गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- गोंड राज्य पर मुगल आधिपत्य | Gond Rajya Ka Itihaas - Part 04

 गढ़ा का गोंड राज्य पर मुगल आधिपत्य

गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास-  गोंड राज्य पर मुगल आधिपत्य | Gond Rajya Ka Itihaas - Part 04


 

गोंड राज्य पर मुगल आधिपत्य

आसफखाँ को चौरागढ़ में अपरिमित धन प्राप्त हुआ। इस धन ने उसका मस्तिष्क फेर दियाउसने एक हजार हाथियों में से केवल दो सौ हाथी शहंशाह अकबर को भेजे और सारी मूल्यवान वस्तुएँ अपने पास रख लीं। किन्तु अकबर ने उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। यह संभवतः इसलिए था कि इस समय उसकी सैनिक शक्ति इतनी दृढ़ता से नहीं जम पाई थी। मुजफ्फरखाँ और उसके साथियों ने ईर्ष्यावश कुछ लोगों को भड़काया कि वे चौरागढ़ में प्राप्त धन के सम्बन्ध में आसफखाँ के विरुद्ध आरोप लगाएँ। फलतः आतंकित होकर आसफखाँ अपने भाई वजीरखाँ के साथ गढ़ा-कंटगा की ओर भागा। यह घटना 16 सितम्बर 1565 ई. की है। एक युद्ध में आसफखाँ की पराजय हुई और वह बहादुरखान द्वारा बन्दी बना लिया गया। उसने अपने और अपने भाई के कार्यों के लिए क्षमा माँगी। उन्हें न केवल क्षमा मिली बल्कि आदेश दिया गया कि वे कड़ा-मानिकपुर की रक्षा के लिए मजनूखाँ से मिलकर काम करें।

 

गढ़ा - राज्य की विजय के उपरांत उसकी नवीन व्यवस्था मुगल प्रशासन के अन्तर्गत की गई। राज्य के अन्तर्गत जो प्रदेश थे उन्हें मालवा के सूबे की विभिन्न सरकारों के अन्तर्गत रखा गया आइन-ए-अकबरी 30 से ज्ञात होता है कि अधिकांश क्षेत्र मालवा सूबे में गढ़ा सरकार के अन्तर्गत में रखा गयाजिसमें 57 महाल थे। इनका राजस्व 1 करोड़ 77 हजार 80 दाम था। गढ़ा राज्य के धामोनी और खिमलासा तथा भोपाल के आसपास का इलाका रायसेन सरकार में मकड़ाई के आसपास का इलाका हण्डिया सरकार में और एरन तथा इटवा चन्देरी सरकार में रखे गए।

 

मेंहदी कासिम खान को कुछ समय तक गढ़ा का प्रशासक बनाया गया। उसके पश्चात् 1566-67 ई. में 500 के मनसबदार शाह कुली खान नारंगी और पाँच हजार के मनसबदार काकरअली खान चिश्ती को गढ़ा भेजा गया। शासन के बीसवें वर्ष ( 1575-76 ई.) में 2000 के मंसबदार राय सुर्जन हाड़ा को गढ़ा के प्रभार से स्थानांतरित करके चुनार भेज दिया गया। राय सुर्जन हाड़ों के बाद 4000 का मनसबदार सादिक खान गढ़ा का प्रशासक बनाया गया। आइन-ए-अकबरी में उल्लेख मिलता है कि तीन हजार के मनसबदार बाकीखान की मृत्यु 1585-86 में गढ़ा के सूबेदार के रूप में हुई । उसके बाद खान-ए-आजम अजीज कोका को गढ़ा और रायसेन के अभियान में भेजा गया और उसके साथ 900 का मनसबदार मीर जमालुद्दीन हुसैन भी भेजा गया। फिर 1587-88 में दो हजार के मनसबदार शाहमखाँ को गढ़ा भेजे जाने का उल्लेख मिलता है।

 

सन् 1587-88 ई. के पश्चात् गढ़ा में मुगल सूबेदारों की नियुक्ति का उल्लेख नहीं मिलता और हमें इसके पश्चात् गढ़ा के शासकों के नामों का उल्लेख समकालीन फारसी इतिहास ग्रन्थों में मिलने लगता है। स्पष्ट है कि दुर्गावती की पराजय के बाद लगभग पच्चीस साल तक गढ़ा प्रदेश के लिए मुगल अधिकारियों की नियुक्ति होती रही और फिर गढ़ा के राजाओं को ही अधीनस्थ मानकर गढ़ा प्रदेश का शासन उन्हें सौंप दिया गया। इन पच्चीस वर्षों में दो शासक हुए जो नाममात्र के थे- चन्द्रशाह और मधुकरशाह ।

 

चन्द्रशाह और मधुकरशाह

 

स्लीमेन लिखते हैं कि आसफखाँ की वापस के बाद दलपतिशाह के भाई चन्द्रशाह को गढ़ा राज्य का शासक मान लिया गया और इस मान्यता के बदले में उसने बादशाह को दस गढ़ सौंपे। ये गढ़ थे- रायसेनकारूबागकुरवाईभोपालभौरासोगढ़गुनौरबारीगढ़चौकीगढ़राहतगढ़ और मकड़ाई । कुछ ऐसा ही वर्णन गढ़ेशनृपवर्णनसंग्रहश्लोकाः में किया गया है। 

 

चन्द्रशाह लगभग 1576 ई. तक सत्तारूढ़ रहा । चन्द्रशाह की मृत्यु स्वाभाविक रूप से नहीं हुई थी। ऐसा माना जाता है कि मदनमहल में उसकी और उसके बड़े पुत्र की हत्या करके छोटा मधुकरशाह सिंहासनासीन हुआ ।

 

चन्द्रशाह की हत्या के उपरांत उसका छोटा पुत्र मधुकरशाह शासक हुआ। स्लीमेन के अनुसार मधुकरशाह इस वंश का पहला शासक थाजो सम्मान प्रकट करने हेतु दरबार में गया। उल्लेख मिलता है कि मधुकरशाह ने आधुनिक शहडोल जिले में स्थित सिंहवाड़ाधरहरमुण्डाबसहीमनोरा और गिरारी को अधिकृत किया। 32 बघेलखण्ड के किसी भाग पर अधिकार होने का यह पहला उल्लेख है। मधुकरशाह की मृत्यु 1594 ई. के पहले हुई यह निश्चित है क्योंकि आमोदा के सतीलेख के आधार पर 1594 ई. प्रेमशाह गढ़ा राज्य का शासक बन चुका था। मधुकरशाह के पीतल के दो चौकोर सिक्के मिले हैं जो संवत् 1664 ( 1607ईस्वी) के हैं। इनके एक ओर नागरी लिपि में श्रीकृष्ण श्री मधुकर शाह और दूसरी ओर नागरी लिपि में गढ़ागढ़, 1664 ई. और फारसी लिपि में मधुकरशाह लिखा है।

 

देवगढ़ राज्य का उत्थान 

जैसा कि लिखा जा चुका हैदुर्गावती की पराजय के उपरांत भी गढ़ा मण्डला क्षेत्र में गढ़ा के राजा के अतिरिक्त अन्य राजागण भी थे। जैसे गरोला का राजाहरया का राजासलवानी का राजादनकी का राजाखटौला का राजामुगदा का राजामण्डला का राजादेवहार का राजालांजी का राजा । 34 इनमें से हरयागढ़ (जिला छिन्दवाड़ाम. प्र.) के राजा की सत्ता के विकास के प्रमाण मिलते हैं। जिस क्षेत्र में पहले केवल गढ़ा के राजा की तूती बोलती थी. अब उस क्षेत्र में हरयागढ़ का राज्य भी एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में आ गया। आगे आने वाले दशकों में हरयागढ़ या देवगढ़ का राज्य उत्तरोत्तर उन्नति करता गया और एक लम्बे समय तक उसने गढ़ा की सत्ता को आच्छादित सा कर लिया। सत्रहवीं शती के उत्तरार्द्ध में तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि जहाँ फारसी अखबारात में गढ़ा के राजा का कहीं उल्लेख नहीं आता है वहाँ देवगढ़ के राजाओं का नाम कई बार आया है वास्तव में देवगढ़ राज्य का उत्थान गढ़ा की निर्बलता से उत्पन्न शून्य का परिणाम था। 1578 ई. में हरयागढ़ या देवगढ़ में तुलोबा नामक शासक सत्तारूढ़ था हरयागढ़ 1564 ई. से ही अकबर का करद था। आइन-ए-अकबरी में जाटबा को डेढ़-दो हजार घुड़सवारोंपचास हजार पैदल और सौ हाथियों का स्वामी बताया गया है। 36 जाटबा का शासन 1620 ई. तक रहा और उसका उत्तराधिकारी दलशाह हुआ जिसने 1634 तक राज्य किया। देवगढ़ राज्य के ये दोनों शासक दोनों गढ़ा के शासक प्रेमशाह के समकालीन थे।

 

प्रेमशाह गढ़ा का राजा

 

मधुकरशाह के पश्चात् प्रेमशाह गढ़ा का राजा हुआ। इसे प्रेमनारायण भी कहा गया हैं। प्रेमशाह 1586-87 में सत्तारूढ़ हुआ। प्रेमशाह के शासन के साथ ही मुगल मनसबदारों का उल्लेख बंद हो जाता है। उनके सन्दर्भ में हमें 1586 ई. के बाद जानकारी नहीं मिलती। 1586-87 ई. में खान-ए-आजम अजीज कोका को गढ़ा तथा रायसेन के अभियान में भेजे जाने का उल्लेख मिलता है। अपने शासन के 12वें वर्ष (1617 ई.) के अन्तर्गत जहाँगीर अपनी आत्मकथा में लिखता है कि तीर महीने की आठवीं तारीख को गढ़ा के राजा प्रेमनारायण को भी सेवा में उपस्थित होने का सौभाग्य मिला और (उसने) सात नर-मादा हाथी भेंट किए। 37 उसकी स्थिति दृढ़ देखकर ही जहाँगीर ने उसे मनसबदार बनाया और 23 अगस्त 1617 ई. को "उसका मनसब बढ़ाकर एक हजार जात 500 सवार कर दिया गया और उसके देश में उसे एक जागीर भी दी गई। इस कृपा के बाद प्रेमनारायण लगभग तीन माह मुगल दरबार में रहा और अंत में 27 नवम्बर 1617 ई. को उसे अपनी जागीर में जाने की छुट्टी मिली।" प्रेमशाह के शासन के समय की एक घटना के बारे में स्थानीय इतिहास में कहा गया है कि प्रेमशाह का पुत्र हृदयशाहजो अच्छा संगीतज्ञ थाप्रेमशाह के साथ मुगल दरबार का भ्रमण करता था। वहाँ उसका प्रेम सुन्दरी देवी नामक एक तवायफ से हो गया और वह उसे लेकर गढ़ा भाग आया।

 

गढ़ा में पुष्टिमार्ग 

राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक प्रसिद्ध संत विद्वान चतुर्भुजदास ने गढ़ा में राधावल्लभ सम्प्रदाय के विकास को प्रोत्साहन दिया और उनके प्रयास में इस क्षेत्र में इस सम्प्रदाय की पर्याप्त उन्नति हुई । स्वामी चतुर्भुज का जन्म गढ़ा में सन् 1528 ई. में हुआ था और निधन 1633 ई. में हुआ था। 38 'वृन्दावन में प्राप्त सामग्री के आधार पर ज्ञात होता है कि स्वामी चतुर्भुजदास सन् 1553 ई. से सन् 1603 ई तक धर्मप्रचार करते हुए गढ़ा भी जाते थे। गढ़ा के पंचमठा क्षेत्र में उन्होंने संस्कृत की शिक्षा का केन्द्र बनाया। 1603 ई. में (संवत् 1660) में उन्होंने पंचमठा के राधाकृष्ण का एक मंदिर भी बनवाया जो आज भी अच्छी दशा में विद्यमान है। इस सम्प्रदाय के दूसरे प्रमुख सन्त थे श्री दामोदरदास जी । ये श्री चतुर्भुजदास जी के समकालीन थे। दामोदरदास जी सेवकजी के नाम से विख्यात थे।

 

जुझारसिंह बुन्देला का आक्रमण 

आसफखाँ के आक्रमण के 70 वर्ष बाद एक और भीषण आक्रमण का सामना गढ़ा राज्य को करना पड़ा। यह आक्रमण शाही सेनाओं ने नहीं बल्कि ओरछा के राजा जुझारसिंह बुन्देला ने किया। जुझारसिंह प्रसिद्ध वीरसिंह बुन्देला का पुत्र था और 1627 ई. में पिता की मृत्यु के बाद वह ओरछा का शासक हुआ था।

 

हमें बादशाहनामा से इस आक्रमण की विस्तृत जानकारी मिलती है। 1634 ई. में आगरा से सम्राट की अनुपस्थिति तथा दक्कन की अस्थिरता का लाभ उठाकर जुझारसिंह ने चौरागढ़ के राजगौंड शासक प्रेमशाह पर आक्रमण कर दिया और शीघ्र चौरागढ़ का किला घेर लिया। स्वयं को संकट में घिरा देखकर प्रेमशाह ने आकान्ता से समझौता करने का प्रयास किया। पर जुझारसिंह ने ऐसा कोई समझौता करने से इंकार कर दिया। प्रतिरोध निरर्थक समझकर अन्त में प्रेमशाह ने समर्पण कर दिया। जब वह बुन्देलों का आश्वासन पाकर किले के बाहर आया तो बुन्देलों ने विश्वासघात करके उसे घेर लिया। प्रेमशाह ने कोई रास्ता न देखकर स्त्रियों की हत्या कर डाली और अपने दो-तीन सौ साथियों के साथ लड़ते हुए मारा गया और चौरागढ़ के किले पर जुझारसिंह का अधिकार हो गया। शाहजहाँ ने जुझारसिंह को सिर्फ यह कहा कि जो धन उसने चौरागढ़ से प्राप्त किया है उसे वह शाही खजाने में जमा कर दे। जुझारसिह ने उसने शाही आदेश को अस्वीकार कर दिया और शाही सेना को उसके खिलाफ कूच की आज्ञा दे दी गई । जुझारसिंह वहाँ से चौरागढ़ की ओर चला । जुझार के पलायन का समाचार पाकर मुगल सेनाएँ तेजी से चौरागढ़ की ओर चल पड़ीं और शीघ्र ही चौरागढ़ पहुँचकर उसे अधिकृत कर लिया। दोनों पक्षों में एक विकट युद्ध हुआ जिसमें जुझारसिंह का पुत्र दुर्गभान और पौत्र दुर्जनलाल जीवित पकड़ लिए गए। जुझारसिंह तथा जगराज निकट के जंगलों में भाग गए किन्तु गौंडों ने उन्हें मार डाला ।

 

प्रेमशाह चालीस वर्षों से अधिक समय तक गढ़ा राज्य का शासक रहा। मृत्यु के समय उसकी आयु 70 वर्ष से कम नहीं थी। इतने लम्बे समय तक इस क्षेत्र में उसके आधिपत्य का बना रहना सिद्ध करता है कि प्रेमशाह सामान्य तौर पर एक सफल शासक था और समय गढ़ा राज्य अधिक संकुचित नहीं हुआ । उसने बृद्धिमत्तापूर्वक मुगल दरबार से सम्बन्ध अच्छे रखे और स्वयं दरबार गया तथा अपने पुत्र हृदयशाह को उसने वहाँ भेजा। प्रेमशाह विद्वानों का आश्रयदाता था। उसने विष्णु दीक्षित नामक एक विद्वान को आश्रय दिया। कोई गंगाधर वाजपेयी तथा अन्य लोग इनके शिष्य थे। प्रेमशाह ने अपने लम्बे शासनकाल में पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की जिसके प्रमाणस्वरूप उसके नाम पर रची लोककथाएँ और लोकगीत आज भी सुदूर ग्रामों में सुने जा सकते हैं। ऐसी एक लोककथा का उल्लेख वैरियर एलविन ने किया है।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.