प्राचीन मालवा में सांस्कृतिक गतिविधियाँ | मालवा में स्थापत्य कला Cultural Activities in Ancient Malwa
प्राचीन मालवा में सांस्कृतिक गतिविधियाँ
प्राचीन मालवा में साहित्य-
सुल्तानों ने इस काल में मालवा में साहित्यिक गतिविधियों को बहुत प्रोत्साहन और संरक्षण प्रदान किया। फारसी प्रशासकीय कार्य की भाषा थी, किंतु हिन्दी और संस्कृत को बहुत प्रोत्साहन मिला। सुल्तान महमूद खिलजी का हिन्दी पर अच्छा अधिकार था, उसने अबू सैद मिर्जा को हिन्दी में एक कविता लिखकर भेजी थी । महमूद खिलजी प्रथम के समय संस्कृत में सचित्र जैन कल्पसूत्र पोथी रची गई थी।
इसी काल में संग्राम सिंह सोनी ने संस्कृत में नीतिशास्त्र की पुस्तक "बुद्धि सागर" की रचना की थी। नासिर शाह खिलजी के समय लिखा गया। "न्यामतनामा" में फारसी के साथ स्थानीय भाषा के अनेक शब्दों का समावेश था। इसी समय ईश्वर सूरी ने मन्दसौर में "ललितांग चरित" और जैन विद्वान शुक्तकीर्ति ने माण्डू में प्राकृत अपभ्रंश में "प्रेमेस्टी प्रकाश सरा" की रचना 1493 ई. में की। इस पुस्तक में नवरसों का वर्णन सुन्दर पद्यों में किया गया है। नासिर शाह के समय ही राजपुर में "विष्णु पुराण" की प्रति तैयार की गई। इसकी प्रशंसा संस्कृत के विद्वानों ने की है। मालवा में राजपूतों के प्रमुत्व के समय आष्टा के नेमीनाथ ने स्थानीय हिन्दी में "श्रीपाल चरित्र", "सुदर्शन चरित्र" और "नेमीनाथ पुराण' की रचना 1528 ई. में की। हिन्दी को बाजबहादुर के समय बहुत लोकप्रियता मिली, जब रूपमती और बाजबहादुर दोनों ने हिन्दी में कविताओं की रचना की। ये रचनाएँ आज भी मालवा के लोक साहित्य और गीतों में समाहित है।
तैमूर के आक्रमण के बाद अनेक फारसी के विद्वान दिल्ली छोड़कर राज्यों की राजधानियों में शरण के लिए चले गये थे। मालवा की राजधानी माण्डू होशंगशाह के समय से अनेक 'उलेमा' और 'मसशेख' जो फारसी के ज्ञान के भण्डार थे ने आना प्रारंभ कर दिया था। महमूद खिलजी ने मालवा में अनेक महाविद्यालय स्थापित किये जहाँ फारसी भाषा का अध्ययन और अध्यापन किया जाता था। फरिश्ता के अनुसार साहित्यिक गतिविधियों के कारण मालवा शीराज और समरकंद की ईर्ष्या का कारण बन गया था। महमूद खिलजी प्रथम के समय, जौनपुर से आये विद्वान इतिहासकार शीहाब हाकिम ने प्रसिद्ध ग्रंथ "माथिरे - महमूद - शाही" की रचना की जो मालवा में गोरी और खिलजी शासकों का समकालीन इतिहास है। सुल्तान नासिर शाह के समय "तारीखे नासिर शाही" लिखी गई । - गियाथ खिलजी के समय अनेक फारसी ग्रंथों की रचना हुई, इनमें अब्दुल्ला शत्तारी द्वारा "लातईफ - ए - घईविह" जो गूढ़ दर्शनशास्त्र का ग्रंथ है लिखा गया। मौलाना अलीमुद्दीन ने "फुसुस - हीकम" की रचना की। गियाथ के शासन काल में अनेक संस्कृत ग्रंथों का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया, इनमें "शालीहोत्रा" प्रसिद्ध है जो कि जानवरों के विज्ञान से संबंधित है। नासिर शाह खिलजी के समय 'नियामतनामा' नामक पुस्तक लिखी गई जो पाककला से संबंधित है। इस काल में फारसी भाषा में अनेक धार्मिक पुस्तकों का पुर्नलेखन हुआ .
प्राचीन मालवा में चित्रकला -
मालवा में चित्रकला का इतिहास बहुत प्राचीन है। बाग और उदय गिरि के गुफा - चित्र इसके प्रमाण है। मालवा में सल्तनत की स्थापना के समय के पूर्व में ही यहाँ पश्चिमी और पूर्वी चित्रकला की शैलियों का अंकन जैन चित्रकारों द्वारा किया जा रहा था। होशंगशाह और महमूद खिलजी ने चित्रकला को प्रोत्साहन दिया । महमूद खिलजी प्रथम के समय प्रसिद्ध "माण्डू कल्पसूत्र” का चित्रण प्रारंभ हुआ। कल्पसूत्र का मूलपाठ दोहरे कागज के बायें ओर किरमिची पार्श्व पर सुनहरी स्याही से लिखा गया है। दाहिनी ओर चित्र अंकित है। स्वर्ण स्याही का प्रयोग फारसी प्रभाव था। इन पर गुजरात शैली का भी प्रभाव सूक्ष्मता से देखने पर झलकता है। माण्डू कल्पसूत्र की विषय वस्तु प्राकृतिक वनस्पति पशु-पक्षी स्त्रियों की विभिन्न भाव-भंगिमा हैं। मालवा के लोक जीवन का अच्छा चित्रण हुआ है। मालवा में जो दूसरा सचित्र ग्रंथ तैयार हुआ वह "नियामतनामा" था, इसमें फारसी प्रभाव स्पष्ट है। इसमें अनेक चित्र 'कल्पसूत्र' के परिवर्तनों के साथ चित्रित किये गये हैं। बाजबहादुर के शासन काल में चित्रकला को पुनः प्रोत्साहन मिला। इस समय के अधिकांश चित्र स्त्रियों के प्रणय प्रधान हैं जिनमें कामवासना स्पष्ट झलकती है।
जब मालवा मुगल साम्राज्य का सूबा बना तो यहाँ के चित्रकार इधर-उधर चले गये। ये मुख्य रूप से मेवाड़ और दक्षिण में गये। मालवा शैली के कुछ चित्र, उदयपुर, जौनपुर और अहमद नगर में भी पाये गये है, जिन पर 'नियामतनामा' का प्रभाव स्पष्ट है।
प्राचीन मालवा में संगीत और नृत्य कला
संगीत और नृत्य कला का इतिहास मालवा में बहुत प्राचीन है। मालवा के शासकों ने इन्हें प्रोत्साहन देकर अपनी कलाप्रियता का परिचय दिया। मालवा में संगीत को मुंज और भोज के समान परमार नरेशों का संरक्षण मिला। मुंज अपने समय का असाधारण कवि गायक और संगीतज्ञ था। मुंज की राजसभा में अनेक गायकों और संगीतज्ञों को संरक्षण प्राप्त था। भोज इस वंश का महान कला प्रिय शासक था, उसे सरस्वती पुत्र कहा गया है। उसने धार में संगीत शाला और नृत्य शाला का निर्माण करवाया था। धार उस समय सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया था।
तैमूर के आक्रमण के बाद जो अव्यवस्था फैली, उसके कारण कलाकार दिल्ली से प्रांतों के दरबारों में चले गये। इनमें मालवा और जौनपुर प्रमुख थे। मालवा में गोरी और खिलजी सुल्तानों ने संगीत और नृत्य कला को खूब प्रोत्साहन दिया। मालवा में नर्तकियों को पतुरिया कहा जाता था । महमूद खिलजी के दरबार में संगीतज्ञों का बड़ा सम्मान था। गयासुद्दीन के हरम में अनेक संगीतज्ञ और नृत्यांगनाएँ थीं।
मालवा में संगीत और नृत्य कला बाज बहादुर के समय अपने चरम पर पहुँच गई थी। वह अपने समय का प्रसिद्ध गायक और संगीतकार था। अबुल फजल ने यद्यपि एक शासक के रूप में उसकी भर्त्सना की है, परंतु संगीतज्ञ के रूप में उसकी बहुत प्रशंसा की है, उसके अनुसार तानसेन महान था पर बाजबहादुर का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं था |
बाजबहादुर ने रूपमती के साथ मिलकर मालवा के संगीत को ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया। उमरी अनुसार रूपमती एक कवियत्री और संगीत कला में निष्णात थी। बाजबहादुर और रूपमती ने संगीत के के क्षेत्र में अनेक राग-रागनियों का अविष्कार किया। इनमें मूपकल्याण, रागिनी, गुजरी, तोड्रीराग और बाजबहादुर ख्याल का नया रूप बाजखानी ख्याल प्रमुख थे। ये राग-रागनियाँ आज भी मालवा के जनमानस में समाहित है। 73
प्राचीन मालवा में स्थापत्य कला -
मालवा में स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना के पूर्व से ही समृद्ध भवन-निर्माण की परम्परा थी। यह परम्परा गुप्त शासकों के समय प्रारंभ हुई और जिसे परमार शासकों द्वारा और पुष्ट कर दिया गया। मालवा के कारीगर शिल्प शास्त्र के ज्ञान में प्रवीण थे। इस युग की 'नागर मन्दिर' निर्माण शैली अपनी परकाष्ठा पर थी । पत्थरों के सुन्दर मन्दिर और उन पर अलंकरण इस युग की विशेषताएँ थीं।
मालवा में स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना के साथ ही राज्य में एक बार पुनः शांति और व्यवस्था स्थापित हुई । परिणामस्वरूप दिलावर खाँ और होशंगशाह गोरी ने राज्य को सुदृढ़ आधार देने के साथ-साथ राजसत्ता के वैभव और समृद्धि को दर्शाने के लिए भवन निर्माण गतिविधियों को प्रारंभ किया। मालवा के स्थापत्य में दिल्ली की शाही इमारतों की शैली की झलक स्पष्ट दिखाई देती है, क्योंकि प्रारंभ में ये कारीगर तुगलक और लोदी कालीन इमारतों की शैलियों से प्रभावित थे । परंतु मालवा के भवनों को पूर्णतः दिल्ली की अनुकृतियाँ मान लेना भी भूल होगी। मालवा में स्थानीय शैली का समन्वय इस्लामिक शैली के साथ दिखाई देता है और एक अलग पहचान और आकर्षण प्रस्तुत करता है।
मालवा की स्थापत्य कला का प्रारंभ धार और माण्डू के भवनों से होता है। इनमें प्रथम निर्माण धार का किला जिसे मुहम्मद तुगलक ने 1325 ई. और 1340 ई. के मध्य बनवाया था। मालवा के प्रारंभिक भवनों में चार मस्जिदें प्रमुख थीं जिनका निर्माण 1400 ई. से लेकर 1425 ई. के मध्य हुआ । इनमें 'कमाल मौला मस्जिद' और 'लाट मस्जिद' धार में हैं तथा दिलावर खाँ की मस्जिद और मलिक मुगीस की मस्जिद माण्डू में है। इनका निर्माण जैन मन्दिरों की ध्वस्त सामग्री से हुआ। इस कारण इन भवनों में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का समन्वय दिखाई देता है।
मालवा के स्थापत्य के दूसरे चरण का प्रारंभ होशंगशाह द्वारा राजधानी बनाए जाने पर शादियाबाद (माण्डू) में हुआ । माण्डू के सभी भवन दुर्ग के अंदर स्थित हैं। माण्डू को उसके प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण भारत के सभी दुर्ग नगरों में सबसे शानदार नगर की संज्ञा दी गई है। माण्डू दुर्ग की प्राचीरें चारों ओर 25 मील लम्बी बसाल्ट पत्थर की हैं। दुर्ग की प्राचीर के चारों ओर 10 मेहराबी द्वार हैं। ये द्वार एक समय में नहीं निर्मित हुए हैं। इन्हें मालवा के सुल्तानों ने समय-समय पर बनवाया होगा। इनमें से अनेक ध्वस्त हो चुके हैं। उत्तरी द्वार 'दिल्ली दरवाजा' कहलाता है। शिल्प की दृष्टि से यह बहुत सुन्दर है। इस द्वार को देखने से माण्डू के भवनों के प्रभावशाली होने का अनुमान लगाया जा सकता है। इस द्वार के आगे और पीछे भाले की नोकनुमा नुकीली मेहराबी तोरण है। तारापुर दरवाजा नगर के दक्षिणी-पश्चिमी किनारे पर है।
माण्डू दुर्ग नगर में अब केवल 40 उल्लेखनीय भवन रह गये हैं। 'जामी मस्जिद' माण्डू की सर्वश्रेष्ठ इमारत है। इसका निर्माण होशंगशाह के समय प्रारंभ हुआ था और 1454 ई. में इसे महमूद खिलजी ने पूर्ण करवाया था। फार्ग्युसन ने इसे भव्यता और सादगी में मध्ययुग के प्रसिद्ध स्मारकों में से एक कहा है। जहाँ मार्शल ने जामी मस्जिद को "भारत के स्थापत्य के क्षेत्र में महान निर्माण की संज्ञा दी है। इसकी प्रमुख विशेषता विशाल गुम्बद, प्रवेश द्वार से नीचे की ओर जाती हुई सीढ़ियाँ हैं ।
इस मस्जिद की विशिष्टता इसके अलंकरण और सौन्दर्य में न होकर इसकी योजना, समानता और नापजोख में है। इस मस्जिद को सामने से देखने पर प्रसादत्व झलकता है।
होशंगशाह का मकबरा दूसरी प्रसिद्ध इमारत है। इसका निर्माण महमूद खिलजी प्रथम ने करवाया था। यह जामी मस्जिद के पीछे है। इसके निर्माण की शैली और सिद्धांत नये हैं क्योंकि उस समय का यह भारत का प्रथम मकबरा था, जो पूरा सफेद संगमरमर के पत्थरों से बना है। इसका विशाल सफेद गुम्बद प्रभाव दर्शाता है। यह 6 फीट ऊँचे, 100 फीट वर्गाकार चबूतरे पर स्थित है, मकबरे का प्रवेश द्वार दक्षिण में है और ऊपर अधखिला कमल है। शाहजहाँ के शासन काल में ताजमहल के निर्माण के समय इस होशंगशाह के मकबरे की शैली का सम्राट की आज्ञा से चार शिल्पज्ञ अध्ययन करने माण्डू आये थे, इसका प्रमाण दक्षिणी दरवाजे पर अंकित एक अभिलेख है जो यह दर्शाता है कि ताजमहल के वास्तुशिल्प पर होशंगशाह के मकबरे का प्रभाव था। 7
जामी मस्जिद के बिल्कुल सामने कई इमारतों का समूह है। जो 'अशरफी महल' के नाम से प्रसिद्ध है। इस समूह में कई भवन हैं, जो होशंगशाह के शासन काल से महमूद खिलजी के काल तक निर्मित किये गये थे। ये अब ध्वस्त अवस्था में हैं। इनमें मदरसा महमूद, खिलजी का मकबरा और विजय स्तंभ है, जो राणा कुम्भा को पराजित करने के उपलक्ष्य में निर्मित किया गया था। इनके निर्माण में हरे संगमरमर के पत्थरों का उपयोग हुआ है। यद्यपि ये अब अवशेष हैं, पर ये उच्च कोटि की निर्माण कला का परिचय देते है। मालवा में होशंगशाह गोरी और महमूद खिलजी प्रथम के समय जिन भवनों का निर्माण हुआ, उनकी शैली शास्त्रीय शिल्प पर आधारित थी। इनमें दो इमारतें "हिण्डोला महल" और "जहाज महल' हैं। 'हिण्डोला महल' 'दरबार हाल' और 'जहाज महल' आवासीय महल थे। इनका निर्माण होशंगशाह के समय प्रारंभ हुआ था ये पूर्ण महमूद खिलजी के समय हुए । हिण्डोला महल टी (T) आकार है, इसकी मोटी दिवारें झुकी हुई हैं जो झूले (Swing) का आभास देती हैं। यह इमारत विशाल और प्रभावोत्पादक है। 'जहाजमहल' मालवा की स्थापत्य शैली के क्लासिकल युग का चरमोत्कर्ष था । यह बहुत ही सुन्दर दो मंजिला भवन मुंज और कपूर जलाशयों के किनारों पर 360 फीट तक फैला है। यह दूर से जहाजनुमा लगता है। इसकी दीवारें भूरे और बलुआ पत्थरों की हैं व फर्श चमकीलें टाईल्स की है। यह माण्डू का बहुत ही सुन्दर महल है। इसमें मालवा की स्थानीय और मुस्लिम स्थापत्य की शैलियों का अद्भुत समन्वय है।
मालवा में तृतीय चरण की इमारतें पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में और सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में निर्मित की गई। इन भवनों में ग्रीष्म कालीन आवासों, महलों और मण्डपों का निर्माण हुआ। मालवा मालवा में स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना के साथ ही राज्य में एक बार पुनः शांति और व्यवस्था स्थापित हुई परिणामस्वरूप दिलावर खाँ और होशंगशाह गोरी ने राज्य को सुदृढ़ आधार देने के साथ-साथ राजसत्ता के वैभव और समृद्धि को दर्शाने के लिए भवन निर्माण गतिविधियों को प्रारंभ किया। मालवा के स्थापत्य में दिल्ली की शाही इमारतों की शैली की झलक स्पष्ट दिखाई देती है, क्योंकि प्रारंभ में ये कारीगर तुगलक और लोदी कालीन इमारतों की शैलियों से प्रभावित थे । परंतु मालवा के भवनों को पूर्णतः दिल्ली की अनुकृतियाँ मान लेना भी भूल होगी। मालवा में स्थानीय शैली का समन्वय इस्लामिक शैली के साथ दिखाई देता है और एक अलग पहचान और आकर्षण प्रस्तुत करता है।
मालवा की स्थापत्य कला का प्रारंभ धार और माण्डू के भवनों से होता है। इनमें प्रथम निर्माण धार का किला जिसे मुहम्मद तुगलक ने 1325 ई. और 1340 ई. के मध्य बनवाया था। मालवा के प्रारंभिक भवनों में चार मस्जिदें प्रमुख थीं जिनका निर्माण 1400 ई. से लेकर 1425 ई. के मध्य हुआ इनमें 'कमाल मौला मस्जिद' और 'लाट मस्जिद' धार में हैं तथा दिलावर खाँ की मस्जिद और मलिक मुगीस की मस्जिद माण्डू में है। इनका निर्माण जैन मन्दिरों की ध्वस्त सामग्री से हुआ। इस कारण इन भवनों में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का समन्वय दिखाई देता है।
मालवा के स्थापत्य के दूसरे चरण का प्रारंभ होशंगशाह द्वारा राजधानी बनाए जाने पर शादियाबाद (माण्डू) में हुआ । माण्डू के सभी भवन दुर्ग के अंदर स्थित हैं । माण्डू को उसके प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण भारत के सभी दुर्ग नगरों में सबसे शानदार नगर की संज्ञा दी गई है। माण्डू दुर्ग की प्राचीरें चारों ओर 25 मील लम्बी बसाल्ट पत्थर की हैं। दुर्ग की प्राचीर के चारों ओर 10 मेहराबी द्वार हैं। ये द्वार एक समय में नहीं निर्मित हुए हैं। इन्हें मालवा के सुल्तानों ने समय-समय पर बनवाया होगा। इनमें से अनेक ध्वस्त हो चुके हैं। उत्तरी द्वार 'दिल्ली दरवाजा कहलाता है। शिल्प की दृष्टि से यह बहुत सुन्दर है । इस द्वार को देखने से माण्डू के भवनों के प्रभावशाली होने का अनुमान लगाया जा सकता है। इस द्वार के आगे और पीछे भाले की नोकनुमा नुकीली मेहराबी तोरण है। तारापुर दरवाजा नगर के दक्षिणी-पश्चिमी किनारे पर है।
माण्डू दुर्ग नगर में अब केवल 40 उल्लेखनीय भवन रह गये हैं। 'जामी मस्जिद' माण्डू की सर्वश्रेष्ठ इमारत है। इसका निर्माण होशंगशाह के समय प्रारंभ हुआ था और 1454 ई. में इसे महमूद खिलजी ने पूर्ण करवाया था। फार्ग्युसन ने इसे भव्यता और सादगी में मध्ययुग के प्रसिद्ध स्मारकों में से एक कहा है। जहाँ मार्शल ने जामी मस्जिद को "भारत के स्थापत्य के क्षेत्र में महान निर्माण की संज्ञा दी है। इसकी प्रमुख विशेषता विशाल गुम्बद, प्रवेश द्वार से नीचे की ओर जाती हुई सीढ़ियाँ हैं ।
बाजबहादुर का महल जिसे नासिरशाह खिलजी ने बनवाया था, उल्लेखनीय है इस महल में ऐशो आराम के सभी साधन जैसे सुन्दर हमाम, छोटे उथले कुण्ड और जगह जगह फौव्वारे हैं। इसका धरातल और फर्श चित्र युक्त टाइल्स से सुसज्जित हैं। दूसरी प्रसिद्ध इमारत रूपमती का मण्डप है जो माण्डू पठार के दक्षिणो स्कन्ध (Spur) पर स्थित हैं। इससे 1200 फीट नीचे निमाड़ क्षेत्र के मैदान है। यह कहा जाता है कि पूर्व में इसका निर्माण एक निगरानी बुर्ज (Tower) के लिये किया गया था, बाद में इसका संबंध रूपमती से जोड़ दिया गया। इस चरण की अन्य इमारतें 'नीलकण्ठ महल', 'चिश्ती खाँ का महल' और 'गदाशाह का महल' आदि है।
स्थापत्य की जिस शास्त्रीय शैली का विकास माण्डू में हुआ था, उसका एक उदाहरण चन्देरी के पास महमूद खिलजी द्वारा 1445 ई. में निर्मित सात मंजली इमारत कुशक महल है। माण्डू की जामी मस्जिद की शैली में चन्देरी दुर्ग में भी सुल्तान महमूद खिलजी ने एक मस्जिद का निर्माण किया था। इस युग के अनेक स्मारक मालवा के विभिन्न क्षेत्रों में पाये गये हैं .
'मालवा के स्थापत्य के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि यहाँ के भवनों में उत्तरकालीन दिल्ली की स्थापत्य का प्रभाव झलकता है, परंतु, योजना, भावना, अभिव्यक्ति में यह मूल रूप से मालवा की आत्मा को प्रदर्शित करते हैं। यहाँ की इमारतों की मुख्य विशेषता, ऊँचे चबूतरे, दूर तक फैली हुई सीढ़ियाँ, ऊँची मेहराबें हैं, जिन्होंने स्मारकों के वैभव को द्विगुणित कर दिया है।
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