मालवा का इतिहास : मल्लू खाँ उर्फ कादिरशाह | शेरशाह द्वारा मालवा की विजय | Malwa History Under KadirShah
मालवा का इतिहास : मल्लू खाँ उर्फ कादिरशाह (1537 ई. - 1542 ई)
मल्लू खाँ उर्फ कादिरशाह (1537 ई. - 1542 ई)
हुमायूँ के जाने के बाद बहादुरशाह ने मालवा में मल्लू खाँ को सूबेदार नियुक्त किया । मल्लू खाँ बहादुरशाह की मृत्यु तक हमेशा उसके प्रति निष्ठावान रहा और बहादुरशाह के नाम से प्रशासन चलाता रहा। 13 फरवरी 1537 ई. में बहादुर शाह की मृत्यु हो गई। उसके उत्तराधिकारी महमूदशाह ने मल्लू खाँ को माण्डू में "कादिरशाह" की उपाधि प्रदान कर उसके नाम से खुतबा पढ़ने और सिक्के जारी करने का फरमान जारी किया।
इस प्रकार मल्लू खाँ कादिरशाह के नाम से मालवा का सुल्तान बन गया 51 कादिरशाह ने अपने आपको एक योग्य शासक सिद्ध किया। उसने मालवा के सभी पुराने अमीरों को सन्तुष्ट कर दिया और मालवा में शान्ति और व्यवस्था स्थापित की। उसने मालवा के राजपूतों को भी जागीरें देकर उनकी अधीनता प्राप्त कर ली । सिलहदी के पुत्र पूरनमल और भूपत को रायसेन का दुर्ग पुनः दे दिया । कादिरशाह एक चतुर और दूरदर्शी शासक सिद्ध हुआ। उसने मालवा को पड़ोसी राज्यों के झगड़ों से पृथक रखा।
जब शेरशाह सूरी 1539-40 ई. में गद्दी पर बैठा तो उसने गुजरात और मालवा के सुल्तानों को फरमान भेजा कि वे हुमायूँ को भारत से निकालने के लिए सेना के साथ सहयोग करे। इस फरमान ने कादिरशाह को उलझन डाल दिया। यदि वह फरमान को स्वीकार करता है तो वह अपने आप को मुगलों के झगड़ों में उलझा लेगा और एक प्रकार से शेरशाह को उसे अपना अधिपति स्वीकार करना पड़ेगा। कादिरखाँ ने जानबूझ कर उत्तर देर से भेजा। इसी बीच शेरशाह ने आगरा पर आक्रमण के लिए अपने पुत्र कुतुब खाँ को भेजा। कुतुबखाँ को जब मालवा का उसके प्रति अवज्ञाकारी, दृष्टिकोण का पता चला तो वह कालपी की ओर मुड़ गया। यहाँ उसका मुगलों से युद्ध हुआ, इस युद्ध में कुतुब खाँ मारा गया इस घटना से शेरशाह को विश्वास हो गया कि मालवा के शासक का व्यवहार मित्रतापूर्ण नहीं है।
शेरशाह द्वारा मालवा की विजय (1542 ई.)
शेरशाह ने उत्तर में अपनी स्थिति दृढ़ करने के बाद मालवा की ओर अभियान किया। उसने शुजाअत खाँ को ग्वालियर की ओर भेजा। ग्वालियर दुर्ग की चाबियाँ प्राप्त करने के बाद शेरशाह गागरोन की ओर अग्रसर हुआ। उसने शुजाअत खाँ को निर्देश दिया कि वह बिना किसी रक्तपात के मालवा में पहुँचे। गागरोन में पूरनमल ने 6000 राजपूत सैनिकों के साथ शेरशाह का स्वागत किया। शेरशाह ने पूरनमल को ससम्मान रायसेन लौटा दिया। इसका कारण स्पष्ट था, शेरशाह राजपूतों और कादिरशाह को उसके विरुद्ध गठबन्धन नहीं करने देना चाहता था। पूरनमल शेरशाह के इस मन्तव्य को नहीं समझ पाया, जिसका मूल्य उसे शीघ्र ही चुकाना पड़ा।
गागरोन से शेरशाह सांरगपुर की ओर बढ़ा उसके इस कदम ने कादिरशाह को विचलित कर दिया। कादिरशाह सैफ खाँ के परामर्श पर शेरशाह से मिलने सारंगपुर पहुँचा। शेरशाह ने उसका शिविर में राजसी सम्मान किया। उसने शुजाअत खाँ को कहा कि वह कादिरशाह पर निगरानी रखे। इस प्रकार बिना रक्तपात के शेरशाह ने मालवा पर अधिकार कर लिया। परन्तु शेरशाह ने कादिरशाह को मालवा से हटा कर बंगाल का सूबेदार बना दिया। कादिरशाह शेरशाह के इस विश्वासघात को समझ गया। वह एक रात को चुपचाप गुजरात की ओर भाग गया। इस प्रकार मालवा पर शेरशाह का अधिकर हो गया। उसने शुजाअत खाँ हाजी खाँ और जुनैद खाँ को मालवा में क्रमशः हण्डिया, सतवास, धार और माण्डू में नियुक्त किया। अब रायसेन को छोड़कर पूरा मालवा अफगानों के अधिकार में चला गया ।
शेरशाह की रायसेन की विजय (1543 ई.)
शेरशाह ने पूर्व में पूरनमल की अधीनता को स्वीकार कर उसे रायसेन में बने रहने दिया था परन्तु वह इस तथ्य को समझ गया था कि जब तक राजपूतों की शक्ति को पूर्वी मालवा से समाप्त नहीं कर दिया जाता, मालवा की विजय अधूरी ही रहेगी। इसलिये उसने मार्च 1543 ई. में रायसेन पर आक्रमण कर उसे घेर लिया। गागरोन से लौटने के बाद पूरनमल समझ गया था कि शेरशाह ने जिस प्रकार मालवा में अन्य मालवी सरदारों के साथ व्यवहार किया था, तो उसे भी शेरशाह का सामना करना पड़ेगा। इसलिये उसने रायसेन के किले को दृढ़ करने के लिए सारे उपाय कर लिए थे। शेरशाह द्वारा रायसेन का घेरा चार महिने तक चलता रहा परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। रायसेन के किले पर गोलाबारी का भी कोई प्रभाव नहीं हुआ। अन्त में शेरशाह ने पूरनमल के संधि प्रस्तावों को स्वीकार उसे क्षमादान दे दिया। पूरनमल ने किले को खाली कर दिया। परन्तु शेरशाह ने विश्वासघात किया, अफगान सैनिकों ने सुबह-सुबह आक्रमण कर दिया। राजपूतों को जब इस घटना का पता चला तो वे अन्तिम युद्ध के लिये तैयार हो गये, इसके पूर्व राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया और बच्चों के साथ आग में जल गई। पूरनमल सहित राजपूत योद्धा युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। रायसेन पर शेरशाह का अधिकार हो गया। शेरशाह के इस विश्वासघाती कृत्य की सभी इतिहासकारों ने निंदा की है ।
शेरशाह मालवा का सूबेदार शुजाअत खाँ को नियुक्त कर वापस चला गया 1 22 मई 1545 ई. में कालिंजर के किले के घेरे के समय शेरशाह की मृत्यु हो गई । उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र इस्लाम शाह शुजाअत खाँ से वैमनस्य रखता था। इसलिये उसने शुजाअत खाँ को मालवा से हटा दिया, और उसे सांरगपुर भेज दिया। किन्तु इस्लामशाह के उत्तराधिकारी आदिलशाह सूर उसे पुनः मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया। शुजाअत खाँ ने अपने अनेक अमीरों को मालवा के विभिन्न क्षेत्रों में नियुक्त किया। उसने अपने बड़े पुत्र मियाँ बायजीद को आष्टा और हण्डिया की जागीरें प्रदान की और स्वयं सारंगपुर में रहा। 53 ऐसा प्रतीत होता है कि अफगानों के समय मालवा माण्डू से अधिक सारंगपुर का महत्व बढ़ गया था। 1554-55 में शुजाअत खाँ मालवा में स्वतंत्र हो गया था ।
मालवा का इतिहास और बाजबहादुर (1556-1561 ई.)
1556 ई. में शुजाअत खाँ की मृत्यु हो गई, यद्यपि शुजाअत खाँ ने अपने सभी पुत्रों को जागीरें प्रदान की थीं, किन्तु वास्तविक सत्ता के लिये उसके पुत्रों में घमासान संघर्ष हो गया। उत्तराधिकार के इस संघर्ष में शुजाअत खाँ का बड़ा पुत्र मियां बायजीद खाँ विजयी हुआ, और वह बाजबहादुर शाह की पदवी धारण कर मालवा का सुल्तान बना। बाजबहादुर ने मालवा में शीघ्र ही अपने विरोधियों को समाप्त कर शान्ति व्यवस्था स्थापित की। अपनी सफलताओं से उत्साहित होकर उसने मालवा के बाहर अपनी सत्ता स्थापित करने का प्रयत्न किया। उसने पूर्व में गढ़ा राज्य की गौंड रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया। बाजबहादुर रानी दुर्गावती से बुरी तरह पराजित हुआ और उसकी सेना गौंडों के द्वारा नष्ट कर दी गई। वह किसी प्रकार अपनी जान बचाकर भागा। एक महिला के द्वारा पराजित होने के कारण बाजबहादुर बहुत लज्जित हुआ और भविष्य में उसने सैनिक अभियानों को छोड़ दिया। "वह अपनी लज्जा और अपमान को भूलने के लिए अपूर्व सुन्दरी रूपमती के प्रति समर्पित हो गया और मदिरापान तथा भोगविलास में लिप्त हो गया।
युद्ध बन्द कर देने के बाद बाजबहादुर रूपमती के साथ संगीत साधना और अन्य ललित कलाओं के उन्नयन में व्यस्त हो गया। दोनों ही संगीत के प्रति समर्पित थे। उन्होंने संगीत के क्षेत्र में अनेक रागों का अविष्कार किया जिनमें राग मालवी, राग गुजरी विख्यात थे। उनका सामिप्य वासना रहित था। उन दोनों के प्रयासों से मालवा में हिन्दु-मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय को बहुत प्रोत्साहन मिला । रूपमती सौन्दर्य और माधुर्य के लिए संसार भर में प्रसिद्ध थी। उसकी और बाजबहादुर की प्रेमकथाएँ मालवा के अनेक गीतों और चित्रों में वर्णित है। बाजबहादुर और रूपमती का अत्यधिक समय संगीत और अन्य गतिविधियों में देना भी मालवा के लिए घातक सिद्ध हुआ। प्रशासन की ओर ध्यान न देने से अव्यवस्था फैलने लगी। अधिकारी और जागीरदार जनता और कृषकों पर अत्याचार करने लगे । जब मालवा इस स्थिति से गुजर रहा था तो मुगल सम्राट अकबर का ध्यान मालवा की दुर्दशा पर जाना स्वाभाविक ही था।
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