तापमान का वितरण व्युत्क्रमण परिसर विसंगति | पृथ्वी पर ताप की पेटियां | समताप रेखाओं का स्वरूप | Temperature Distribution in Earth in Hindi
तापमान का वितरण व्युत्क्रमण परिसर विसंगति ,पृथ्वी पर ताप की पेटियां
तापमान का वितरण
- तापमान से आशय वायुमंडल की निचली परत के तापमान से है। यह वायु धरातल के संपर्क में रहती है तथा धरातल से ऊष्मा प्राप्त करती है। वायुमंडलीय तापमान का मुख्य कारण सूर्य से प्राप्त होने वाली ऊर्जा है। सूर्य से ऊर्जा की विशाल मात्रा विसर्जित होती हैं किंतु उसका केवल 1/2000 करोड़ भाग ही पृथ्वी तक पहुंच पाता है। सूर्य से प्राप्त इस ऊर्जा की काफी मात्रा वायुमंडल की ऊपरी सतह तक पहुंचने से पहले ही खो जाती है, और यहां तक पहुंचने वाली ऊर्जा का भी एक बड़ा भाग वायुमंडल को पार कर पृथ्वी तक नहीं पहुंच पाता। पृथ्वी भी सूर्य से प्राप्त संपूर्ण ऊर्जा का अवशोषण नहीं कर पाती है। इसका कुछ भाग पार्थिव परावर्तन (Albedo) के रूप में पुनः अंतरिक्ष को वापिस कर दिया जाता है। परावर्तन के पश्चात् जो ऊर्जा शेष बचती है उसी के परिणामस्वरूप पृथ्वी का तल गर्म होता है। अतः पृथ्वी का वायुमंडल सौर विकिरण से सीधे गर्म नहीं होता है। चूंकि सूर्य से आने वाली किरणें लघु तरंगों के रूप में आती हैं इसलिए इनका अवशोषण धरातल द्वारा किया जाता है। धरातल से जब अवशोषित ऊष्मा का विकिरण दीर्घ तरंगों के रूप में होता है तो यह वायुमंडल द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं। वास्तविक रूप में वायु धरातल के संपर्क में आने के कारण ही गर्म होती है। यही कारण है कि वायुमंडल में ऊंचाई बढ़ने के साथ वायु का तापमान घटता पाया जाता है।
- पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर तापमान में अंतर पाया जाता है। जिसका प्रमुख कारण धरातल पर सूर्यातप का असमान वितरण है। अक्षांश, ऊंचाई, जल एवं स्थल का वितरण, महासागरीय धाराएं, समुद्र से दूरी और धरातल की प्रकृति तापमान में विषमता उत्पन्न करने वाले प्रमुख कारक हैं।
- विश्व में सूर्यातप का वितरण तापमान के वितरण को नियंत्रित करने वाला मुख्य कारक है। अक्षांश, पृथ्वी पर सूर्यातप की मात्रा को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक है। इसलिए ध्रुवों की अपेक्षा भूमध्य रेखा पर सूर्यातप तथा तापमान भी अधिक होता है। सूर्यातप के अवशोषण के कारण धरातल गर्म होता है और इससे धरातल के संपर्क में आने वाली वायु भी गर्म हो जाती है। इसीलिए ऊंचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान कम होता जाता है। अतः समुद्रतल से ऊंचाई किसी स्थान के तापमान को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है।
- तापमान धरातल की प्रकृति पर भी निर्भर करता है। धरातल सूर्यातप की संपूर्ण मात्रा को अवशोषित नहीं करता है। इसका कुछ भाग परावर्तित कर दिया जाता है जिसे 'एलबिडो' कहते हैं। एलबिडो एक धरातल से दूसरे धरातल पर होता है। बर्फ से ढके धरातल से 90% तक सूर्यातप का परावर्तन हो जाता है। यदि आपतन कोण कम होता है तो भी सूर्यातप की अधिक मात्रा का परावर्तन हो जाता है। जल राशियां सूर्यातप की अधिक मात्रा अवशोषित करती हैं। यदि सूर्य की किरणें धरातल पर लंबवत पड़ें तो सूर्यातप के परावर्तन की दर भी कम होती है। शांत जल राशियों की अपेक्षा स्थल भागों का एलबिडो अधिक होता हैं। परंतु यदि सूर्य की किरणें तिरछी हों तथा जलराशि अशांत हो तो इसका एलबिडो अत्यधिक ऊंचा होता है। धरातल से परावर्तन चट्टानों के रंग और वनस्पति की प्रकृति से भी प्रभावित होता है। सूखे और रेतीले धरातल पर सौर विकिरण की परावर्तित मात्रा 35 से 45 प्रतिशत होती है। गहरे रंग की आर्द्र मृदा में यह दर केवल 15 प्रतिशत या इससे भी कम होती है। पर्णपाती वनों में यह दर 5 से 10 प्रतिशत होती है जबकि कोणधारी वनों में इसका अनुपात 10 से 20 प्रतिशत होता है। घास भूमियों में यह दर 15 से 25 प्रतिशत पाई जाती है।
- पृथ्वी पर स्थल तथा जल का वितरण भी तापमान के वितरण को प्रभावित करता है। यह जल और स्थल भागों के ऊष्मा ग्रहण करने तथा गर्म होने की विशेषताओं में अंतर का परिणाम होता है। किसी पदार्थ की एक ग्राम मात्रा में 1° से. तापमान की वृद्धि करने के लिए जितनी ऊर्जा की आवश्यकता होती है उसे उस पदार्थ की विशिष्ट ऊष्मा कहते हैं। स्थल की विशिष्ट ऊष्मा जल की अपेक्षा कम होती है जिस कारण जल की अपेक्षा स्थल शीघ्र और अधिक गर्म या ठंडा होता है। इसलिए महासागरों का तापमान लगभग सम रहता है जबकि स्थल भाग. अत्यधिक गर्म या ठंडे होते हैं। महासागरों के आस-पास की स्थिति के तापमान को सम बनाए रखने वाले प्रभाव को महासागरीय प्रभाव और स्थलखंडों के आंतरिक भागों में पाए जाने वाले अति विषम तापमान के प्रभाव को स्थलीय अथवा महाद्वीपीय प्रभाव कहते हैं। अतः समुद्र से दूरी बढ़ने पर दैनिक तथा वार्षिक दोनों तापांतर बढ़ते पाए जाते हैं।
- समुद्री धाराएं तथा पवनें भी स्थानीय आधार पर तापमान को प्रभावित करती हैं। जिन समुद्री तटों के पास गर्म जलधाराएं बहती हैं उन तटवर्ती क्षेत्रों में तापमान उन्हीं अक्षांशों में स्थित अन्य क्षेत्रों के तापमान से ऊंचा पाया जाता है। सामान्यतः महाद्वीपों के पूर्वी तटों (निम्न तथा मध्य अक्षांशों में) पर गर्म जलधाराएं पाई जाती हैं जबकि पश्चिमी तटों के साथ समान अक्षांशों पर ठंडी धाराएं पाई जाती हैं। इसके फलस्वरूप इन क्षेत्रों में तापमान में विषमताएं पाई जाती हैं।
- ठीक इसी प्रकार के स्थानीय तापीय अंतर गर्म तथा शीत पवनों से प्रभावित क्षेत्रों में भी देखने को मिलते हैं। भारत के उत्तरी मैदानों में ग्रीष्म काल में 'लू' पवनें तथा शीतकाल में उपध्रुवीय क्षेत्रों की ओर से आने वाली शीत लहर उत्पन्न करने वाली पवनें तापमान में स्थानीय परिवर्तन ला देती हैं। स्थानीय पवनों के इस प्रकार के प्रभाव विश्व के अनेक भागों में देखने को मिलते हैं।
पृथ्वी पर ताप की पेटियां
- शीत कटिबंध
- शीतोष्ण कटिबंध
- उष्ण कटिबंध
- शीतोष्ण कटिबंध
- शीत कटिबंध
- संसार में तापमान का वितरण असमान है। तापमान के आधार पर पृथ्वी को तीन ताप कटिबंधों में बांटा जा सकता है, उष्ण कटिबंध जहां सारा साल सूर्य की किरणें लंबवत पड़ने के कारण तापमान उच्च रहता है, शीतोष्ण कटिबंध (मध्य क्षेत्र) जहां सामान्य रहता है तथा शीत कटिबंध जहां सारा साल सूर्य की किरणें तिरछी रहने के कारण तापमान बहुत कम होता है। इसलिए यह प्रदेश बर्फ से आच्छादित रहते हैं। जिससे इन क्षेत्रों से सूर्यातप का परावर्तन भी अधिक होता है और तापमान नीचा बना रहता है।
पृथ्वी पर समताप रेखाओं का स्वरूप-
- मानचित्र पर तापमान का वितरण समताप रेखाओं की सहायता से प्रदर्शित किया जाता है। यह रेखाएं रामान तापमान वाले स्थानों को मिलाती हैं। साधारणतः समताप रेखाएं तापमान को समुद्रतल के अनुसार मानकर खींची जाती हैं। इसके लिए किसी स्थान के वास्तविक तापमान को इसकी ऊंचाई के अनुसार शुद्ध किया जाता है। सामान्यतया समताप रेखाएं अक्षांशों के समानांतर होती हैं। परंतु विश्व स्तर पर इनका स्वरूप महासागरीय और स्थलीय पभावों के कारण इस अक्षांशीय प्रवृत्ति से भिन्न हो जाता है। किन्हीं दिए गए अक्षांशों में, स्थलखंडों पर गीष्म ऋतु में अपेक्षाकृत अधिक तापमान तथा शीत ऋतु में अपेक्षाकृत नीचा तापमान पाया जाता है। महासागरीय और स्थलीय प्रभावों के कारण समताप रेखाएं जुलाई के महीने में महासागरों से महाद्वीपों की ओर जाते हुए उत्तर की ओर मुड़ जाती हैं। जनवरी के महीने में महासागरों से स्थल की ओर जाते हुए ये समताप रेखाएं दक्षिण की ओर मुड़ जाती हैं। समताप रेखाओं का इस प्रकार मुड़ना महाद्वीपों तथा महासागरों के विभेदात्मक तापन का परिणाम है। महासागरीय और स्थानीय प्रभावों के कारण ही संसार के उच्चतम तथा निम्नतम तापमान स्थलखंडों के आंतरिक भागों में पाए जाते हैं।
- ऋतु परिवर्तन के साथ समताप रेखाएं उत्तर और दक्षिण की ओर स्थानांतरित भी हो जाती है। ऋतु परिवर्तन के अनुसार सूर्य की किरणों के स्थानान्तरण के कारण सभी समताप रेखाएं जुलाई में अपेक्षाकृत उत्तर की ओर तथा जनवरी में अपेक्षाकृत दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं। समताप रेखाओं में यह मौसमी परिवर्तन अथवा स्थानांतरण जल राशियों अथवा समुद्रों की अपेक्षा स्थल पर अधिक होता है।
तापमान का लंबवत वितरण
- तापमान का लंबवत वितरण भी असमान होता है। साधारणत: यह कहा जाता है कि ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान में कमी होती जाती है जिसे ताप ह्रास दर कहते हैं। सामान्य ताप ह्रास दर 6.4° से. प्रति कि.मी. होती है। तापमान में गिरावट का अध्ययन रुद्धोष्म ताप दर के संदर्भ में भी किया जाता है। वायु राशियों के ऊपर उठने से भी उनका तापमान कम हो जाता है। इस प्रकार वायु के ऊपर उठकर शीतल होने की प्रक्रिया रुद्धोष्म शीतलन कहलाती है। जब वायु में संघनन की प्रक्रिया हो रही होती हैं तो रुद्धोष्म दर नीची होती है जबकि वायु के शुष्क होने पर यह दर ऊंची होती है। ठीक ऐसे ही नीचे उतरने पर वायु गर्म हो जाती है तथा इसे रुद्धोष्म तापन कहते हैं। इस प्रकार वायु के शीतलन और तापन में ऊष्मा की प्राप्ति अथवा ह्रास का प्रभाव शामिल नहीं होता है। रुद्धोष्म तापन अथवा शीतलन वायु के नीचे धंसने अथवा ऊपर उठने पर होने वाले वायुदाब परिवर्तन का परिणाम होता है। साधारणतया ताप हास दर स्थिर वायु में ऊंचाई के साथ तापमान में कमी से संबंधित होती है जबकि रुद्धोष्म दर वायु के ऊपर उठने और नीचे उतरने के कारण आने वाले शापमान के परिवर्तन से संबंधित होती है। वायु के इस प्रकार ठंडा अथवा गर्म होने का कारण वायुदाब परिवर्तन के परिणामस्वरूप वायु के आयतन में परिवर्तन होना है। जब कोई वायु राशि ऊपर उठती है तो वायुमंडलीय दाब कम हो जाने से यह फैल जाती है। इसके परिणामस्वरूप वायु का तापमान कम हो जाता है। इसके विपरीत नीचे धंसती वायु राशि वायुदाब बढ़ने से संकुचित हो जाती है और इसका आयतन घटने से इसके तापमान में वृद्धि हो जाती है।
तापमान का व्युत्क्रमण
- कई बार तापमान ऊंचाई में वृद्धि के साथ, घटने के स्थान पर बढ़ता हुआ पाया जाता है। इस प्रकार तापमान का ऊर्ध्वाधर वितरण का क्रम उलट जाता है जिसे 'तापमान का व्युत्क्रमण' या प्रतिलोमन अथवा तापमान की विलोमता कहते हैं। यद्यपि तापमान का व्युत्क्रमण कई स्थितियों में संभव हो सकता है, परंत यह स्थिति पर्वतीय बालों की एक मुख्य विशेषता है। रात में पर्वतों के ऊपरी भाग तीव्र विकिरण के कारण शीघ्रता से ठंडे हो जाते हैं जिसके कारण यहां की वायु ठंडी और भारी हो जाती है तथा ढाल के सहारे नीचे की ओर बहने लगती है जबकि घाटी की गर्म हवा हल्की होने के कारण इसके ऊपर उठ जाती है। इसलिए पहाड़ी घाटियों में ऊंचाई के साथ तापमान में वृद्धि होती पाई जाती है। इस प्रकार का ताप व्युत्क्रमण, (drainage inversion) कहलाता है । पर्वतीय क्षेत्रों में घाटियों में ठंडी हवा के भरने से पाला पड़ता है जबकि ऊपरी अथवा मध्यवर्ती ढाल वहां उपस्थित गर्म हवा के कारण पाले से मुक्त रहते हैं। यही कारण है कि फलों के बाग पहाड़ी ढालों पर लगाए जाते हैं न कि घाटियों में ।
- तापमान का व्युत्क्रमण उन क्षेत्रों में भी होता है जहां रात के समय ऊष्मा का विकिरण तीव्रता से होता है तथा धरातल के निकट की वायु ठंडी हो जाती है जबकि इससे ऊपर की वायु में अभी भी ऊष्मा शेष बची होती है। इस प्रकार की तापीय विलोमता शीतकाल में मैदानी भागों में देखने को मिलती है। इसे संवहनीय व्युत्क्रमण कहते हैं । लम्बी रात, बादलों रहित आकाश तथा शांत परिस्थितियां इस प्रकार के प्रतिलोमन के लिए आवश्यक होते हैं। जब गर्म हवाएं, ठंडे धरातल के ऊपर से चलती हैं तो भी व्युत्क्रमण उत्पन्न होता है। इस प्रकार ठंडे धरातल के संपर्क में आने से निचली वायु ठंडी हो जाती है जबकि ऊपरी वायु का तापमान ऊंचा बना रहता है। अपेक्षाकृत गर्म वायु राशियों के हिमाच्छादित क्षेत्रों पर से गुजरने से प्राय: इस प्रकार का व्युत्क्रमण होता है जिसे अपवहनीय व्युत्क्रमण कहा जाता है।
- परस्पर विपरीत तापमान वाली वायुराशियों के अभिसरण से भी तापीय विलोमता उत्पन्न होती है। ऐसे क्षेत्रों में जहां गर्म तथा ठंडी वायुराशियां परस्पर विपरीत दिशा से आकर मिलती हैं तो गर्म हवा, हल्की होने के कारण, ऊपर उठने की विशेषताएं लिए होती है। इस प्रकार ठंडी हवा धरातल के संपर्क में रहती है। तथा गर्म वायु इसके ऊपर उठ जाती है और तापीय व्युत्क्रमण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार के व्युत्क्रमण को वाताग्रीय व्युत्क्रमण कहते हैं। यह परिस्थिति मध्य अक्षांश क्षेत्रों की विशेषता है जहां शीत वायु राशियां, उपध्रुवीय निम्न वायु दाब की पेटियों में गर्म वायुराशियों से मिलती हैं। इस प्रकार का व्युत्क्रमण कोहरे की उत्पत्ति का भी कारण होता है। न्यू फाउंडलैंड का कोहरा इन्हीं परिस्थितियों का परिणाम होता है।
तापमान विसंगति
- किसी स्थान के तापमान का अध्ययन औसत तापमान के संदर्भ में होता है। उदाहरण के लिए, दैनिक औसत मासिक औसत और वार्षिक औसत तापमान । यह तापमान किसी स्थान और अक्षांश का सामान्य तापमान होता है। किसी स्थान के वास्तविक तापमान और उस अक्षांश के औसत अथवा सामान्य तापमान के अंतर. को तापमान विसंगति कहते हैं। इसे सामान्य से विचलन के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इसकी उत्पत्ति के कारण महासागरीय और स्थलीय प्रभाव, सागरीय धाराएं, वायु राशियां और पवनें आदि हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में तापमान विसंगति आमतौर पर अधिक होती है जिसका कारण इस गोलार्द्ध में स्थल एवं जल के विस्तार में अंतर है। मानचित्र पर विसंगतियों के वितरण को प्रदर्शित करने के लिए isanomals (सम विसंगति रेखाएं) का प्रयोग किया जाता है, जो समान विसंगतियों वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखाएं होती हैं। शीत ऋतु में महासागरों पर धनात्मक विसंगति पाई जाती है जबकि महाद्वीपों पर ऋणात्मक विसंगतियां पाई जाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि सर्दियों में स्थल पर जल की अपेक्षा सामान्य अथवा औसत से कम तापमान रहता है। ग्रीष्म काल में स्थिति इसके विपरीत होती है। इस अवधि में स्थल पर धनात्मक विसंगति और महासागरों पर ऋणात्मक विसंगति होती है।
ताप परिसर
- किसी निश्चित समयावधि में उच्चतम और निम्नतम तापमान के अंतर को ताप परिसर या तापान्तर कहते हैं। अधिकतम दैनिक और न्यूनतम दैनिक तापमान के अंतर को दैनिक ताप परिसर कहते हैं। यह दिन और रात के तापमान में अंतर को दर्शाता है। सबसे गर्म तथा सबसे ठंडे महीने की औसत तापमान के अंतर को वार्षिक ताप परिसर कहते हैं। वार्षिक तथा दैनिक ताप परिसर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर विभिन्नताएं पाई जाती हैं। उच्च ताप परिसर महाद्वीपों के आंतरिक भागों, तथा मध्य एवं उच्च अक्षांशों की विशेषता है। महाद्वीपों के आंतरिक भागों में ऊंचे वार्षिक ताप परिसर का कारण स्थल भागों का तीव्रता से गर्म तथा ठंडा होना है। मध्य एवं उच्च अक्षांशों में ऊंचे ताप परिसर का प्रमुख कारण इन क्षेत्रों में दिन की अवधि और सूर्य की किरणों द्वारा बनाने वाले आपतन कोण में मौसमी भिन्नताओं का होना है। इन क्षेत्रों में ग्रीष्मकाल में दिन अत्यधिक लंबे तथा गर्म होते हैं जबकि शीतकाल में दिन छोटे तथा ठंडे होते हैं। महासागरीय प्रभाव के कारण महासागरों पर वार्षिक ताप परिसर कम रहता है। भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में वार्षिक ताप परिसर कम होने का कारण सूर्य की किरणों के आपतन कोण में न्यूनतम भिन्नता होना है। इन क्षेत्रों में सूर्य की किरणें वर्ष भर लगभग लंबवत रहती हैं।
औसत तापीय विषुवत रेखा
- औसत तापीय विषुवत रेखा वह रेखा है जो सर्वोच्च वार्षिक औसत तापमान वाले स्थानों को मिलाते हुए खींची जाती है। संसार में सर्वोच्च तापमान कर्क तथा मकर रेखाओं के निकट पाया जाता है जबकि सर्वोच्च औसत तापमान विषुवत रेखा के आस-पास पाया जाता है। जो क्षेत्र कर्क या मकर रेखा के पास होते हैं वहां गर्मियों में उच्च तापमान रहता है परन्तु इन क्षेत्रों का तापमान सर्दियों में कम हो जाता है क्योंकि शीतकाल में इन क्षेत्रों में सूर्य की किरणें काफी तिरछी हो जाती हैं। कर्क तथा मकर रेखा के निकट सूर्य की किरणों के आपतन कोण में ऋतु परिवर्तन के साथ होने वाले इस परिवर्तन के कारण इन क्षेत्रों का औसत तापमान भूमध्य रेखा के निकटवर्ती क्षेत्रों के औसत तापमान से कुछ नीचा होता है। चूंकि विषुवत रेखा के निकट सूर्य की किरणें पूरे वर्ष लगभग लंबवत रहती हैं इसलिए विषुवतीय क्षेत्रों में वार्षिक ताप परिसर, दैनिक ताप परिसर की तुलना में कम होता है ।
- अन्य समताप रेखाओं की तरह तापीय विषुवत रेखा भी ऋतु परिवर्तन के साथ उत्तर से दक्षिण की ओर तथा दक्षिण से उत्तर की ओर स्थानांतरित होती रहती है। तापीय विषुवत रेखा की वार्षिक औसत स्थिति को औसत तापीय विषुवत रेखा कहा जाता है। औसत विषुवत तापीय रेखा की स्थिति 5° उत्तरी अक्षांश के लगभग मानी जाती है। औसत वार्षिक तापीय विषुवत की यह स्थिति तापीय विषुवत रेखा के ग्रीष्मकाल में उत्तर की ओर अधिक खिसकने का परिणाम है। दक्षिण में शीत अयनांत की अपेक्षा उत्तर में ग्रीष्म अयनांत में इसका स्थानांतरण अधिक होता है। तापीय विषुवत के इस प्रकार उत्तर की ओर अधिक खिसकने का प्रमुख कारण ग्रीष्म ऋतु में महासागरों की अपेक्षा स्थल खंडों के तापमान में अधिक वृद्धि होना तथा उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल खंडों की अधिकता है।
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