मध्यप्रदेश (मालवा) में खिलजी राजवंश (1436 ई.1531 ई.) | महमूद खिलजी प्रथम और मांडू का इतिहास | Khilji Vansh Madhyapradesh
मध्यप्रदेश में खिलजी राजवंश (1436 ई.1531 ई.)
महमूद खिलजी प्रथम और मांडू का इतिहास (1436 - 1469 ई.)
महमूद खाँ का राज्यारोहण माण्डू में सोमवार 14 मई 1436 ई. में उसके पिता मलिक मुगीथ के आशीर्वाद के साथ हुआ। उसके नाम पर खुतबा पढ़ा गया और सिक्के जारी किये गये। प्रथा के अनुसार उसने सहयोगी अमीरों को उपाधियाँ और पद प्रदान किये। उसने अपने खास अमीर मुश्हिर-उल-मुल्क, को वजीर नियुक्त किया। अपने पिता को सबसे उच्च पदवी 'आजम हुमायूँ से सम्मानित किया और उन्हें वे सभी राजकीय चिह्न प्रदान किये जो एक सुल्तान के होते हैं।
महमूदशाह खिलजी का राज्यारोहण निर्विघ्न सम्पन्न हुआ । मालवा के सभी अमीरों ने उसे सुल्तान स्वीकार किया, क्योंकि वे एक शक्तिशाली शासक चाहते थे। महमूद खाँ के मालवा के गोरी सुल्तानों से पारिवारिक सम्बन्ध थे। उसके दादा अलीशेर खुदं खिलजी का विवाह दिलावर खाँ गोरी की बहन से हुआ था। महमूद खाँ का पिता मलिक मुगीथ होशंगशाह का फुफेरा भाई था । मलिक मुगीथ की सहायता से ही होशंगशाह गुजरात की कैद से स्वतंत्र होने के बाद मालवा की गद्दी पर पुनः बैठ पाया था। होशंगशाह ने मलिक मुगीथ को अपना वजीर नियुक्त किया था। होशंगशाह गोरी ने महमूद की योग्यता को परखकर उसे सोलह वर्ष की आयु में "रेवान" की उपाधि प्रदान की थी। महमूद ने अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर शीघ्र ही सुल्तान का विश्वास अर्जित कर लिया था। उसकी एक बहिन का विवाह गजनी खाँ से जो बाद में सुल्तान मुहम्मदशाह गोरी के नाम से होशंगशाह का उत्तराधिकारी बना था हुआ था। इतिहासकारों ने महमूद खिलजी की वंश परम्परा को दिल्ली के शाही खिलजी सुल्तानों की शाखा से सम्बन्धित बताया है।
राज्यारोहण के कुछ समय बाद होशंगशाह गोरी के पुत्र अहमद खाँ द्वारा समर्थित कुछ सरदारों ने महमूद खाँ की हत्या का असफल प्रयास किया। सुल्तान ने अपने पिता की सलाह पर अपराधी सरदारों को क्षमा कर उन्हें उनके लायक जागीरें प्रदान कर दीं किन्तु उन्होंने अहमद खाँ के भड़काने पर पुनः विद्रोह कर दिया। विद्रोहियों का दमन कर दिया गया और अहमद खाँ को विष देकर मार डाला गया। इसी बीच गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ने होशंगशाह के भगोड़े पुत्र जो शरण में था को गद्दी पर बैठाने के लिए मालवा पर आक्रमण कर दिया। प्रारंभ में गुजरात गुजरात की के सुल्तान को कुछ सफलता मिली इसी बीच महमूद खाँ के पिता की सहायता से मालवा की सेना को सफलता मिली। गुजरात की सेना में महामारी फैल गई और विवश होकर सुल्तान अहमदशाह को गुजरात लौटना पड़ा। सुल्तान अहमदशाह ने लौटते समय मालवा के अनेक नगरों को उजाड़ दिया और जनता को बहुत कष्ट उठाना पड़े। सुल्तान महमूदशाह ने मालवा की जनता को राहत देने के लिये पुननिर्माण के कार्य किये और प्रशासन को व्यवस्थित किया ।
चंदेरी में विद्रोह
गुजरात के सुल्तान अहमदशाह के मालवा पर आक्रमण के समय सुल्तान महमूद को समाचार मिला कि चन्देरी की सेना ने विद्रोह कर वहाँ के इक्तेदार मलिक-उल-उमरा हाजी की हत्या कर दी । इसी बीच पूर्व सुल्तान होशंगशाह गोरी का पुत्र जो उस समय मेवाड़ के राणा की शरण में था, ने अवसर का लाभ उठाकर एक छोटी सी सेना के साथ चन्देरी पहुँच गया। उमर खाँ को स्थानीय लोगों के समर्थन की बहुत आशा थी क्योंकि वह सुल्तान होशंगशाह गोरी का पुत्र था। इस स्थिति ने सुल्तान महमूद की स्थिति को उलझनपूर्ण बना दिया। वह बिना विलम्ब किये माण्डू से शहजादा उमर खाँ के विरुद्ध सेना के साथ निकल पड़ा। उसने सांरगपुर से आगे अपनी सेना को चार भागों में विभाजित कर उमर खाँ को घेर लिया। उमर खाँ वीरता से युद्ध करता हुआ पकड़ा गया। सुल्तान महमूद खाँ ने उसकी गर्दन कटवा कर उसका सिर चन्देरी में घुमाया ताकि चन्देरी की सेना व लोगों 13 को पता चले कि उनका नेता मारा गया है। चन्द्रेरी पर महमूद खाँ ने पुनः अधिकार कर अपने अधिकारी नियुक्त किये। सुल्तान महमूद जब वापस माण्डू लौट रहा तो उसे पुनः चन्देरी में विद्रोह का समाचार मिला। इस बार उस्मान खाँ के समर्थक सुलेमान मलिक ने विद्रोह कर चन्देरी के किले पर अधिकार कर लिया । सुल्तान ने भीषण वर्षा की परवाह किये बिना चन्देरी दुर्ग को घेर लिया। इसी बीच कालपी का इस्माईल खाँ भी सुल्तान महमूद की सहायता को पहुँच गया। सुल्तान ने चारों ओर से आक्रमण किया और चन्देरी के किले की दिवारों को विध्वंस कर सेना के साथ. प्रवेश कर गया। भीषण प्रतिरोध और युद्ध के बाद चन्देरी पर अधिकार हो गया। इसी बीच मलिक सुलेमान की मृत्यु हो गई । अब विद्रोहियों ने सुल्तान महमूद खाँ से क्षमा की प्रार्थना की। सुल्तान के इस शर्त पर उनकी प्रार्थना स्वीकार की वे खुले रूप में जनता के समक्ष आत्मसमर्पण कर क्षमा माँगे। इस पर चन्देरी के लोगों ने क्षमा माँगी और वहाँ की व्यवस्था का उत्तरदायित्व मलिक-उस-शर्क मुजफ्फर इब्राहीम को सौंपा ।
हाथियों के लिए अभियान
अब उसने मालवा राज्य की सीमा पर स्थित उन छोटे जागीरदारों के दमन की योजना बनाई। इनके पास बड़ी संख्या में हाथी थे, ये अवज्ञाकारी हो गये थे। सुल्तान इनकी शक्ति को कुचलकर इनके हाथी अपनी सेना के लिये प्राप्त करना चाहता था। दूसरे वह इन्हें अधीनकर बहमनी और खानदेश के बीच प्रतिरोधक (Buffer) के रूप में चाहता था। अपनी योजनानुसार वह 1440-41 ई. में माण्डू चलकर खेरला की और बढ़ा। खेरला के राय ने सुल्तान होशंगशाह की मृत्यु के बाद स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। महमूद खाँ के आगमन की सूचना पाकर वह भयभीत हो गया और किले से बाहर आकर समर्पण कर दिया। खेरला से सुल्तान कैमूर की पहाड़ियों के क्षेत्र में पहुँचा। वहाँ से वह बांधवगढ़ पहुँचा तो उसे ज्ञात हुआ कि यहाँ से व्यापारी हाथी प्राप्त कर अन्य स्थानों पर बेचते है। इन व्यापारियों से सुल्तान को जानकारी मिली कि वे हाथी 'सरगुजा क्षेत्र से प्राप्त करते हैं। सुल्तान महमूद अब बढ़ा सरगुजा की ओर मालवा के सुल्तान के आगमन का समाचार पाकर सरगुजा का राय भोज भयभीत हो गया और उसने समर्पण कर दिया। उसने सुल्तान से निवेदन किया कि वह मालवा को नियमित रूप से हाथी प्रदाय करता रहेगा। सुल्तान इस क्षेत्र में सेना न भेजे। सुल्तान ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और राय को उपहारों से सम्मानित किया। सरगुजा के राय भोज ने सुल्तान से निवेदन किया कि रतनपुर और रायपुर के शासक उसको हमेशा कष्ट देते हैं, उनके क्षेत्र में पर्याप्त हाथी और हीरों की खान हैं। सुल्तान तत्काल रतनपुर और रायपुर की ओर अग्रसर हुआ। रतनपुर और रायपुर के रायों ने उसका स्वागत किया और बारह हाथी तथा बहमूल्य बड़े हीरे प्रदान किये। महमूद खाँ ने भेंट को स्वीकार किया। वह सरगुजा के रास्ते पचास हाथियों के साथ 1442 ई. में माण्डू लौट गया, जहाँ उसने मदरसे का निर्माण प्रारंभ किया। इस प्रकार मालवा के सुल्तान ने इन क्षेत्रों पर सत्ता स्थापित कर मालवा की सेना के लिये हाथी प्राप्त करने का स्रोत प्राप्त कर लिया। उसने इस क्षेत्र के शासकों से मित्रता कर उन्हें संरक्षण प्रदान किया।
दिल्ली अभियान (1442 ई.)
सुल्तान महमूदशाह के सरगुजा, रतनपुर और रायपुर अभियानों ने उसकी प्रतिष्ठा को बहुत बढ़ा दिया था। परिणामस्वरूप दिल्ली के और मेवाती अमीरों ने महमूद खाँ को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिये निमंत्रण भेजा क्योंकि वे सुल्तान मुहम्मदशाह सैयद से असन्तुष्ट थे । उन्होंने महमूद को दिल्ली की गद्दी पर बैठाने के प्रस्ताव के साथ उससे हड़ौती में मिले। 29 इसी बीच कुछ उलेमा और सैयद भी हाड़ौती पहुँचे और प्रार्थना पत्र का समर्थन किया। इसी बीच दिल्ली की जनता के एक महत्वपूर्ण वर्ग ने भी सुल्तान को आक्रमण के लिए निवेदन किया। इस प्रकार के प्रस्तावों ने निश्चय ही महमूद की महत्वाकांक्षा को बढ़ा दिया होगा।
दिल्ली पर आक्रमण के सुल्तान के उद्देश्य कुछ भी रहे हों उसने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। सुल्तान महमूद 1442 ई. के अन्त में दिल्ली की ओर सेना के साथ अग्रसर हुआ। मार्ग में उसके साथ अनेक उलेमा और शेख भी मिल गये। सुल्तान ने इन्हें उपहारों से सम्मानित किया। हिन्डोन से सुल्तान के सेना के साथ आगमन के समाचार से सुल्तान मुहम्मदशाह सैयद अत्याधिक भयभीत हो गया। उसने दिल्ली छोड़ कर पंजाब में शरण लेने का निश्चय किया। दिल्ली के सरदारों ने सुल्तान पर दवाब डाला कि वह दिल्ली में रहे और शहजादा अलाउद्दीन के साथ शक्ति शाली सेना भेजकर मालवा के सुल्तान का सामना करे। दिल्ली की सेना तुगलकाबाद के समीप पहुँच गई। मालवा के सुल्तान ने अपने दो पुत्र गियाथ खाँ और फीदन खाँ को आक्रमण के लिये आगे भेजा और स्वयं पीछे रहा। दोनों सेनाओं की मुठभेड़ मुल्हान के मैदान पर हुई । युद्ध अनिर्णायक रहा। शीहाब हाकिम के अनुसार मालवा की सेना को विजय प्राप्त हुई जबकि अफगान इतिहासकारों के अनुसार विजय दिल्ली की हुई। दूसरे दिन सुल्तान मुहम्मदशाह ने शान्ति के लिये प्रस्ताव भेजा, जिसे सुल्तान महमूद ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। संधि के बाद सुल्तान महमूद माण्डू लौट आया।
मेवाड़ से सम्बन्ध
राजपूताना में मेवाड़ की बढ़ती हुई शक्ति सदैव मालवा के लिए चिन्ता का कारण थी। सुल्तान होशंगशाह गोरी ने मेवाड़ पर नियंत्रण के लिए मन्दसौर के दुर्ग का निर्माण करवाया था। उसने हाड़ौती क्षेत्र के गागरोन पर भी अधिकार कर वहाँ मालवा की सेना रखी थी। महमूदखाँ के गद्दी पर बैठने के बाद चन्देरी के विद्रोह के समय मेवाड़ के राजा कुम्भा ने होशंगशाह के पुत्र उस्मान खाँ को शरण देकर उसे चन्देरी में शासक बनाने का प्रयत्न किया था। राणा का यह कार्य मालवा के प्रति शत्रुता का कारण था। 1442 ई. के आसपास राणा कुम्भा ने अपने सौतेले भाई खेमकरण को मेवाड़ से निकाल दिया । खेमकरण सहायता के लिये सुल्तान महमूद के पास माण्डू दरबार में शरण लेने चला गया। मालवा के सुल्तान ने उसे सम्मानित कर मेवाड़ की सीमा पर स्थित रामपुरा - भानपुरा के निकट जागीर प्रदान की 30 खेमकरण राणा कुम्भा का घोर शत्रु था और उसमें सुल्तान महमूद खाँ को एक शक्तिशाली मित्र मिल गया। इसी बीच गुजरात के सुल्तान अहमदशाह की मृत्यु हो गई। उसका उत्तराधिकारी मुहम्मदशाह कमजोर शासक था। इस कारण गुजरात के भय से भी मालवा को राहत मिल गई। इन परिस्थतियों में महमूद को चितौड़ पर आक्रमण करने का अवसर प्रदान किया।
चित्तौड़ पर प्रथम आक्रमण ( 1442 ई.)
सुलतान महमूदशाह खिलजी 30 नवम्बर, 1442 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए शक्तिशाली सेना के साथ निकल पड़ा। वह तेजी से बढ़ता हुआ राणा कुम्भा के क्षेत्र खिलवारा पहुँच गया। यह स्थान अरावली पर्वत के मध्य में स्थित था और कुम्भलगढ़ के दक्षिण में दो मील दूर था। सुल्तान ने उस क्षेत्र को उजाड़ दिया। इसी बीच सुल्तान को सूचना मिली कि राणा कुम्भा चित्तौड़ के किले में प्रविष्ट हो गया है। उसने तत्काल चितौड़ के किले को घेरने का निश्चय किया। इसी समय उसे सूचना मिली कि उसके पिता मलिक मुगीथ की मन्दसौर में अल्प बीमारी से मृत्यु हो गई है। वह तुरन्त मन्दसौर पहुँचा और उसके शव को ससम्मान माण्डू अन्तिम संस्कार के लिये पहुँचाया। इसके बाद महमूद खाँ चित्तौड़ की ओर बढ़ा उसने किले को घेर लिया। चित्तौड़ दुर्ग दृढ़ था और उसे तत्काल विजय करना मुश्किल था। राणा ने रात को मालवा की सेना पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण विफल कर दिया गया। शीहाब हाकिम के अनुसार महमूद को निर्णायक विजय नहीं मिली। वर्षा ऋतु के आगमन के पूर्व महमूद माण्डू लौट गया। युद्ध अनिर्णायक रहा और राजपूताना के इतिहासकारों ने इसे राणा कुम्भा की विजय माना और मुसलमान इतिहासकारों ने इसे महमूद की विजय माना ।
सुल्तान महमूदशाह समझ गया था कि मेवाड़ की समस्या का हल सरल नहीं है। इसलिये उसने मालवा के उन क्षेत्रों पर पुनः अधिकार करने की योजना बनाई जो मालवा और मेवाड़ के मध्य थे, जिन्हें होशंगशाह गोरी ने विजय किया था और स्वतंत्र हो गये थे। इनमें प्रमुख गागरोन था, जिसे पाल्हनसिंह खींची ने पुनः जीत लिया था। राणा कुम्भा की मदद से वह शक्तिशाली हो गया था । गागरोन का घेरा और युद्ध सात दिनों तक चलता रहा। अन्त में विजय महमूद खाँ को मिली। पाल्हन सिंह मारा गया। गागरोन पर मालवा का अधिकार हो गया। उसने खीचीवारा के आसपास के चौबीस किलों पर अधिकार कर लिया। उसने गागरोन के किले का नाम मुस्तफाबाद रखा।
गागरोन से महमूदशाह माण्डलगढ़ की ओर बढ़ा। माण्डलगढ़ बनास नदी से दस मील की दूरी पर था। यहाँ पर युद्ध प्रारंभ हो गया। तीन दिनों तक युद्ध चला परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला । राणा कुम्भा ने शान्ति के लिये अपने दूत भेजे । सुल्तान महमूदशाह ने भी अपने प्रतिनिधियों को भेजा । राणा ने महमूदशाह की वापसी के लिये एक लाख टंका देने का प्रस्ताव किया। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वार्ता सफल नहीं हो सकी। वर्षा ऋतु के आगमन के कारण वह वापस माण्डू लौट गया ।
सुल्तान महमूद शाह खिलजी अक्टूबर, 1446 ई. में दूसरी बार माण्डलगढ़ पर अधिकार करने के माण्डू से निकला। वह हाड़ौती होता हुआ रणथम्भौर पहुँचा। रणथम्भौर की किले बन्दी को और लिये मजबूत कर, वह माण्डलगढ़ की ओर बढ़ा। माण्डलगढ़ का किला पहाड़ी पर स्थित था और चारों ओर से घने जंगलों से घिरा था। उसने अपना शिविर बनास नदी के तट पर स्थापित किया। दो दिनों तक बिना किसी परिणाम के युद्ध चलता रहा। तीसरे दिन मालवा की सेना ने भीषण आक्रमण किया। राणा कुम्भा को लगा कि युद्ध का अन्त कहीं उसकी पराजय से न हो उसने शान्ति के प्रस्ताव के साथ मालवा की सेना के व्यय के लिये धन भेजा। मालवा के सलाहकारों ने महमूदशाह को सलाह दी कि वह धन स्वीकार कर मालवा लौट चले। सुल्तान सलाह मानकर माण्डू लौट आया। शीहाब हाकिम के कथन का परीक्षण करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि महमूदशाह को विजय नहीं मिली। यदि वह विजयी होता तो क्यों धन लेकर वापस लौटता क्योंकि वह तो माण्डलगढ़ विजय करना चाहता था। दूसरी ओर राजपूताना के इतिहासकारों का कथन है कि राणा ने महमूदशाह को पराजित कर दिया था । यदि यह सत्य है तो फिर राणा ने मालवा की सेना को धन क्यों दिया। जबकी वह विजयी था । सत्य तो यह कि माण्डू युद्ध अनिर्णीत रहा। दोनों शासकों ने चित्तौड़ में कीर्ति स्तंभ और महमूदशाह ने में मीनार का निर्माण करवाया।
अजमेर की विजय
1455 ई. में जब महमूद मन्दसौर में था, उस समय अजमेर के मुसलमान निवासियों ने उसे अजमेर के हिन्दू सूबेदार के विरुद्ध सहायता के लिए प्रार्थना पत्र भेजा। महमूद ऐसे अवसरों की तलाश में रहता था। महमूद मण्डोर पर आक्रमण के बहाने अजमेर पहुँच गया। उसने ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के सामने शिविर स्थापित किया। ख्वाजा का आशीर्वाद प्राप्त कर उसने किले पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में दोनों ओर के सैनिक हताहत हुए। अजमेर का राज्यपाल गजाधर सिंह मारा गया और किले पर महमूद शाह मालवा का अधिकार हो गया। महमूदशाह खिलजी ने चिश्ती संत की दरगाह पर जा कर उन्हें विधिवत दंडवत् कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया वहाँ उसने एक भव्य मस्जिद बनवाने की योजना बनाई। अजमेर की प्रशासकीय व्यवस्था के लिये उसने सैफखान को सूबेदार नियुक्त किया ।
माण्डलगढ़ की विजय (1457 ई.)
सुल्तान महमूदशाह माण्डलगढ़ को जीतने में दो बार असफल रहा था। इसी बीच उसने राजपूताना के बयाना, हिण्डोन, बून्दी, कोटा और रणथम्भौर पर अपना अधिकार कर अपनी स्थिति बहुत दृढ़ कर ली थी। महमूदशाह खिलजी 1456 ई. के अन्तिम माह में माण्डलगढ़ की विजय के लिए निकल पड़ा। जब वह माण्डलगढ़ के निकट पहुँचा तो राजपूताना के उन भागों से सेनाएँ भी उसकी सहायता को पहुँच गई जिन्हें उसने विजय किया था। उसने माण्डलगढ़ के आस पास के क्षेत्र को उजाड़ दिया। पूर्व के दो आक्रमणों से महमूदशाह को माण्डलगढ़ के बारे बहुत जानकारी मिल चुकी थी। महमूदशाह इस बार माण्डलगढ़ को जीतने का दृढ़ निश्चय कर के आया था। उसे ज्ञात हुआ कि किले में पानी का एकमात्र स्रोत एक तालाब है। उसने आक्रमण कर उसे तोड़ दिया। परिणाम स्वरूप पानी के संकट के कारण किले में हाहाकार मच गया। महमूदशाह की सेनाएँ किले में प्रवेश कर गई। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध प्रारंभ हो गया। राजपूत सेनाएँ अन्त तक वीरता से लड़ती रहीं, किन्तु सफलता की कोई आशा न रही ओर उन्होंने समर्पण कर दिया। महमूदशाह ने 20 अक्टूबर, 1457 ई. को माण्डलगढ़ विजय कर लिया। उसने किले के भीतर स्थित भव्य मन्दिर को ध्वस्त कर दिया और उसकी सामग्री से वहाँ एक मस्जिद का निर्माण करवाया। यह प्रश्न उठता है कि राणा साँगा ने माण्डलगढ़ की सुरक्षा और बाद में आक्रमण के समय वहाँ उपस्थित हो कर युद्ध क्यों नहीं किया। ऐसा कहा जाता है कि इस अवधि में राणा कुम्भा आंतरिक और गुजरात के आक्रमण से उत्पन्न समस्याओं में उलझा हुआ था।
माण्डलगढ़ की विजय के बाद महमूदशाह खिलजी ने चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने के दो प्रयास और किये परंतु वह सफल न हो पाया। महमूद जीवन भर मेवाड़ के विरूद्ध संघर्ष करता रहा परंतु राणा कुम्भा की शक्ति को न तोड़ सका। दोनों शासक और इनके उत्तराधिकारी इस संपूर्ण काल में एक दूसरे के दुश्मन बने रहे।
महमूदशाह के गुजरात से संबंध
महमूदशाह के राज्यारोहण के समय गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ने सुल्तान होशंगशाह के पुत्र को गद्दी पर बैठाने का प्रयास कर मालवा पर आक्रमण किया था, जो विफल हुआ था। सुल्तान अहमदशाह की मृत्यु के समय संवेदना व्यक्त करने स्वयं महमूदशाह खिलजी गुजरात गया था। उसका उत्तराधिकारी मुहम्मदशाह एक अयोग्य सुल्तान था। इस कारण महमूदशाह खिलजी की गुजरात की ओर से चिंता कम हो गई।
महमूदशाह खिलजी को गुजरात के मामले में हस्तक्षेप करने का अवसर उस समय आया जब 1450 ई. में चम्पानेर के राजा गंगादास ने गुजरात के सुल्तान मुहम्मदशाह के विरुद्ध सहायता की प्रार्थना की। मुहम्मदशाह ने चम्पानेर के दुर्ग को घेर लिया था।
महमूदशाह गंगादास की सहायता के लिये शक्तिशाली सेना के साथ गुजरात में प्रवेश कर गया। इसी बीच गुजरात के सुल्तान ने चम्पानेर के दुर्ग का घेरा हटा लिया और महमूदशाह का सामना करने के लिये तैयार हो गया। महमूदशाह को सफलता नहीं मिली और वह वापस मालवा लौट आया। दूसरे वर्ष महमूदशाह, पुनः गुजरात की राजधानी अहमदाबाद के पास तक पहुँच गया। किंतु उसे कापरबंज के युद्ध में गुजराती सेना से बुरी तरह पराजित होना पड़ा। मालवा की सेना को भारी क्षति उठाकर वापस माण्डू लौटना पड़ा। दूसरे वर्ष महमूदशाह खिलजी ने पुनः गुजरात पर आक्रमण के लिए अपने पुत्र गियासशाह को सूरत पर आक्रमण करने के लिये भेजा। गियासशाह ने ताप्ती नदी को पार कर सूरत की ओर बढ़ा। उसने सूरत और उसके आस-पास के क्षेत्रों को लूटकर धन संपत्ति के साथ वापस माण्डू आ गया।
महमूदशाह खिलजी एक दूरदर्शी शासक था, उसने यह जान लिया था कि गुजरात को पराजित करना कठिन है, इसलिये उसने संधि करना उचित समझा। गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के साथ जनवरी 1452 ई. में संधि कर ली। यह संधि दोनों राज्यों के लिये लाभदायक सिद्ध हुई। गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा ने संधि का सम्मान करते हुए मालवा की सीमा में प्रवेश नहीं किया !
महमूदशाह के बहमनी राज्य से संबंध
होशंगशाह गोरी के समय से ही बहमनी के साथ संबंध हमेशा तनावपूर्ण रहे थे। उसने बहमनी राज्य पर दो बार आक्रमण किये थे जिनका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। सुल्तान को भारी क्षति के साथ लौटना पड़ा था। अंत में खानदेश के सुल्तान की मध्यस्थता के कारण दोनों राज्यों में शांति स्थापित हो गई थी। महमूदशाह खिलजी महत्वाकांक्षी सुल्तान था। वह मालवा के राज्य को दक्षिण में विस्तृत कर बरार क्षेत्र पर भी अधिकार करना चाहता था जो बहमनी राज्य का अंग था। इसी बीच बहमनी साम्राज्य भी अनेक आंतरिक कठिनाईयों से जूझ रहा था। मीरों के दो दलों में आपसी मतभेद और अविश्वास के कारण विद्रोह की स्थिति निर्मित हो महमूद खाँ को बहमनी राज्य पर आक्रमण करने का अवसर 1453 ई. में उस समय मिला जब मनी के सुल्तान अहमद द्वितीय के बहनोई जलाल खाँ और उसके पुत्र सिकन्दर खाँ ने माहुर से सुल्तान महमूदशाह खिलजी से सहायता के लिए अपील की कि सुल्तान अहमदशाह की मृत्यु हो चुकी है और वह शीघ्रता से बहमनी पर आक्रमण करें। बरार और तेलंगाना आसानी से उसके अधिकार में आ जाएँगे। नहमूदशाह खिलजी होशंगाबाद से खेरला होते हुए माहुर की ओर बढ़ा। वहाँ उसे पता चला कि सुल्तान अलाउद्दीन अहमदशाह की मृत्यु एक अफवाह थी। सुल्तान स्वयं अस्सी हजार सैनिकों की सेना के साथ उसका सामना करने को तैयार । उस कठिन स्थिति को समझकर वह वापस मालवा लौट आया।
1458 ई. में बहमनी के सुल्तान अलाउद्दीन अहमद द्वितीय की मृत्यु हो गई। उसका बड़ा पुत्र अलाउद्दीन हुमायूँशाह गद्दी पर बैठा। उसका तीन वर्षों का शासन काल विद्रोहों, षडयंत्रों और आंतरिक कलह के कारण डावाँडोल रहा। सुल्तान हुमायूँ शाह स्वभाव से निर्दयी नृशंस और विश्वासघाती था। उसने निजाम-उल-मुल्क गोरी जो बहमनी राज्य का प्रमुख अमीर था को मरवाने का प्रयत्न किया निजाम-उल-मुल्क गोरी और उसका परिवार शरण के लिये भागकर माण्डू आ गया क्योंकि वह महमूदशाह खिलजी का संबंधी था । सुल्तान हुमायूँ शाह द्वारा अमीरों और सरदारों को अमानवीय और बर्बर दण्ड दिये जाने के कारण बहमनी राज्य में विद्रोह फैल गया। परिणामस्वरूप सुल्तान हुमायूँ शाह की षडयंत्रकारियों ने हत्या कर दी। उसके आठ वर्षीय पुत्र निजामुद्दीन अहमद तृतीय को गद्दी पर बैठाया गया। अल्पव्यस्क सुल्तान के संरक्षण का उत्तरदायित्व महमूद गावां और विधवा रानी बेगम नरगिस को सौंपा गया। बहमती की इस स्थिति से लाभ उठाकर महमूदशाह खिलजी ने बहमनी साम्राज्य पर 1461 ई. में आक्रमण कर दिया। खानदेश को पार करता हुआ महमूदशाह खिलजी फखरी 1462 ई. में वीदर के निकट पहुँच गया। मंजार नदी के तट पर महेसकर में उसका सामना बहमनी की सेना से हुआ जिसका नेतृत्व महमूद गावां कर रहा था। प्रारंभ में मालवा की सेना को सफलता नहीं मिली। जब महमूदशाह खिलजी ने देखा कि मालवा की सेना के पैर उखड़ने वाले हैं, तो उसने स्वयं कमान और मोर्चा सम्भाला। घायल होने के बाद भी महमूद ने असीम शौर्य का प्रदर्शन करते हुए पराजय को विजय में बदल दिया। बहमनी सेना ने राजकुमार निजाम शाह के साथ बीदर के दुर्ग में शरण ली।
सुल्तान महमूदशाह खिलजी ने बीदर के दुर्ग को घेर लिया और उसने बरार, बीड़ तथा दौलताबाद के जिले और अनेक क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। जब महमूदशाह ख़िलजी बीदर को घेरे हुआ था, उसी समय बहमनी की विधवा बेगम ने गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा को सहायता के लिए पत्र भेजा। महमूद बेगड़ा तत्काल अस्सी हजार घुड़सवारों की सेना के साथ शीघ्रता से सुल्तानपुर पहुँच गया। उसके आगमन से बहमनी सेना में उत्साह की लहर दौड़ गई। महमूद गावां ने भी चालीस हजार सैनिकों के साथ बीदर की ओर प्रस्थान किया। मालवा के सुल्तान महमूद को विजय मिलने वाली थी कि गुजरात के हस्तक्षेप से वह न मिल सकी। महमूद तीन ओर से घिर गया था। इस कारण बरार के मार्ग से वह वापस मालवा लौट आया।
महमूदशाह खिलजी ने तीसरी बार पुनः दिसम्बर 1462 ई. में बहमनी राज्य पर आक्रमण किया। वह नब्बे हजार घुड़सवारों की सेना के साथ दौलताबाद की ओर बढ़ा। महमूदशाह खिलजी ने दौलताबाद के दुर्ग को घेर लिया। दौलताबाद के गवर्नर मलिक परवेज ने क्षमादान के आश्वासन पर आत्मसमर्पण कर दिया। दौलताबाद से महमूदशाह खिलजी एलिचपुर की ओर लौटा। इसी बीच बहमनी के सुल्तान ने गुजरात के सुल्तान से मालवा के विरुद्ध सहायता की प्रार्थना की। गुजरात का सुल्तान सहायता के लिए सुल्तानपुर तक पहुँच गया। युद्ध घातक हो सकता था, इसलिये सुल्तान महमूदशाह खिलजी गोंडवाना के मार्ग से मई 1463 ई. में माण्डू लौट आया।
लगभग चार वर्षों के अन्तराल के बाद महमूदशाह खिलजी ने पुनः बहमनी राज्य पर आक्रमण की योजना बनाई। इस बार उसने अपना ध्यान बरार और एलिचपुर की ओर केन्द्रित किया। उसने 1466 ई. में सेना को एलिचपुर को उजाड़ने के लिए भेजा। इसी बीच उसने एक सेना खेरला की ओर भेजी। खेरला मालवा के अधीन था, परन्तु वहाँ के राय ने समय का फायदा उठा कर बहमनी शासकों की अधीनता को स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार खेरला मालवा और बहमनी के मध्य विवाद की जड़ था । मालवा की सेना ने खेरला पर अधिकार कर लिया। खेरला से लगातार बरार के क्षेत्र पर मालवा की सेना के आक्रमण और जनता की कठिनाईयों को ध्यान में रखते हुए बहमनी के सुल्तान शान्ति और संधि का प्रस्ताव रखा। इसके अनुसार एलिचपुर तक बरार का एक भाग और खेरला मालवा के पास रहेगा। भविष्य में दोनों सुल्तान एक दूसरे के राज्यों की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करेंगे। महमूद ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, क्योंकि वह समझ गया था कि वह बहमनी राज्य पर प्रभाव रखने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि बहमनी को गुजरात का समर्थन और सहायता प्राप्त थी। मालवा और बहमनी में संधि हो गई और भविष्य में दोनों राज्यों ने इसका सम्मान किया।
बहमनी से युद्ध की समाप्ति और संधि के बाद महमूदशाह खिलजी को खीचीवाड़ा के खीची राजपूतों के विद्रोह के दमन के लिये जाना पड़ा। लगातार युद्धों के कारण उसका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। अभियान के दौरान वह पालकी में जाता था और उसका चिकित्सक उसके साथ रहता था । लगातार युद्धों और गर्मी के मौसम के कारण वह बीमार पड़ गया। परिणामस्वरूप 31 मई 1469 ई. में 68 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई ।
महमूदशाह खिलजी की उपलिब्धयाँ
महमूदशाह खिलजी के शासनकाल में मालवा अत्यन्त शक्तिशाली और समृद्ध राज्य बन गया, इस सुल्तान ने राजपूतना, गुजरात और बहमनी के शासकों से निरन्तर युद्ध कर पूरे भारत में एक महान सेनानी और योद्धा के रूप में अपने यश को बढ़ाया। उसे युद्ध से इतना प्रेम था कि उसने अपना समस्त जीवन सैनिक शिविरों में व्यतीत किया। महमूदशाह खिलजी ने मालवा का चारों दिशाओं में विस्तार किया, पूर्व में बुन्देलखण्ड पश्चिम में गुजरात, उत्तर में बूँदी, गांगरोन, अजमेर, रणभम्भौर, बयाना उसके साम्राज्य के भाग थे। दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत श्रेणी तक तथा एलिचपुर तक बरार का भाग उसके राज्य में था। उसने अपने शौर्य और शक्ति का प्रदर्शन दिल्ली से बीदर और अहमदाबाद से जौनपुर तक किया ।
यह मान लेना भी भ्रम होगा कि महमूदशाह खिलजी ने युद्धों के कारण मालवा की आन्तरिक शासन व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया होगा। महमूदशाह ने अपने जीवनकाल के सभी युद्ध मालवा की भूमि से बाहर लड़े। परिणामस्वरूप मालवा युद्धों के विनाश से बचा रहा। मालवा में शान्ति व्यवस्था थी, और जनजीवन सुखी था। कृषि और व्यापार व्यवसाय खूब फूला-फला और राज्य की आर्थिक स्थिति समृद्ध हो गई।
महमूदशाह खिलजी एक पवित्र धार्मिक मुसलमान था। उसने जीवन भर धार्मिक नियमों का पालन किया। वह धर्मांध और कट्टर मुसलमान नहीं था, जैसा कि कुछ इतिहासकारों का मत है फरिश्ता के अनुसार महमूदशाह खिलजी के शासन काल में हिन्दू और मुसलमान प्रेमपूर्वक शान्ति से रहते थे। प्रशासन के क्षेत्र में उसने हिन्दुओं को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। उसके समय राजपूतों ओर जैनों को महत्वपूर्ण पद प्राप्त थे। संग्राम सिंह सोनी उसके राज्य का खजान्ची था जिसे नगदुल-उल-मुल्क की पदवी दी गई थी। उसने "बुद्धिसागर" नामक जैन ग्रंथ की रचना की थी ।
महमूद ने मालवा में कृषकों के हितों का विशेष ध्यान रखा, अधिकारियों को कठोर निर्देश थे कि वे किसानों को बिना कारण न परेशान करें और उनकी सुविधाओं का पूरा ध्यान रखें। युद्ध के समय उपज और कृषि भूमि को नुकसान न हो इसका पूरा ध्यान रखा जाता था। उसने जंगलों और वहाँ विचरण वाले जीवों की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा था। चोर डाकुओं से लोगों और मार्गों की सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध था। महमूद ने खरीफ और रबी की फसलों की उगाही के लिये चन्द्रमा पर आधारित एक पंचाग (Calander) जारी किया था जिसे उलेमाओं ने भी स्वीकार किया था। महमूदशाह खिलजी ने उन अमीरों के पदों को भी नियमित किया था जो राज्य में अधिकारी थे। उन्हें सैनिक सेवा भी अनिवार्य थी। शीहाब हाकिम ने इस व्यवस्था में 1000, 1250, 2000 और 3000 के अमीरों का उल्लेख किया है, जो सैनिक सेवा और सवार प्रदान करते थे उन्हें "यारीदह" कहा जाता था ।
महमूद खिलजी ने मालवा में शिक्षा की उन्नति और साहित्यिक गतिविधियों तथा विद्वानों को संरक्षण और सम्मान देने के प्रति विशेष रुचि दिखाई। उसने माण्डू में भव्य मदरसे की स्थापना की और विभिन्न प्रान्तों से विद्वानों और शिक्षकों को आमंत्रित कर मदरसे में उनकी नियुक्ति की । शिक्षा के प्रसार के लिये उसने अलग से विभाग स्थापित किया। धार, उज्जैन, देपालपुर, मन्दसौर, सारंगपुर, चन्देरी, रायसेन, होशंगाबाद आदि स्थानों में मदरसे स्थापित किये गये। इनकी व्यवस्था और विद्यार्थियों के खर्च के लिये राज्य की ओर से अनुदान दिया जाता था। उसने जौनपुर से प्रसिद्ध इतिहासकार शहाब हाकिम को सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जिसने उसके संरक्षण में मालवा के इतिहास "माथिरे महमूद शाही" की रचना की। महमूदशाह खिलजी के संरक्षण में ही चित्रकला की पोथी" जैन कल्पसूत्र " चित्रित की गयी। इसके चित्र सुल्तान की उपस्थिति में बनाऐ गये जो उसके उदार दृष्टिकोण को प्रदर्शित करते हैं।
महमूदशाह खिलजी के राज्य का सिद्धांत लोक कल्याण था । उसके अनुसार प्रजा की भलाई के लिये ही ईश्वर ने उसे राज्य सत्ता प्रदान की है। उसने लोगों के स्वास्थ्य के प्रति विशेष ध्यान दिया। उसने माण्डू में चिकित्सालय ( शिफाखाना) स्थापित किया। इस प्रकार के चिकित्सालय पूरे राज्य में स्थापित किये गये । चिकित्सक नियुक्त किये गये। इन चिकित्सालयों का व्यय राज्य उठाता था । गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त मरीजों के ठहरने और दवा का व्यय सरकार उठाती थी। महमूदशाह खिलजी ने अपने राज्यकाल में अनेक सूफी संतों और विद्वान "माशहिक" और उलेमाओं का स्वागत किया उसके काल में माण्डू सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। उसने अपने कार्यों से इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कि. मिस्र के अब्बासी खलीफा ने अपने राजदूत को 1466 ई. में माण्डू भेजा और खिलअत प्रदान कर उसे सम्मानित किया।
महमूदशाह खिलजी भवन निर्माता भी था। उसने अपने राज्यकाल में अनेक भव्य इमारतें, मस्जिदें और मकबरों का निर्माण करवाया। इनमें माण्डू में होशंगशाह का मकबरा, जामी मस्जिद, गागरोन में मुस्तफाबाद नगर की स्थापना की। चन्देरी में उसने 'कुशक महल' (सात मंजिला महल) तथा उज्जैन और देपालपुर में अनेक भवनों का निर्माण करवाया।
महमूद खिलजी ने महान सफलताऐं प्राप्त की थीं परन्तु उसे जीवन भर यह दुःख रहा कि वह राणा कुम्भा को पराजित कर चित्तौड़ विजय न कर सका और न ही दक्षिण में बीदर को विजय कर बहमनी की शक्ति को तोड़ सका। फिर भी वह अपने उत्तराधिकारियों के लिये एक विस्तृत, दृढ़ और व्यवस्थित राज्य छोड़ गया। शीहाब हाकिम ने महमूदशाह खिलजी के लिये अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त किये हैं "वह राजत्व में जमशेद, न्याय में नौशीखान और उदारता में हातिम के समान था" ।
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