सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत |सरकारी व्यय के ये सिद्धांत या मार्गदर्शक बातें (Principles of Public Expenditure)
सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत (Principles of Public Expenditure)
सार्वजनिक व्यय के सिद्धांत (Principles of Public Expenditure)
सरकारी व्यय के सिद्धांतों का विवेचन उस समय पहले किया जा चुका है जब कि पीछे लोक वित्त के मूलभूत सिद्धांतों का अध्ययन किया गया था और जिनमें अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धांत का विवेचन किया गया था। उनमें पहला सिद्धांत तो उस सीमा की ओर संकेत करता है जहाँ तक कि कुल सरकारी व्यय बढ़ाया जाना चाहिए. और दूसरा सिद्धांत विभिन्न मदों में साधनों के बँटवारे की ओर संकेत करता है ताकि शुद्ध सामाजिक लाभ को अधिकतम किया जा सके।
इनका संक्षिप्त विवरण पुनः नीचे दिया जा रहा है। -
(1) सरकारी व्यय प्रत्येक दिशा में ठीक उस सीमा तक किये जाने चाहिए कि जिससे किसी भी क्षेत्र में इस व्यय की थोड़ी-सी भी और वृद्धि से समाज को प्राप्त होने वाले लाभ में, और इसके विपरीत कराधान अथवा अन्य सरकारी आय के अन्य किसी साधन में की जाने वाली थोड़ी-सी वृद्धि से होने वाली हानि में समान संतुलन स्थापित किया जा सके। यह नियम सरकारी व्यय तथा सरकारी आय दोनों की ही एक आदर्श सीमा प्रस्तुत करता है। "प्रो0 पीगू ने भी इस सिद्धांत की लगभग इन्हीं शब्दों में व्याख्या की है, सभी दिशाओं में सरकारी व्यय एक ऐसे बिन्दू (Point) तक बढ़ाया जाना चाहिए जिस पर खर्च किये जाने वाले अन्तिम शिलिंग से जो संतुष्टि प्राप्त हो, वह उस सन्तुष्टि के बराबर हो जो कि सरकारी सेवाओं के लिए अन्तिम शिलिंग देने से नष्ट हो गई हो। इस प्रकार यह सिद्धांत सरकारी खर्च को ऐसे बिन्दु तक जारी रखने की अनुमति देता है जहाँ कि सरकार द्वारा खर्च किये गये अंतिम रूप्ये से प्राप्त होने वाला सीमांत सामाजिक लाभ उस सीमान्त त्याग के बराबर हो जो कि कराधान द्वारा वसूल किये जाने वाले रुपये के कारण करदाता को करना पड़े।
सभी दिशाओं में सरकारी व्यय एक ऐसे बिन्दु तक बढ़ाया जाना चाहिए जिस पर व्यय किये जाने वाले अंतिम शिलिंग से जो संतुष्टि प्राप्त हो, वह उस संतुष्टि के बराबर हो जो कि सरकारी सेवाओं के लिए अंतिम शिलिंग देने से नष्ट हो गई हो। इसका अर्थ है कि "युद्ध पोतों (Battle Ships) तथा निर्धनों की सहातया (Poor relief) की मदों के बीच खर्च का बंटवारा इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उनमें से प्रत्येक मद पर लगाये गए अन्तिम शिलिंग से संतुष्टि का समान प्रतिफल ( return) प्राप्त हो।"
इसका अर्थ यह है कि सरकार को विभिन्न मदों के बीच अपने साधनों का बंटावारा इस प्रकार करना चाहिए जिससे कि प्रत्येक मद से प्राप्त होने वाला सीमांत तुष्टिगुण बराबर हो। इसको हम लोक वित्त के क्षेत्र में सम-सीमांत तुष्टिगुण नियम या अधिकतम संतुष्टि के नियम के क्रियान्वयन का नाम देते हैं। इस प्रार स्पष्ट है कि अपने साधनों का विभिन्न मदों के बीच बंटावारा करते समय यदि सरकार द्वारा इस सिद्धांत को दृष्टिगत रखा जाए तो सरकार अपने खर्च से अधिकतम संतुष्टि प्राप्त कर सकती है। यह भी पहले ही बताया जा चुका है कि प्रत्येक मद से प्राप्त सीमांत सामाजिक लाभ को माप करने का कार्य यदि संभव नहीं, तो अत्यंत कठिन अवश्य है ।
जी. पीगू (G. Pigou ) - यदि हम समाज को एक इकाई प्राणी तथा सरकार को उसका मस्तिष्क मान लें, तो सभी दिशाओं में व्यय उस बिन्दु तक बढ़ाया जाना जहाँ व्यय की गई अंतिम शिलिंग से प्राप्त संतोष राजकीय सेवा में लगाई अंतिम शिलिंग से खोये गये संतोष के बराबर हो जाए।" इस प्रकार राज्य के लिए यह भी बड़ा कठिन है कि वह खर्च किये अन्तिम रुपये के सीमांत सामाजिक लाभ को उस सीमान्त त्याग के बराबर कर सके जो कराधान द्वारा वसूल किये गये अन्तिम रुपये के कारण करदाता को करना पड़े। इस संबंध में और भी अनेक तर्क हैं जो यहाँ दिये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, सरकारी कराधान तथा सरकारी खर्च की कार्यवाहियाँ सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा की जाती हैं, अतः यह और भी कठिन होता है कि खर्च किये गए अन्तिम रुपये से प्राप्त होने वाले सीमान्त लाभ की तुलना कराधान के द्वारा वसूल किये जाने वाले अन्तिम रूप्ये के कारण करदाता द्वारा किये जाने वाले सीमान्त त्याग से की जा सके। फिर सरकारी खर्च कई अनार्थिक कारणों, राजनैतिक दबावों, हड़तालों तथा प्रदर्शनों आदि से भी प्रभावित होता है -
अतः निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि ऊपर सरकारी खर्च के जिन सिद्धांतों का जिक्र किया गया है, वे केवल आदर्श (ideals) हैं और सैद्धांतिक रूप से ही साथ हैं। जहाँ तक व्यापार का प्रश्न है, उन्हें लागू करना बड़ा कठिन है।
लोक व्यय का मार्गदर्शन करने वाली बातें (Guidelines for Public Expenditure)
प्रो० एल्फर्ड जी. बुलचर ने सरकारी व्यय का मार्गदर्शन करने वाली कुछ ऐसी उपयोगी बातों का उल्लेख किया है, जिनका लोकसत्ताओं द्वारा व्यावहारिक जीवन में अनुसरण किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि "अभी तक व्यय के सिद्धांत का उतना उच्चस्तरीय विकास नहीं हुआ है जितना कि काराधान का, किन्तु फिर भी कुछ ऐसे मूलभूत सिद्धांत हैं जो कि तब तक सरकार तथा जनता के लिए मार्गदर्शन के रूप में कार्य कर सकते हैं जब तक कि इस क्षेत्र के लिए और अधिक उपयुक्त स्तरों की खोज न की जाये।" सरकारी व्यय के ये सिद्धांत या मार्गदर्शक बातें अग्रलिखित हैं
1. समाज कल्याण में वृद्धि (Increase in Social Welfare)
सरकारी खर्च के द्वारा समाज कल्याण में वृद्धि होनी चाहिए यद्यपि यह हो सकता है कि कभी-कभी सरकारी खर्च की रूपरेखा का निर्धारण किसी विशेष वर्ग के कल्याण में वृद्धि के लिए ही किया जाए। परन्तु वहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्पूर्ण समाज की भलाई ही सर्वोच्च लक्ष्य है जो कि व्यक्तियों अथवा वर्गों के हितों के ऊपर है। अतः यह अवश्य देखा जाना चाहिए कि किसी वर्ग की सहायता करते समय सम्पूर्ण समाज के कल्याण को क्षति न पहुँचे
2. लाभ लागत से अधिक (Profit is more than cost ) -
सरकारी अधिकारियों तथा निर्वाचित प्रतिनिधि द्वारा अत्यंत सावधानी के साथ निर्णय लेकर इस विषय में आश्वस्त होना चाहिए कि प्रत्येक सेवा पर किये गए खर्च से जो लाभ प्राप्त हो वह उस खर्च को लागत से अधिक हो तथा सरकार द्वारा खर्च किये गए धन से प्राप्त होने वाला सामाजिक कल्याण उससे अधिक होना चाहिए जो कि तब प्राप्त होता जबकि उक्त धन निजी व्यक्तियों द्वारा खर्च किया जाता।
3. सामाजिक कल्याण के कार्यों को वरीयता (Preference to Social Welfare Activities) -
ऐसी सेवाओं को सर्वप्रथम हाथ में लिया जाना चाहिए, जिनके द्वारा कि सामाजिक कल्याण में सर्वाधिक वृद्धि हो और जिनके द्वारा सामाजिक कल्याण (social welfare) में कम वृद्धि हो, उन सेवाओं पर बाद में खर्च किया जाना चाहिए।
4. लाभ के परिणाम (Results of profit) -
खर्चों से प्राप्त होने वाले लाभों के परिणामों को आंकने के लिए उन प्रतिकूल प्रभावों को भी दृष्टिगत रखा जाना चाहिए जो कि उन खर्चों की पूर्ति के लिए लगाये जाने वाले करों तथा प्राप्त की जाने वाली अन्य आय के संग्रह के कारण उत्पन्न हों।
5. प्रशासनिक व्यय (Administrative Expenditure ) -
सरकार के प्रशासन आदि में जो व्यय होता है वह भी उन सेवाओं पर किया गया ही माना जाना चाहिए जो सरकार जन-कल्याण के लिए उपलब्ध करती है। यदि सरकारी प्रशासन आदि की लागत बहुत अधिक आती हैं तो वह माना जायेगा कि सम्पन्न की जाने वाली सेवाओं के चुनाव में अथवा उसको सम्पन्न करने के तरीके में कुछ कमी है।
6. साधनों की उपलब्धि (Availability of Resources) -
सरकारी सेवाएँ केवल तभी हाथ में ली जानी चाहिए जबकि उनकी लागत को पूरा कराने के लिए यथेष्ट साधन उपलब्ध हों। उधार द्वारा केवल अस्थायी प्राप्तियों (receipts) की ही व्यवस्था की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार उधार लिए हुए धन को भी अन्ततः अन्य स्रोतों की आय से वापिस करना होता है और इन स्रोतों में कर मुख्य होते हैं।
7. आय की सम्भावना (Expectations of Income) -
कुछ सेवाएँ स्थानान्तरणीय (transferable ) प्रकृति की होती हैं, जैसे- सार्वजनिक निर्माण कार्य (Public work )। ऐसी सेवाओं को सम्पन्न करने तथा उन पर धन व्यय करते समय यह भी देखा जाना चाहिए कि उनसे भावी आय की क्या सम्भावनाएँ हैं तथा क्या वे सामान्य व्यावसायिक दशाओं के अन्तर्गत सम्पन्न की जा रही हैं। ऐसी सेवाओं को सम्पन्न करने के लिए वह समय छाँटा जाना चाहिए जो कि समाज की दृष्टि से सर्वोत्तम तथा अनुकूल हो ताकि उन सेवाओं के प्रभावों को आर्थिक स्थिरता में वृद्धि करने की दिशा में मोड़ा जा सके।
8. व्यय की सीमाएँ (Limitations of Expenditure )
व्यय पर प्रारंभ में तो नहीं, किन्तु अन्तिम रूप में कुछ सीमाएँ लागू की जाती है। वे हैं - जनसंख्या को देखते हुए समाज की आय व धन क्षेत्र अन्य साधन तथा धन व आय का विशिष्ट वितरण ।
9. सेवा समन्वय (Service Coordination) -
सरकार की विभिन्न इकाइयों की सेवाओं के बीच कारगर ढंग से समन्वय (coordination) स्थापित किया जाना चाहिए ताकि उन सेवाओं से अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त किया जा सके और सरकारी प्रयत्नों से व्यर्थ का दोहराव (duplication) उत्पन्न न हो
10. प्रशासनिक श्रेष्ठता (Administrative Ability) -
सरकारी प्रशासन कुशल तथा ईमानदार होना चाहिए। केवल कानन - सम्मत खर्च किये जाने वाहिए, तभी खर्चों का समुचित रूप से हिसाब रखा जाना चाहिए और रिपोर्टों आदि के द्वारा सरकार की वित्तीय कार्यवाहियों का सरल ढंग से समुचित प्रयास किया जाना चाहिए ताकि जनता तथा साथ ही साथ सरकारी अधिकारी भी सरकारी सेवाओं की लागतों (costs) एवं लाभों की तुलना कर सकें।
लोक व्यय के सिद्धांत का नियम (Canons of Public Expenditure)
प्रो० शिराज ने भी सरकारी व्यय के चार सिद्धांतों का उल्लेख किया है जो कि निम्न प्रकार हैं -
1. लाभ का सिद्धान्त (Cannon of Bebefit)-
इस सिद्धांत का आदर्श है अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति, अर्थात् सरकारी खर्च की योजना इस प्रकार बनाई जानी चाहिए ताकि उसमें समाज के किसी विशेष वर्ग के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण रूप में (as a whole) समस्त समाज के लिए अधिकतम सामाजिक लाभ तथा सामाजिक कल्याण प्राप्त किया जा सके। 'यदि अन्य बातें समान रहें तो यह आवश्यक है कि सरकारी खर्च अपने साथ कई सामाजिक उपलब्धियाँ लाए, जैसे कि उत्पादन में वृद्धि, बाह्य आक्रमण तथा आन्तरिक अशान्ति से सम्पूर्ण समाज की सुरक्षा और जहाँ तक भी सम्भव हो सके आय की असमानताओं में कमी।" संक्षेप में कहा जा सकता है कि सरकारी धन उन मदों में खर्च किया जाना चाहिए जो कि जनहित की दृष्टि से सर्वाधिक अनुकूल हो। अन्य शब्दों में, सरकारी खर्च से अधिकतम तुष्टिगुण प्राप्त किया जाना चाहिए और ऐसा केवल तभी सम्भव हो सकता है जबकि सरकारें धन को इस प्रकार खर्च करें तथा विभिन्न उपयोगों के बीच साधनों का इस प्रकार बंटावारा करें ताकि सभी उपयोगों (uses) से प्राप्त होने वाला सीमान्त तुष्टिगुण बराबर हो। अन्य शब्दों में, ऐसा तब हो सकता है जबकि लोक वित्त के क्षेत्र में सम-सीमान्त तुष्टिगुण नियम अथवा अधिकतम संतुष्टि का नियम लागू की जाए। इसका अर्थ है कि लोक सताओं को अपने साधनों का बँटवार उपर्युक्त रीति से करना चाहिए जिससे कि -
(क) सम्पूर्ण रूप में देश के कुल उत्पादन में वृद्धि हो,
(ख) बाह्य तथा आन्तरिक खतरों से समाज की रक्षा करने के लिए पर्याप्त सेना तथा पुलिस बनाई रखी जा सके;
(ग) नागरिकों के बीच आय की असमानताओं को कम किया जा सके और
(घ) किसी एक वर्ग के नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समाज के ही कल्याण को अधिकतम किया जा सके।
अन्य शब्दों में, 'अधिकाधिक लोगों का अधिकाधिक हित ही इस सिद्धांत का एकमात्र लक्ष्य है। अतः सरकारी खर्च का यह सिद्धांत बड़ा उपयोगी सिद्धांत है और अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी सरकार द्वारा अपनाये जाने वाले आदर्श के रूप में इसका खण्डन नहीं कर सकता। यह तो रही सिद्धांत की बात, जहाँ तब व्यवहार का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि राज्य द्वारा इस सिद्धांत के लक्ष्य अथवा आदर्श को प्राप्त कर सकना बड़ा कठिन है। इसका कारण यह है कि एक ओर तो सरकार के लिए यह असंभव है कि वह खर्च की प्रत्येक मद से प्राप्त होने वाले सीमान्त सामाजिक लाभ को समान कर सके और दूसरी ओर सम्पूर्ण समाज को प्रदान किये जाने वाले कुछ लाभ की मात्रा का अनुमान लगा सके। इस सब विवेचन के अन्त में यही निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक सरकारी व्यय का उद्देश्य यह होना चाहिए कि देश के उत्पादन तथा वितरण में सुधार हो
2. मितव्ययिता का सिद्धान्त (Canon of Economy) -
मितव्ययिता के सिद्धांत से आशय हैं कि राज्य खर्च करने के मामले में किफायती दृष्टिकोण सामने रखे। इस सम्बन्ध में दो विचारणीय बातें उल्लेखनीय हैं। सर्वप्रथम सरकार को किसी भी मद पर न्यूनतम आवश्यक धनराशि ही व्यय करनी चाहिए। दूसरे, उसे यथासम्भव समाज की उत्पादन शक्ति में वृद्धि भी करनी चाहिए। यही मितव्ययिता या किफायत ( economy) का सकारात्मक पहलू है। इसमें पहले विचार का सम्बन्ध वर्तमान से है और दूसरे का सम्बन्ध भविष्य से। इस सिद्धान्त का एकमात्र उद्देश्य अतिव्ययता (extravagance) तथा भ्रष्टाचार ( corruption) से बचना है। सामाजिक लाभ को तभी अधिकतम किया जा सकता है, जबकि व्यय में फिजूलखर्ची या बर्बादी न हो । अतः यह सिद्धांत ऐसा अच्छा व्यावहारिक नियम है जिसका सरकारें अनुसरण कर सकती हैं। इस सन्दर्भ में शिराज ने इसके एक- दूसरे पहलू पर भी जोर दिया है, और वह यह है कि "मितव्ययिता का अर्थ है करदाता के हितों की रक्षा करना केवल खर्च की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करके ही नहीं बल्कि सरकारी आय को बढ़ाने की दृष्टि से भी।" स्पष्टतः इसका अर्थ यही है कि सरकार अपना व्यय इस प्रकार के कि उसमें सरकार की आय के विस्तार में भी मदद मिले। वस्तुतः यह भी इस सिद्धांत का बड़ा महत्वपूर्ण पहलू हैं और सरकार जब अपने खर्च की रूपरेखा बनाए तो उसे इसका अनुसरण अवश्य करना चाहिए
3. स्वीकृति का सिद्धान्त (Canon of Sanction ) -
स्वीकृति का सिद्धांत यह है कि बिना उपयुक्त अधिकारों या सत्ता की स्वीकृति के कोई भी सरकारी खर्च नहीं किया जाना चाहिए। इसका आशय यह है कि कोई भी धनराशि उस समय तक खर्च नहीं की जानी चाहिए जब तक कि उस खर्च के लिए उपयुक्त अधिकृत व्यक्ति से स्वीकृति या अनुमति न मिल जाए। प्रत्येक सरकारी निकाय को इस बात की तो स्वाधीनता होनी चाहिए कि वह किसी विशेष मद पर एक निश्चित सीमा तक खर्च कर सके परन्तु उस सीमा से अधिक प्रत्येक खर्च तभी किया जाना चाहिए जबकि समुचित अधिकारी से उसकी स्वीकृति प्राप्त कर ली जाए। अतः इस सिद्धांत का उद्देश्य यही है कि सभी अविवेकपूर्ण तथा अन्धाधुन्ध खर्चों को रोका जा सके क्योंकि लोगों का अनुभव है कि सभी अनाधिकृत खर्चे ( unauthorized expenditures) अपव्यय तथा अति व्यय को प्रोत्साहन देते हैं। स्वीकृति के सिद्धांत के अन्तर्गत यह भी देखना जरूरी होता है कि व्यय करने वाले अधिकारी धन का उसी कार्य में खर्च करें जिसके लिए उसकी स्वीकृति मिली है। यह देखने के लिए कि स्वीकृत खर्च की धनराशि का दुरूप्योग तो नहीं हुआ है, वित्तीय वर्ष के अन्त में सरकारी खातों का सदा लेखा परीक्षण (audit) तथा निरीक्षण ( inspection) किया जाता है। प्रो० शिराज का यह सिद्धांत सरकारी खर्च की नीति निर्धारित करने के लिए उपयुक्त कार्य पद्धति प्रस्तुत करता है तथा सरकारी खर्च के प्रशासन में कुछ निहित स्वार्थी ( vested interests) के प्रवेश तथा मनमानेपर पर रोक लगाता है।
वर्तमान समय में स्वीकृति के इस सिद्धांत का काफी विस्तार हुआ है। उदाहरण के लिए लोकतंत्रीय देशों में स्वयं सरकार को भी खर्च करने से पहले संसद (Parliament) या विधान मण्डल की स्वीकृति लेनी पड़ती है। सरकार के प्रत्येक मन्त्रालय या विभाग को वित्त मन्त्रालय की स्वीकृति लेनी पड़ती है। एक विभाग के अन्तर्गत भी विभागाध्यक्ष की अनुमति लेनी पड़ती है। इसी प्रकार खर्च के लिए पूर्व स्वीकृति लेने का यह सिलसिला बराबर आगे भी चलता रहता है। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि अनुमति लेने की इस व्यापक व्यवस्था के कारण कभी-कभी कार्य देरी से सम्पन्न होता है और प्रशासन में लाल फीताशाही (red-tapism) जन्म ले लेती है परंतु इसको इसलिए सहन करना होता है ताकि खर्च के प्रशासन में ईमानदारी और मितव्ययिता बनी रहे और अपव्यय एवं अति व्यय को रोका जा सके।
4. बचत या बेशी का सिद्धांत (Canon of Surplus ) -
बेशी के सिद्धांत के अनुसार सरकारी खर्च में घाटे की स्थिति से बचा जाना चाहिए। प्रोद्ध शिराज के ही शब्दों में, "सरकारों को अपनी आय प्राप्त करने तथा खर्च करने के मामलों में सामान्य नागरिकों के समान ही आचरण करना चाहिए। निजी व्यक्ति जिस प्रकार अपने खर्च को आय से अधिक नहीं होने देते, उसी प्रकार सरकारों को भी सन्तुलित बजट बनाने की आदत डालनी चाहिए। वार्षिक व्यय को बिना नये उधार लिए ही संतुलित कर लेना चाहिए।" यह सिद्धांत बड़ा ठोस तथा सुरक्षित प्रतीत होता है। यह सिद्धांत बताता है कि प्राइवेट व्यक्ति के समान सरकार को भी अपने साधनों की परिधि में रहकर ही खर्च करना चाहिए। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकार को कभी ऋण लेना ही नहीं चाहिए। वस्तुतः यदि आवश्यकता हो तो उसे उधार ले लेना चाहिए। परंतु उसकी आय इतनी होनी चाहिए कि वह उस ऋण का ब्याज अदा कर सके और ऋण की वापसी के लिए एक शोधन निधि (Sinking Fund) का निर्माण कर सके ।
किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री सन्तुलित बजट को सदैव अच्छा नहीं समझते। वस्तुतः बजट कैसा बनाया जाए, यह बात देश की अर्थव्यवस्था की दशा पर निर्भर होती हैं। मुद्रास्फीति की दशा में बेशी के बजट (surplus budget) को अच्छा माना जाता है, क्योंकि यह लोगों की क्रयशक्ति (purchasing power) को कम कर देता है जिससे कुल समर्थ मांग (effective demand ) मात्रा कम हो जाती है और इस प्रकार यह चालू मांग और चालू उत्पादन में संतुलन कायम रखने में सहायक होता है। इसके विपरीत मन्दी के दिनों में घाटे के बजट (deficit budget) को वांछनीय माना जाता है और वह इसलिए क्योंकि यह लोगों की क्रयशक्ति में वृद्धि करके कुल समर्थ मांग में वृद्धि कर देता है और इस प्रकार चालू मांग तथा चालू उत्पादन के बीच संतुलन कर देता है।
इसी प्रकार संतुलित बजट (balanced budget) को उस समय वांछनीय माना जाता है जबकि अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत पूर्ण रोजगार तथा मूल्यों में स्थिरता की स्थिति वर्तमान हो। इसके अतिरिक्त एक विकासशील देश में घाटे के बजट को पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि करने के एक अस्त्र के रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता है, बशर्ते कि घाटा बहुत अधिक न हो, अन्यथा तो इस कार्यवाही से अर्थव्यवस्था (economy) में स्फीतिजन्य प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो जायेंगी ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि बेशी या बजट के सिद्धांत को आधुनिक लोक वित्त में वह महत्ता प्राप्त नहीं है जो कि इसे प्राचीन समय में प्राप्त थी ।
लोक व्यय के अन्य सिद्धांत (Other Canons of Public Expenditure )
सरकारी व्यय के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अलावा, कुछ अर्थशास्त्रियों ने कुछ अन्य सिद्धांतों का उल्लेख किया है। ये सिद्धांत निम्न प्रकार हैं
1. लोच का सिद्धान्त (Canon of Elasticity) -
इस सिद्धांत का कहना है कि राज्य की व्यय नीति ऐसी होनी चाहिए कि जो देश की बदलती हुई परिस्थितियों के साथ स्वयं को परिवर्तित कर सके, अर्थात् देश की आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार सरकारी खर्च में घटा-बढ़ी करना संभव हो सके। वास्तव में, इस सिद्धांत का उद्देश्य यह है कि सरकारी खर्च की नीति में ऐसी लोच होनी चाहिए किवह युद्ध जैसे संकटकालीन अवसरों पर तथा व्यापक विकास कार्यक्रमों के लिए वित्त का प्रबंध करने में असफल न हो जाए। अन्य शब्दों में, सरकारी खर्च की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि संकटकाल में यदि साधनों को एक मद से दूसरी मद में स्थानान्तरित किया जाए तो उससे देश का आर्थिक जीवन अस्त-व्यस्त न हो जाए । उदाहरणार्थ युद्धकाल में खर्च को मकानों के निर्माण से हटाकर युद्ध कार्यों में लागये जाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
2. उत्पादकता का सिद्धांत (Canon of Productivity)
इस सिद्धांत का आशय है कि राज्य की व्यय नीति ऐसी होनी चाहिए जो कि सम्पूर्ण रूप में देश के उत्पादन को प्रोत्साहित करे। स्पष्ट है कि इस सिद्धांत के अनुसार, अधिकाधिक सरकारी व्यय उत्पादन तथा विकास संबंधी कार्यों में ही किया जाना चाहिए।
अल्पविकसित देशों के लिए तो यह सिद्धांत बड़ा ही अनुकूल है, क्योंकि ऐसे देशों में, "सामाजिक तथा सरकारी सेवाओं की उपज में तथा सामुदायिक उपभोग की सुविधाओं में वृद्धि करने के लिए सरकारी खर्च में व्यापक विस्तार की आवश्यकता होती है।" अतः अधिकतम रोजगार, अधिकतम पैदावार तथा अधिकतम आय ही सरकारी खर्च का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए ।
भारत का लोक व्यय : सिद्धांतों की कसौटी पर
अब यदि भारत के लोक-व्यय को सिद्धांतों की कसौटी पर कसते हैं तो पाते हैं कि भारतीय लोक-व्यय कुछ सिद्धांतों के अनुकूल है किन्तु फिर भी उसमें अभी काफी सुधार करने की आवश्यकता है। देश की स्वतंत्रता के पश्चात् भारी उद्योगों की स्थापना, आर्थिक एवं सामाजिक पूँजी निर्माण की वृद्धि, सामाजिक कल्याण की योजनाओं में वृद्धि इत्यादि कार्यों पर काफी सार्वजनिक व्यय हुआ है और यही कारण है कि पिछले दो दशकों से भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुदृढ़ता आई है। योजनाओं के अंतर्गत अपनायी गयी क्षेत्रीय विकास की नीति 'लाभ के सिद्धांत' के अनुरूप है क्योंकि इससे पिछड़े क्षेत्रों, विशेषकर ग्रामीण जनसंख्या को काफी लाभ पहुँचा है। किन्तु प्रशासनिक शिथिलता के कारण 'मितव्ययिता' एवं 'स्वीकृति' के सिद्धांतों का पूरी तरह पालन नहीं हुआ है। घाटे का बजट हमारी सरकार की परम्परागत कमजोरी रही है और स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि न केवल केन्द्र सरकार ही अपना अर्थ -प्रबन्ध घाटे के बजट से पूर्ण करती है बल्कि राज्य सरकारों की भी यह एक दिनचर्या बन गई है। आज वास्तविकता यह है कि लोगों की करदान क्षमता लगभग समाप्त हो चुकी है ओर लोक व्यय में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जा रही है। लोक-व्यय में 'लोच' की अनुपस्थिति के साथ-साथ लोगों की कर देने की योग्यता कम होने के कारण सरकार ने अपने अर्थ - प्रबन्ध के लिए नये नोटों को छापा है। इसके परिणामस्वरूप देश महँगाई के दौर से गुजर रहा है। पिछले दशक से तो यह स्थिति और भी अधिक गंभीर हो गई है। यह बात अवश्य सराहनीय है कि सरकार की व्यय नीति 'उत्पादकता' एवं 'न्यायपूर्ण' वितरण के सिद्धांतों को अपनाने में काफी सफल रही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत सरकार की व्यय नीति में अभी भी काफी सुधार करने की गुंजाइश है ।
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