समाचार पत्रों का प्रबन्ध एवं संगठन |Management and organization of Newspapers

समाचार पत्रों का प्रबन्ध एवं संगठन 

समाचार पत्रों का प्रबन्ध एवं संगठन |Management and organization of Newspapers



समाचार पत्रों का प्रबन्ध एवं संगठन :

 

हम यह जानते हैं कि समाचार पत्र का सम्पादकीय तथा प्रबन्ध विभाग एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हुए भी आपस में अन्तर्सम्बन्धित होता है। आरम्भ में जब पत्रकारिता का वर्तमान युग की तरह विस्तार व विकास नहीं हुआ था जब जनता में इस प्रकार का कोई विभाजन नहीं होता था। उस समय सम्पादक ही समाचार-पत्र का सर्वेसर्वा होता था । सम्पादक से लेकर प्रुफ रीडिंग तथा कभी-कभी डिस्पैच तक का कार्य भी उसे ही करना पड़ता था, लेकिन वर्तमान में समाचार पत्र के प्रबन्धन के अंतर्गत कई संगठन अस्तित्व में आये हैं जो किसी भी समाचार पत्र के कुशल व सफल संचालन के लिए जिम्मेदार होते हैं। जैसे- संम्पादन विभाग, प्रबन्ध विभाग, यांत्रिक विभाग तथा विपणन विभाग | 

किसी पत्र के सफल प्रकाशन के लिए कुशल प्रबन्धन होना आवश्यक है और कुशल प्रबन्ध उसके संगठन पर निर्भर करता है ।

 

1 समाचार पत्रों का प्रबन्ध : 

भारत के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाय तो यहां पहले सम्पादक और प्रबन्धक एक ही होता था। इसका सबसे मुख्य कारण यह था कि हमारे यहां का पत्र - प्रकाशन व्यवसाय ही दूसरे प्रकार का व्यापार था। यहां पत्र प्रकाशन का उद्देश्य व्यवसाय नहीं बल्कि अभियान था। केवल सामाजिक हितों के लिए पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित किये जाते थे। कुछ लोग शौक के लिए पत्रों का प्रकाशन करते थे। सामाजिक सरोकारों को लेकर पत्रों का उद्देश्य जनचेतना, सामाजिक चेतना, राजनैतिक चेतना व स्वाधीनता को लेकर था। जो मनुष्य पत्र प्रकाशित करता था, वही अपने विचार जनता पर प्रकट करने को उत्सुक होता था। इसलिए वह व्यक्ति ही सम्पादक होता था और वही व्यक्ति पत्र निकालने वाला होता था, इसलिए उसी को प्रबन्ध सम्बन्धी देख-रेख भी करनी पड़ती थी। फलतः अभी तक एक ही कर्मचारी हिन्दी पत्रों का सम्पादन और प्रबन्धक होता था। लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे भारत भी आधुनिकता की दौड़ में आगे निकलता रहा उसका हर क्षेत्र भी विकसित होता रहा। आज भारत में पत्रकारिता का स्वरूप इतना बदल गया है कि पत्र-पत्रिकाओं के बड़े-बड़े संगठन और प्रबन्धन हैं। जिसके फलस्वरूप इनका उद्देश्य भी परिवर्तित होता दिख रहा है।

 

आज भी देश के अधिकांश पत्रों की विशेष कर छोटे समाचार पत्रों में अभी तक यही स्थिति बनी हुई है। यहां कार्यों का विस्तृत और विशेष विभाजन नहीं होता है लेकिन आज व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के दौर में समाचार -पत्र प्रकाशन को उद्योग के रूप में सम्पादक सहित विभिन्न विभागों में कुशल और अनुभवी कर्मचारियों की नियुक्ति की जाने लगी है। सम्पादक जो पहले पत्र का सर्वेसर्वा होता था अब पत्र के मालिकों का वेतनभोगी कर्मचारी हो गया है। अप्रत्यक्ष रूप से वह पत्र - मालिकों की नीतियों को समाचार पत्र के द्वारा क्रियान्वित करने का माध्यम बन जाता है।

 

हम इस बात से कहीं न कहीं विज्ञ कि जब से समाचार पत्रों का प्रकाशन व्यवसाय के रूप में शुरू हुआ है, सम्पादक को प्रबन्धन के अनुसार कार्य करना पड़ रहा है, लेकिन प्रबन्ध पक्ष के महत्वपूर्ण हो जाने के बावजूद भी सम्पादक का महत्व कम नहीं हो जाता। वास्तव में समाचार-पत्र की सफलता का मुख्य आधार तो सम्पादक ही है। सम्पादकीय प्रतिभा समाचारों, लेखों, फीचर, आलेखों तथा संपादकीय टिप्पणियों आदि में स्पष्ट झलकती है। पाठकों में समाचार पत्र की लोकप्रियता और विश्वसनीयता पत्र की सामग्री के आधार पर ही बनती है। इस सामग्री के चयन और सम्पादन का अन्तिम दायित्व सम्पादक का ही है। इस कारण सम्पादक समाचार-पत्र का प्राण है। यदि समाचार-पत्र जन-आकांकक्षाओं के अनुरूप नहीं बन पाया तो उसे कौन पढ़ेगा? जब उसे पाठक ही नकार देगा तो फिर विज्ञापनादाता भी उस पत्र के प्रति आकृष्ट नहीं होगा । इस प्रकार सम्पादकीय अकुशलता समाचार-पत्र को नीरस और बेजान बना देती है। अतः सम्पादक का समाचार-पत्र संस्थान में महत्वूपर्ण स्थान है. 

 

किसी भी समाचार पत्र के कुशल प्रबन्ध के पीछे उसके प्रकाशन से जुड़े कई विभागों का हाथ होता है। जो पत्र के राजस्व के लिए विज्ञापन एकत्रित करने से लेकर समाचार संकलन, सम्पादन व विपणन का कार्य करते हैं। प्रत्येक विभाग की सक्रियता और कुशलता से ही समाचार पत्र का सफल प्रबन्ध हो पाता है।

 

2 समाचार पत्र-पत्रिकाओं का संगठन : 

पूर्व की भांति पत्रकारिता अब महज समाचार पत्र-पत्रिकाओं को लिखना और सम्पादन करना नहीं है। समाचारों को प्राप्त करना और उनका प्रेषण, व्यापारिक प्रबन्ध, विज्ञापन तथा समाचार-पत्र / पत्रिकाओं के उत्पादन से जुड़ी अन्य प्रक्रियाएं भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गई हैं। जहां पहले एक ही व्यक्ति समाचार पत्र पत्रिका का प्रकाशन, प्रबन्ध व मुद्रण कर लेता था वहीं आज ए दायित्व ( विभाग) विस्तृत रूप ले चुके हैं।

 

कुल मिलाकर कहें तो समाचार पत्रों का प्रकाशन अब सहज एवं सरल प्रक्रिया नहीं रह गई हैं। प्रातः काल जो समाचार पत्र हम अपने दरवाजे पर पाते हैं उसके प्रकाशन के साथ कई पक्ष अथवा विभाग जुड़े हुए हैं, जिन्हें हम मुख्यतः तीन विभागों में बांट सकते हैं-

 

1. सम्पादन विभाग (Editorial Wing) 

2. प्रबन्ध विभाग (Management Wing) 

3. यांत्रिक अथवा मुद्रण विभाग (Mechanical or Printing Wing)

 

औसत समाचार पत्र में प्रायः उक्त चार विभाग प्रमुख होते हैं। बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की यह व्यवस्था अधिक व्यापक एवं जटिल होती है। प्रवीण दीक्षित ने समाचार पत्र प्रबन्ध विशेषज्ञ प्रख्यात पत्रकार विलियम कोल को उद्धृत करते हुए समाचार पत्र के मुख्य अधिष्ठाता के कार्य में पांच मुख्य सहयोगियों को एक हाथ की पांच अंगुलियां माना है जिन्हें "फाइव की मैन" कहा गया है

 

इस आधार पर प्रवीण दीक्षित ने समाचार पत्र प्रबन्ध के पांच विभाग माने हैं-

 

1. प्रधान सम्पादक (Chief Editor) 

2. विज्ञापन प्रबन्धक (Advertising Manager) 

3. प्रसार प्रबन्धक (Circulation Manager) 

4. कार्यशाला प्रबन्धक (Work Manager) 

5. प्रशासन प्रबन्धक ( The Head of the administration of the Office)

 

संक्षेप में प्रबन्ध व्यवस्था के विभिन्न अंगों का कार्य विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है-

 

1. सम्पादकीय विभाग (Editorial Wing) -

 

समाचार पत्र का प्रमुख उद्देश्य जहां सूचना प्रदान करना है वहीं उसका प्राथमिक उद्देश्य मनुष्य की जानने की उत्कंठा का समाधान करना भी है। समाचार पत्र समाचार संकलित कर उनका यथासम्भव शीघ्रता से प्राण भी करते हैं। इसके अतिरिक्त समाचार पत्र विचारों के संवाहक भी हैं। पत्र का यह प्राथमिक कार्य सम्पादकीय विभाग द्वारा पूरा किया जाता है। इसी कारण यह विभाग 'समाचार पत्र का हृदय' कहा जाता है। हृदय की धड़कन बन्द हो जाने से जिस प्रकार व्यक्ति के शरीर में से जीवन समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार समाचार पत्र रूपी शरीर में से सम्पादकीय विभाग रूपी हृदय की धड़कन बन्द हो जाए अथवा धीमी पड़ जाए तो समाचार-पत्र की जीवन्तता भी धूमिल पड़ने लगती है।

 

सम्पादकीय विभाग मुख्यतः समाचार लेख, फीचर, कार्टून, स्तम्भ, संपादकीय से सम्बद्ध होता है। इसे विभाग का मुखिया अथवा प्रभारी सम्पादक या प्रधान सम्पादक कहलाता है। इसके बाद सम्पादक के मार्ग दर्शन में कार्य करने वाले व्यक्तियों में सहायक सम्पादक, संयुक्त सम्पादक, उप सम्पादक, समाचार सम्पादक, विशेष प्रतिनिधि, विशेष संवाददाता, संवाददाता इत्यादि होते हैं जो समाचार संकलन से लेकर सम्पादन तक विविध प्रक्रियाओं से विभिन्न स्तरों पर जुड़े हुए हाते हैं। इनके अतिरिक्त सम्पादक को उसके कार्य सम्पादन में सहयोग देने के लिए विशेष स्तम्भ लेखक भी होते हैं।

 

इस प्रकार कहे तो सम्पादकीय विभाग के मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं- समाचार संकलन, उनका चुनाव और सम्पादन तथा उन पर अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करना ।

 

समाचार पत्रों के स्वरूप और सामर्थ्य के अनुसार उनके सम्पादकीय कक्ष की व्यवस्था की जाती है। बड़े पत्रों में जहां राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों आदि से सम्बन्धित पृथक-पृथक डेस्कें होती हैं वहीं छोटे-छोटे तथा कम सामर्थ्य वाले पत्रों में यह विभाजन इतना व्यापक नहीं होता है। इन विविध डेस्कों को समितियों तथा पत्र के संवाददाताओं द्वारा विविध प्रकार के समाचारों द्वारा 'फीड किया जाता है। विषयगत आधार पर इन डेस्कों के कई रूप हो सकते हैं, जेसे- खेल, वाणिज्य, विज्ञान, कृषि इत्यादि छोटे समाचार पत्रों में अभी पुरानी ही व्यवस्था चल रही है। यहां सम्पादक ही सभी कार्य- समाचार संकलन, लेखन और उनका सम्पादन करता है। वह अपने पत्र का स्वयं प्रबन्ध सम्पादक होता है जो पत्र के व्यावसायिक हितों के संरक्षण के लिए भी प्रयास करता है। इन पत्रों में सम्पादक स्वयं विज्ञापन आदि एकत्रित करने के लिए प्रत्यनशील रहता है। वर्तमान में साप्ताहिक, मासिक व दैनिक कई समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं।

 

समाचार पत्र के प्रबन्ध व्यवस्था के तहत पाठक से प्रत्यक्ष व सीधा संवाद कायम करने वाला विभाग सम्पादकीय विभाग ही होता है। पत्र के प्रति पाठक की रूचि व विश्वास पर ही समाचार पत्र की सफलता निर्भर करती है और पाठक के अन्दर पत्र के प्रति रूचि व विश्वास जगाने का कार्य सम्पादकीय विभाग का ही है। सम्पादकीय विभाग जितना योग्य व सफल होगा पाठकों में पत्र के प्रति रूचि और विश्वास उतना अधिक जगेगा जिससे पाठकों की संख्या में वृद्धि होगी। इसके लिए सम्पादकीय विभाग को प्रबन्ध के अन्य विभागों से भी तालमेल बैठाने की आवश्यकता होती है।

 

डॉ० रामचन्द्र तिवारी अपनी पुस्तक सम्पादन के सिद्धान्त में लिखते हैं "आधुनिक 1 समाचार का जो स्वरूप बन गया है, उसमें सम्पादक का मात्र साहित्यिक या लेखन प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति होना ही पर्याप्त नहीं होता। आज के सम्पादक को पत्र की व्यवस्था के अन्य अंगों से मिलकर चलना होता है। उसे अन्य विभागों के काम, उद्देश्य, तकनीकी कठिनाइयां आदि भी समझनी चाहिए। उसे इन विभागों की नीतियों को सम्पादकीय नीतियां निर्धारित करते समय सामने रखना आवश्यक होता है।" विज्ञापन व्यवस्थापक तथा प्रसार व्यवस्थापक अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पत्र की सामग्री में परिवर्तन करने की सलाह दे सकते हैं, जिसे उचित सम्मान दिया ही जाता है। पत्र की नीति तथा आर्थिक स्थिति दोनों पर निगाह रखनी आवश्यक होती है इसीलिए सम्पादन, विज्ञापन, प्रसार तीनों विभाग एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं. 

 

अनन्त गोपाल शेवड़े ने अपनी पुस्तक समाचार-पत्र व्यवस्थापन में सम्पादकीय विभाग का महत्व प्रकट करते हुए लिखा है- "समाचार पत्र हमारी उत्पादित विक्रय वस्तु है, जिसका मूल स्वरूप है सम्पादकीय । वास्तव में उसके सम्पादन से ही किसी समाचार पत्र का व्यक्तित्व बनता है और उभरता है। उसी से उसकी आत्मा, चरित्र और प्रतिभा का स्वरूप निखरता है, प्रतिबिम्बित होता है, वही उसका जीवन है। जिस प्रकार प्राणों के बिना मानव शरीर निस्तेज और निर्जीव हो जाता है उसी प्रकार कुशल सम्पादकीय व्यक्तित्व के बिना समाचार पत्र भी निस्तेज और निर्जीव हो जाता है, भले ही उनकी बाहरी काया का कलेवर सुन्दर हो । समाचार पत्र केवल अखबारी कागज, स्याही और लोहे की कीलों का समुच्चय मात्र नहीं है और न उनकी आत्मा मशीनों या ईंट-पत्थर की इमारतों में बसती है। अपनी जगह ये सब आवश्यक हैं पर समाचार-पत्र का असली व्यक्तित्व बनता है, इन सबका उपयोग करके उसमें प्राण और आत्मा फूंकने वाले सम्पादन कौशल से पूंजी पैसा समाचार पत्र के उत्पादन के लिए आवश्यक है लेकिन केवल उसी से समाचार-पत्र सफलतापूर्वक नहीं चलाए जा सकते हैं। यूं चलने को तो कई समाचार पत्र चलते हैं पर जिनकी प्रतिष्ठा, प्रभाव और लोकप्रियता होती है, उनका सम्पादकीय पक्ष बड़ा स्पष्ट, प्रबल और तत्वनिष्ठ होता है।" शेवड़े की इस परिभाषा से स्पष्ट होता है कि किसी भी समाचार पत्र का सम्पादन विभाग समाचार पत्र के प्रबन्ध व्यवस्था को बनाये रखने व समाचार पत्र के सफल प्रकाशन में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है ।

 

2. प्रबन्ध विभाग (Management Wing) -

 

संजीव भानावत की पुस्तक 'सामाचार माध्यम संगठन एवं प्रबन्ध' के अनुसार समाचार पत्र का यह विभाग दो भागों में बांटा जा सकता है-

 

1. विज्ञापन (Advertisement) 

2. प्रसार (Circulation)

 

इस विभाग की जिम्मेदारी समाचार पत्र के लिए राजस्व एकत्रित करना है। किसी भी पत्र के लिए उसकी वित्तीय व्यवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष हे पत्र की आर्थिक आत्मनिर्भता उसे उसके दायित्वों की पूर्ति के प्रति सजग भी बनाती है। आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर पत्र बाह्य दबावों और नियन्त्रणों का असानी से प्रतिरोध कर निरन्तर प्रकाशित हो सकते हैं। सम्पादकीय स्वतन्त्रता तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा ऐसे पत्रों के लिए सम्बध है। आर्थिक दृष्टि से दूसरों पर निर्भर पत्रों के लिए इन परिस्थितियों में बन्द हो जाने का खतरा हो सकता है।

 

1. विज्ञापन (Advertisement ) - 

समाचार पत्र के आर्थिक दृष्टिकोण से यह महत्वपूर्ण विभाग होता है। समाचार पत्र के राजस्व का अधिकांश अंश विज्ञापनों के द्वारा ही एकत्रित होता है। बड़े-बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों सहित अन्य व्यक्तियों को जो अपनी वस्तुओं को बेचना चाहते हैं अथवा अपनी अन्य प्रकार की आवश्यकताओं की पूति आम जन से करना चाहते हैं, वे समाचार पत्र का स्थान खरीद कर अपनी बात या सन्देश उस पत्र के व्यापक पाठक समूह तक पहुंचाते हैं। यही विज्ञापन है।

 

विज्ञापन विभाग का प्रमुख या प्रभारी विज्ञापन मैनेजर कहलाता है। इस विभाग में कर्मचारियों की संख्या समाचार पत्र की स्थिति और सामर्थ्य पर निर्भर करती है। लघु समाचार-पत्रों में जहां एक व्यक्ति इस विभाग का संचालन कर लेता है वहीं बड़े प्रकाशन प्रतिष्ठानों के पत्रों में यह संख्या सौ से अधिक भी हो सकती है। इस विभाग को कुशल संचालन की दृष्टि से पुनः तीन उपविभागों में विभक्त किया जा सकता है-

 

(क) स्थानीय विभाग-

 इस विभाग में ऐसे विशेषज्ञ कर्मचारी होते हैं जो स्थानीय स्तर के विज्ञापन संकलन, लेखन और संशोधन का कार्य करते हैं। विज्ञापनादाता को इस विभाग के कर्मचारी न्यूनतम शब्दों में प्रभावी विज्ञापन देने के ढंग के बारे में सलाह दे सकते हैं।

 

(ख) विज्ञापन का दूसरा उपविभाग राष्ट्रीय - 

अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञापनों की देखरेख करता है ऐसे विज्ञापन प्रायः सीधे विज्ञापन एजेन्सियों से मिलते हैं अतः इस विभाग के कर्मचारी विज्ञापन एजेन्सियों से सम्पर्क बनाए रखते हैं। प्रमुख शहरों में समाचार पत्र अपने प्रतिनिधियों की नियुक्ति करते हैं जिनके माध्यम से वे विज्ञापन एजेन्सियों से सम्पर्क कर लेते हैं। ऐसे विज्ञापन प्रायः सजावटी विज्ञापनों की श्रेणी में आते हैं जिनके लिए पृष्ठ तथा स्थान का पूर्वनिर्धारण कर लिया जाता है। ऐसे विज्ञापनों का सारा हिसाब-किताब इसी उपविभाग द्वारा रखा जाता है।

 

(ग) वर्गीकृत विज्ञापन उपविभाग- 

इस विभाग का कार्य समाचार-पत्र के लिए आने वाले वर्गीकृत विज्ञापनों को देखना है। समाचार पत्रों को विज्ञापनों से होने वाली आमदनी में वर्गीकृत विज्ञापन प्रमुख स्रोत हैं। वर्गीकृत विज्ञापन के वैवाहिक', 'आवश्यकता', 'खोया-पाया', 'नाम परिवर्तन', 'बिकाऊ', 'टूलेट', 'टेण्डर नोटिस आदि प्रमुख प्रकार हैं। इन विज्ञापनों का मूल्य प्रायः कालम सेन्टीमीटर के अनुसार लिया जाता है। कुछ पत्र न्यूनतम शब्द सीमा के आधार पर निश्चित शुल्क निर्धारित कर देते हैं। इन विज्ञापनों का शुल्क प्रकाशन पूर्व ही प्राप्त कर लिया जाता है।

 

समाचार पत्र की प्रबन्धकीय अकुशलता अच्छे से अच्छे पत्र को नष्ट कर सकती है। पं० अम्बिका प्रसाद बाजपेयी ने 'असम्पादकीय आवश्यकताएं शीर्षक से लिखे एक अध्याय में स्पष्ट कहा है कि "सम्पादक के अनुभवी न होने से जितनी हानि होती है, कम से कम उतनी ही अनुभवहीन व्यवस्थाक से होती है।"

 

2. प्रसार (Circulation ) - 

प्रसार, समाचार पत्र की प्रबन्ध व्यवस्था का दूसरा महत्वपूर्ण अंग है। किसी भी समाचार पत्र की अधिक प्रसार संख्या न सिर्फ पाठकों में पत्र की लोकप्रियता और विश्वास का प्रतीक है वरन् विज्ञापनदाताओं के लिए भी आकर्षण का कारण है। अनन्त गोपाल शेवड़े ने इस विभाग को सम्पादकीय विभाग के बाद महत्वपूर्ण विभाग मानते हुए अपनी पुस्तक 'समाचार पत्र व्यवस्थापन' में लिखा है कि-

 

सम्पादकीय विभाग विक्रय वस्तु का निर्माण करता है, ग्राहक विभाग उसका वितरण करता है। यदि समाचार पत्र आकर्षक, रोचक और उपयोगी हो और अपने क्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति करता हो, लेकिन उसका प्रचार-प्रसार शिथिल हो, अव्यवस्थित हो तो आपका समाचार पत्र मार खा जाएगा। जिस तरह मरूथल में महकने वाले गुलाब का कोई महत्व नहीं होता उसी तरह एक सुसम्पादित समाचार पत्र का भी, जो अधिक से अधिक पाठकों के घर-घर समय और तत्परता से नहीं पहुंचाया जाता।"

 

इस प्रकार कह सकते हैं कि यदि आपका समाचार पत्र आकर्षक तथ्यात्मक और रूचिपूर्ण समाचारो का संकलन है, लेकिन वह समय पर पाठकों तक नहीं पहुंच पाता है तो वह पाठकों के बीच अपनी जगह नहीं बना पायेगा। ऐसे में समाचार पत्र की प्रसार संख्या कम हो जायेगी तथा कोई भी विज्ञापनदाता आपके समाचार पत्र को विज्ञापन देने से भी परहेज करेगा, और पाठकों के बीच आपके पत्र की लोकप्रियता भी कम हो जायेगी।

 

संजीव भानावत अपनी पुस्तक समाचार माध्यमों का संगठन एवं प्रबन्ध में लिखते हैं कि- "समाचार पत्र के प्रसार विभाग की सुस्ती अथवा आलस्य का उस पत्र को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। यदि समय पर समाचार पत्र की प्रतियां, बस स्टैण्डों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों पर नहीं पहुंची तो बसें रवाना हो जाएंगी ट्रेन छूट जाएगी और हवाई जहाज उड़ जाएंगे। ऐसी स्थिति में समाचार पत्र की सारी प्रतियां बेकार हो जाएंगी। अतः प्रसार विभाग को अपने कार्य में अत्यन्त सतर्क तथा सावधान रहना पड़ता है। प्रसार विभाग का मुखिया या प्रभारी प्रसार मैनेजर कहा जाता है। उन्होंने इस विभाग को तीन उप विभागों में बांटा है-

 

1. नगर में प्रसार 

प्रसार विभाग के कर्मचारी पत्र के प्रकाशन स्थल पर उसके प्रसार की सारी व्यवस्था देखते हैं ताकि पत्र समय पर पाठकों तक पहुंच सके। इस दृष्टि से प्रसार विभाग के कर्मचारियों को हॉकरों तथा एजेन्टों के साथ जीवन्त सम्पर्क बनाए रखना होता है। इनके साथ किए गए समझौतों के आधार पर सारा हिसाब-किताब भी यही विभाग रखता है। इनके अतिरिक्त नगर के प्रमुख न्यूज स्टेण्डों आदि पर समाचार पत्र को शीघ्र ही पहुंचाना होता है। ताकि इच्छुक पाठक वहां से पत्र खरीद भी सके ।

 

2. क्षेत्रीय प्रसार - 

नगर के अतिरिक्त अन्य आसपास के तथा दूरस्थ क्षेत्रों में टैक्सियों, बसों ऐलों, तथा हवाई जहाजों आदि के माध्यम से सुविधानुसार समाचार पत्रों को उनके एजेन्टों तक पहुंचाने का दायित्व इसी विभाग पर है।

 

3. बिक्री संवर्धन 

इस विभाग का कार्य समाचार पत्र के नियमित ग्राहकों को उनके ग्राहक - शुल्क की समाप्ति की यथासमय सूचना देना, ग्राहकों की शिकायतें इकट्ठी करना, नये ग्राहकों को आकर्षित करना आदि है। जिससे समाचार पत्र की बिक्री में वृद्धि हो सके।

 

प्रसार विभाग एक प्रकार से समाचार-पत्र का जनसम्पर्क विभाग है जो पत्र के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करता है। डॉ० सुकमाल जैन ने अपनी पुस्तक भारतीय समाचार पत्रों का संगठन और प्रबन्ध में लिखा है कि- प्रसार समाचार-पत्र की जीवन रक्त हैं इसके अभाव में वह केवल अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं करेगा वरन् उसे विज्ञापन भी प्राप्त नही होंगे। निश्चय ही बिना पर्याप्त विज्ञापनों के समाचार पत्र का जीवित रहना असम्भव है।

 

3. यान्त्रिक विभाग (Mechanical or Printing Wing) -

 

समाचार पत्र का सम्पूर्ण मुद्रण कार्य प्रेस सुपरिण्टेण्डेण्ट के निर्देशन में होता है। समाचार पत्र की मनोहारी छवि और आकर्षक रूप इसी विभाग की कल्पनाशीलता और कुशलता पर निभत्र करता है। इस विभाग के पांच उपविभाग हाते हैं-

 

1. कम्पोजिंग कक्ष (Composing Room) – 

सम्पादकीय विभाग तथा मुद्रण विभाग के मध्य का यह प्रमुख सम्पर्क बिन्दु है । सम्पादकीय विभाग 'कापी' तैयार कर इसी कक्ष में भेजता है जहां उसे विविध टाइपों में संयोजित किया जाता है। टाइपों की यह व्यवस्था समाचार -पत्रों में उपलब्ध मुद्रण तकनीक पर ही निर्भर करती है। टाइपों का यह संयोजन सम्पादकीय विभाग से प्राप्त निर्देशों के अनुसार किया जाता है। सम्पूर्ण सामग्री को इसी से प्रापत निर्देशों के आधार पर पृष्ठ पर जमाया जाता है अर्थात् समाचार पत्र का पृष्ठ तैयार किया जाता है।

 

2. स्टीरिओ टाइप विभाग ( Stereotype Department) – 

कम्पोजिंग कक्ष में तैयार पृष्ठ को लिडेंर मशीनों पर छपने वाले पत्र, मशीनों पर फर्मों के रूप में डालकर छाप देते हैं। इस पद्धति में दो पृष्ठ सामान्यतः एक साथ छापे जाते हैं। सीधे टाइपों के ही छपने के कारण ऐसे पत्रों में स्टीरियो टाइप विभाग की विशेष आवश्यकता नहीं रह जाती है। रोटरी मशीन पर छपने वाले पत्रों में इस विभाग की आवश्यकता नहीं रह जाती है। रोटरी मशीन पर छपने वाले पत्रों में इस विभाग की आवष्यकता होती है। स्टीरिओ मुद्रण की तकनीक के बारे में एम0एन0 लिडबिडे अपनी पुस्तक 'मुद्रण सामग्री प्रौद्योगिकी के पृष्ठ संख्या 308 में लिखते हैं कि- "स्टीरिओ टाइप अक्षर मुद्रण या लेटर प्रेस प्रिन्टिंग का एक भाग है- पुस्तक, समाचार-पत्र, पत्रिकाएं, राष्ट्रीय विज्ञापन आदि के कम्पोज एवं मेकअप किए गए पृष्ठों का रूपान्तरण स्टीरीओ प्लेटों में करके मुद्रण हेतु उपयोग में लाया जा सकता है। इसके कारण मूल कम्पोजिशन में उपयोग में लाई गई सामग्री की बचत तथा संरक्षण कर लिए जाते हैं। एक बार कम्पोज एवं मेकअप कर उसकी कई डुप्लीकेट प्लेटें बनाई जा सकती हैं और उनका मुद्रण एक साथ कई जगह किया जा सकता है। स्टीरिओ टाइप की प्लेटें या तख्तें सपाट तथा वक्राकार बनाए जा सकते हैं अतएव 'टाइप मैटर' का उपयोग रोटरी प्रिन्टिंग मशीन पर भी किया जा सकता है। अत्यधिक दीर्घ मुद्रण रोटरी प्रिन्टिंग पेस की विशेषता रहती है । परन्तु टाइप मैटर सपाट होने से अनुपयुक्त होता है। चूंकि स्टीरियो प्लेट बक्राकार बनाई जा सकती हैं अतएव टाइप मैटर का उपयोग भी स्टीरिओ के माध्यम से रोटरी प्रिन्टिंग में किया जा सकता है। समाचार पत्रों का जब एक 'सिंडिकेट' या संगठन होता है, तब उन समाचार पत्रों के विशेषांक तथा साप्ताहिक के पृष्ठ एक जगह कम्पोज करके उनके स्टीरिओ प्लेट की मेट्रिक्स' बनाई जाती है तथा यह 'मेट्रिक्स' विभिन्न स्थानों पर भेजी जाती है और वहां उन मेट्रिक्स से प्लेट बनाकर उनसे मुद्रण कर लिया जाता है। इस प्रकार कम्पोजिंग का व्यय बचता है।"

 

3. प्रेस कक्ष (Press Room ) - 

इस कक्ष में रोटरी मशीन तेजी से समाचार पत्र न सिर्फ छापती हैं वरन् पत्र को काटकर, छापकर तथा मोड़कर वितरणके लिए सीधे प्रसार विभाग तक पहुंचाने के लिए तैयार कर देती है।

 

4. उत्कीर्णन विभाग (Engraving Department) -

छोटे तथा असमर्थ समाचार पत्रों में आर्ट की छपाई से सम्बन्धित एनग्रेविंग विभाग की सुविधा प्रायः नहीं होती है। यह कार्य वे अन्य व्यावसायिक मुद्रण केन्द्रों पर करवाते हैं। बड़े समाचार पत्रों में इस प्रकार का पृथक् विभाग होता है।

 

5. प्रूफ डेस्क (Proof Desk ) - 

कम्पोज की गई सम्पूर्ण सामग्री के प्रूफ की आवश्यकता पड़ती है। कम्पोज की गई सामग्री में यदि टाइपों की गलतियां रह गई हैं। तो उन्हें प्रूफ क स्तर पर दूर किया जाता है। प्रूफ को मूल कॉपी से मिलाया जाता है।

 

अंत में यह निष्कर्ष निकलता है कि समाचार पत्र के सफल संचालन व प्रकाशन की सफलता उपरोक्त तीनों विभागों के आपसी तालमेल अथवा सामंजस्य और सजगता पर निर्भर करती है। तीनों विभाग अपनी रचनात्मक कल्पनाशीलता से पत्र के स्तर प्रसार और प्रभाव में अप्रत्याशित वृद्धि कर सकते हैं।

 

अथ्यास प्रश्न 

प्रश्न 1. उत्कीर्णन विभाग का क्या कार्य है? 

प्रश्न 2. प्रवीण दीक्षित ने समाचार पत्र प्रबन्ध के पांच विभाग कौन-कौन से माने हैं? 

प्रश्न 3. किसी समाचार पत्र के सफल संचालन के लिए किसी समाचार पत्र के संगठन के अंतर्गत कितने विभाग होते हैं? 

प्रश्न 4. कम्पोजिंग कक्ष का क्या कार्य है ?

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