेदन तैयार करना तथा आवश्यकता के समय विभिन्न साधनों से कोष प्राप्त करने तक ही सीमित नहीं रह गये हैं। बल्कि उसके कार्य इससे भी आगे बढ़ गए है। अब यह उपक्रम के भाग्य को निश्चित रूप देने के लिए भी जिम्मेदार होता है तथा वह पूँजी के आबंटन के सर्वाधिक निर्णय लेने में सम्मिलित रहता है। वित्तीय प्रबंधक का नवीन भूमिका में उसके कार्य एवं दायित्व बहुत अधिक बढ़ गये हैं। उसे इस नवीन भूमिका में अपना विस्तृत तथा दूरदर्शी दृष्टिकोण रखना आवश्यक है। उसके लिए अब यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि व्यवसाय के कोषों का सर्वाधिक कुशल प्रयोग किया गया है। उसके निर्णय फर्म के लिए दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले होते हैं। उसके कार्यों में व्यावसायिक आवश्यकताओं के लिए विभिन्न साधनों से उचित शर्तों पर वित्त प्राप्त करना तथा व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उसका उपयोग एवं प्रबंध करना शामिल होता है।
भारत में वित्तीय सेवा क्षेत्र के विकास तथा सेबी का विनियोगिता हितों की रक्षा हेतु रखवाली करने वाले कुत्ते तथा पूंजी बाजार के नियंत्रक की भूमिका ने वित्तीय प्रबंधक के कार्यों को महावपूर्ण बना दिया है। कोष संग्रहण हेतु शून्य कूपन बाण्ड तथा लचीले बाण्ड वित्त प्राप्ति के नवीन औजारों के उदाहरण हैं जिनका कंपनियों की वित्तीय नीतियों पर सीधा प्रभाव पड़ा है।
- प्रारम्भिक वर्षों में भारत में वित्त प्रबंधक को विक्रेताओं के बाजार में कार्य करना होता था। भारतीय व्यवसाय के अधिकांश क्षेत्रों में एकाधिकार की स्थिति थी। व्यवसाय को वित्त प्रायः बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं से ही प्राप्त होता था। अंशधारियों की संतुष्टि की प्रवर्तकों को चिन्ता नहीं रही है क्योंकि कंपनिया क्लोजली हैड (Closely held ) रही हैं। परन्तु जब से भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार के लिए खोल दिया गया है, तब से विक्रेताओं का बाजार क्रेताओं के बाजार में परिवर्तित हो गया तथा भारतीय फर्मों को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में वित्तीय प्रबंध के क्षेत्र में नये युग का सूत्रपात हुआ है। नई वित्तीय व्यवस्था वित्त सेवा उद्योग का आगमन, वित्तीय औजारों, पुर्जो, तकनीकों तथा नवाचार के विकास, सार्वजनिक उपक्रमों के स्वः आत्मनिर्भर होने तथा अपने साधन पूँजी बाजार से प्राप्त करने आदि के कारण वित्तीय प्रबंधक की भूमिका ही बदल गयी है। इसमें उदारवाद, अनियंत्रण तथा वैश्वीकरण की बढ़ती प्रवृत्तियों के कारण अधिक बदलाव आया है और अधिक तेजी से आयेगा ।
आधुनिक वित्त प्रबंधक के कार्य
एक आधुनिक वित्त प्रबंधक के कार्य (Tasks of a Modern Finance Manager) एक आधुनिक वित्त प्रबंधक के महत्त्वपूर्ण कार्यों को इजरा सोलोमन ( Ezra Solomon ) ने तीन तरह के प्रश्नों का जवाब देना माना है। ये प्रश्न हैं:
1. एक फर्म कितनी बड़ी हो तथा इसका कितनी तीव्रता से विकास हो ?
2. फर्म की संपत्तियों की संरचना कैसी हो?
3. फर्म की वित्तीय व्यवस्था या वित्त के साधनों का सम्मिश्रण कैसा हो?
उपर्युक्त प्रश्नों के संदर्भ में आधुनिक वित्त प्रबंधक के कार्यों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है:
(अ) वित्तीय विश्लेषण एवं प्रगति जाँच,
(ब) वित्त व्यवस्था,
(स) विनियोजन ।
उपर्युक्त का विस्तृत अध्ययन यहाँ किया जा रहा है :
वित्तीय विश्लेषण एवं प्रगति जाँच (Financial Analysis and Monitoring)
वित्त प्रबंध का एक महत्वपूर्ण कार्य वित्तीय विश्लेषण करके निष्पत्ति बतलाना होता है। इस कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए वित्तीय प्रबंधक निम्न कार्य करता है:
(अ) वित्तीय दशाओं एवं निष्पत्ति का विश्लेषण (Analysis of Financial Conditions and Performance ) :
एक वित्त प्रबधंक को किसी समय विशेष पर संस्था की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण करके एक अवधि विशेष की निष्पत्ति का मूल्यांकन करना होता है। संस्था की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण करके फर्म के पर्यावरण को जानना आवश्यक होता है। कभी संस्था का वित्तीय पर्यावरण अनुकूल तथा कभी प्रतिकूल होता है।
(ब) वित्तीय पूर्वानुमान एवं नियोजन (Financial Forecasting and Planning):
संस्था का वित्तीय विश्लेषण करके निष्पत्ति का मूल्यांकन करने के बाद वित्तीय पूर्वानुमान करके वित्तीय नियोजन करना होता है। वित्तीय पूर्वानुमान में विभिन्न चलों का पूर्वानुमान किया जाता है तथा उनको ध्यान में रखकर वित्तीय नियोजन किया जाता है।
(स) वित्तीय नियंत्रण (Financial Control):
वित्तीय नियोजन के बाद वित्त प्रबंधक को वित्तीय नियंत्रण करना होता है। वित्तीय नियंत्रण हेतु विभिन्न प्रकार के बजटों एवं प्रमापों का निर्धारण किया जाता है। संस्था की वास्तविक निष्पत्ति का प्रमापित अथवा बजटेड निष्पत्ति के संदर्भ में मूल्यांकन किया जाता है। यदि प्रमापित निष्पत्ति एवं वास्तविक निष्पत्ति में सहन सीमा से अधिक विचलन होता है तो सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है।
वित्त व्यवस्था (Financing) :
वित्त व्यवस्था करना फर्म के वित्त प्रबंधक का महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। इसके लिए वित्तीय प्रबंधक को अनेक क्रियाएँ करनी होती हैं :
(अ) आदर्श संयोग का चुनाव (Selection of optimum combination of various sources of finance) :
वित्त प्रबंधक को संभावित उपलब्ध वित्त साधनों का अध्ययन करके विभिन्न साधनों का आदर्श संयोग चुनना होता है, जिससे पूँजी की लागत न्यूनतम रहे ।
(ब) वित प्राप्ति की शर्तें व समय का निर्धारण (Determination of terms and timing of financing)
आदर्श संयोग के चुनने के बाद विभिन्न साधनों से वित्त प्राप्त करने के लिए कार्य करना होता है। विभिन्न साधनों से वित्त प्राप्त करने की शर्तें समय आदि का निर्धारण भी वित्त प्रबंधक को करना होता है।
(स) लाभों के वितरण तथा प्रतिधारित अर्जितों के संबंध में निर्णय
(Decision about distribution of dividend and retained earnings) :
वित्त प्रबंधक को फर्म द्वारा अर्जित लाभ को अंशधारियों में लाभांश के रूप में बाँटने एवं संस्था में प्रतिधारित अर्जनों के रूप में रोकने के संबंध में भी निर्णय करना होता है। विनियोग (Investing ) : फर्म द्वारा विभिन्न साधनों से जो वित्त एकत्र किया जाता है, उसे विभिन्न प्रकार की संपत्तियों एवं परियोजनाओं में विनियोजित करना होता है। विनियोजन कार्य में प्रमुख रूप से निम्न क्रियाएँ शामिल होती हैं :
(अ) चालू संपतियों में विनियोग का निर्धारण
(Determination of investment in current assets):
वित्त प्रबंधक को चालू संपत्तियों का प्रबंध करना होता है। वित्त प्रबंधक को निर्धारित करना होता है कि रोकड़, विक्रयशील प्रतिभूतियाँ देनदार तथा सामग्री में कितना विनियोग हो? यदि इनका स्तर कम है तो उसे कैसे बढ़ाया जाये तथा किसी चालू संपत्ति में अत्याधिक विनियोग है तो उसको किस तरह से कम किया जाये ?
(ब) पूँजीगत परियोजनाओ के चयन के संबंध में निर्णय
(Decisions regarding selection of capital investment projects):
पूँजी बजटन विनियोजन का एक मुख्य क्षेत्र है। विभिन्न परियोजनाओं को स्वीकार करने के मापदण्डों को चुनाव करना, अनिश्चितता के तत्व को जानना तथा उसे कम करना वित्त प्रबंधक की योग्यता पर निर्भर करता है।
(स) पुनर्संरचना निर्णय ( restructuring decisions):
संविलयन, पुनर्मिमणि तथा समापन जैसी कार्यवाहियों की आवश्यकता हो तो उसकी शर्तों एवं प्रक्रिया के निर्धारण में वित्त प्रबंधक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आधुनिक वित्त प्रबंधक के दायित्व
(Responsibilities of a Modern Finance Manager)
आधुनिक वित्त प्रबंधक निगम के अंशधारियों, लेनदारों, ग्राहकों, श्रमिकों तथा अन्य पक्षकार के प्रति दायी होता है। वित्त प्रबंधक के प्रमुख दायित्व निम्न हैं: लागतों एवं आगम में संतुलन ( Balancing Cost and Revenue) : वित्त प्रबंधक को संस्था के कार्यचालन में उत्पन्न लागतों एवं आगम में संतुलन बनाये रखना होता है। विनियोजित पूँजी पर पर्याप्त प्रत्याय (Adequatereturn on shareholders funds) : अंशधारियों द्वारा संस्था में जो पूँजी विनियोजित की गई है उस पर उपयुक्त तथा स्थिर प्रत्याय उपलब्ध करवाना वित्त प्रबंधक का दायित्व है। यह तभी संभव होता है जब वित्त प्रबंधक स्वामियों की संपत्ति को अधिकतम करने के कार्य में लगा रहे।
वित के उपयोग का नियंत्रण (Control of financial resources):
वित्त प्रबंधक को वित्त के उपयोग के प्रमाप, कार्यविधियाँ तथा परम्पराएँ विकसित करनी होती हैं जिससे वित्त का दुरुपयोग रुके, आगम का रिसाव न हो तथा लागतों पर नियंत्रण रहे एवं उनमें कमी की जा सके। कानूनों का पालन (Adherence of various laws ): सरकार द्वारा वित्त के संबंध में पूँजी नियंत्रक, स्कन्ध विपणि, वित्तीय संस्थाओं के प्रयोग हेतु जो नियंत्रण कानून बनाये एवं लागू किये जाते हैं, उनका पूर्णरूप से पालन किया जाये तथा उनके अन्तर्गत जो सूचनायें प्रदान करनी होती हैं, वे समय पर दी जाएँ। वित्त प्रबंधक को कर कानून, आयात-निर्यात नियंत्रण कानूनों तथा नियमों का पालन करना चाहिए।
लेनदारों के हितों का सरंक्षण (Protection of creditors' interest):
वित्त प्रबंधक का दायित्व है कि वह लेनदारों के हितों को सुरक्षित रखे उनके ऋणों का समय पर भुगतान करे। कार्य के लिए पर्याप्त तरलता की व्यवस्था करनी होती है। संस्था की लाभदायिकता एवं तरलता बनी रहने पर ही लेनदारों के हितों की रक्षा होती है।
कर्मचारियों के हितों का संरक्षण व प्रोत्साहन (Protection and Promotion of employees interest) :
वित्त प्रबंधक संस्था के कर्मचारियों के प्रति भी दायी है। संस्था योग्य एवं कुशल कर्मचारियों को तभी आकर्षित कर सकती है जब उनके लिए पुरस्कार की उपयुक्त दरें निर्धारित की जायें। कर्मचारियों को विविध प्रकार के प्रोत्साहनों एवं बोनस आदि का समय पर भुगतान किया जाना चाहिए।
वित्तीय प्रबंध की सीमाएँ (Limitations of Financial Management )
वित्तीय प्रबंध की भूमिका लगातार परिवर्तित होती जा रही है। पहले वित्तीय प्रबंध की आवश्यकता केवल विशेष अवसरों पर वित्त प्राप्ति हेतु अनुभव की जाती थी परन्तु अब वित्तीय प्रबंध अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है तथा इसकी आवश्यकता प्रबंध में लगातार बढ़ती जा रही है तथा यह उच्च प्रबंध का भाग हो गया है। वितीय प्रबंध का अत्यधिक महत्त्व होते हुए भी इसकी कुछ सीमाएँ हैं जिनका ध्यान रखा जाना चाहिए।
वित्तीय प्रबंध की प्रमुख सीमाएँ निम्न हैं:
सभी प्रबंधकीय निर्णयों के वित्तीय प्रभाव जानना कठिन (It is difficult to know the financial effects of various managerial decisions): एक संस्था में प्रबंध के जितने कार्यात्मक क्षेत्र हैं उन सब के निर्णय वित्तीय प्रभाव रखते हैं। अतः वित्तीय प्रबंधक के लिए सभी कार्यात्मक प्रबंधकीय निर्णयों के प्रभावों को जानना तथा उन सब में समन्वय स्थापित करना बड़ा कठिन कार्य होता है।
वित्तीय लेखों पर निर्भर (Based on financial records) :
वित्तीय प्रबंध के लिए वित्तीय विश्लेषण एवं निर्वचन की अनेक तकनीकें काम में ली जाती हैं, जो वित्तीय लेखों पर आधारित होती हैं। वित्तीय लेखे भूतकाल से संबंधित होते हैं तथा लेखा परम्पराओं एवं नीतियों से प्रभावित रहते हैं । अतः इन पर आधारित वित्तीय निर्णय इनमें व्याप्त दोषों से ग्रसित रहते हैं।
संबंधित विषयों की कम जानकारी (Lack of knowledge of related subjects) :
वित्तीय प्रबंध के सही उद्देश्य तभी प्राप्त हो सकते हैं जबकि वित्तीय प्रबंधकों को प्रबंध प्रबंध लेखांकन, सांख्यिकी, अर्थशास्त्र, अभियान्त्रिकी आदि की अच्छी जानकारी हो। इनकी जानकारी के अभाव में उच्च प्रबंध सही निर्णय लेने एवं उनके वित्तीय प्रभाव जानने में सक्षम नहीं होगा।
वस्तुनिष्ठता का अभाव (Lack of objectivity):
वित्तीय प्रबंध पूर्ण रूप से वस्तुनिष्ठ नहीं है। वित्तीय प्रबंध के निर्णय वित्तीय प्रबंधकों के व्यक्तिगत विचारों एवं भावनाओं से प्रभावित होते हैं और जब इनकी मात्रा अधिक हो जाती हैं तो वित्तीय निर्णय संस्था के लिए अच्छे परिणाम कम एवं बुरे परिणाम अधिक प्रदान करते हैं।
विकासशील विषय (Developing Subject) :
वित्तीय प्रबंध पूर्ण रूप से विकसित विषय नहीं है तथा इसका अभी विकास हो रहा है। अनेक विचारों एवं धारणाओं के बारे में विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं। वित्तीय विश्लेषण एवं निर्वचन के प्रमाप भी बदल रहे हैं।
व्ययशील (Expensive) :
यह प्रभावशाली वित्तीय प्रबंध का संगठन खड़ा करना बड़ा महँगा कार्य है। अतः छोटे व्यावसायिक प्रतिष्ठान इस भार को वहन नहीं कर पाते हैं। वित्तीय अधिकारी योग्य एवं कुशल होने चाहिए। यदि कोई संस्था योग्यता एवं कुशलता से समझौता करके घटिया संगठन निर्मित करती है तो उसके परिणाम बड़े बुरे होते हैं।
नये उभरते रुझान (Emerging Trends of Financial Administration)
(1) राजकोषीय घाटे का विनियोजन एवं नियंत्रण (Planning of Control of Tresuary Deficit) भारत में विकासात्मक प्रयासों की खास विशेषता यह रही है कि यहाँ उपलब्ध स्रोतों से कहीं अधिक निवेश का प्रयास होता रहा है। इस अंतर को अनुकूल भुगतान संतुलन तथा विदेशी धन-प्रेषणों द्वारा दूर किया जाना चाहिए था । किन्तु भारतीय नीति-निर्धारकों ने मुद्रा प्रसार की अकूत खुराकों पर साख कायम करके इस अंतर को मिटाने की कोशिश की । घाटे की वित्त व्यवस्था को करारोपण समेत स्रोत जुटाने के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया गया। घाटे की वित्त व्यवस्था की वार्षिक औसत दर में वर्ष- दर वर्ष वृद्धि होती गई। यह धारणा योग्य सुरक्षित सीमा से कहीं आगे निकल गई जो कि कथित तौर पर उपभोक्ता मालों की आपूर्ति की वृद्धि दर, अर्थव्यवस्था के मुद्रीकरण के स्तर तथा उत्पादन एवं वितरण पर नियंत्रण की सीमा द्वारा निर्धारित होती है। इस ताबड़तोड़ घाटे की वित्त व्यवस्था के परिणाम के तौर पर साठ के दशक के मध्य से ही मुद्रास्फीति की ऊँची दर अर्थव्यवस्था का प्रमुख लक्षण बन गई है। इसने भुगतान संतुलन की समस्या पैदा कर दी है। जुलाई 1991 में, यह परिस्थिति एक आर्थिक संकट में बदल गई। इस संकट को हल करने के लिए सरकार को अनेक उपाय करने पड़े। प्रमुख लक्ष्य था राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण करना तथा 1992-93 तक इसे घटाकर सकल राष्ट्रीय उत्पाद (राष्ट्रीय आय ) के 5 प्रतिशत तक ले जाना।
(2) गैर-विकासात्मक व्यय में कटौती (Reduction in Non- Developmental Expenditure) भारतीय स्रोत का एक बड़ा हिस्सा गैर-विकासात्मक व्ययों में व्यर्य चला जाता है जो कि एक गैर-उत्पादक प्रवाह है। गैर-विकासात्मक व्यय में भारी वृद्धि हुई है। इस बार का एक बड़ा हिस्सा फिजूलखर्ची, अक्षमता तथा निष्फल लोक-नीतियों एवं गतिविधियों से जुड़ा हुआ है। रक्षा तथा कानून-व्यवस्था पर भारी परिव्यय ने भी इस रुझान की तरफ बढ़ने में योगदान किया है। लोक-नीति ने व्यय को कम करने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। बचतों का अधिकांश भाग, आर्थिक राहतों, रक्षा-व्यय सार्वजनिक उद्यमों के स्रोतों के अंतरण चालू एवं पूंजी व्यय में कटौतियाँ करके, प्राप्त किया जाना है। सरकार ने घोषणा की है कि वित्त वर्ष की बकाया अवधि के दौरान अनुपूरक विनियोजन के जरिए, व्यय में कोई वृद्धि नहीं की जाएगी, जब तक कि इस तरह के प्रस्तावों के साथ समान रूप से कहीं अन्यत्र बचत के सुझाव न दिए गए हों ।
शून्य आधारित परिप्रेक्ष्य का विकास (Development of Zero Based System)
भारत में बजटीय निर्णयों का प्रमुख लक्षण वृद्धिकारी दृष्टिकोण रहा है। हालांकि समूचे स्तर पर शून्य आधारित बजट प्रणाली की स्थापना का प्रयास नहीं किया गया है, पिछले करीब 5 वर्षों के दौरान विकसित हुई व्यय-नीति ने इस नई बजटीय अवधारणा के मूलभूत आधार - वाक्य पर ध्यान दिया है। यह मांग की गई है कि सरकारी व्यय के किसी भी क्षेत्र को छानबीन से परे नहीं रखा जाना चाहिए।
4. आकस्मिकता दृष्टिकोण का प्रयोग (Use of Contingent View )
आकस्मिकता दृष्टिकोण सार्वजनिक संगठन की सभी उप प्रणालियों, जिनमें पर्यावरण की उच्चतर - प्रणाली भी शामिल है, के विश्लेषण एवं समझ पर बल देता है ताकि लोक नीतियों तथा प्रशासनिक कार्यवाहियों को विशिष्ट परिस्थतियों तथा पृष्ठभूमियों की मांग के अनुरूप ढाला तथा समन्वित किया जा सके। यह किसी लोक प्रशासक को एक संपूर्ण समस्या का व्यावहारिक हल ढूंढने में सक्षम बनाता है। हाल के आर्थिक संकट का सामना करने हेतु दृष्टिकोण ने इस आधुनिकतम सिद्धांत के मूल तत्त्व प्रतिबिंबित हुए हैं उदाहरण के रूप में यद्यपि घाटे की वित्त व्यवस्था की तरफ सरकार के पास राजनैतिक सत्ता तथा बुनियादी रुझान मौजूद हैं, किन्तु वह इसके विपरीत फैसले लेने के बाध्य है। ऐसा परिस्थितियों के दबाव के कारण हुआ। इसी तरह, आत्म-निर्भर तथा सामाजिक बराबरी की अवधारणाएँ अब सरकार की मुख्य चिन्ताएँ नहीं रही हैं, जैसा कि विदेशी भागीदारी जिसमें अप्रवासी भारतीय पर विशेष बल दिया गया है, की तरफ खुले दरवाजे वाली नीति से स्पष्ट हो जाता है। इसी तरह के अन्य लोक नीतिगत निर्णय भी लिए गए हैं जो अर्थव्यवस्था को बाजार - क्रियाविधि की तरफ मोड़ने के प्रयास है।
5. सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर कम किया जाना (Less Stress on Public Area)
भारत में, सार्वजनिक उद्यमों के लिए तर्काधार इस उक्ति पर आधारित रहा है, कि राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्ति के लिए राज्य का स्वामित्व जरूरी है। इस मूल्यगत निर्णय के फलस्वरूप बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयकरण किया गया था। सार्वजनिक उद्यमों की बड़ी संख्या में लगातार चढ़ते घाटों, राजकोषीय घाटे में कमी लाने हेतु स्रोतों की आवश्यकता सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण की तरफ विश्वव्यापी रुझान, इन सभी ने मिलकर सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति सरकार की नीति में परिवर्तन ला दिया। सरकार की नई उद्योग नीति ने इस विचारधारा का अंत कर दिया। सरकार की नयी उद्योग नीति के लक्षणों के बारे में हम इस खंड की ईकाई 3 में वर्चा करेगें। उदाहरण के रूप में, आठवीं योजना में सार्वजनिक क्षेत्र पर परिव्यय, सातवीं योजना में 54 प्रतिशत के मुकाबले घटाकर 43.2 प्रतिशत कर दिया गया। सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र को अतिरिक्त बजटीय सहायता देने के विरूद्ध है। दरअसल, सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र के बीच विभाजन को मिटा देने और "राष्ट्रीय क्षेत्र की तरफ रुझान बढ़ रहा है जिसमें कि सार्वजनिक क्षेत्र व निजी क्षेत्र का एक दूसरे में विलय हो जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र की समता-भागीदारी को बढ़ावा देने की सरकार की मुहिम, इस नये दृष्टिकोण को प्रदर्शित करने वाला उल्लेखनीय नीतिगत उपाय है।
6. सार्वजनिक मालों तथा सेवाओं की गैर - नौकरशाही आपूर्ति
(Fullfilment the Non-Bureaucratic Assets and Services)
सार्वजनिक पसंद विचारकों का अनुसरण करते हुए, सरकार सार्वजनिक मामलों तथा सेवाओं को प्रतिस्पर्धा पूर्ण ढंग से प्रदान करने की दृष्टि से विचार कर रही है ताकि सार्वजनिक इजारेदारी के गड्ढे में गिरने से बचा जा सके। उदाहरण के बतौर, सरकार ऊर्जा उत्पादन एवं वितरण, इलैक्ट्रोनिक प्रचार माध्यम तथा दूरसंचार, सड़क निर्माण इत्यादि के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को शामिल करने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही है।
7. विकास योजनाओं के लिए वित्तीय सहायता हेतु विकेन्द्रिकृत दायित्व पर बल
(Stress on the Decentralisation of Financial Help on Development Plans)
योजना बनाने तथा साथ ही योजना के लिए वित्त जुटाने का दायित्व संघीय सरकार पर रहा है। राज्य सरकारें अपने बजटीय प्रावधानों द्वारा समर्थित योजनाओं की बजाय, केन्द्र द्वारा प्रसारित योजनाओं को ही लागू कर सकी है। राज्यों में इस तरह की प्रवृति के चलते स्रोत जुटाने के काम के प्रति उदासीनता का भाव रहा है। यह लक्षण, राज्य सरकारों द्वारा लोकप्रिय उपायों पर बढ़ते हुए जोर से स्पष्ट हो जाता है। आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाते हुए संघीय सरकार, "परिचायक- नियोजन" की अवधारणा के निकट आ पहुंची है। यह बदली हुई समझ, आठवीं पंचवर्षीय योजना की प्रस्थापनाओं में झलकती है। संघीय सरकार अब सहकारी संघवाद को प्रोत्साहन दे रही है और इसलिए स्रोत जुटाने के काम में राज्य के काम में राज्य सरकारों के लिए एक सक्रिय भूमिका की माँग कर रही है।
8. नियंत्रणहीनता तथा उदारीकरण की ओर (Progress to Liberalisation & Decentralisation)
संघीय सरकार बाजार - क्रियाविधि को पूरी स्वतंत्रता प्रदान करने का प्रयास कर रही है, ताकि उद्यमशील व्यापारी व्यक्तियों की उत्पादन क्षमता को अधिकाधिक बढ़ाया जा सके और इस तरह मुक्त बाजार - अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ रही है। निजी क्षेत्र तथा विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की जायज आवश्यकताओं के अनुरूप उद्योग नीति के अनुकूल संशोधन कर लिए गए हैं। व्यापार नीति तथा वाणिज्य नीति में इसी तरह के परिवर्तन किए गये हैं। लोगों में यह आशंका बढ़ रही है कि आय तथा संपत्ति की असमानताएँ बढ़कर भारी आघात पहुंचा सकती है और समाज के गरीब तथा कमजोर तबके की भारी उपेक्षा का शिकार होकर उन्हीं के हाल पर छोड़ दिए जा सकते हैं। इस दुर्भाग्यपूर्ण रुझान की क्षतिपूर्ति काफी हद तक सामाजिक सेवाओं तथा ग्रामीण विकास कार्यक्रमों पर व्यय में बढ़ोतरी के जरिए की जा सकती है। इसके प्रमाण मिल रहे हैं कि सरकार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने तथा अन्य तरीकों से, इस तरह की नीतिगत पहल कर रही है जिनसे यह सुनिश्चित हो जाये कि प्रगति को समता की कुर्बानी देकर हासिल न किया गया हो।
संक्षेप में इन नये रुझानों का आशय बाजार की शक्तियों को नौकरशाही नियंत्रण से मुक्त करना है। ये रुझान कम विकसित देशों की जरूरतों के काफी अनुकूल पाए गए हैं।
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