लोक वित्त की विषय-सामग्री | Subject matter of Public Finance

लोक वित्त की विषय-सामग्री (Subject matter of Public Finance)



लोक वित्त की विषय-सामग्री | Subject matter of Public Finance
 

लोक वित्त की विषय-सामग्री 

लोक वित्त एक ऐसा विज्ञान हैजिसका सम्बन्ध सरकार की आय तथा व्यय से है किन्तु वर्तमान समय में इसका क्षेत्र एवं महत्त्व और विस्तृत हो गया है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने इसको निम्नलिखित विभागों में बँटा है सार्वजनिक आयसार्वजनिक व्यय सार्वजनिक ऋण और सम्पूर्ण रूप में राजकोषीय व्यवस्था की समस्याएँजैसे कि वित्तीय प्रशासन इन विभागों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है. -

 

1. सार्वजनिक आय या लोक राजस्व (Public Revenue ) - 

इन विभागों में सरकारी आय की प्राप्ति एवं उसमें वृद्धि के उपायोंकराधान के सिद्धांतों तथा उनसे सम्बन्धित अन्य समस्याओं का विवेचन एवं विश्लेषण किया जाता है।

 

इस विभाग के अन्तर्गत निम्न कार्य किये जाते हैं-

 

(a) सार्वजनिक आय के कौन-कौन से साधन हैं अर्थात् सार्वजनिक आय का वर्गीकरण । 

(b) कर जो कि सार्वजनिक आय का एक प्रमुख साधन हैकर कितने प्रकार के होते हैं अर्थात् कर का वर्गीकरण 

(c) कर लगाने में किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए अर्थात् करोरोपण के सिद्धांत । 

(d) जनता की कर देने की शक्ति से क्या तात्पर्य है और यह किन-किन बातों पर निर्भर करती है अर्थात् कर देय क्षमता तथा उसके निर्धारक तत्व । 

(e) सार्वजनिक आय का देश के उत्पादन तथा आर्थिक वितरण पर क्या प्रभाव पड़ता है अर्थात् सार्वजनिक आय के प्रभाव। 

(f) किन-किन कारणों से एक कर का भार किसी अन्य व्यक्ति पर टालने में सफल होता हैअर्थात् कर के विवर्तन के तत्व

 

2. सार्वजनिक व्यय (Public Expenditure ) - 

लोक वित्त का यह विभाग सरकारी व्यय के सिद्धांतों तथा देश के आर्थिक जीवन पर अर्थात् उत्पादनवितरण तथा विभिन्न वर्गों पर पड़ने वाले उसके प्रभावों का अध्ययन करता है। इस विभाग के अन्तर्गत निम्नलिखित समस्याओं का अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाता है

 

(a) सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण 

(b) किन-किन मदों पर सरकारी व्यय होना चाहिए और किन-किन पर नहीं अर्थात् सार्वजनिक व्यय का क्षेत्र 

(c) सार्वजनिक व्यय करते समय किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए अर्थात् सार्वजनिक व्यय के  सिद्धांत । 

(d) सार्वजनिक व्ययका देश के उत्पादन तथा आर्थिक वितरण पर क्या प्रभाव पड़ता हैअर्थात् सार्वजनिक व्यय के प्रभाव।

 

3. सार्वजनिक ऋण (Public Debt ) - 

इस विभाग के अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सरकारी ऋण क्यों लिये जाते हैंकैसे लिए जाते हैंउनका भुगतान किस प्रकार किया जाता है तथा उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है।

 

सार्वजनिक ऋण के अन्तर्गत निम्न बातों का अध्ययन किया जाता है

 

(a) किन-किन परिस्थितियों में सरकार के लिए ऋण लेना वांछनीय होगा अर्थात् सार्वजनिक ऋण का क्षेत्र ।

 

(b) सार्वजनिक ऋण कितने प्रकार के होते हैं अर्थात् सार्वजनिक ऋण का वर्गीकरण 

(c) किन दशाओं में ऋण लेना अधिक उपयुक्त होगा और किन दशाओं में कर लगाना अर्थात् ऋण और कर का तुलनात्मक अध्ययन  

(d) किन दशाओं में देश के भीतर से ऋण लेना अधिक उपयुक्त होगा और किन में विदेशों से अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य ऋण की तुलना । 

(e) घाटे का वित्त प्रबन्ध क्या होता हैकिस सीमा तक घाटे का वित्त प्रबन्ध किया जा सकता है और उसके क्या प्रभाव होते हैं अर्थात् घाटे के वित्त प्रबन्ध का अर्थसीमा तथा प्रभाव । 

(f) ऋण की वापसी के कौन-कौन से तरीके और उनमें से हर एक के क्या गुण व दोष हैं अर्थात् सार्वजनिक ऋण के शोधन के सिद्धांत । 

(g) ऋण के क्या प्रभाव होते हैं?

 

4. वित्तीय प्रशासन (Financial Administration ) - 

लोक वित्त की इस शाखा के अन्तर्गत प्रशासनिक नियन्त्रण के उपायों तथा बजट की तैयारी से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन तथा विश्लेषण किया जाता है। वित्तीय प्रशासन के अन्तर्गत निम्न बातों का अध्ययन किया जाता है

 

(a) बजट किस प्रकार तैयार पास तथा कार्यान्वित किया जाता है? 

(b) विभिन्न करों का एकत्रीकरण किन-किन अधिकारियों तथा संस्थाओं द्वारा होता है? 

(c) व्यय विभागों का संचालन किस प्रकार होता है? 

(d) सार्वजनिक लेखों के लिखने तथा उनके ऑडिट के लिए कौन-कौन से विभाग तथा अधिकारी होते हैं तथा उनके क्या-क्या अधिकार तथा उत्तरदायित्व हैं?

 

बेस्टेबल ने राजस्व के इस विभाग की आवश्यकता तथा महत्त्व पर विशेष बल दिया। उनके अनुसार कोई भी वित्त की पुस्तक पूर्ण नहीं कही जा सकती है जब तक कि वह वित्तीय प्रशासन और बजट की समस्याओं का अध्ययन नहीं करती।

 

लोक वित्त की विषय - सामग्री सम्बन्धी आधुनिक मत (Modern View Relating to Subject Matter)

 

आधुनिक अर्थशास्त्रियों के मतानुसार लोक वित्त की विषय सामग्री के उपरोक्त चार भागों के अतिरिक्त निम्न दो भागों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए -

 

1. आर्थिक स्थिरता (Economic Stabilisation) - 

इस विभाग के अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि वर्तमान में सभी अर्थव्यवस्थाओं का आर्थिक स्थिरताएक मुख्य उद्देश्य होता हैइसको बनाये रखने के लिए राजकोषीय नीति (Fiscal policy) को किस प्रकार से उपभोग में लाया जाएदेश की राष्ट्रीय आय में न्यायोचित वितरणकीमत स्थिरता को बनाये रखने के लिए राजकोषीय नीति एक महत्वपूर्ण अस्त्र माना जाने लगा है। इसी सहायता से देश की उत्पादन क्रियाओं का नियमन करके आर्थिक स्थिरता स्थापित की जा सकतती है।

 

2. आर्थिक वृद्धि (Economic Growth) 

कुछ विद्वानों का कहना है कि आर्थिक स्थिरता की समस्या मूलभूत रूप से विकसित देशों की होती है। विकासशील देशों में तो मुख्य समस्या आर्थिक वृद्धि की होती है। ऐसी स्थिति में इन देशों में आयबचतनिवेश एवं पूँजी निर्माण में वृद्धि करने की आवश्यकता होती है। जो राजकोषीय उपकरणों के प्रयोग से ही सम्भव हो सकता है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो० रैगनर नर्कसे ( R. Nurkse) का कहना ठीक प्रतीत होता है, "मेरा अटूट विश्वास हो चुका है अल्प विकसित देशों में पूँजी निर्माण की समस्या को हल करने के लिए लोक वित्त को एक नायक का स्थान प्राप्त हुआ है।" इस प्रकार स्पष्ट है कि नियोजित विकास में राजकोषीय नीतिजोकि लोक वित्त की विषय-सामग्री का अंग हैका अध्ययन आवश्यक है। लोक वित्त का क्षेत्र तथा इसकी विषय-सामग्री स्थिर नहीं हैक्योंकि राज्य की धारणा (cpmcept) राज्य के कार्यों तथा अर्थशास्त्र की समस्याओं में परिवर्तन होने के साथ ही साथ इसका भी निरन्तर विस्तार होता जा रहा है।

 

उदाहरणतया - 

सन् 1930 की गम्भीर आर्थिक मन्दी तथा रोजगार का सामान्य सिद्धांतनामक कीन्स के लेख ने इस बात को पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि देश में आर्थिक स्थिरता लाने व उसे बनाये राने में राजकोषीय कार्यवाहियों का कितना अधिक महत्व हैं। आजकल सरकारी आयसरकारी खर्च तथा सरकारी उधार में वृद्धि तथा राज्य के आर्थिक व सामाजिक उत्तरदायित्वों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। प्रतिरक्षा एवं लोक प्रशासन की नित्य नई-नई समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। इन सभी तत्वों के कारण लोक वित्त का क्षेत्र भी बराबर विस्तृत होता जा रहा है।

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