गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास |गढ़ा के शासक कौन थे? | Gadha Gond Rajya Ka Itihaas - Part 01
गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास
गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास
भारत के हृदय स्थल में स्थित विन्ध्याचल और सतपुड़ा की
उपत्यकाएँ सघन वनों और पर्वत श्रेणियों के कारण प्राचीनकाल से ही दुर्गम रही हैं
और भारत के इतिहास में इस क्षेत्र का उपयुक्त ऐतिहासिक विवरण मुश्किल से मिलता है।
यह दुर्गम क्षेत्र प्राचीन और मध्ययुग में उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य एक दीवार
के रूप में रहा और इसकी भौगोलिक स्थिति के कारण इस पर उत्तर और दक्षिण भारत की
राजनीति का कम ही प्रभाव पड़ा। यदि कभी यहाँ उत्तर या दक्षिण भारत के साम्राज्य का
आधिपत्य रहा भी तो वह अधिक प्रभावी नहीं रहा। कलचुरियों और चन्देलों के पतन के बाद
इस क्षेत्र में दो सदियों तक राजनीतिक रूप से कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं रही पर
उसके बाद 15 वीं सदी के
प्रारम्भ में इस क्षेत्र में गोंड राजाओं के अंतर्गत एक सुदृढ़ राज्य निर्मित हुआ
जो लगभग पौने तीन सौ साल तक मौजूद रहा।
गौंडों का यह राज्य समय-समय पर गढ़ा, गढ़ा कटंगा और गढ़ा मण्डला के नाम से प्रसिद्ध रहा। कुछ समकालीन फारसी स्रोत और सभी समकालीन हिन्दी, संस्कृत स्रोत इसे गढ़ा राज्य कहते हैं। कुछ अन्य समकालीन स्रोत, खासकर अकबरनामा, इसे गढ़ा कटंगा कहते हैं। जब 1700 ईस्वी के आसपास गौंड राजा नरेन्द्रशाह ने रामनगर से राजधानी हटाकर मण्डला स्थानांतरित की तो गढ़ा राज्य गढ़ा - मण्डला राज्य के नाम से जाना जाने लगा और अठारहवीं शती के मराठी और अंग्रेजों स्रोतों में इसे गढ़ा - मण्डला ही कहा गया है। इस आलेख में इस राज्य को गढ़ा राज्य ही कहा गया है क्योंकि इस राज्य के सबसे पुराने मूल दस्तावेजों में इसे इसी नाम से संबोधित किया गया है।
गढ़ा राज्य की तथाकथित प्राचीनता
गढ़ा राज्य के शासकों की जो सूचियाँ उपलब्ध हैं उनमें गढ़ा
राज्य के शासक वंश को बहुत प्राचीन बताया गया है। इसमें सर्वाधिक प्रमुख सूची
रामनगर के संस्कृत शिलालेख की है। रामनगर मण्डला (म.प्र.) से 20 किलोमीटर
दक्षिण-पूर्व की ओर नर्मदा तट पर है। इस शिलालेख में यादवराय से लेकर हृदयशाह तक 54 शासकों को
गिनाया गया है। यह शिलालेख 1667 ई. में गढ़ा के शासक हृदयशाह के शासनकाल में उत्कीर्ण किया
गया था। गढ़ा के शासकों का दूसरा विवरण स्लीमेन ने 1837 में प्रकाशित किया। तीसरी सूची केप्टन वार्ड
ने मण्डला जिला की बन्दोबस्त रिपोर्ट में दी है। चौथी सूची अठारहवीं शती के अन्तिम
भाग में लिखे गए संस्कृत के श्लोक संग्रह "गढ़ेशनृपवर्णनम् में दी गई है।
उपर्युक्त सूचियों की कालगणना के अनुसार गढ़ा राज्य के
प्रथम शासक यादोराय के राज्यारोहण की तिथि क्रमशः 627 ई., 350 ई.,
158 ई. और 158 ई. आती है।
समग्र रूप में देखा जाय तो राजाओं की उपर्युक्त चारों सूचियाँ लगभग एक सी हैं।
हालांकि शासकों की शासनावधि में अधिक अन्तर नहीं है पर उनके राज्यारोहण की तिथियों
में बहुत भेद हैं। इनमें सबसे प्राचीन सूची रामनगर शिलालेख वाली है, शेष सभी बाद की
हैं। इन सूचियों में दिए गए राजाओं में से गोरक्षदास और उसके बाद के शासकों के
सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं, लेकिन गोरक्षदास के पहले के शासकों के बारे में कोई जानकारी
नहीं मिलती।
यह नहीं माना जा सकता कि गढ़ा राज्य ईस्वी दूसरी से ईस्वी
सातवीं शती के मध्य उदित हुआ और गोरक्षदास के पहले 45 राजाओं ने गढ़ा राज्य पर राज्य किया। वस्तुतः
गौंड सत्ता को पनपने का अवसर इस क्षेत्र पर कलचुरि और चन्देल शासन की समाप्ति के
पश्चात् ही मिला। जहाँ तक सूची में गोरक्षदास के पहले के नाम अधिकांशतः काल्पनिक
हैं। यदि कोई स्थानीय सत्ताधारी थे भी तो वे चौदहवीं शती के उत्तरार्द्ध में या
पन्द्रहवीं शती के पूर्वार्द्ध में सामन्तों, जागीरदारों या जमींदारों के रूप में रहे होंगे। गौंडों की
स्वतंत्र राजसत्ता का जहाँ तक प्रश्न है वह गोरक्षदास और खरजी के पहले किसी भी दशा
में नहीं मानी जा सकती। अब यहाँ यह देखना होगा कि चन्देलों के पतन के बाद दो शतीतक
इस क्षेत्र में कैसी राजनीतिक अस्थिरता रही, जिसने गढ़ा राज्य के उदय का मार्ग प्रशस्त किया ।
अस्थिरता का काल
अन्तिम कलचुरि शासक विजयसिंह के समय कलचुरि सत्ता अत्यन्त क्षीण हो गई थी और उसके बाद स्वतंत्र रूप से जीवित न रही। यह सम्भव है कि कुछ समय कलचुरि डाहल क्षेत्र में विद्यमान तो रहे होंगे, पर उन्हें चंदेलों का स्वामित्व स्वीकार करना पड़ा होगा। चन्देलों को पुनः दमोह क्षेत्र पर अपनी स्थिति दृढ़ करने का अवसर मिला। इसके प्रमाणस्वरूप दो शिलालेख प्राप्त हैं। प्रथम' के अनुसार 1287 ई. में दमोह क्षेत्र पर चन्देलों की सत्ता थी और दूसरे के अनुसार 1304 ई. से कम से कम 1309 तक दमोह क्षेत्र में वाघदेव नामक एक प्रशासक चन्देल शासक हम्मीरवर्मदेव के अन्तर्गत शासन कर रहा था। वह प्रतिहार था। जबलपुर जिले में बम्हनी से पाँच किलोमीटर दूर सलैया में प्राप्त अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल अर्थात् वि. सं. 1366 याने 1309 ईस्वी के सती शिलालेख से पता चलता है कि 1309 ई. में ही अलाउद्दीन की सत्ता यहाँ स्थापित हो गई थी।
दिल्ली के खिलजी सुल्तानों के बाद गढ़ा के आसपास के क्षेत्र पर तुगलक वंश के सुल्तानों का अधिकार बना रहा। 14 वीं सदी की शुरूआत में दमोह क्षेत्र पर सुल्तान मुहम्मद बुगलक (1325-1351 ई.) के आधिपत्य का प्रमाण हमें दमोह जिले के बटिहागढ़ शिलालेख से मिलता है। बटिहागढ़ के इस शिलालेख की तिथि सन् 1328 ई. है, जिसमें कहा गया है कि स्थानीय प्रशासक जल्लाल खोजा मलिक जुलाची के पुत्र हिसामुद्दीन का प्रतिनिधि था मुहम्मद तुगलक के समय जुलाची इस क्षेत्र का प्रशासक था ।
1328 ई. के उपरान्त
गढ़ा के आसपास के क्षेत्र पर अंधकार का जो परदा गिरता है, वह तब तक नहीं
उठता जब तक कि अबुलफजल के द्वारा उल्लिखित संग्रामशाह के पहले के शासक गोरक्षदास
और खरजी के अस्तित्व का पता नहीं चलता। संग्रामशाह के समकालीन ऐतिहासिक प्रमाणों
के आधार पर संग्रामशाह का जो समय आगे हमने तय किया है, उसके अनुसार खरजी
का अस्तित्व 1440 ई. के लगभग था।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कम से कम 1328 ई. से 1440 ई. तक के काल का इस क्षेत्र का इतिहास अज्ञात है। स्पष्ट
है कि इस काल में छोटी स्थानीय शक्तियों को पनपने का पूरा अवसर मिला। अस्थिरता के
इस युग में ही गौंडों को पनपने का अवसर मिला ।
गढ़ा राज्य की स्थापना- संस्थापक यादवराय
गढ़ा राज्य की स्थापना के सम्बन्ध में हमें दो जनश्रुतियों का उल्लेख मिलता है। इनका विवरण देना यहाँ उचित होगा। एक जनश्रुति के अनुसार गढ़ा के पास कटंगा में सकतू नामंक गौंड रहता था। उसकी कन्या ने एक नाग से विवाह किया जो सहवास के समय पुरुष रूप धारण कर लेता था । इस विवाह के फलस्वरूप धारूशाह का जन्म हुआ। इसी धारूशाह का पौत्र यादवराय था, जिसने गढ़ा में गौंड राज्य की नींव रखी। दूसरी जनश्रुति स्लीमेन' ने उल्लिखित की है जिसमें कहा गया है कि जादूराय (यादवराय) खानदेश में गोदावरी नदी के पार 20 कोस दूर स्थित सेहलगाँव नामक गाँव के जोधासिंग पटेल का बेटा था। यह लाँजी (बालाघाट) के हैहयवंशी राजा के यहाँ नौकर था। एक बार स्वप्न में नर्मदा देवी प्रकट हुई और उसे बताया कि वह गढ़ा के पास तिलवारा घाट के निकट स्थित रामनगर के ब्राह्मण संत सर्वे पाठक के पास जाये और कोई भी कठिनाई आने पर उसका मार्ग-दर्शन प्राप्त करे और उसे अपना गुरु माने। तब वह रामनगर के ब्राह्मण संत सर्वे पाठक से मिलने रवाना हो गया। सर्वे पाठक ने उसे शपथ दिलाई कि जब कभी वह राजा हुआ तो वह उसे अपना प्रधानमंत्री बनाएगा। सर्वे पाठक की सलाह से जादूराय ने गढ़ा के गोंड राजा के यहाँ नौकरी कर ली। गढ़ा के राजा की बेटी रत्नावली विवाह योग्य थी। उसके लिये सुयोग्य वर चुनने के लिये राजा ने नदी के तट पर लोगों को एकत्र करने का आदेश दिया और कहा कि उसके द्वारा नीलकण्ठ पक्षी जिसके सर पर वह बैठेगा उससे रत्नावली का विवाह कर दिया जायेगा। संयोग से वह पक्षी जादूराय के सिर पर जा बैठा और उसका विवाह रत्नावली से हो गया। गढ़ा के राजा की मृत्यु के उपरान्त उसका दामाद जादूराय गढ़ा के सिहासन पर बैठा और उसने अपने वादे के अनुसार सर्वे पाठक को अपना प्रधानमंत्री गढ़ा बनाया। यादवराय का जब इतना उल्लेख स्थानीय इतिहास और परम्परा में है तो वही गढ़ा राज्य का संस्थापक होना चाहिए। ऐसा माना जा सकता है कि यादवराय का राज्यारोहण 14 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ होगा ।
गढ़ा के शासक कौन थे?
गढ़ा के शासक कौन थे, इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य हमारे सम्मुख
यह है कि सोलहवीं शती में हुए गढ़ा राज्य के महानतम शासक संग्रामशाह के सिक्कों
में उसे "पुलत्स्यवंशी" कहा गया है। संग्रामशाह को पुलत्स्यवंशी कहा
जाना एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है क्योंकि पुलत्स्य ऋषि का पुत्र रावण था और जैसा कि
हम आगे देखेंगे, गौंड स्वयं को
रावणवंशी भी कहते हैं। ऐसी स्थिति में गढ़ा के शासकों को गौंड मूल का माना जा सकता
है। इस निष्कर्ष को एक समकालीन स्रोत अकबरनामा से भी परोक्ष रूप से समर्थन मिलता
है, जिसमें अबुलफजल
कहता है कि संग्रामशाह का पुत्र दलपतिशाह यद्यपि अच्छे कुल का नहीं था; तथापि महोबा के
चन्देल शासक सालवाहन ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह इसलिए कर दिया क्योंकि
सालवाहन की परिस्थिति अच्छी नहीं थी स्पष्ट है कि तब गढ़ा के शासकों को राजपूत
नहीं माना जाता था और वे चन्देलों से निम्नतर माने जाते थे।
खरजी से अर्जुनदास तक ( संग्रामशाह के पूर्वज)
संग्रामशाह के पूर्वजों का उल्लेख करते हुए वह अकबरनामा' में कहता है कि संग्रामशाह खरजी पुत्र संगिनदास या सुखनदास के पुत्र अर्जुनदास का पुत्र था। अबुलफज़ल के द्वारा उल्लिखित इन के शासकों को क्रम इस प्रकार रखा जा सकता है खरजी, गोरक्षदास, सुखनदास, अर्जुनदास और संग्रामशाह 1667 ई. में उत्कीर्ण रामनगर शिलालेख में संग्रामशाह को अर्जुनदास का, अर्जुनदास को गोरक्षदास का और गोरक्षदास को दादीराय का पुत्र बताया गया है। यह संभव है कि गोरक्षदास औरसुखनदास एक ही व्यक्ति हों।
खरजी, गोरक्षदास, सुखनदास और अर्जुनदास में से किसी के राज्यारोहण की तिथियों
का उल्लेख अबुलफज़ल नहीं करता। जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है, संग्रामशाह का
राज्यारोहण 1510 और 1513 ई. के मध्य हुआ
था। अर्जुनदास 40 वर्ष की आयु में
सिंहासन पर बैठा और उसकी मृत्यु असमय में उसके पुत्र के हाथों हुई। अतः उसे शासन
के केवल 10 वर्ष देकर उसके
पहले के तीन शासकों - खरजी,
गोरक्षदास और
सुखनदास में से प्रत्येक को औसतन 20 वर्ष की शासनावधि देने पर खरजी के राज्यारोहण की तिथि लगभग
1440 ई. (1510-70 वर्ष 1440 ) मानी जा सकती है।
अकबरनामा के अनुसार खरजी अपनी योग्यता और चालाकी से प्रदेश के अन्य शासकों से पेशकश वसूल किया करता था। इस प्रकार उसने एक सौ घुड़सवार और दस हजार पैदल सेना एकत्र कर ली। सम्भवतः 1460 ई. में उसका उत्तराधिकारी गोरक्षदास हुआ जो करीब 1480 ई. तक रहा। गोरक्षदास के उपरान्त उसका पुत्र सुखनदास या संगिनदास 1480 ई. के लगभग सत्तारूढ़ हुआ। उसने अपने पिता की योजनाओं को आगे बढ़ाया और पाँच सौ घुड़सवार तथा साठ हजार पैदल सेना एकत्र करके अपनी शक्ति में वृद्धि की । सुखनदास के शासन का अंत लगभग 1500 ई. में हुआ। इसके बाद की कहानी गढ़ा राज्य के उत्कर्ष की कहानी है, ऐसा उत्कर्ष जिसने भारत के मध्य भाग के एक बड़े भूभाग के इतिहास का नया अध्याय लिखा। संगिनदास या सुखनदास का उत्तराधिकारी अर्जुनदास हुआ, जो हमारे तिथिक्रम के अनुसार 1500 ई. के लगभग सिंहासन पर बैठा। अबुलफज़ल के अनुसार राज्यारोहण के समय अर्जुनदास की आयु 40 वर्ष की थी। उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम अमानदास और छोटे पुत्र का नाम जोगीदास था। युवावस्था में आम्हणदास बड़ा शैतान एवं दुष्कर्मी था और कभी वह हमेशा अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध काम करता था। एक बार आम्हणदास गढ़ा' से भाग निकला और पड़ोस में स्थित भाठ अर्थात् रीवा के बघेल शासक वीरसिंह के यहाँ जाकर उसने शरण ली। राजा ने उसे अपनाकर पुत्र के समान रखा। यह घटना 1500 ई. के बाद की होगी, क्योंकि वीरसिंह 1500 ई. में सिंहासनारूढ़ हुआ था।
अर्जुनदास ने अपने ज्येष्ठ पुत्र आम्हणदास से रुष्ट होकर अपने दूसरे पुत्र जोगीदास को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। जब आम्हणदास ने इसके बारे में सुना तो वह तेजी से पिता की राजधानी की ओर रवाना हुआ और वहाँ पहुँचकर उसने अपने पिता अर्जुनदास की हत्या कर डाली। अर्जुनदास की हत्या का समाचार सुनकर वीरसिंहदेव एक बड़ी सेना लेकर गढ़ा की ओर बढ़ा। अब आम्हणदास ने भागकर पर्वतों में शरण ली। आम्हणदास ने अपने कुछ अनुचरों के साथ उससे भेंट की । अपने किए पर उसने बहुत पश्चाताप किया। वीरसिंहदेव ने उसे क्षमा कर दिया और गढ़ा राज्य उसे सौंप दिया ।"
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