मुगलों की अधीनता में फारुकी सल्तनत | Mugal ke Adhin Faruk Vansh

 मुगलों की अधीनता में फारुकी सल्तनत

मुगलों की अधीनता में फारुकी सल्तनत | Mugal ke Adhin Faruk Vansh


 

 मुगलों की अधीनता में फारुकी सल्तनत

खानदेश का सिंहासन संभालने के बाद राजा अलीखान ने खुद को मुगल साम्राज्य का स् प्रकट करते हुए सम्राट अकबर को मूल्यवान उपहार भेजे। राजा अलीखान ने कभी शाह की पदवी धारण नहीं की और अपने नाम के साथ राजाकी पदवी का इस्तेमाल करते हुए राजा अलीखान ही लिखता रहा । ऐसा करके उसने समझदारी का परिचय दिया क्योंकि वह जानता था कि न तो वह मुगल सम्राट से लोहा ले सकता है और न दक्षिण के सुल्तानों से वह मुगल साम्राज्य और दक्खन के महत्वाकांक्षी सुल्तानों के बीच एक सन्तुलन स्थापित करके अपनी रक्षा करना चाहता था। अतः मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार करना ही उसके हित में था । यह जरूर है कि उसने आदिलशाह चतुर्थ की पदवी ग्रहण की और इस प्रकार वह राजा अलीखान आदिलशाह चतुर्थ के नाम से भी जाना जाने लगा।

 

इसके पहले कि राजा अलीखान स्थिर होता, 1576 में बुरहानपुर पर कुतुबुद्दीन मुहम्मद खान और शिहाबुद्दीन अहमदखान की कमान में मुगल सेना ने घेरा डाल दिया क्योंकि राजा अलीखान ने समय पर सालाना कर नहीं चुकाया था। मुगल सैन्याधिकारी को बहुमूल्य उपहार दिये और मुगल सेना गुजरात की ओर चली गई।

 

सन् 1577 ई. में मुगल साम्राज्य के एक विद्रोही मुजफ्फर हुसैन मिर्जा ने राजा अलीखान के पास शरण ली। इस पर बादशाह अकबर ने राजा अली को फरमान भेजा कि वह विद्रोही को मुगल दरबार भेज दे। राजा अलीखान ने तुरंत इसका पालन किया। 1579 ई. में मालवा के सूबेदार बुदगखान ने खानदेश से सालाना कर वसूल करने के लिए अपने बेटे शाह अबू मुतलिब को बुरहानपुर भेजा। यह कोई अनुचित मांग नहीं थी क्योंकि इसके पहले मीरन मुबारक खान द्वितीय और मीरन मुहम्मद शाह द्वितीय ने भी मुगल दरबार को सालाना कर चुकाया था पर राजा अलीखान ने कर देने से मना कर दिया। शाह अबू मुतलिब ने मालवा लौटते समय खानदेश के कुछ इलाकों को लुटा । यह खबर पाकर राजा अलीखान अपने इलाकों की रक्षा के लिए मालवा की तरफ बढ़ा पर नर्मदा पार न कर सकने के कारण वह सेना सहित असीरगढ़ लौट आया।

 

1584 ई. में राजा अलीखान एक उलझन में फंस गया। अहमदनगर की सल्तनत के कुछ अमीरों ने मुर्तजा निजामशाह प्रथम के खिलाफ विद्रोह करके खानदेश में शरण ली और उनके नेता सैयद मुर्तजा खान सब्जवारी ने राजा अलीखान से सहायता माँगी। राजा अलीखान ने कुछ पक्का जवाब नहीं दिया। इस पर सब्जवादी और उसकी सेना ने बुरहानपुर को लूटा और सेना उत्तर की ओर रवाना हो गई। राजा अलीखान को क्रोध आया और उसने मुर्तजाखान सब्जवारी का पीछा करके उसे खदेड़ दिया और ढेर सारा धन उसके हाथ लगा। सब्जवारी और उसके साथी आगरा पहुँचे और उन्होंने सम्राट अकबर के सामने अपना दुखड़ा रोया। सम्राट अकबर ने राजा अलीखान को लिखा कि वह सैयद मुर्तजाखान सब्जवारी का धन वापिस कर दे। राजा अलीखान के सामने उसे मानने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। अहमदनगर के विद्रोही सरदार सैयद मुर्तजाखान सब्जवारी और उसके साथियों को सम्राट अकबर ने अपने यहाँ शरण दे दी।

 

दक्खन पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए मुगल बादशाह अकबर ने अहमदनगर के इन शरणागतों का उपयोग किया। उसने मालवा के सूबेदार खान-ए-आजम मिर्जा अजीज कोका को आदेश दिया कि वह शरणागतों को अहमदनगर में स्थापित करे। इस हेतु अजीज कोका को विशाल सेना और सभी साधन प्रदान किये गये। अजीज कोका ने हंडिया में अपना शिविर स्थापित किया और राजा अलीखान से खानदेश से होकर जाने का रास्ता माँगा। इसी बीच मुगल सेनानायकों में कुछ मतभेद हो गये और अभियान स्थगित हो गया।

 

1589 में मुगल सम्राट ने जब अहमदनगर के निष्काषित बुरहानुद्दीन को अहमदनगर में स्थापित करने के लिए भेजा तो मालवा के मुगल सूबेदार अजीज कोका और खानदेश के सुल्तान राजा अलीखान को उसकी सहायता करने के निर्देश दिये गये। इस अभियान में सफलता मिली और राजा अलीखान की सहायता से बुरहानुद्दीन अहमदनगर का सिंहासन प्राप्त कर सका।

 

जुलाई-अगस्त 1591 में अकबर ने खानदेशअहमदनगरबीजापुर और गोलकुंडा के राज्यों को इस सन्देश के साथ अपना दूत भेजा कि वे मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार कर लें। खानदेश भेजने के लिए फैजी को चुना गया। फैजी अकबर का एक प्रमुख दरबारी था। यह फारसी का उच्चकोटि का कवि था और इसका भाई अबुल फजल अकबर का दरबारी इतिहासकार और परम मित्र था। राजा अलीखान ने खुशी से मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार कर ली और बादशाह को अपनी निष्ठा का विश्वास दिलाने के लिए उसने अपनी बेटी का विवाह शाहजादा सलीम से कर दिया। 

 

बीजापुरगोलकुण्डा और अहमदनगर ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया तो बादशाह अकबर ने शाहजादा मुराद को दक्खन के अभियान का काम सौंपा। मुगल सेना के प्रस्तावित अभियान से राजा अलीखान चिंतित हुआ । यद्यपि वह मुगलों का आधिपत्य मानता था पर वह मन से मुगल विरोधी था और अहमदनगर के अभियान पर जाने का इच्छुक नहीं था। पर बाध्य होकर उसे अहमदनगर के अभियान में मुगल सेना के साथ जाना ही पड़ा। घेरा 18 दिसम्बर, 1595 को प्रारम्भ हुआ। आष्टी के निकट 5 फरवरी, 1597 को एक निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें राजा अलीखान मुगलों की ओर लड़ते हुए युद्धभूमि में मारा गया। पर मुगलों को उसकी निष्ठा पर सन्देह था इसलिए उन्होंने उसके शिविर को लूट डाला। बाद में जब उन्हें सचाई का पता चला तो बहुत शर्मिन्दा आष्टी में मुगलों की जीत हुई पर फ़ारुकियों और मुगलों के मध्य अब ऐसी दरार पड़ गयी जो कभी न पटी हुए ।

 

आष्टी से राजा अलीखान का शव बुरहानपुर लाया गया और दौलत - ए - मैदान में दफनाया गया। आज भी उसका मकबरा वहाँ है। राजा अलीखान की मृत्यु से खानदेश के इतिहास का उल्लेखनीय अध्याय समाप्त हो गया। राजा अलीखान श्रेष्ठ गुणों का व्यक्ति था। वह शासक के रूप में न्यायीराजनीतिज्ञ के रूप में साहसी था और महत्वाकांक्षी भी वह अपनी जनता द्वारा पूजा जाता था। उसने किसी को अपना प्रदेश नहीं लूटने दिया। उसने हनफी सम्प्रदाय के सिद्धांत पढ़ने और कलाओं को प्रोत्साहन देने में अपने समय का उपयोग किया ।

 

राजा अली खान ने 1588-89 में बुरहानपुर में जामा मस्जिद बनवाई जिनमें दो शिलालेख हैंएक अरबी में है और दूसरा संस्कृत में इन दोनों शिलालेखों में राजा अलीखान के बारे में लिखा है "वह  अपनी प्रजा के प्रति वैसा ही दयालु था जैसा सूर्य कमल के प्रति होता है। अपनी प्रजा के लिए वह वैसा ही आल्हादकारी है जैसे किसानों के लिए पूर्णचन्द्र होता है। वह सदैव परमात्मा की भक्ति में लगा रहता है।" काले पत्थर की यह भव्य मस्जिद आज भी जस की तस है।

 

राल्फ फिच की भारत यात्रा (1588-89 )

 

राजा अलीखान के समय एक अंग्रेज यात्री राल्फ फिच ने भारत की यात्रा की और खंभात चौल से होते हुए वह 1588-89 ई. में बुरहानपुर से होकर भी गुजरा। वह लिखता है "इस जगह उनके सिक्के एक तरह की चाँदी के बने होते हैं और गोल और मोटे होते हैं और उनकी कीमत 20 पैसे होती है। इसकी चाँदी अच्छी होती है। यह अद्भुत रूप से विशाल और आबादी वाला इलाका है। जब यहाँ ठण्ड पड़ती है जो जूनजुलाई और अगस्त में होती हैउस समय सड़कों पर इतना पानी रहता है कि उन पर घोड़ों पर बैठकर ही चला जा सकता है। यहाँ के घर मिट्टी और फूस के बने हैं। यहाँ शहर में बड़ी तादाद में सूती कपड़ा और सूती छपे हुए सूती कपड़े मिलते हैं। यहाँ चावल और मक्का बहुत तादाद में पैदा किया जाता है। हम जहाँ भी कस्बों और गाँवों से होकर निकले वहाँ कई जगह आठ या दस साल के लड़कों और पांच या छः साल की लड़कियों का विवाह होते देखा। दोनों को एक ही घोड़े पर बिठाकर बाजे-गाजे के साथ शहर में घुमाया जाता है। इसके बाद वे घर लौटने पर चावल और फलों का भोज करते हैं और देर रात तक आनन्द मनाते हैं और इस तरह विवाह सम्पन्न होता है। ये बच्चे जब तक दस साल के नहीं हो जाते तब तक साथ में नहीं सोते। लोग कहते हैं कि वे इसलिए इतने छोटे बच्चों का विवाह कर देते हैं कि ऐसा कहा गया है कि जब किसी मर्द की मौत होती है तो उसकी पत्नी को उसके साथ जलना चाहिए। इसलिए जब पिता की मौत होती है तो कम से कम उनके बच्चों की देखभाल करने और उनका विवाह करने के लिए ससुर तो बचता है। इसीलिए लोग अपने बेटों को बिना पत्नी का नहीं रखते और न ही अपनी बेटियों को बिना पति का रखते हैं।"

 

बहादुरशाह फारुकी की बेरुखी

 

राजा अली खान की मृत्यु के बाद उसका बेटा कादरखान बहादुरशाह के नाम से खानदेश की सल्तनत के सिंहासन पर बैठा। वह पिछले तीस साल से असीरगढ़ में कैद था और इस कारण उसे दुनियादारी का कोई अनुभव नहीं था। सिंहासन पर बैठने के बाद बहादुरशाह ने हसन मुहम्मद को वजीर के पद पर नियुक्त किया और उसे अफजल खान की उपाधि दी। फिर वह विषय भोगों में डूब गया।

 

इस समय मालवा का मुगल सूबेदार शाहजादा मुराद था। उसने बहादुरशाह को बधाई का संदेश भेजा और मुलाकात के लिए उसे एकाधिक बार बुलाया पर बहादुरशाह किसी न किसी बहाने टालता ही रहा। आखिर जब मुराद ने उसे चार हज़ार का मंसब देने और फारुकी राजकन्या से विवाह करने की पेशकश की तो बहादुरशाह ने मुराद से भेंट की और बुरहानपुर लौट आया। 

 

1599 में मुगल बादशाह अकबर ने अबुलफज्ल को दक्खन के अभियान के लिए नियुक्त किया । अबुलफज्ल 1 मई 1599 को बुरहानपुर के निकट पहुँचा। बहादुरशाह ने उसका स्वागत किया और कुछ समय बुरहानपुर में रुककर आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह किया। पर अबुलफज़ला ने बहादुरशाह के इस आग्रह को स्वीकार नहीं किया और दक्खन में शाहजादा मुराद से मिलने हेतु अपनी यात्रा जारी रखने पर जोर दिया। पर भीषण वर्षा और तूफान के कारण अबुलफज़ल आगे न बढ़ सका और वह कुछ समय के लिये बुरहानपुर रुक गया। बुरहानपुर छोड़ने के पहले अबुलफज़ल न बहादुरशाह से आग्रह किया कि वह मुगल सेना को दक्खन अभियान में सहायता दे पर बहादुरशाह ने इस पर ध्यान नहीं दिया। तब 'अबुलफज़ल ने उससे कहा कि वह अपने पुत्र कबीरखान को दो हजार घुड़सवारों के साथ मुगल सेना के साथ भेज दे। पर बहादुरशाह ने टका सा जवाब दे दिया। इस पर अंबुलफज़ल नाराज हो गया। अबुलफज़ल की नाराजी दूर करने के लिए बहादुरशाह ने अबुल फजल को भेंट प्रस्तुत की जिसे अबुलफज़ल ने स्वीकार नहीं किया। बहादुरशाह द्वारा ऐसी बेरुखी दिखाई जाने के कुछ कारण थे। शायद वह आष्टी के युद्ध में खानदेश का शिविर लूटे जाने से और अपने पिता के प्रति मुगलों के आधारहीन अविश्वास से नाराज था और शायद वह मुगलों के दक्खिन प्रवेश से भी रुष्ट था ।

 

अप्रैल 1599 में शाहजादा मुराद दक्खिन अभियान के लिए रवाना हो गया पर दुर्भाग्य से 2 मई 1599 को पूर्णा नदी के तट पर दौलताबाद से 20 कोस दूर उसकी मृत्यु हो गई। अब शाहजादा दानियाल को दक्खिन अभियान के लिए भेजा गया। बहादुरशाह ने न तो मुराद की मृत्यु पर शोक संवेदना मुगल दरबार को भेजी और न ही वह शाहजादा दानियाल का स्वागत करने आया। इस पर शाहजादा दानियाल ने खानदेश पर आक्रमण करना चाहा पर बादशाह अकबर ने उसे खानदेश के लिए समय खराब न करके सीधे अहमदनगर जाने का आदेश दिया। शायद वह खानदेश पर आक्रमण करने के पहले बहादुरशाह की वास्तविक मंशा समझना चाहता था। 

दानियाल के रवाना होते ही बहादुरशाह ने बुरहानपुर के किले को मजबूत करना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद खबर मिली कि बादशाह अकबर आगरा से रवाना हो गया है। बहादुरशाह में आगे की कार्यवाही की योजना के बारे में अपने अमीरों सरदारों से परामर्श किया तो सभी ने उसे सलाह दी कि बहादुरशाह को स्वयं बादशाह से मिलने जाना चाहिए और कर चुकाना चाहिए। पर बहादुरशाह ने मुगल बादशाह से लड़ने का तय किया। इस पर कुछ अमीर उसका साथ छोड़कर मुगलों की तरफ चले गये।

 

कुछ समय बाद मसूदखान के नेतृत्व में मुगल सेना बुरहानपुर पर धावा मारने चली पर फौलादखान की कमान में खानदेश की सेना ने उसे पीछे ढकेल दिया। अकबर ने एक के बाद एक तीन राजदूत बहादुरशाह को समझाने के लिये भेजे पर बहादुरशाह ने अपना रवैया नहीं बदला और बादशाह के सम्मुख जाने में आनाकानी करता ही रहा। अब बादशाह अकबरी में शेख फरीद बुखारी को असीरगढ़ पर धावा मारने का आदेश दिया। बादशाह उस समय धार तक आ गया था। अभियान के दौरान शेख फरीद बुखारी को बहादुरशाह का पत्र मिला जिसमें बहादुरशाह ने अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी थी और बादशाह को अपना बेटा और भेंट की चीजें भेजने का वादा किया था। जब बहादुरशाह बादशाह से मिलने नहीं गया तो अकबर ने सेना को असीरगढ़ की ओर बढ़ने का आदेश दिया। अंतिम कोशिश के रूप में बादशाह ने बहादुरशाह को समझाने हेतु शरू खान को भेजा। 1 बहादुरखान ने फिर क्षमायाचना का पत्र भेजा पर किया कुछ नहीं

 

अकबर का अधिकार 

फरवरी 1600 में अकबर ने कई अधिकारियों को एक शक्तिशाली सेना के साथ असीरगढ़ के किले पर आक्रमण करने के लिए भेजा। असीरगढ़ पर आक्रमण का अर्थ था बुरहानपुर पर आक्रमण मुगल सेना के आने का समाचार सुनकर बुरहानपुर की जनता ने सुरक्षा के लिये असीरगढ़ में शरण ले ली। मार्च के प्रारंभ में बादशाह ने नर्मदा पार किया और 10 मार्च को उसने बीजागढ़ में शिविर डाला। बादशाह ने फिर से बहादुरखान को एक अवसर देने के लिए अबुलफज़ल को उसके पास भेजा । बहादुरखान ने असीरगढ़ से बुरहानपुर आकर अबुलफज़ल से वादा किया कि वह सम्राट से मिलेगा पर अबुलफज़ल के लौटते ही वह असीरगढ़ के किले में चला गया। अकबर 31 मार्च, 1600 को बुरहानपुर पहुँचा और दूसरे दिन उसने खान-ए-आज़म अजीज कोकाआसफखानशेख फरीद और अबुलफज़ल को असीरगढ़ का किला घेरने का हुक्म दिया। 16 असीरगढ़ का घेरा महीनों तक चला इस सारे समय मुगल बादशाह अकबर बुरहानपुर में ही रहा

 

मुगल सेना के बढ़ते दबाव के कारण खानदेश के शासक बहादुरशाह ने शेख फरीद बुखारी के माध्यम से समझौता वार्ता प्रारंभ करने की कोशिश की। बुखारी ने बहादुरशाह को बिना शर्त समर्पण करने के लिए कहा पर बहादुरशाह तैयार नहीं हुआ और वह किले में लौट आया। फिर बहादुरशाह ने अपनी माँ और बेटे को 60 हाथियों के साथ शाही शिविर में भेजा और शाहजादा सलीम के पुत्र खुसरो के साथ अपनी बेटी का विवाह करने का वादा भी किया। बहादुरशाह ने बादशाह से निवेदन किया कि उसे विचार करने के लिए कुछ समय दिया जाय। ऐसा लगता है कि ऐसा करके बहादुरशाह अपनी सामरिक तैयारी के लिए कुछ समय निकालना चाहता था। पर बादशाह ने बहादुरशाह की एक न सुनी और उससे बिना शर्त समर्पण करने की माँग की। बहादुरशाह इसमें राजी नहीं हुआ।

 

असीरगढ़ के घेरे को अधिक कारगर बनाने के लिए अकबर खुद बुरहानपुर से असीरगढ़ पहुँच गया। तभी 9 अगस्त, 1600 को अहमदनगर के किले पर मुगलों का अधिकार हो गया जिससे बहादुरशाह घबराया और उसने पुनः शांति का प्रस्ताव भेजा जो बादशाह ने स्वीकार नहीं किया। घेरा तेज करने के लिए अकबर ने अबुलफज़ल पर फिर जोर डाला। इन्हीं दिनों बहादुरशाह ने एक गलती कर डाली। उसने असीरगढ़ के आसपास के अठारह हजार लोगों को किले में घुस आने दिया जिससे किले में रसद और अन्य रिहायशी व्यवस्था पर बुरा असर पड़ा।

 

बहादुरशाह के एक सैनिक ने गद्दारी करके मुगल सेना को एक गुप्त मार्ग बता दिया जिससे 28 नवम्बर 1600 को असीरगढ़ के मालीगढ़ पर अधिकार कर लिया। मालीगढ़ के बाद असीरगढ़ के मुख्य किले को जीतना बाकी था। पर बहादुरशाह अब निराश हो चुका था। प्रारंभिक वार्ता के उपरांत बहादुरशाह ने स्वयं बादशाह के सम्मुख समर्पण कर दिया। इस प्रकार ग्यारह माह के घेरे के बाद फरवरी 1601 में असीरगढ़ के किले पर बादशाह अकबर का अधिकार हो गया।  

फारुकी वंश के सभी राजकुमार मुगलों के हाथ में पड़े। इनमें मुबारकशाह के सात बेटे थे जिनके नाम थे- दाउद खानहमीद खानकैसर खानमहरम खानशेरखानगजनीखान और दरयाखान । दाउदखान के दो पुत्र थे- फतहखान और मुहम्मद खान हमीद खान का एक पुत्र था बहादुर खान । कैंसर खान के तीन पुत्र थे- लतीफ खानदिलावर खानमुर्तजाखान। महरमखान के चार पुत्र थे- अजीमखानमूसाखान और जलालखान शेरखान के दो पुत्र थे- इस्माइल खानअहमदखान । गजनीखान का एक पुत्र था अहमदखान और दरयाखान के तीन पुत्र थे- मुहम्मदखानमहमूद खान और मुजफ्फरखान.

 

राजा अलीखान के कुल छः बेटे थे। एक तो खुद बहादुरशाह जिसके पाँच पुत्र थे- कबीरखानमुहम्मदखानसिकंदरखानमुजफ्फरखान और मुबारकखान दूसरे पुत्र अहमदखान के तीन पुत्र थे- मुजफ्फरखानअलीखान और मुहम्मदखान । तीसरा पुत्र था महमूद खान जिसके दो बेटे थे- बलीखान और इब्राहीम खान । चौथा पुत्र था ताहिर खानपाँचवा था मसूद खान और छठवां था मुहम्मदखान । इनके अतिरिक्त मुबारक खान की बेटी का पुत्र दिलावरखान और उसका पुत्र ताजखानराजा अलीखान के तीन दामाद वलीखाननासिर खान और सैयद इस्माइल भी मुगलों के सामने पेश किये गये ।

 

उपर्युक्त सभी को बादशाह अकबर ने खिलअत और घोड़े दिये और आदेश दिया कि वे सभी हमेशा कोर्निश किया करें और नियमित रूप से दरबार में उपस्थित होते रहें जिससे उनकी योग्यतानुसार उनकी पदोन्नति की जा सके। इन सभी राजकुमारों का आगे क्या हुआ पता नहीं। बाद में बहादुरशाह को ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया और उसका परिवार भी उसके साथ कर दिया गया। उसे प्रतिवर्ष चार हजार और खानदेश के अन्य सात शाहजादों को दो हजार सोने की अशर्फियाँ पेंशन के रूप में दी जाती थीं ।

 

असीरगढ़ की सेना के समर्पण के बाद मुगलों ने किले के माल असबाब पर अधिकार कर लिया। अकबर ने खुद किले का निरीक्षण किया। वह वहाँ चार दिन रहा और 10 मार्च 1601 को बुरहानपुर. लौट आया जहाँ वह पिछले ग्यारह महीने से था अकबर के द्वारा असीरगढ़ की विजय का जिक्र असीरगढ़ के एक शिलालेख में है। साथ ही इस विजय का उल्लेख बुरहानपुर की जामा मस्जिद में भी है। शाहजीदा दानियाल को खानदेश का जिम्मा दिया गया और उसे दक्खन के सभी मुगल प्रदेशों का वायसराय नियुक्त किया गया। जिसमें बरार अहमदनगर का एक भाग और खानदेश शामिल थे।

 

राजा अलीखान और बहादुरशाह के एक अमीर फौलाद खान की सेवा में रहे हाजीउद्दबीर ने अपनी पुस्तक जफरूलवाली में बहादुरशाह के बारे में लिखा है कि उसके शासनकाल में शक्तिशाली लोगों को नीचे गिरा दिया गया और निम्नस्तर के लोगों को ऊँचा स्थान दिया गया। परिश्रमी और ईमानदार पीछे रह गये और उसने अपने पूर्वजों द्वारा एकत्र की गई कीमती चीजों और जवाहरात कुछ नीच अनुगामियों को बांट दिया। विषयभोगों के आनंद और गैरकानूनी मजे साधारण बात हो गये। उसने अपने पिता के मंत्रियों के हृदय में इतना रोष भर दिया कि वे ऐसे किसी भी विनाश का स्वागत करने के लिए तत्पर थे जिससे शांति आ सकती थी। इसमें संदेह नहीं कि बहादुरशाह कमजोरविषयीअंधविश्वासी और अदूरदर्शी शासक था। उसने बुरहानपुर से पाँच किलोमीटर दूर बहादुरपुर नामक शहर की स्थापना की थी।

 

असीरगढ़ के पतन के साथ ही खानदेश की फारुकी सल्तनत के दो सौ साल के शासन का अंत हो गया और मुगल साम्राज्य के दक्षिण विस्तार का रास्ता खुल गया। एक उल्लेखनीय बात यह भी हुई कि मुगल साम्राज्य का हिस्सा हो जाने के कारण बुरहानपुर और उसके आसपास के इलाके को उन आक्रमणा से राहत मिली जो पिछले दो सौ साल से उस पर कहर ढा रहे थे। मुगल साम्राज्य का हिस्सा होने के साथ ही बुरहानपुर की राजनीतिक प्रतिष्ठा और आर्थिक समृद्धि में क्रमशः बढ़ोत्तरी होने लगी।

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