पत्रिकाओं का संगठन |डॉ0 संजीव भानावत के अनुसार पत्रिकाओं की संगठन | Magazine organization in Hindi

पत्रिकाओं का संगठन (Magazine organization in Hindi)

पत्रिकाओं का संगठन |. डॉ0 संजीव भानावत के अनुसार  पत्रिकाओं की संगठन | Magazine organization in Hindi

पत्रिकाओं का संगठन :

 

समाचार पत्रों का सामन्यतः अर्थ दैनिक घटनाओं की तथ्यात्मकसंक्षिप्त सूचना जिन दैनिक प्रकाशनों में प्रकाशित किये जाते हैं उन्हें समाचार पत्र कहते हैं। यह साप्ताहिक भी हो सकते हैं। जबकि पत्रिकाओं का सामान्य अर्थ निश्चित अवधि के ऐसे नियमित या अनियमित प्रकाशन से है जो प्रायः साप्ताहिकपाक्षिकमासिकत्रैमासिकअर्द्धवार्षिक आदि रूप में प्रकाशित होते रहते हैं।

 

वर्तमान में हमारे देश में पत्रिकाओं की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। ये पत्रिकाएं सामान्य पाठकों की रूचि से लेकर विशेष वर्ग की रूचियों तक के लिए प्रकाशित होने लगी हैं। रूचि की पत्रिकाओं का प्रसार एवं प्रचार व्यापक रूप में होता है जबकि विशेष वर्ग अथवा विषय की पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार सीमित प्रथम श्रेणी की पत्रिकाओं को हम रेवले स्टेशनोंबस स्टेण्डोंन्यूज स्टैण्डोंहॉकरों आदि विविध माध्मयों से आसानी से प्राप्त कर सकते हैं जबकि दूसरी श्रेणी की पत्रिकाएं प्रायः वार्षिक ग्राहक बनने पर डाक द्वारा ही सुलभ हो पाती हैं। सामान्य रूचि की पत्रिकाएं लोक रूचि का प्रतिनिधत्व करती हैं उनमें साहित्यसंगीतकलाफिल्ममनोरंजन सहित बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की रूचि को संतुष्ट करने वाली विविध सामग्री होती है। दूसरी ओर कुछ विशेष विधा की पत्रिकाएं जेसे फिल्मअर्थ वाणिज्य तथा खेल आदि की विशेष पत्रिकाएं भी काफी लोकप्रिय हुई हैं। लेकिन ऐसी पत्रिकाओं की संख्या काफी कम है।

 

डॉ० संजीव भानावत अपनी पुस्तक 'समाचार माध्यमों का संगठन एवं प्रबन्ध में लिखते हैं कि " समाचार पत्रों की तुलना में पत्रिकाओं के प्रकाशन का ढांचा अपेक्षाकृत अधिक सरल होता - है तथा उसमें जटिलता भी नहीं होती। समाचार पत्र प्रकाशन के पीछे जो तीव्रताभागदौड़तनाव तथा जल्दबाजी रहती है वह पत्रिकाओं के प्रकाशन की प्रक्रिया में नहीं रहती । सम्पादक के पास अपनी अंक योजना तैयार करने का पूरा समय होता है तथा वह काफी समय पूर्व विधिवत योजना बनाकर उसके अनुरूप कार्य कर सकता है। इसी प्रकार दैनिक समाचार पत्र की आयु जहां 24 घण्टे से जयादा प्रायः नहीं रहती वहीं पत्रिकाओं की उपयोगिता सप्ताह भर से लेकर एक माह से अधिक समय तक रहती हैं। सीमित साधनों के बावजूद कोई भी व्यावसायिक व्यक्ति पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में उतर सकता है।"

 

समाचार पत्रों की तुलना में पत्रिकाओं का संगठननात्मक ढांचा काफी सरल एवं छोटा होता है। यह संगठनात्मक सरंचना काफी दूर तक पत्रिका के स्वरूप और प्रसार की व्यापकता भी प्रभावित होती है। साप्ताहिक पत्रिका का संगठनात्मक ढांचा मासिक अथवा त्रैमासिक पत्रिका की अपेक्षा अधिक जटिल होता है। लोकप्रिय पत्रिकाओं का ढांचा अवश्य ही विस्तृत व्यापक तथा विभिन्न विभागों में विभक्त होता है। अन्यथा सामान्य पत्रिकाओं का यह संगठनात्मक ढांचा सीधा सादा होता है जहां सम्पादक ही प्रायः सभी प्रमुख कार्य देखता है। कुछ पत्रिकाओं में एक पृथक कार्यालय भी होता है जहां से सम्पादन के अतिरिक्त शेष कार्यालय का कार्य तथा पत्रिकाओं का प्रेषणग्राहकों का हिसाब-किताबविज्ञापन आदि की व्यवस्था एक या दो कर्मचारियों के द्वारा की जाती है।

 

डॉ0 संजीव भानावत के अनुसार पत्रिकाओं के संदर्भ में मुख्यतः दो विभाग प्रमुख होते हैं-

 

1. सम्पादकीय विभाग 

2. व्यवस्था विभाग

 

1. सम्पादकीय विभाग- 

पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग में पत्रकारों की संख्या पत्रिका के स्वरूप पर निर्भर करती हैं लघु पत्रिकाओं में जहां सम्पादक ही सम्पूर्ण कार्य के लिए उत्तरदायी होता है वहीं बड़ी पत्रिकाओं में आवश्यकतानुसार उप-सम्पादकों आदि की नियुक्ति की जाती है। मायाइंडिया टूडेआदि जैसे समाचार प्रधान पत्रिकाओं में प्रमुख शहरों में विशेष संवाददाताओं की नियुक्तियां भी की जाती हैं। पत्रिकाओं में पत्रकारों व गैर-पत्रकारों के सामान्य पद दैनिक समाचार पत्रों की भांति होते हैं। उसी व्यवस्था के अनुरूप पत्रिकाओं में इनका श्रम विभाजन किया जाता हैं। पत्रकारों के कार्य तथा सेवा शर्तें आदि भी उन्हीं अधिनियमों के तहत संचालित होती हैं जो दैनिक पत्रों के कर्मचारियां के लिए होती हैं।

 

2. व्यवस्था विभाग - 

कुछ पत्रिकाओं मेंजो प्रसार की दृष्टि से व्यापक होती हैंवितरणवित्तीय व्यवस्था तथा व्यापार आदि विभाग की व्यवस्था रहती है। इन पत्रिकाओं में कर्मचारियों की संख्या समाचार पत्रों की भांति ज्यादा नहीं होती। समाचार पत्र प्रकाशन के लिए जो व्यापक ढांचा तैयार किया जाता हैवैसी आवश्यकता पत्रिकाओं के लिए नहीं होती । अपेक्षाकृत कम पूंजी के द्वारा यह कार्य किया जा सकता है।

 

समाचार पत्रों की भांति पत्रिकाओं की भी आय के मुख्यतः दो स्रोत हैं - 1. विज्ञापन, 2. ग्राहक। इन दोनों प्रमुख स्रोतों से अर्जित आय ही किसी पत्रिका की आत्म निर्भरता के प्रमुख आधार हैं। दैनिक समाचार पत्रों की भांति ही पत्रिका के अस्तित्व के लिए विज्ञापन से अर्जित आय महत्वपूर्ण होती है।

 

समाचार पत्र की भांति ही पत्रिकाओं की सफलता और सार्थकता उसके उचित समय पर पाठकों के पास पहुंचने में है। पत्रिकाओं के विक्रय में दैनिक पत्रों की भांति शीघ्रता तो अपेक्षित नहीं है किन्तु अत्यधिक विलम्ब पत्रिका की प्रतिष्ठा के लिए घातक होता है। साप्ताहिक और पाक्षिक पत्रों को तो ठीक समय पर पाठक के पास पहुंच जाना चाहिए । प्रतियोगिता के इस दौर मे समय सीमा का निर्वाह आवश्यक है।

 

अतः हम कह सकते हैं कि एक पत्रिका के सफल प्रकाशन व संचालन के लिए वही अनिवार्यताएं हैं जो एक समाचार पत्र के लिए। किन्तु पत्रिकाओं के स्वरूप व इनके प्रकाशन अवधि में पत्रों के स्वरूप व प्रकाशन अवधि की तुलना में भिन्नता होती है। जिस कारण इनका संगठनात्मक ढांचा पत्रों से काफी कम जटिल होता है।

 

अभ्यास प्रश्न

 

प्रश्न 1डॉ0 संजीव भानावत ने समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं की संगठन की तुलना किस प्रकार की है? 

प्रश्न 2. समाचार पत्रिकाओं के संगठन को कितने विभागों में बांटा गया है

प्रश्न 3. समाचार पत्रिका के व्यवस्था विभाग का क्या कार्य है? 

प्रश्न 4. भारत के किन्ही दो प्रसिद्ध पत्रिकाओं के नाम बताइये ।

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