फारुकी सल्तनत का उदय भाग 03 :उथल पुथल के पाँच दशक |मीरन आदिलखान के बाद बुरहानपुर | Burhanpur After Meer Aadiklhan
फारुकी सल्तनत का उदय भाग 03 :उथल पुथल के पाँच दशक
मीरन आदिलखान के बाद बुरहानपुर
मीरन आदिलखान के गौरवशाली शासन के बाद बुरहानपुर का राजदरबार षड्यंत्रों का केन्द्र हो गया। अमीर यार अली मुगाली ने मलिक लाडन और अन्य अमीरों के सहयोग से दाउदखान के बेटे गजनीखान का समर्थन किया और उसे शासक घोषित कर दिया। पर कुछ राज बाद ही यार अली ने गजनीखान के स्थान पर उसके पिता दाउदखान को गद्दी पर बिठा दिया। दाउदैखान ने यार अली खान के भाई हसन अली को हुसामुद्दीन की पदवी देकर अपना वजीर नियुक्त कर दिया। कुछ समय के बाद दाउदखान के विरोधी अमीरों ने 1510 में दाउद खान की हत्या कर दी। बुरहानपुर में आदिलशाही मकबरों के पास यार अलीखान की कब्र है।
कुछ समय बाद कुछ अमीरों ने दाउद खान के पुत्र खानजहान को सुल्तान घोषित कर दिया। स्थिति इतनी विकट हो गई कि दाउद खान को भागकर असीरगढ़ में शरण लेनी पड़ी। एकाएक दाउदखान के समर्थक मलिक लाडन और हुसामुद्दीन में मतभेद हो गये और हुसामुद्दीन खानजहान के पक्ष में चला गया पर अंततः उसे हारना पड़ा और दाउदखान फिर से बुरहानपुर में स्थापित हो गया । कुछ समय बाद हुसामुद्दीन बुरहानपुर लौट आया और लगता है कि उसे फिर से वजीर बना दिया गया। पांच वर्षों के गौरवहीन शासन के बाद 28 अगस्त, 1508 ई. को दाउदखान की मृत्यु हो गयी।
दाउद खान की मृत्यु के बाद उसका बेटा गज़नी खान गद्दीनशीन हुआ पर कुछ दिन बाद ही वह अपने वजीर हुसामुद्दीन द्वारा मार डाला गया। गजनी खान के कोई संतान नहीं थी इस कारण अब बुरहानपुर के राजदरबार में सत्ता के लिए भयंकर खींचतान मच गई। खानदेश के फारुकी वंश का एक व्यक्ति आलम खान तब अहमदनगर में था। हुसामुद्दीन ने अहमदनगर और बशर के शासकों की सहायता से इस आलम खान को बुरहानपुर के तख्त पर बिठाना चाहा पर अहमदनगर के आलम खान के दावे को मलिक लाडन खलजी ने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वह उस अन्य आलम खान को खानदेश के सिंहासन पर बिठाना चाहता था जो गुजरात के सुल्तान महमूद बेगढ़ा की शरण में रह रहा था और खानदेश के फ़ारुकी वंश का ही था। इस प्रकार खानदेश की गद्दी के दो दावेदार हो गये। दोनों का नाम आलम खान था और दोनों को खानदेश के अमीरों के दो प्रतिद्वन्द्वी दलों का समर्थन प्राप्त था। ""
इसके पहले कि मलिक लाडन सक्रिय होता, हुसामुद्दीन ने अपने उम्मीदवार अहमदनगर के आलमखान को शासक घोषित कर दिया। परिणामतः गुजरात के सुल्तान ने इस आलमखान के विरुद्ध सेना भेज दी। गुजरात की सेना के आने का समाचार पाते ही अहमदनगर तथा बरार की संयुक्त सेनाएं भाग खड़ी हुई और अपने उम्मीदवार आलम खान को भी साथ ले गई। मजबूर होकर हुसामुद्दीन को पराजय स्वीकार करके गुजरात के सुल्तान के सम्मुख समर्पण करना पड़ा। विरोधियों को खत्म करने के बाद महमूद बेगढ़ा ने थालनेर में 10 अप्रेल 1509 को एक भव्य विशाल दरबार का आयोजन किया और वहाँ अपने पौत्र आलमखान को आजम हुमायूं आदिलखान तृतीय के नाम से खानदेश का सुल्तान घोषित किया। आदिलखान की स्थिति मजबूत करने के लिए महमूद बेगढ़ा ने आदिलखान तृतीय को बारह लाख टंका दिया और खानदेश की सुरक्षा के लिए बड़ी सेना भी दिलावर खान की कमान में भेजी ।
गद्दी पर बैठने के उपरांत अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आदिल खान तृतीय ने अपनी बेटी का विवाह गुजरात के सुल्तान महमूद बेगढ़ा के पुत्र खलील खान के साथ कर दिया जो महमूद बेगढ़ा के बाद मुजफुरशाह द्वितीय के नाम से गुजरात का शासक बना। इसके बाद आदिलखान ने थालनेर के स्थान पर बुरहानपुर को अपनी राजधानी बना लिया।
जब हुसामुद्दीन ने अहमदनगर के सुल्तान के साथ मिलकर फिर से आलमखान को बुरहानपुर के सिंहासन पर बिठाने का षडयंत्र किया तो आदिलखान ने हुसामुद्दीन की हत्या करा दी। हुसामुद्दीन की हत्या के बाद भी कुछ अमीरों ने अहमदनगर के शासक निजामशाह की सहायता से आलमखान को खानदेश की गद्दी पर बिठाने के लिए खानदेश पर आक्रमण कर दिया। इस पर आदिलखान फारुकी तृतीय ने गुजरात के शासक महमूद बेगढ़ा से सहायता माँगी। गुजरात की सेना आते ही अहमद निजामशाह लौट गया। यह 1510 ई. की बात है। इसके बाद आदिलखान तृतीय ने 1520 ई. में अपनी मृत्यु तक शांति से शासन किया।
सुल्तान आदिल खान तृतीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र मीरन मुहम्मद खान प्रथम हुआ। अपने शासनकाल के प्रारंभिक 6 वर्षों में मीरन मुहम्मद खान ने शांतिपूर्वक और दृढ़ता से शासन किया। मीरन मुहम्मद खान ने बरार के शासक इमादशाह की सहायता से अहमदनगर और उसके सहयोगी बीदर पर आक्रमण कर दिया। पर दोनों को पराजित होना पड़ा। दोनों पराजित सुल्तानों ने अपनी पराजय कथा गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह को लिख भेजी और उससे सहायता मांगी। 1528 में बहादुरशाह ने इन दोनों की सेनाओं के साथ अहमदनगर पर धावा किया और उसे अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। इसके बाद मीरन मुहम्मद खान एक बार फिर 1529 में बहादुरशाह के साथ अहमदनगर के विरुद्ध एक अभियान में गया और सफलता पाने में योगदान दिया। इससे मीरन मुहम्मद खान की प्रतिष्ठा भी बहादुरशाह की नज़र में बढ़ गयी। उसने उसे शाह की पदवी धारण करने की अनुमति दे दी और उसे अपनी बहिन का विवाह उससे कर दिया और उसे अपना भावी उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
मीरन मुहम्मदशाह ने आगे भी बहादुरशाह को सहयोग दिया। 1531 में मालवा के अभियान के समय और 1534-35 में चित्तौड़ के अभियान के समय उसने बहादुरशाह का साथ दिया। बाद में मुगलों के हाथ से मालवा और गुजरात छीनने में भी उसने बहादुरशाह की सहायता की। तभी बहादुरशाह की मृत्यु हो गई और गुजरात की राजमाता और अमीरों ने मीरन मुहम्मदशाह को गुजरात का सुल्तान घोषित कर दिया। वह गद्दी संभालने हेतु अहमदाबाद रवाना हो गया पर रास्ते में बीमारी से 4 मई, 1535 उसकी मृत्यु हो गई। मीरन मुहम्मद खान के समय बुरहानपुर में पहली जामा मस्जिद बनी। इसे मीरन मुहम्मद की मां रुकैया बेगम ने बनवाया था। रुकैया बेगम गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह की बेटी थी। इसे आज बीबी की मस्जिद के नाम से जाना जाता है, जो बुरहानपुर के इतवारा मोहल्ले में है ।
मीरन मुहम्मद की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अहमदशाह गद्दी पर बैठा। वह बालक ही था। उसका वजीर पियारु अत्यंत विद्वान और अनुभवी व्यक्ति था। कुछ समय बाद ही मलिक पियारू को पता चला कि कुछ अमीर, बालक सुलतान अहमदशाह के चाचा मीरन मुबारक को गद्दी पर बिठाना चाहते हैं। मलिक पियारू और अहमदशाह ने मीरन मुबारक को बुलाकर बुरहानपुर में बंदी बना लिया। किन्तु अपने एक अरब मित्र की सहायता से मीरन मुबारक कैद से मुक्त हो गया और उसने स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया। मलिक पियारू और अहमदशाह मारे गये। इस प्रकार मीरन मुबारकशाह ने गद्दी संभाली। कुछ समय उपरांत ही उसने बुरहानपुर के पूर्व में नर्मदा नदी मे तट पर स्थित हंडिया पर अधि कार कर लिया। पूर्व की तरफ इतनी दूर तक फारुखी शासन का विस्तार इसके पहले कभी नहीं हुआ था.
मीरन मुहम्मदशाह प्रथम की मृत्यु से गुजरात का सिंहासन भी खाली हो गया था। बहादुरशाह ने उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था। बहादुरशाह के भाई लतीफ खान का किशोर बेटा महमूद खानदेश में कैद था। अब गुजरात के अमीरों ने गुजरात के सिंहासन पर बिठाने के लिए खानदेश के नये शासक मीरन मुबारकशाह से निवेदन किया कि वह महमूद को छोड़ दे। मुबारकशाह ने महमूद को मुक्त कर दिया और महमूद अहमदाबाद याने गुजरात के सिंहासन पर सुल्तान महमूदशाह तृतीय के नाम से सत्तारूढ़ हुआ ।
इस समय महमूदशाह किशोर ही था और उसे अनुभव भी कुछ नहीं था। दरयाखाँ और इमादुल्मुल्क नामक दो अमीरों में सत्ता के लिए द्वंद्व शुरू हो गया। इसमें इमादुल्मुल्क की पराजय हुई और उसने खानदेश में शरण ली। मीरन मुबारक ने इमादुल्मुल्क का स्वागत किया और उसे दरयाखाँन पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। उकसावे में आकर इमादुल्मुल्क ने खानदेश के शासक मीरन मुबारक की सहायता से गुजरात पर आक्रमण किया पर गुजरात के सुल्तान महमूदशाह तृतीय की सेना ने उन्हें बुरी तरह पराजित किया। मीरन मुबारक को लौटकर असीरगढ़ में शरण लेनी पड़ी। गुजराती सेना ने खानदेश को रौंद डाला और गुजरात के सुल्तान महमूदशाह तृतीय के नाम का खुतबा पढ़ने एवं जुर्माना देने के लिए मुबारक को बाध्य किया। यह सन् 1538 ई. की घटना है। इसके बाद से 1562 ई. तक मीरन मुबारकशाह ने गुजरात के मामलों से स्वयं को यथासंभव दूर रखा।
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