मालवा के इतिहास में: गियाथ शाह (गियासुद्दीन खिलजी ) नासिर शाह महमूदशाह खिलजी द्वितीय | Malwa History in Hindi
मालवा का इतिहास
मालवा के इतिहास में गियाथ शाह (गियासुद्दीन खिलजी (1469-1500 ई.)
सुल्तान महमूद खिलजी का बड़ा पुत्र गयासुद्दीन के नाम से 3 जून, 1469 ई. को अपने पिता मृत्यु के बाद मालवा के राज सिहांसन पर बैठा। अपने राज्यारोहण के समय उसने घोषणा कि वह की अपने पड़ोसियों के साथ शान्ति बनाये रखने की नीति पर चलेगा और वह आराम और शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करेगा। उसने इस नीति का पालन इतनी ईमानदारी से किया कि जब बहलोल लोदी ने पालमपुर पर आक्रमण किया तो उसके मंत्रियों ने बहुत मुश्किल से उसे उसके कर्त्तव्यों का ध्यान दिलवाया। किन्तु वह स्वयं युद्ध के लिये न जाकर उसने सेना अपने अधिकारियों के नेतृत्व में भेजी। गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा ने चम्पानेर पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। चम्पानेर के राजा ने सहायता के लिये गयासुद्दीन से प्रार्थना की, परन्तु उसने सहयाता के लिये इस आधार पर इन्कार कर दिया कि वह एक विधर्मी की सहायता मुसलमान के विरुद्ध नहीं करेगा। इस प्रकार उसने मालवा की परम्परागत नीति के विपरित आचरण कर चम्पानेर के समान दृढ़ किले को गुजरात के अधिकार में जाने दिया ।
अपनी घोषित शान्ति की नीति के विपरीत गयासुद्दीन ने मेवाड़ में उत्तराधिकार के प्रश्न से उपस्थित समस्या से लाभ उठाने की दृष्टि से चित्तौड़ पर दो बाद आक्रमण किये, परंतु जैसा कि मेवाड़ के इतिहास से ज्ञात होता है वह वहाँ दोनों बार ही पराजित हुआ ।
सुल्तान गयासुद्दीन की इस नीति के कारण निश्चय ही मालवा की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचा । उसने अपने राज्य काल के कुछ वर्षों बाद प्रशासन का संपूर्ण उत्तरदायित्व अपने पुत्र नासीरुद्दीन को सौंप दिया और अपना पूरा समय अपने हरम की व्यवस्था में बिताने लगा जिसे वह अपना छोटा राज्य समझता था। उसके हरम में सोलह हजार स्त्रियाँ थी। सुल्तान धार्मिक प्रवृत्ति का था और धर्म के नाम पर कोई भी उससे अनुदान प्राप्त कर लेता था । दासियों को प्रशिक्षित किया जो दरबारियों और राज्य की सूचना सुल्तान को देती थीं। ये स्त्रियाँ विभिन्न कलाओं जैसे नृत्य, संगीत, हस्तकला, कुश्ती, युद्ध आदि में प्रवीण थी ।
जैसी कि आशंका थी, सुल्तान गयासुद्दीन के अंतिम दिन शांति से नहीं बीते। उसके दो पुत्रों नासिरउद्दीन और अलाउद्दीन में राजगद्दी के लिये संघर्ष प्रारंभ हो गया। सुल्तान ने पूर्व में ही सल्तनत की शासन व्यवस्था नासिरूद्दीन को दे रखी थी। सुल्तान की चहेती बेगम खुर्शीद ने अलाउद्दीन का पक्ष लिया। नासिरुद्दीन को सल्तनत के शक्तिशाली अमीर वर्ग का समर्थन प्राप्त था, इसलिए इस संघर्ष में वह विजयी हुआ। सुल्तान गयासुद्दीन और रानी खुर्शीद को कैद कर लिया गया। अलाउद्दीन की हत्या कर दी गई। नासिरूद्दीन 11 नवम्बर 1500 ई. में मालवा की गद्दी पर बैठा । सुल्तान गयासुद्दीन ने अपने पुत्र के पक्ष में 4 जनवरी 1501 ई. में राजगद्दी त्याग दी। सुल्तान ने नासिरुद्दीन को गले लगा कर उसे आशीर्वाद दिया और खुले दरबार में उसे राजमुकुट और खजाने की चाबियाँ सौंप कर बिदा ली। 29 मार्च 1501 ई. में गयासुद्दीन की मृत्यु हो गई। ऐसी अफवाह थी कि नासिरूद्दीन ने सुल्तान को विष दिलवाया था ।
नासिर शाह (1501 - 1511 ई.)
नासिरुद्दीन (अब्दुल कादिर) सुल्तान गयासुद्दीन का बड़ा पुत्र "अब्दुल मुजफ्फर नासिर शाह" के नाम से उसके पिता के जीवन काल में मालवा की राजगद्दी पर बैठा । नासिर शाह ने सुल्तान बनते ही अपने विरोधी अमीरों को समाप्त करना प्रारंभ कर दिया, परिणामस्वरूप उसे विद्रोह का सामना करना पड़ा। अमीरों ने उसे सुल्तान मानने से इन्कार कर दिया। किंतु वह अंत में इन विद्रोहों को दबाने में सफल हुआ।
नासिर शाह स्वभाव से क्रूर और निर्दयी था, उसकी इस प्रवृत्ति के कारण उसने अनेक अमीरों और सरदारों को यातनाएँ दी और केवल शंका के आधार पर उन्हें मृत्यु दण्ड दिया गया। उसके इस आचरण से कुद्ध और भयभीत सरदारों ने सुल्तान के एक पुत्र शिहाबुद्दीन को विद्रोह के लिये प्रेरित किया। सुल्तान इस विद्रोह का दमन करने में सफल हुआ। शिहाबुद्दीन चन्देरी भाग गया। सुल्तान ने शिहाबुद्दीन के विरुद्ध कोई कठोर कदम नहीं उठाया और राजकुमार को समर्पण करने को कहा, किंतु शिहाबुद्दीन ने सुल्तान की आज्ञा को नहीं माना। सुल्तान राजकुमार के इस आचरण से बहुत कुद्ध हुआ और उसने अपने छोटे पुत्र आजम हुमायूँ को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर उसे महमूदशाह की उपाधि प्रदान की .
सुल्तान नासिर शाह को यह लगने लगा कि उसका स्वास्थ्य दिनों-दिन बिगड़ता जा रहा है, उसने सीपरी में एक दरबार का आयोजन किया और अपने पुत्र महमूद शाह को भविष्य में उत्तरदायित्व संभालने की उचित सलाह और मार्गदर्शन दिया। मार्ग में उसका स्वास्थ्य और बिगड़ गया और उज्जैन के निकट दिसम्बर 1510 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। किंतु जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुजुके जहाँगीरी में एक अलग ही वर्णन किया है, उसके अनुसार जब वह उज्जैन में था, तो उसे ज्ञात हुआ कि नासिर शाह की मृत्यु कालियादह महल के कुण्ड में स्त्रियों के साथ रंगरेलियाँ मनाते समय डूब कर हुई और उसके स्वभाव के भय से किसी भी सेवक ने उसे नहीं बचाया।
मालवा के इतिहास में महमूदशाह खिलजी द्वितीय (1511 ई. 1531 ई.)
महमूद का राज्यारोहण 2 मई 1511 ई. में बहिस्तपुर में संपन्न हुआ। महमूद द्वितीय के शासन काल में मालवा के इतिहास की एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि उसके समय मालवा में राजपूतों का राजनीति में वर्चस्व हुआ। महमूद खिलजी ने अपने पिता के समय वजीर रहे, बसंतराय को पुनः वजीर के पद पर नियुक्त कर दिया। इस नियुक्ति को मुसलमान अमीर और सरदार सहन न कर सके और उन्होंने सुल्तान और राजपूतों के विरूद्ध षडयंत्र रचना प्रारंभ कर दिया। मालवा में हिन्दू राजस्व और सैन्य विभाग में सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम के समय से ही उच्च पदों पर नियुक्त थे। सुल्तान गयासुद्दीन और नासिरशाह के समय इनकी शक्ति बहुत बढ़ गई । फरिश्ता के अनुसार पुनः वजीर नियुक्त होने पर बसन्तराय के व्यवहार में परिवर्तन आ गया। वह अत्यधिक कठोर और अभिमानी बन गया। वह अमीरों और सरदारों से सौजन्यतापूर्ण व्यवहार नहीं करता था, यहाँ तक कि वह सुल्तान के आदेशों की उपेक्षा करने लगा और सुल्तान के साथ व्यवहार में शिष्टाचार को भी भूल गया। अपमानित मुसलमान अमीरों ने एक दिन खुले दरबार में बसंतराय की हत्या कर दी। इन अमीरों ने सुल्तान पर दबाव डाला की सभी राजपूतों को महत्वपूर्ण पदों से हटा कर इकबाल खाँ और मुश्ताक खाँ को राज्य का प्रबंध सौंपा जाए। सुल्तान ने अमीरों की माँग को स्वीकार कर लिया ।
इसी समय मुहाफिज खाँ के नेतृत्व में मुसलमान सरदारों का दूसरा दल विरोधी हो गया, इस दल ने सुल्तान को इकबाल खाँ के विरुद्ध भड़का दिया। इसी बीच इकबाल खाँ और मुखतास खाँ शिक्षादीन के पुत्र होशंगशाह को सुल्तान घोषित कर दिया। महमूद ने होशंगशाह के विरुद्ध सेना भेजी, जिसने होशंगशाह को भागने के लिये विवश कर दिया। सुल्तान महमूद की मुसीबतें अभी समाप्त नहीं हुई, मुहाफिज खाँ जिसे महमूद ने वजीर नियुक्त किया ने सुल्तान के बड़े भाई शीहाब खाँ को बंदीगृह से मुक्त कर सुल्तान घोषित कर दिया। मुहाफिज खाँ और शीहाब खाँ ने सेना एकत्र कर सुल्तान महमूद पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान महमूद ने इस अवसर पर अदम्य साहस का परिचय देते हुए किसी प्रकार राजधानी माण्डू से निकल कर उज्जैन पहुँच गया। वहाँ उसने पाया कि उसके अनेक सरदारों ने उसका साथ छोड़ दिया है।
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