गोंड राज्य (गोंड राजवंश) सांस्कृतिक गतिविधियाँ साहित्य वास्तुकला मूर्तिकला संगीत कला | Gond Rajvansh Culture Details in Hindi

गोंड राज्य (गोंड राजवंश) सांस्कृतिक गतिविधियाँ साहित्य वास्तुकला  मूर्तिकला  संगीत कला

गोंड राज्य (गोंड राजवंश) सांस्कृतिक गतिविधियाँ साहित्य वास्तुकला  मूर्तिकला  संगीत कला | Gond Rajvansh Culture Details in Hindi


गोंड राज्य (गोंड राजवंश) साहित्य

 

गढ़ा के गोंड राज्य के संबंध में कहा जाता रहा है कि उस काल में साहित्यिक क्रियाकलाप शून्य थे। इसका कारण यही था कि उस समय के ग्रंथों के सम्बन्ध में कोई जानकारी लेखकों को नहीं थी । सर्वसाधारण की भी यह धारणा है कि जैसे आज के गोंड पिछड़े हैं वैसे ही गोंड शासक भी पिछड़े थे और गोंडी भाषा की स्वतंत्र लिपि नहीं है और उसका साहित्य नहीं हैवैसे ही गोंड शासकों की राजभाषा की लिपि और साहित्य नहीं था. वस्तुस्थिति बिल्कुल दूसरी है। गोंड शासक किसी भी अन्य भारतीय शासक के समान साहित्य और विद्या के संरक्षक थे राजकाज की भाषा गोंडी न होकर स्थानीय हिन्दी थी और उनके समय संस्कृत तथा हिन्दी ग्रंथों की रचना भी हुई। यह प्रक्रिया संग्रामशाह के समय से लेकर गढ़ा राज्य के अंत तक चलती रही। कुछ गोंड शासक स्वयं भी कवि या लेखक थे.  

 

गोंड राज्य (गोंड राजवंश)संस्कृत साहित्य - 

गोंड शासकों के समय संस्कृत रचनाओं का पर्याप्त उल्लेख मिलता है। इन राजाओं ने मिथिला से अनेक विद्वान बुलाये। मुस्लिम विजय के बाद मिथिला भारतीय साहित्य - दर्शन का केन्द्र हो गया था। गोंड शासकों ने अपने दरबारों की शोभा बढ़ाने हेतु तथा विभिन्न धार्मिक पदों हेतु वहीं से विद्वान आमंत्रित किए। उन मैथिल विद्वानों के अतिरिक्त अन्य विद्वान भी गोंड दरबार में थे ।

 

संग्रामशाह स्वयं लेखक था। उसने संस्कृत काव्य-ग्रंथ रसरत्नमाला की रचना की। इस कृति की विषय - सामग्री राजनीतिक और साहित्यिक है। इसमें जहाँ नौ रसोंभावोंनिष्ठाबान् स्त्रियों आदि के वर्णन हैंवहाँ कुछ राजनैतिक बातों पर भी चर्चा की गई है। उदाहरणार्थसत्तारूढ़ राजवंशों के नामअच्छे शासक की योग्यताएँशस्त्रादि राज्य की व्यवस्थाशक्तिमुक्तिसंग्रह परिच्छेद और शास्त्र विज्ञान देशगृहमंगल और भाषा सोलहवीं शती में इस प्रकार के राजनीतिक ग्रंथ अधिक नहीं रचे गए। संग्रामशाह के समय अनंत दीक्षित नामक कवि भी थे। दलपति शाह और दुर्गावती के समय दो मैथिल बन्धुओं महेश ठक्कुर और दामोदर ठक्कुर ने संस्कृत में विभिन्न विषयों में अनेक ग्रंथ लिखे महेश ठक्कुर ने नव्यन्याय के ख्यातिलब्ध टीकाकार पक्षधर मिश्र के ग्रंथ आलोक की आलोक दर्पण नामक टीका लिखी। इनकी कृति तिथितत्वचिंतामणि उस काल की सामाजिक और धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालती है। इसके अतिरिक्त महेष ठक्कुर ने विभिन्न धार्मिक विषयों पर ग्रंथों की रचना की । धार्मिक ग्रंथों के अतिरिक्त उन्होंने इतिहास का भी एक ग्रंथ लिखाजिसका नाम सर्वदेशवृत्तांत संग्रह है। इसमें अकबर के समय का संक्षिप्त इतिहास है।

 

दामोदर ठक्कुर ने संग्रामसाहीयविवेकदीपिका और दिव्यनिर्णय नामक दो कृतियों की रचना की। इनमें राजनीतिक विषयों की चर्चा की गई है। संग्रामसाहीयविवेकदीपिका की एक पाण्डुलिपि एशियाटिक सोसायटीकलकत्ता में है। केशव लौगाक्ष नामक विद्वान ने नृसिंह चम्पू और मीमांसार्थप्रकाश की रचना की। ये दलपतिशाह के दरबारी कवि थे और मीमांसान्याय और धर्मशास्त्रों के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने उपर्युक्त दो ग्रंथों के अतिरिक्त 'रामकृष्णावतारनष्टम्. न्यायचन्द्रिका और अंत्येष्टि पद्धति नामक ग्रंथ क्रमशः मीमांसान्याय और धर्मशास्त्र पर लिखे । इनमें से नृसिंहचम्पू और मीमांसार्थप्रकाश गढ़ा में लिखे गए।

 

रानी दुर्गावती के दरबार में एक विद्वान थे पद्मनाथ भट्टाचार्य जिन्होंने रानी के प्रोत्साहन पर दुर्गावती प्रकाश या समयावलोक नामक ग्रंथ की रचना की। पद्मनाभ ने 1578 ई. में वीरचम्पू की भी रचना की। अनंत दीक्षित का पुत्र विट्ठल दीक्षित और पौत्र केशव दीक्षित दलपतिशाहदुर्गावतीचंद्रशाह और मधुकरशाह के समय विद्यमान थे। ये संस्कृत के कवि थे। प्रेमशाह के समय विष्णु दीक्षित कवि थेये छत्रशाह के समय तक जीवित रहे।

 

हृदयशाह के शासनकाल में भट्टोजी दीक्षित नामक एक वैयाकरण हुए जिन्होंने 1620 से 1660 ईस्वी के मध्य संस्कृत के व्याकरण ग्रंथों की और अन्य ग्रंथों की रचना की। काव्यव्याकरणगुह्यसूत्रमीमांसा और दर्शन पर उन्होंने लगभग 32 पुस्तकें लिखी। भट्टोजी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह कि उन्होंने संस्कृत भाषा को पढ़ने के लिए उसे अति सुगम बनाया जिसके लिए वे हमेशा याद किये जाते रहेंगे। हृदयशाह के समय रामनगर शिलालेख के रचयिता जयगोविंद संस्कृत के श्रेष्ठ कवि थे । स्वयं हृदयशाह ने संगीत पर हृदय कौतुक और हृदय प्रकाश नामक ग्रंथों की रचना की।"

 

हृदयशाह के उत्तराधिकारी छत्रशाह के समय संवत् 1729 (सन 1672 ) में वाजसनेयी संहिता नामक कृति की रचना की गई। इसकी रचना महामहोपाध्याय ज्योतिषराय के पुत्र भगवंतराय ने की थी। नरेन्द्रशाह के समय रसमंजरी नामक कृति की रचना भानुदत्त मिश्र ने संवत् 1769 (सन् 1712 ई.) में की। वे मण्डला के पास बोकर ग्राम के निवासी थे और इनके पिता का नाम अयाची भवनाथ था। इसमें साहित्यशास्त्र के अन्तर्गत विभिन्न रसों का और नायक-नायिका भेद का वर्णन है।

 

निजामशाह के समय हरि दीक्षित के पुत्र कवि लक्ष्मीप्रसाद ने गजेन्द्रमोक्ष की रचना की। इसे कवि ने अपने संरक्षक राजा निजामशाह को 1759 ई. में प्रस्तुत किया। इसकी विषय सामग्री गजेन्द्रमोक्ष की प्रख्यात पौराणिक कथा है। यह अत्यंत श्रेष्ठ संस्कृत काव्य का नमूना है और कवि की प्रतिभा का अच्छा प्रमाण है। इस काव्य में कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन है । अन्तिम सर्ग में प्रेमशाह और उसके बाद के आठ शासकों तथा कवि के कुल का वर्णन है।

 

अन्त में कवि रूपनाथ झा का नाम उल्लेखनीय है। ये गढ़ा मण्डला राज्य के अवसान के समय विद्यमान थे। यद्यपि इन्होंने अपने ग्रंथ रामविजय महाकाव्य और गढ़ेशनृपवर्णनम् की रचना गढ़ा - मण्डला राज्य की समाप्ति के बाद कीइनका उल्लेख आवश्यक है। इनका जन्म 1768 ई. के लगभग हुआ था और 90 वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु हुई। रामविजय महाकाव्य की रचना 1800 ई. के लगभग हुई। इसमें गढ़ा - मण्डला के शासकों का नीरस और सीधा वर्णन किया गया है। गजेन्द्रमोक्ष की तुलना में गढ़ेशनृपवर्णनम् शैली और कल्पना दोनों में निम्न कोटि की कृति है ।

 

गोंड राज्य (गोंड राजवंश) हिन्दी भाषा और साहित्य

सनदोंताम्रपत्रोंशिलालेखों और पत्रों के रूप में जो सामग्री - प्राप्त है वह सत्रहवीं शती और अठारहवीं शती में गढ़ा- मण्डला प्रदेश में प्रचलित भाषा और गद्य शैली के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करती है। इस सामग्री के आधार पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि गढ़ा - मण्डला के शासकों ने तत्कालीन लोकभाषा को अन्य हिन्दू राजाओं की भाँति राज्याश्रय दिया था। गढ़ा के शासकों की जो सनदें और लेख हमें उपलब्ध हैं उनमें तत्कालीन लोक-प्रचलित देवनागरी लिपि का ही उपयोग हुआ है। प्राप्त सामग्री से ज्ञात होता है कि सरकारी कामकाज में प्रयुक्त होने वाली भाषा और तद्नुसार बोलचाल की प्रचलित भाषा में बुन्देलखण्डी और उर्दू-फारसी प्रभाव है।

 

हिन्दी गद्य के क्षेत्र में गोंड शासकों के समय की कोई भी साहित्यिक कृति उपलब्ध नहीं है। हाँहिन्दी काव्य के क्षेत्र में अवश्य कुछ सामग्री मिलती है। गढ़ा के गोंड शासकों में निजामशाह स्वयं काव्य-रचना करता थायह लिखा जा चुका है। इसके अतिरिक्त अठारहवीं शती के उत्तरार्द्ध के दो काव्य ग्रंथ सुदामा चरित्र तथा प्रेमदीपिका हमें उपलब्ध है। सुदामा चरित्र की रचना संवत् 1798 में हुई थी। सुदामा चरित्र एक प्रबन्धकाव्य है जिसमें बीर कवि ने कृष्ण-सुदामा की कथा का विस्तार से वर्णन किया है। इसमें सन्देह नहीं कि बीर कवि की कृति सुदामा चरित्र एक महत्वपूर्ण रचना है और हिन्दी की सुदामा चरित्र परम्परा में एक उल्लेखनीय योगदान है। बीर बाजपेयी ने प्रेमदीपिका " का भी प्रणयन किया यह कृति राजा निजामशाह के समय माहिष्मती (मण्डला का पारंपरिक नाम ) में लिखी गई । प्रेमदीपिका एक प्रबन्ध काव्य हैजिसमें उद्धव-गोपी-संवाद और कृष्ण-रुक्मिणी परिणय की कथा लगभग पौने तीन हजार छंदों में कही गई है। निस्संदेह यह कृष्ण परम्परा की अनुपम कृति है ।

 

 गोंड राज्य (गोंड राजवंश) वास्तुकला 

लगभग तीन शताब्दियों के आधिपत्य में गोंड राजाओं के पाँच प्रमुख केन्द्र रहें। सिगौरगढ़गढ़ाचौरागढ़रामनगर और मण्डला। इन स्थानों में गोंड काल के जो भवन हैंउनमें हमें उनके समकालीन मुगलों के समान उच्चकोटि की सामग्री और कला के दर्शन नहीं होते। इसकी इमारतें छोटी और प्रायः उपयोगितावादी है। गोंड इमारतें अधिक सुन्दर क्यों नहीं हैं और उनमें प्रयुक्त सामग्री उत्कृष्ट क्यों नहीं हैइसके कुछ कारण हैं। प्रथमगोंड राजा लगतार अधिक समय तक स्थिर नहीं हो पाये। कुछ शासकों के काल को छोड़कर सदैव वे अपने अस्तित्व में व्यस्त रहे। दूसरेजिस क्षेत्र पर उनका राज्य था वह अधिक सम्पन्न नहीं था ।

 

एक तथ्य यहाँ उल्लेखनीय है कि जिस प्रदेश पर इनका राज्य था वहाँ कलचुरि और चंदेल काल में सम्पन्न वास्तुकला और मूर्तिकला विद्यमान थी। लेकिन आश्चर्य है कि गोंड इमारतों में कलचुरि और चंदेल कला की परम्परा नहीं मिलती। इसका कारण यही है कि कलचुरियों और चंदेलों के पतन और गोंड राज्य के उदय के मध्य लगभग दो शतियों का अंतराल रहा। अस्थिरता के इन दो सौ वर्षों में कलचुरियों के समय को सम्पन्न सभ्यता लुप्तप्रायः हो गई और उसके साथ ही उनकी सम्पन्न कला - परम्परा भी समाप्त हो गई।

 

गोंड काल के भवनों में कुछ विशेषताएँ लगभग एक जैसी है 

(1) अनगढ़ पत्थरों का प्रयोग, - (2) दीवालों पर गारे का प्लास्टर, (3) मोटी दीवारें और (4) चपटे से गुम्बद ।

 

सिंगौरगढ़

यह जबलपुर दमोह मार्ग पर 53 वें किलोमीटर पर बाई और मार्ग से दो - किलोमीटर पर एक ऊँचे पर्वतशिखर पर स्थित है । सिंगौरगढ़ की स्थिति अत्यंत सुरक्षित है। किला अत्यन्त विस्तृत है और एक बड़े तालाब के एक सिरे पर अवस्थित है। शिखर पर जाने का मार्ग पहाड़ी के किनारे-किनारे होकर जाता है। पहाड़ी के ऊपर पहुँचने पर दो निर्माण उल्लेखनीय दिखते हैं- छोटा सरोवर और एक महल के अवशेष। सरोवर कृत्रिम हैं और चारों ओर से पक्का बंधा हुआ है तथा उसका फर्श पक्का है। महल विशाल है और भग्नावस्था में है। दरवाजों में मेहराब न होकर पत्थर की चौखट हैं। भवन में अनगढ़ पत्थरों का प्रयोग किया गया है। महल खण्डहर होने पर भी प्रतीत होता है कि यह अपने मूल रूप में प्रभावशाली रहा होगा।

 

गढ़ा 

गढ़ा गोंड काल में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था तथा वहाँ तत्कालीन अवशेष अधिक नहीं - हैं। गढ़ा का पुराना किला बहुत भूमिसात हो चुका है और कहा जाता है कि उसकी सामग्री रेल बनाने वाली कम्पनी ने प्रयुक्त कर ली थी। संग्रामसागर के पास स्थित भैरव मंदिर (बाजनामठ)संग्रामसागर के मध्य में स्थित आमखास और हस्तिशालामदनमहल और पंचमठा के मंदिर गढ़ा के उल्लेखनीय निर्माण हैं।

 

मदनमहल गढ़ा के निकट एक पहाड़ी पर स्थित है। परम्परा के अनुसार इसे मदनसिंह नामक गोंड शासक ने बनवाया था। यदि मदनसिंह का अस्तित्व माना भी जाय तो उसे खरजी के कुछ पहले अर्थात् चौदह सौ इस्वी के आसपास रखा जा सकता है। संग्रामशाह या उसके बाद के गोंड भवनों से भी मदनमहल काफी मिलता-जुलता है। अतः एक संभावना यह भी है कि इसे संग्रामशाह या उसके बाद के किसी शासक ने अपनी क्रीड़ा हेतु प्रकृति की गोद में बनवाकर कामदेव (मदन) के नाम पर इसका नाम मदनमहल रख दिया हो ।

 

यह एक सामान्य भवन हैजो आंशिक रूप में एक विशाल चट्टान पर बना है। इस इमारत में कई छोटी और पास-पास स्थित मेहराबें हैंजिनके ऊपर ऊपरी मंजिल है। ऊपरी मंजिल में एक बरामदा हैजो दो ओर से सामान्य कमरों से घिरा है। प्रवेशद्वार की मेहराबें पठान शैली की हैं। दीवालों पर प्लास्टर है। भवन की स्थिति देखकर ऐसा लगता है कि इस भवन का उपयोग निरीक्षण चौकी या शिकारगाह के लिए भी होता था ।

 

गढ़ा स्थित पंचमठा में राजगोंडकालीन कुछ मंदिर हैं। 1603 ई. (संवत् 1660 ) में स्वामी चतुर्भुजदास का बनवाया राधाकृष्ण मंदिर अब अपने मूल रूप में नहीं है। इसका जीर्णोद्वार हो चुका है। राधाकृष्ण मंदिर के निकट ही अनेक शिवमंदिरं हैंजो अठारहवीं शती के उत्तरार्द्ध के हैं। ये मंदिर ऊँचे चबूतरे पर बने हैं और इनमें से प्रत्येक में कलशयुक्त गुम्बद के नीचे के वर्गाकार प्रकोष्ठ के मध्य में शिवलिंग हैं। कुछ मंदिरों में गुम्बद के आसपास चारों कोनों पर चार छोटी छतरियाँ हैं। कुछ मंदिरों के गुम्बदों के आस-पास आठ छोटी छतरियाँ हैं। मंदिरों के कंगूरेदार छज्जेजो गुम्बद के आस-पास बने हैंआकर्षक लगते हैं। अधिकांश मंदिरों में बड़े गुम्बद वाले प्रकोष्ठ के सामने प्रवेशद्वार पर एक छोटा मण्डप बना हुआ है। ये मण्डप किन्हीं मंदिरों में ईंट गारे के और शंक्वाकार बने हैं। ईंट गारे के ये मण्डप प्रभावशाली नहीं दिखते। लेकिन कुछ मण्डप तराशे गए लाल पत्थर के स्तम्भों पर आधारित हैं और सुन्दर हैं। ऐसे मण्डप मंदिर के मूल निर्माण की तुलना में बिल्कुल भिन्न दिखते हैं। मंदिर की सादगी के विरुद्ध के अलंकृत तो हैं हीसाथ ही ईंट-गारे के मंदिर से संलग्न पत्थर के ये मण्डप ऐसे लगते हैं जैसे इन्हें मंदिर के बनने के बाद जोड़ा गया हो। उपर्युक्त शिव मंदिरों में से दो शिवमंदिरों की चौखट पर क्रमशः 1764 ई. (1821 सं.) और 1760 ई. (1823 सं.) के शिलालेख हैं।

 

चौरागढ़ 

चौरागढ़ सतपुड़ा पर्वत पर नरसिंहपुर से 32 किलोमीटर एवं गाडरवारा से 19 - दूर स्थित है। प्राकृतिक रूप से अत्यन्त सुरक्षित यह दुर्ग गोंड राज्य के प्रारम्भ से अन्त किलोमीटर तक महत्वपूर्ण दुर्ग रहा। प्रेमशाह के पतन के उपरांत इसका राजनैतिक महत्व कम हो गया पर इसकी सामरिक महत्ता कम नहीं हुई। यह नर्मदा की घाटी की सतह से लगभग 240 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। किले के दक्षिण में स्थित एक पहाड़ी जो बुन्देला कोट कहलाती हैंबुन्देला आक्रमण का स्मारक हैं। पश्चिम की पहाड़ी में गोंड राजाओं के महलों के अवशेष हैं और पूर्व की ओर नागपुर के भोंसला शासन द्वारा सेना के लिए निर्मित भवन । भवन सब खण्डहर हो गए हैं। वर्षा का एवं पहाड़ों के जलप्रवाहों का जल एकत्र करने के लिए अनेक पक्के तालाब बने हुए हैंजिससे वर्ष भर जल प्राप्त किया जाता था। 

 

रामनगर"- 

गोंड राजवंश के सम्पूर्ण निर्माणों में रामनगर के भवन सर्वाधिक आकर्षक और महत्वपूर्ण हैं । हृदयशाह ने सत्रहवीं शती के मध्य में रामनगर को अपनी राजधानी बनाया। रामनगर गढ़ा राज्य की राजधानी के रूप में लगभग आधी शती तक रहा। नरेन्द्रशाह ने 1698 ई. के लगभग रामनगर से राजधानी हटाकर मण्डला को अपना केन्द्र बनाया था।

 

रामनगर नर्मदा के दक्षिण तट पर मण्डला से 16 किलोमीटर दूर स्थित है। इसकी स्थित अत्यन्त आकर्षक है। यह राजधानी दुश्मनों से रक्षा हेतु दुर्गम स्थान पर बनाई गई थी। उत्तर में नर्मदा नदी है और दक्षिण में सघन वन हैं। एक ओर काला पहाड़ नामक ऊँचा पर्वत हैं। शहर की लम्बाई संभवतः चौड़ाई से अधिक थी और यह मोटे तौर पर अर्द्धचन्द्राकार था। आजकल तो रामनगर का क्षेत्र एक हजार एकड़ है परन्तु परम्परा के अनुसार पास के 4-5 ग्राम भी रामनगर में आते थे। शहर कम से कम पाँच हजार एकड़ में फैला रहा होगा ।

 

रामनगर में जो भवन हैंवे हृदयशाह के समय के ही हैं। मुख्य भवन हैं मोतीमहलमंदिर, - भागवतराय का महलबेगम महलदल-बादल महल मोतीमहल इस स्थान की सुन्दरतम तत्कालीन इमारतों में से एक हैं। आयताकार यह भवन बाहर से 63 मीटर लम्बा, 60 मीटर चौड़ा है और मध्य का आंगन पचास मीटर लम्बा तथा 46 मीटर चौड़ा है। आंगन के मध्य में एक 12 मीटर वर्ग का सरोवर है जिसमें फव्वारे लगे हुए हैं। भवन के सामने की भुजा चार मंजिल की है जबकि शेष तीन भुजाएँ तीन मंजिल की हैं। इस महल की दीवारें बहुत मोटी हैं और उन पर गारे का प्लास्टर है। दरवाजे हिन्दूशैली के हैं। कलशयुक्त गुम्बद आनुपातिक और प्रभावशाली हैं। रामनगर का प्रख्यात शिलालेख अब इसी भवन में लगा हुआ है। इस भवन के सामने नदी में एक बांध के अवशेष हैं। बांध जलप्रदाय व्यवस्था से सम्बद्ध था।

 

मंदिर मोतीमहल के 30 मीटर दक्षिण में स्थित है। 16.8 मीटर वर्ग के इस वर्गीकार मंदिर को रानी सुन्दरदेवी ने 1667 ई. में निर्मित कराया था और रामनगर के शिलालेख के अनुसार इसे विष्णु को समर्पित किया। इसमें विष्णुशिवगणेशदुर्गा और सूर्य की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराई गई थीं। रामनगर का शिलालेख वस्तुतः इसी मंदिर में थाकिन्तु सुरक्षा के लिए बाद में उसे मोतीमहल में लगा दिया गया। भवन के मध्य में 5.7 मीटर वर्ग का एक प्रकोष्ठ है जिसके ऊपर धारीदार गुम्बद है। कमरे के चारों कोनों में चार धारीदार गुम्बद वाली कोठरियों में एक-एक खुला बरामदा है। दरवाजे भारतीय शैली के हैं। बाहर से देखने में यह मंदिर मुस्लिम मकबरे के समान या आधुनिक बंगाली पंचरत्न मंदिर के समान दिखता है । 

 

भागवतराय का महल भी मोतीमहल के पीछे निकट ही स्थित है। हृदयशाह के मंत्री भागवतराय का यह महल तिमंजला है और इसमें ईंट की अपेक्षा पत्थर का प्रयोग अधिक किया गया है। आ में यह मोतीमहल से लगभग आधा है। ब्रेकेट युक्त मुख्य प्रवेशद्वार के ऊपर बनी मंजिले प्रभावोत्पा हैं। भवन के चारों कोनों में धारीदार गुम्मद और बरसाती वाले कमरे हैं।

 

बेगम महल मोतीमहल से लगभग ढाई किलोमीटर पूर्व की ओर स्थित है। यह एक प्रभावशाली और सुन्दर निर्माण है। इसमें एक विस्तृत प्रकोष्ठ है जिसके चारों ओर कुछ कमरे और मेहराबदार गलियारे हैं। मुख्य विस्तृत प्रकोष्ठ के ऊपर जो कमरा बना है उसकी छत राजपूत शैली की अर्द्धचन्द्राकार है। चारों कोनों के कमरों के ऊपर कमरों की दूसरी मंजिल भी है जो धारीदार गुम्बद वाले हैं। भवन से लगी एक गहरी बावली है। जिसके प्रवेशद्वार की छत अर्द्धचन्द्राकार है। इमारत के निकट सुन्दर उद्यान होने के चिन्ह हैं। दल बादल महल में कोई उल्लेखनीय तत्व नहीं हैं।

 

मण्डला 

गढ़ा राज्य के उदय के समय से ही मण्डला एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नरेन्द्रशाह ने जब 1698 ई. के लगभग मण्डला को अपनी राजधानी बनाया तब मण्डला का महत्व बहुत बढ़ गया। तब से गढ़ा राज्य के पतन तक मण्डला राजधानी रहा। राजकीय और प्रशासकीय आवासों के लिए राजधानी मण्डला में एक किला बनवाया गयाजिसके अवशेष आज भी विद्यमान हैं। यह दुर्ग नरेन्द्रशाह ने बनवाया था और भीतर के भवन नरेन्द्रशाह और उसके उत्तराधिकारियों के समय बने ।

 

मण्डला में नर्मदा नदी के दिशा-परिवर्तन से बने मोड़ पर किला बना है। नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हुई अचानक दक्षिण और फिर उत्तर की ओर मुड़ जाती है। किला नदी के घुमाव पर ही स्थित है और इसके तीन ओर नदी है। चौथी ओर अर्थात् उत्तर की ओर किला एक गहरी तथा चौड़ी खाई द्वारा सुरक्षित किया गया है। पहले इस खाई से होकर नदी का पानी बहता था। 1878 में यह स्थिति थी कि गर्मी के दिनों को छोड़कर साल के अन्य महीनों में इससे होकर पानी बहता था । अब यह काफी उथली हो गई है और सिर्फ नदी में बाढ़ आने पर पानी इससे बहता है। इस प्रकार किला नर्मदा के एक कृत्रिम द्वीप पर स्थित है। खाई (परिखा) अपने मूल रूप में कम से कम 22 मीटर गहरी और 24 मीटर चौड़ी रही होगी। 2 किले के चारों ओर साढ़े तीन मीटर ऊँची चहारदीवार थीजो अब ध्वस्त हो चुकी हैं। कहीं-कहींविशेषकर पश्चिम की ओर की चहारदीवार अभी शेष है।

 

चहारदीवारी में कुल चौदह बुर्जियाँ थीं। चार कोनों मेंचार प्रवेश द्वारों के बाजुओं पर चार प्रवेश द्वारा की बुजियों और कोनों की बुर्जियों के बीच एवं दो बुर्जियाँ शेष भुजाओं के मध्य में बुर्जियों में अब केवल तीन बुर्जियाँ शेष हैंबाकी सब ध्वस्त हो चुकी हैं। इनमें दक्षिण की बुर्ज सबसे अच्छी हालत में है बुर्जियाँ नौ मीटर से साढ़े दस मीटर तक व्यास की हैं और खोखली हैं। बुर्जियों की दीवाल की भीतरी मोटाई से होकर सीढ़ियाँ ऊपर के चबूतरे तक गई हैं। ऊपर के फर्श के चारों ओर कंगूरे हैंजिनमें विभिन्न कोणों पर बने छोटे-बड़े छेद हैं जो बन्दूक से मार करने के लिए थे। तोपों के लिए बुर्जियों में कोई व्यवस्था नहीं दिखती। अतः लगता है कि बुर्जियों से केवल बन्दूकों का प्रयोग किया जाता था। फसीलें सिर्फ आधा मीटर मोटी हैं और सिरे पर आड़ मात्र 12-15 से.मी. मोटी है। बुर्जियों के भीतर के कमरे किले के भीतर खुलते हैं। मण्डला के दुर्ग को देखकर लगता है कि यह कभी भी तोपों के सम्मुख मजबूत सिद्ध नहीं हुआ और यद्यपि गहरी नदी से तीन ओर से घिरा होना इसे प्राकृतिक रूप से शक्तिशाली बनाता था ।

 

दुर्ग के भीतर सब ध्वस्त हो गया है किन्तु दुर्ग के मध्य में एक महल के अवशेष अभी विद्यमान हैं। दक्षिण की ओर दो मंदिरों के अवशेष हैं। दक्षिणी भाग में ही नरेन्द्रशाह द्वारा बनवाया गया राजराजेश्वरी मंदिर है। अब यह कुछ परिवर्तित रूप में है। इसके निकट एक शिवमंदिर भी है जिसमें भोंसला शासन के समय अंताजी बलवंत तांबे ने जो तहसीलदार थे बनवाया था। किले के भीतर कहीं-कहीं कलचुरिकाल की मूर्तियों के टुकड़े या इमारती पत्थर मिले हैंजिनसे यह अनुमान किया जा सकता है कि दुर्ग जहाँ बना वहाँ या तो कलचुरियों के समय कोई भवन रहा होगा या दुर्ग के निर्माण के लिए कलचुरिकालीन अवशेषों की सामग्री प्रयुक्त की गई थी।

 

दुर्ग के पूर्वी भाग में नर्मदा तट पर एक विशाल भवन हैजिसे सतखण्डा कहते हैं। भूमि के ऊपर तीन मंजिलें तो स्पष्ट दीखती हैं। शेष चार मंजिलें नदी की बाढ़ के कारण मिट्टी से भर गई हैं। इमारत बाहर से देखने में प्रभावशाली है एवं इसमें वास्तुशिल्प का अच्छा प्रदर्शन किया है। संभवतः स्नान और दृश्यावलोकन के लिए राजपरिवार के लिए इसका प्रयोग किया जाता था। 


गोंड राज्य (गोंड राजवंश) मूर्तिकला 

गोंड काल की जो मूर्तियाँ मिली हैं उन्हें देखने से ज्ञात होता है कि इस समय तक कलचुरिकालीन उत्कृष्ट मूर्तिकला की सम्पन्न परम्परा लुप्त हो चुकी थी। गोंड काल में निर्मित अन्य बहुसंख्यक मूर्तियाँ कला की दृष्टि से हीन हैं। उनमें प्रायः उसी प्रकार का अनगढ़पन मिलता है जैसा कि उस काल में निर्मित अन्य निर्माणों में रामनगर के मंदिर में हृदयशाह की रानी सुंदरीदेवी ने विष्णुशिवगणेशदुर्गा तथा सूर्य की जो मूर्तियाँ स्थापित की थींउनमें केवल गणेशसूर्य तथा नंदी की मूर्तियाँ उस मंदिर में मिली हैं। मण्डला के पुरातत्व संग्रहालय में रखी ये मूर्तियाँ गोंड काल की सबसे पुरानी उपलब्ध मूर्तियाँ हैं । उपर्युक्त मूर्तियों के अतिरिक्त विभिन्न खण्डहरों में भी टूटी-फूटी मूर्तियाँ मिली है जो विशेष उल्लेखनीय नहीं है। इनके अतिरिक्त मण्डला के गोंडकालीन राजराजेश्वरी के मंदिर के गर्भगृह के बाहर गई मूर्तियाँ हैं पर उन्हें निश्चिततः गोंड काल की नहीं कहा जा सकता । इनमें से कुछ संगमरमर की और कुछ रेतीले भूरे पत्थर की हैं। ये गोंडकाल के बाद की भी हो सकती हैं अतः उनका उल्लेख यहाँ नहीं किया जा रहा है।

 

 गोंड राज्य (गोंड राजवंश) संगीत कला

 

गढ़ा - मण्डला के शासकों के समय संगीत कला की भी पर्याप्त उन्नति हुई। हृदयशाह के समय संगीतकला अपने चरम उत्कर्ष पर थी। वह स्वयं संगीत का ज्ञाता था। उसके पहले संगीत कला की प्रगति की निश्चित जानकारी हमें नहीं मिलती। किन्तु हृदयशाह की संगीत सम्बन्धी उपलब्धियों को देखकर यह अनुमान सत्यता के निकट प्रतीत होता है कि हृदयशाह के पहले भी राजगोंड दरबार में संगीत की सम्पन्न परम्परा विद्यमान थीजो हृदयशाह के समय अपने शिखर पर पहुँची। हृदयशाह स्वयं उच्च कोटि का संगीतज्ञ था। उसने संगीत सम्बन्धी दो महत्वपूर्ण ग्रंथों - हृदय कौतुक और हृदय प्रकाश की रचना की। व्ही. एन. भातखण्डे ने अपने एक निबंध में इनका विवरण दिया है। 84 ऐसा अनुमान है कि हृदयशाह के बाद गोंड राज्य के राजाओं ने संगीत को कोई उल्लेखनीय प्रश्रय नहीं दिया और न उसमें व्यक्तिगत रुचि ली।

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