शैक्षिक प्रशासन का विकास | Development of Education Administration
शैक्षिक प्रशासन का विकास (Development of Education Administration)
शैक्षिक प्रशासन का विकास
अब तक हम यह जान चुके हैं कि शैक्षिक प्रशासन का उद्गम स्थल सामान्य प्रशासन रहा है। जैसे जैसे ज्ञान के भंडार में अभिवृद्धि होती गई है तथा सामाजिक परिवर्तनों को महसूस किया गया है वैसे वैसे सामान्य प्रशासन में नये नये आयाम एवं विचारधारायें जुड़ती गयीं हैं। इस नवीनीकरण का सीधा असर शैक्षिक प्रशासन के स्वरुप पर पड़ा है। इसमें नये नये संप्रत्यय एवं अवधारणायें जुड़ने से इसका दायरा विस्तृत हो गया है। शैक्षिक प्रशासन के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिये सामान्य प्रशासन के विकास के विभिन्न अवस्थाओं को जानना आवश्यक है । सामान्य प्रशासन की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन तीन युगों में बांटकर किया जा सकता है
1 परंपरावादी युग 1900 - 1935 ( Classical Era):
इस युग को प्रशासन के व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत का युग माना जाता है। इस युग के प्रवर्तकों के अनुसार प्रशासन किसी संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन मात्र है। विचारधारा के विकास के आधार पर इस युग के तीन निम्नलिखित भाग है:
वैज्ञानिक प्रबंध का युग (Scientific Management Era):
इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप वृहद् एवं यंत्रीकृत उत्पादन प्रत्येक उद्योग का लक्ष्य बन गया। इस लक्ष्य को प्राप्त करने क दिशा में वैज्ञानिक प्रबंध की शुरुआत की । यह कार्य को संगठित एवं ज्ञान के आधार करने की पद्धति है । यह एक ऐसी व्यवस्था है जो रुढ़िवादी, परंपरागत एवं अनुमानित धारणाओं के स्थान पर तर्कों, तथ्यों, प्रयोग एवं विश्लेषण पर आधारित सिद्दांतों को स्वीकार करती है। इस विचारधारा के विकास में अनेक विद्वानों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसमें चार्ल्स बैबेज़, टेलर, हेनरी गैंट, फ्रैंक गिलब्रेथ, लिलियन गिलब्रेथ कुक आदि हैं। परन्तु इस विचारधारा में सबसे अधिक महत्वपूर्ण एफ. डब्लू. टेलर का है। इसलिये टेलर को "वैज्ञानिक प्रबंध का जन्म दाता" माना जाता है तथा उनकी विचारधारा को टेलरवाद भी कहा जाता है।
प्रशासनिक विचारधारा का युग (Administrative Theory Era):
यह विचारध के उच्च स्तर पर सामान्य पहलूओं से संबंधित रही है। इसके प्रवर्तकों में हेनरी फेयोल का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने प्रशासन को सार्वभौमिक कौशल बताते हुये उससे संबंधित 14 मार्गदर्शक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जो इस प्रकार हैं:
1) कार्य विभाजन (Division of Labour):
फेयोल के मतानुसार प्रत्येक कार्य को सुविधाजनक कार्यांशों में विभाजित करके अलग-अलग कार्यांश को उसके लिये उसके लिये योग्य व प्रशिक्षित व्यक्ति से सम्पन्न कराया जाना चाहिये ।
2) अधिकार एवं दायित्व ( Authority and responsibility ) :
उनके अनुसार किसी संगठन में अधिकार और दायित्व साथ-साथ चलते है । दायित्वों के बिना अधिकार नहीं चलने चाहिये
3) अनुशासन (Discipline ) :
अनुशासन से आशय अपने से उच्च अधिकारी की आज्ञा का पालन करने नियमों के प्रति आस्था तथा संबंधित अधिकारियों के प्रति आदर भाव रखने से है। किसी संगठन में अच्छा अनुशासन उच्च कोटि के सुयोग्य प्रशासकों, स्पष्ट एवं निष्पक्ष नियमों तथा समझौतों, विवेकपूर्ण दंड विधान एवं न्यायोचित व्यवहार से ही स्थापित किया जा सकता है।
4) आदेश की एकता (Unity of Command):
इसका आशय यह है कि एक कर्मचारी को समस्त आदेश एक ही अधिकारी से मिलने चाहिये। आदेश की एकता के अभाव में अनुशासन भंग होने की आशंका बनी रहती है तथा संगठन में सर्वत्र भ्रान्ति का वातावरण छाया रहता है।
5 ) निर्देश की एकता (Unity of Direction) :
इस सिद्धांत का आशय यह है कि अमुक उद्देश्य से संबंधित क्रियाएँ अमुक वर्ग या समूह द्वारा ही सम्पन्न की जानी चाहिये तथा प्रत्येक समूह का एक ही अधिकारी होना चाहिये ।
6) व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सामान्य हितों को प्राथमिकता (Subordination of individual interests to the common good):
फेयोल के अनुसार एक कुशक प्रशासक को चाहिये कि वह संस्था के हितों एवं व्यक्तिगत स्वार्थ के बीच समन्वय एवं सामंजस्य बनाये रखें। यदि कभी इन दोनों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाये तो व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सामान्य हितों को प्राथमिकता चाहिये ।
7) पारिश्रमिक (Remuneration):
फेयोल के अनुसार कर्मचारियों के पारिश्रमिक की दर अथवा भुगतान की पद्धति उचित व संतोषप्रद होनी चाहिये । यदि भुगतान की पद्धति उचित होगी तो कर्मचारी सदैव संतुष्ट रहेंगे तथा संबंधों में कभी तनाव नहीं होगा । उन्होंने कर्मचारियों को प्रोत्साहन देने के लिये गैर वित्तीय प्रेरणायें अपनाने पर भी बल दिया।
8) केन्द्रीकरण (Centralization):
किसी संगठन में केन्द्रीकरण की नीति अपनायी जाये या विकेंद्रीकरण की, इसका निर्णय संगठन के व्यापक हितों, वहाँ काम करने वाले लोगों की मनोभावनाओं तथा कार्य की प्रकृति आदि सभी तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद ही करना चाहिये प्रत्येक ऐसी बात जो अधीनस्थों के महत्व में वृद्धि करती है, विकेंद्रीकरण कही जाती है तथा जो अधीनस्थों के महत्व को कम करती है केन्द्रीकरण की सूचक होती है।
9) सोपान श्रंखला (Scalar Chain):
सोपान श्रृंखला से तात्पर्य सर्वोच्च पदाधिकारी से लेकर निम्नतम पदाधिकारी के बीच संपर्क की व्यस्था के क्रम से है। फेयोल के मतानुसार संस्था के पदाधिकारी उपर से नीचे की ओर एक सीधी रेखा के रूप में संगठित होने चाहिये तथा किसी भी अधिकारी को अपनी सत्ता श्रेणी का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।
10) व्यवस्था (Order)
व्यवस्था से आशय सामग्री तथा कर्मचारियों दोनों की व्यवस्था से है। इस संबंध - में फेयोल ने दो उपसिद्धांत बतायें हैं:
• प्रत्येक वस्तु के लिये निश्चित स्थान व प्रत्येक वस्तु नियत स्थान पर होनी चाहिये ।
• प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक नियत स्थान एवं प्रत्येक व्यक्ति अपने नियत स्थान पर होना चाहिये ।
11) समता (Equity):
इसका आशय यह है कि अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ न्याय व उदारता का व्यवहार होना चाहिये जिससे कि उनकी सदभावना व सहयोग बना रहे ।
12) कार्यकाल की स्थायित्वता (Stability of tenure of persons):
किसी नये कर्मचारी द्वारा किसी नवीन काम को सीखने तथा कुशलतापूर्वक उसके निष्पादन में समय लगना स्वाभाविक है। अतः यदि उस अवधि के पूर्व ही उसे निकल दिया जाये अथवा काम सीखने पर समुचित समय न दिया जाये तो यह न्यायसंगत नहीं होगा । फेयोल ने इस बात पर बल दिया कि जहाँ तक हो सके कर्मचारियों के कार्यकाल में स्वामित्व होना चाहिये जिससे कि वे निश्चिंत होकर तत्परतापूर्वक कार्य कर सकें।
13) पहलपन (Initiative):
इसका आशय यह है सभी लोगों को स्वतंत्रता पूर्वक सोचने तथा योजना क्रियान्वित करने के का अधिकार होना चाहिये । प्रत्येक प्रबंधक को अपने अधीन काम करने वाले व्यक्तियों में पहल की भावना को प्रेरित करना चाहिये ।
14) समूह भावना का सिद्धांत (Espirit de Corps ):
फेयोल ने सहयोग एवं सहकारिता के साथ काम करने की भावना पर बल दिया है। इस भवना को विकसित करने के लिये उन्होंने दो सुझाव भी दिए है :
• आदेश की एकता के सिद्धांत का पालन कठोरता से होना चाहिये ।
• सन्देशवाहन की प्रणाली अत्यंत प्रभावशाली होनी चाहिये
POSDCORE Full Form
इस सन्दर्भ में दूसरा नाम लूथर गुलिक का आता है । उन्होंने प्रशासन के कार्यों का सूत्र "POSDCORE (पोस्डकोर्ब)" बनाया इसमें P - Planning (नियोजन), O-Organizing (संगठन), S- Staffing (नियुक्ति), D-Directing (निर्देशन), C-Coordinating ( समन्वय), R- Recording ( रिकार्ड करना), B-Budgeting (बजट बनाना) से संबंधित है।
नौकरशाही प्रबंध का युग (Bureaucratic Management Era ) :
नौकरशाही प्रबंध एक प्रतिष्ठित एवं परंपरागत विचारधारा रही है जिसका अस्तित्व आज भी अनेक प्रशासनिक व्यवस्थाओं में देखने को मिलता है। इस विचारधारा के सबसे अधिक व्यवस्थित अध्ययन का श्रेय जर्मनी के एक समाजशास्त्री मेक्स वेबर को जाता है। वेबर के अनुसार नौकरशाही का अर्थ होता है: नियुक्त किये गये अधिकारियों की एक प्रशासनिक संस्था । इस व्यवस्था में सत्ता और शक्ति पद में निहित होतें हैं, किसी व्यक्ति में नहीं नौकरशाही व्यवस्था अपनी विशेषताओं जैसे- पद सोपान, श्रम विभाजन, अवैयक्तिक सम्बन्ध, लिखित नियम, निश्चित कार्य विधि, क़ानूनी सत्ता एवं शक्ति आदि के कारण तकनीकी दृष्टि से उच्च मात्रा की विवेकशीलता तथा प्रभावशीलता प्राप्त करने की योग्यता रखती है।
2 नव परम्परावादी युग, 1935-1950 (Neo- Classical Era):
इस युग को संक्रमण का युग भी माना जाता है। व्यवहारवादी विज्ञान में हुये नये अनुसन्धानों एवं प्रयोगों ने परम्परावादी विचारधारा को त्रुटिपूर्ण साबित किया जिसके फलस्वरूप प्रशासन की नई विचारधारा का सूत्रपात हुआ। इसमें औपचारिक संगठन के स्थान पर मानवीय पहलूओं पर बल दिया जाने लगा। इस युग के प्रवर्तकों का योगदान निम्नांकित हैं:
जार्ज एल्टन मेयोः
उन्होंने अपने साथियों-प्रो एफ० जे० रोथलिसबर्जर तथा विलियम० जे० डिक्सन के साथ मिलकर वेस्टर्न इलेक्ट्रिक कम्पनी के शिकागो स्थित हव्थोर्न संयंत्र में श्रमिकों पर 1924-1933 ई० के बीच कई प्रयोग किये। उन प्रयोगों के निष्कर्षों के आधार पर उन्होंने यह कहा कि किसी संगठन को एक सामाजिक प्रणाली के रूप में तथा इसके सदस्यों को चेतनायुक्त प्राणी के रूप में देखा जाना चाहिये। उन्होंने जिस विचारधारा को जन्म दिया उसे "मानवीय संबंध विचारधारा" के नाम से जाना जाता है जो आगे चलकर प्रशासन के विचारधारा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ ।
मेरी पार्कर फोलेट:
फोलेट ने संबंधों के मनोविज्ञान पर महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने प्रबंध के कई महत्वपूर्ण विषयों जैसे नेतृत्व, रचनात्मक संघर्ष, आदेशों का मनोविज्ञान, सत्ता, नियंत्रण, समायोजन, सहभागिता, सहमति समझौता आदि पर अपने मूल्यवान विचार प्रकट किये। उन्होंने प्रबंध में "मेलजोल", "समूह चिंतन" तथा "नवीन प्रजातांत्रिक मूल्यों" को अपनाने पर जोर दिया था
ओलिवर शेल्डन:
शेल्डन ने भी उपक्रम को मनुष्यों तथा मानवीयता का एक जटिल आकार माना था। उनका आदर्श था कि "व्यक्ति पहले हैं।"
चेस्टर बर्नार्ड :
बर्नार्ड ने प्रबंधकीय प्रक्रिया का मानवीय एवं सामाजिक विश्लेषण किया था। उन्हें सामाजिक प्रणाली विचारधारा का जन्मदाता माना जाता है।
1940 के बाद मानवीय सम्बन्ध की विचारधारा में एक नया मोड़ आ गया। कई विद्वान यह मानने लगे कि मनुष्य केवल सामाजिक संबंधों से प्रेरित होकर ही कार्य नहीं करता है वरन् वह अपनी मानसिक, भावात्मक तथा आत्मविकास की भावनाओं से प्रेरित होकर कार्य करता है। इस तरह प्रशासन का विकास व्यवहारवादी विज्ञान के रूप में होने लगा जिसमें विभिन्न पहलूओं जैसे- सामाजिक अंतर्व्यव्हार, अभिप्रेरणा, सत्ता के प्रारूप, संप्रेषण, नेतृत्व, कार्य रचना, वैयक्तिक आवश्यकताओं आदि पर बल दिया गया। इस दृष्टिकोण को समृद्ध बनाने में जिन विचारकों का योगदान है उनका उल्लेख निम्नांकित है:
कर्ट लेविनः
उन्होंने व्यक्तित्व तथा व्यवहार की अवधारणा के सम्बन्ध में अपने विचार दिये उनका परिवर्तन मॉडल, शक्ति क्षेत्र के विश्लेषण तथा अभिलाषा का स्तर विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
रेंसिस लिकर्ट:
लिकर्ट के अनुसन्धान का केंद्र मानव रहा है। उन्होंने यह निष्कर्ष निकला कि कार्य- केन्द्रित पर्यवेक्षण के स्थान पर कर्मचारी- केन्द्रित पर्यवेक्षण अधिक महत्वपूर्ण है।
अब्राहम मास्लोः
मास्लो ने मानव अभिप्रेरणा की विचारधारा को स्पष्ट करते हुये मानवीय आवश्यकताओं को पांच श्रेणियों शारीरिक, सुरक्षात्मक, सामाजिक, स्वाभिमान तथा आत्म - विकास में विभक्त किया है। उसका यह मत है कि व्यक्ति एक निश्चित क्रम में ही अपनी आवश्यकताओं कि पूर्ति के लिये प्रयासरत रहता है।
हर्ज़बर्ग :
हर्ज़बर्ग ने अभिप्रेरणा की द्वि-घटक आरोग्य विचारधारा का प्रतिपादन किया। उनका कहना है की मनुष्य की आवश्यकताओं के दो समूह हैं- (1) स्वास्थ्य तत्त्वः ये तत्त्व कार्य के वातावरण का निर्माण करते हैं। ये अभिप्रेरणा के लिये आवश्यक होते हैं किन्तु वे स्वयं अभिप्रेरणा नहीं होते हैं । अभिप्रेरक तत्त्व इसके अंतर्गत वे तत्त्व आते हैं जो संगठन के सदस्यों के अभिप्रेरणा स्तर को ऊँचा उठाने में सहायक होते हैं।
3 आधुनिक विचारधारा का युग- 1950 से अब तक (Modern Thought Era- Since 1950 to till now ) :
1950 के बाद प्रशासन के क्षेत्र में विभिन्न विचारधाराओं के एकीकरण एवं संयोजन का दौर प्रारंभ हुआ तथा नवीन प्रवृतियों का भी विकास हुआ। इन प्रवृतियों की चर्चा निम्नलिखित है:
प्रणाली विचारधारा (System Theory):
यह विचारधारा संगठन को पृथक-पृथक विभागों, कार्यों एवं साधनों के संकलन के रूप में नहीं वरन एकीकृत सम्पूर्णता, संगठित इकाई या समन्वित पद्धति के रूप में मानती है।
संभाव्यता विचारधारा (Contingency Theory):
यह विचारधारा यह मत है कि प्रशासन की कोई एक श्रेष्ठ विधि नहीं होती है, वरन् सब कुछ परिस्थिति पर निर्भर करता है अतः किसी प्रशासक को वही मार्ग अपनाना होता है जो समय की मांग होती है।
गणितीय विचारधारा (Mathematical Theory):
यह विचारधारा संपूर्ण प्रशासन को एक गणितीय मॉडल मानती है। इसकी यह मान्यता है की संपूर्ण प्रशासन एक तार्किक प्रक्रिया है जिसे गणितीय संकेतों, सूत्रों, चिन्हों, समीकरणों अथवा काल्पनिक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
7- एस मैककिन्सी मॉडल (The McKinsey 7-S Framework) :
इस मॉडल को थोमस पीटर्स, रोबेर्ट वाटरमैन तथा रिचर्ड पास्कल आदि के साथ मिलकर मैककिन्सी ने यह मॉडल तैयार किया है। उनके अनुसार संगठनात्मक प्रशासन सात घटकों व्यूहरचना, संरचना, प्रणालियाँ, स्टाफ, - शैली, कौशल तथा अधिलक्ष्यों का जोड़ है। इसमें अन्तः निर्भरता का संबंध होता है । अतः किसी एक घटक में परिवर्तन होने पर सभी में संयोजन आवश्यक हो जाता है।
प्रबंध सूचना पद्धति (Management Information System) :
कंप्यूटर टेक्नोलॉजी के विकास के साथ ही प्रबंध में सूचना प्रणाली का महत्व बढ़ गया है। सूचना प्रबंध एक महत्वपूर्ण संसाधन बन गया है। यह एक ऐसी पद्धति है जिसमें समंकों का एकत्रीकरण, संग्रहण एवं प्रविधियन किया जाता है तथा सूचना के रूप में नियोजन, नियंत्रण एवं निर्णयन के लिये प्रशासकों को उपलब्ध करवाया जाता है दूसरे शब्दों में प्रबंध सूचना पद्धति मानवीय एवं कम्पयूटर आधारित पूंजी- संसाधनों का सम्मिश्रण है ।
ज़ेड विचारधारा (Z Theory):
यह विचारधारा जापानी प्रबंधदर्शन एवं जापान में प्रयुक्त तकनीकों का दूसरा नाम है । 1981 में विलियम आवूची ने अमेरिकी संगठनों में जापानी दर्शन अपनाये जाने का सुझाव दिया था । यह विचारधारा मानवीय सम्बन्ध के सिद्धांतों एवं वैज्ञानिक पर्बंध के सिद्धांतों का योग है।
उपर्युक्त विवेचनों से यह स्पष्ट है कि आज भी प्रशासन के क्षेत्र में विचारधाराओं द्रुत गति से परिवर्तन हो रहे हैं इसी वजह से प्रशासन के सम्बन्ध में कोई एकीकृत विचारधारा बन नहीं पायी है। वस्तुतः शैक्षिक प्रशासन ज्ञान की विविधता, विचारकों के विभिन्न परिवेश तथा उसकी विकासोन्मुख प्रकृति के कारण ही ऐसा हुआ है।
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