बुरहानपुर का इतिहास |बुरहानपुर की सूफी परम्परा | Burhanpur ki Sufi Parampara
बुरहानपुर का इतिहास , बुरहानपुर की सूफी परम्परा
बुरहानपुर का इतिहास
बुरहानपुर दो सौ साल तक खानदेश की राजधानी रहा लेकिन इन दो सौ सालों में वह कोई खास उन्नत शहर और व्यापार का केन्द्र नहीं बन सका। इसके कुछ कारण थे। खानदेश उस इलाके. का अपेक्षाकृत एक छोटा राज्य था उसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि उसकी उन्नति धीमी ही रही। खानदेश की सुरक्षा की कोई प्राकृतिक व्यवस्था नहीं थी और वह हर तरफ से आक्रान्ता पड़ोसियों की लिप्सा का शिकार हो सकता था। इसका फल यह हुआ कि फारुकी राजवंश के सर्वाधिक योग्य शासक भी ज्यादा समय तक अपने राज्य में स्थिर न रह सके और अपने राज्य के विकास में समय लगा सके क्योंकि वे लगातार आक्रमणकारियों के आक्रमणों से अपना बचाव करने में लगे रहे। फिर एक बात यह भी थी कि उनकी राजधानी बुरहानपुर जिस नदी के किनारे बसा था वह समुद्री व्यापार के नौकानयन के योग्य नहीं थी और बुरहानपुर शहर समुद्र से करीब 250 मील दूर था । इस कारण बुरहानपुर भूमि में कैद शहर था और उसे वह फायदा नहीं था जो अहमदाबाद को था जो कि समुद्र के ज्यादा पास था। उस समय पश्चिमी समुद्र तट पर कैम्बे मुख्य बन्दरगाह था और उत्तर भारत का सारा निर्यात अहमदाबाद के जरिये कैम्बे से ही होता था। कैम्बे के रहते उत्तर भारत के माल के लिए व्यापार केन्द्र बनना बुरहानपुर के लिए संभव नहीं था क्योंकि उत्तर भारत से अहमदाबाद होकर कैम्बे पहुँचना आसान था जबकि बुरहानपुर होकर कैम्बे पहुँचना कठिन था। जब सोलहवीं सदी के अन्त में जब कैम्बे के स्थान पर सूरत का उत्थान होना शुरू हुआ तभी बुरहानपुर की उन्नति संभव हो सकी। इसीलिए हम पाते हैं कि बुरहानपुर फारुकी शासन के समय तो उन्नत शहर नहीं रहा लेकिन मुगलों का शासन शुरू होने के बाद जब बाहरी आक्रमणों से बुरहानपुर को मुक्ति मिली और जब सूरत बन्दरगाह ने प्रमुखता हासिल की तब बुरहानपुर की उन्नति शुरू हुई।
बुरहानपुर की सूफी परम्परा
बुरहानपुर की यह विशेषता रही है कि फारुकी शासकों की उदारता के कारण सूफी संतों की एक लम्बी परम्परा वहाँ रही। ये संत सारे दक्खन में और भारत के मध्य भाग में लोकप्रिय थे। फारुकी जमाने में यानी 15वीं और 16 वीं सदी में भारत में जितने भी सूफी संत हुए उनमें से ज्यादातर बुरहानपुर में रहे। इतिहास का यह एक तथ्य है कि मध्यकाल में सूफी सन्तों ने हिन्दुओं और मुसलमानों को नजदीक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
भारत में सूफी मत का प्रचार करने वालों में अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का नाम प्रसिद्ध है। उनका देहान्त सन् 1234 में हुआ था। उनके बाद भारत में सूफी मत क्रमशः लोकप्रिय होता गया। सूफी संत धार्मिक कट्टरता को नहीं बल्कि इन्सानी भाईचारे और प्रेम को ज्यादा महत्व देते थे। सूफियों के अनुसार आत्मा और ईश्वर में कोई भेद नहीं है। ईश्वर प्रत्येक वस्तु में है और ईश्वर तक पहुँचने का प्रमुख साधन प्रेम है। सूफी साधक ईश्वर की कल्पना एक सुंदर स्त्री के रूप में करते हैं, जिससे वे प्रेम करते हैं। वे हृदय की पवित्रता को और संगीत को बहुत महत्व देते हैं। इनके अतिरिक्त सूफी संत ऐसी बहुत सी बातों को मानते थे जिनका चलन हिन्दुओं में भी था ।
सूफी संतों ने अपने निवास के लिए आश्रम बनवाये जिन्हें खानकाह कहा जाता था । ये खानकाह जनसाधारण के बीच बस्तियों में बनाये जाते थे और सूफी संत सपरिवार इनमें रहते थे। सूफियों के उदार दृष्टिकोण के कारण वे हिन्दू और मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय हुए पर उन्हें कट्टरपंथी उलेमाओं और कट्टर शासकों का कोपभाजन बनना पड़ा। सूफियों के प्रभाव से हिन्दुओं और मुसलमानों में भाईचारा बढ़ा। सूफियों की चौदह शाखाओं में मुख्य चार थीं चिश्तियां, सुहारवर्दी, कादिरिया और - नक्शबंदी। सूफियों में चिश्तिया शाखा के संत कुछ अधिक उदार थे इसलिये वे अधिक लोकप्रिय थे। यह उल्लेखनीय है कि हमें मध्यकालीन भारत के सूफी संतों के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है क्योंकि इन संतों के शिष्यों या प्रशंसकों में इनकी जीवनी, चमत्कारों और कृतित्व का सिलसिलेवार विवरण रखने की समृद्ध परंपरा रही है।
बुरहानपुर की स्थापना ही शेख बुरहानुद्दीन नामक एक सूफी संत के नाम पर हुई थी। इस शहर के सूफी संतों का विस्तार से विवरण मिलता है।
हजरत शाह भिकारी -बुरहानपुर के सूफी संत
बुरहानपुर के सूफी संतों में सबसे प्रसिद्ध थे हजरतशाह भिकारी, जिनका पूरा नाम था कुतुब मौलाना निजामुद्दीन पर वे शाह भिकारी के नाम से जाने जाते थे। शाह भिकारी का जन्म अजोधन (पंजाब) में हुआ था और वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई। युवावस्था में ही शाह भिकारी मक्का चले गये और तब इनके पिता शेख युसूफ जूशी अजोधन से असीरगढ़ आ गये, जहाँ उस समय फारूकी वंश के शासक आदिल खान द्वितीय का शासन था। सुल्तान ने शाह भिकारी का सम्मान किया। जल्दी ही शाह भिकारी का यश फैल गया। वे अक्सर ये पंक्तियाँ दोहराते थे।
कहा जाता है कि जब भी शाह भिकारी अपने खानकाह से चलकर बुरहानपुर आते थे तब सुल्तान आदिल उन्हें अपने बाजू के सिंहासन पर बिठाता था। शाह भिकारी की मृत्यु सन् 1503 ई. में हो गयी शाह भिकारी की दरगाह आज भी बुरहानपुर में उतावली नदी के तट पर है और वहाँ पर हर साल 12 रबीउल अव्वल को उनका उर्स मनाया जाता है, जहाँ हिन्दू मुसलमान सभी आते हैं।
बहाउद्दीन "बाजन" चिश्ती-
हजरत शाह बहाउद्दीन "बाजन" भी बुरहानपुर के प्रसिद्ध सूफी संतों में से एक थे। इनका जन्म 1388 ई. अहमदाबाद में हुआ था। शाह बहाउद्दीन बाजन बुरहानपुर आने के पहले दौलताबाद और बीदर में थे। उस समय बुरहानपुर में फारुकी सुल्तान आजम हुमायूं याने आदिल खान द्वितीय गद्दी पर था। सुल्तान ने इनके लिये खानकाह का निर्माण कराया। शाह बहाउद्दीन फारसी और हिन्दी के कवि भी थे और "बाजन" उपनाम से कवितायें लिखते थे। "बाजन' साहब का देहावसान 1508 ई. में हुआ। उनका मकबरा बुरहानपुर के शाह बाजार मोहल्ले में पाण्डूमल चौराहा के पास है। उनकी दरगाह के खर्च के लिए 1161 हिज्री याने 1748 ई. में अहमदशाह ने रावेर, सावदा, फैजपुर के गाँव प्रदान किये थे।
शेख जलाल कादरी और मलिक शरफुद्दीन
शेख जलाल कादरी नामक प्रसिद्ध संत ने बुरहानपुर में अपने जीवन का अधिकांश भाग बिताया था। जन्म तो उनका दिल्ली में हुआ पर गुरु भी की खोज में वे माण्डू आये जहाँ उन्होंने शेख बहाउद्दीन अंसारी का शिष्यत्व ग्रहण किया। 1519 ई. में बुरहानपुर में ही शेख जलाल कादरी ने अंतिम साँसें लीं। बुरहानपुर में उस दौरान एक और संत थे मलिक शरफुद्दीन जिन्हें शाहबाज़ कहा जाता था। वे मलिक अब्दुल कुद्दूस के बेटे थे। शरफुद्दीन ने अहमदाबाद के प्रसिद्ध संत हजरत अली कुतुब आलम से दीक्षा ली और फिर बुरहानपुर लौट आये। मलिक शरफुद्दीन के नाम के साथ अनेक चमत्कार जुड़े हैं। कहा जाता है कि उनके आशीर्वाद से फारूकी सुल्तान आदिल खान द्वितीय मौत के मुँह से लौट आया और बाद में उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई। 1527 ई. में बुरहानपुर में मलिक शरफुद्दीन का स्वर्गवास हुआ।
शाह मंसूर -
बुरहानपुर के एक और सूफी संत थे हजरत शाह मंसूर जिनके पिता मलिक जलाल फारुकी सुल्तान आदिलखान के मंत्री थे। शाह मंसूर का जन्म बुरहानपुर में हुआ था। संत होने के साथ ही वे फारसी के अच्छे कवि भी थे और उपनाम "मंसूर" से ईश्वर भक्ति की कविताएँ लिखते थे। ये हजरत शाह भिकारी के शिष्य थे। उनका देहावसान एक सौ वर्ष की आयु में 958 हिजी (1549 ई.) में हुआ था। उनका मकबरा और मस्जिद खैराती बाजार में कादरिया स्कूल के पीछे है जिन्हें राजा अलीखान फारुकी ने बनवाया था।
सैयद मुहम्मद कादिरी और अन्य
उस जमाने के एक और प्रभावशाली और बहुचर्चित संत थे सैयद मुहम्मद कादिरी जो प्रसिद्ध सूफी संत अब्दुल कादिर जिलानी के पुत्र थे। मक्का मदीना का भ्रमण करने के बाद सैयद मुहम्मद कादिरी सन् 1577 ई. में असीरगढ़ आकर बस गये। उनके लिए आदिलपुर में एक मकान और खानकाह बना दिया था। संत कादिरी बहुत उदार और दानी थे और अपने पास आने वाले हर व्यक्ति को कुछ न कुछ द्रव्य देते थे। चिश्तिया सम्प्रदाय के एक और संत तब बुरहानपुर में विद्यमान थे शेख युसूफ चिश्ती, जो शेख फरीदुद्दीन गंजेशकर के वंशज शेख मोईनुद्दीन के पुत्र थे। शेख यूसुफ चिश्ती की मृत्यु 1543 ई. में हुई और उन्हें बुरहानपुर में दफनाया गया । चिश्तिया शाखा के अलावा अन्य शाखाओं के संत भी तब बुरहानपुर में विद्यमान थे। शत्तारी शाखा के मियाँ अबा शत्तारी का नाम उल्लेखनीय है उनकी मृत्यु 1590 ई. में हुई और उन्हें सुल्तान मुहम्मद शाह फारुकी के मकबरे के पास दफनाया गया। उसी काल में शाह तकी नकी मुहम्मद बुरहानुद्दीन इब्राहीम हुए जो "मैया" के नाम से जाने जाते थे।
फारुकी शासकों के समय और भी सूफी संत हुए। फारुकी शासन के दो सौ वर्षों में बुरहानपुर में सूफी संतों का होना और उन्हें फारुकी शासकों द्वारा सम्मान दिया जाना यह प्रकट करता है कि फारुकी शासक कट्टरपंथी नहीं थे। उदारता की इसी परम्परा शायद राजा अली खान को असीरगढ़ और बुरहानपुर की जामा मस्जिदों में संस्कृत का शिलालेख उत्कीर्ण कराने की प्रेरणा दी।
सूफी संतों की यह परम्परा मुगलों के समय भी रही याने सन् 1600 ई. के बाद भी बुरहानपुर में सूफी संतों का क्रम बना रहा।
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