गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास: देवगढ़ राज्य का अवसान | Gond Rajya Ka Itihaas - Part 05
गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास: देवगढ़ राज्य का अवसान
देवगढ़ राज्य का अवसान
देवगढ़ के प्रसिद्धतम शासक बख्तबुलन्द के बाद उसका बड़ा बेटा चाँद सुल्तान देवगढ़ की गद्दी पर बैठा। वह 1720 ई. के लगभग गद्दी पर बैठा होगा। चाँद सुल्तान के समय देवगढ़ से राजधानी नागपुर स्थानान्तरित की गई थी। चाँद सुल्तान पर दक्खिन के मुगल सूबेदारों का हस्तक्षेप होता रहा 1729 में पेशवा बाजीराव प्रथम देवगढ़ राज्य की सीमा के पास पहुँचाया। दोनों के बीच संधि हुई और बाजीराव गढ़ा - मण्डला होकर बुन्देलखण्ड की ओर बढ़ गया। सतपुड़ा के अंचल में यह मराठों के हस्तक्षेप की शुरूआत थी। चाँद सुल्तान का निधन 1735 ई. के लगभग हो गई। नागपुर का रघुजी भोंसला चांद सुल्तान की विधवा रतनकुँवर और उसके दो बेटों बुरहानशाह तथा अकबरशाह को 1737 में नागपुर ले आया और तब देवगढ़ राज्य की राजधानी देवगढ़ से नागपुर आ गयी । रतनकुँवर ने भोंसला राजा को अपने राज्य का एक तिहाई हिस्सा और 10 लाख रुपये दिये। कुछ समय बाद अकबरशाह का निधन हो गया और फिर बुरहानशाह रघुजी भोंसला के अधीन हो गया। 1751 ई. में रघुजी ने देवगढ़ राज्य पर पूरी तरह अधिकार कर लिया और अन्तिम शासक बुरहानशाह को पेंशन दे दी। इस प्रकार देवगढ़ राज्य मराठों के द्वारा खत्म कर दिया गया। मराठों के हुए प्रभाव से गढ़ा राज्य भी नहीं बच सका ।
निजामशाह
दुर्जनशाह की हत्या के पश्चात् शिवराजशाह के भाई निजामशाह ने गद्दी प्राप्त की। उसका राज्याभिषेक भाद्र शुक्ल 13, बुधवार, संवत् 1806 (सितम्बर, 1749 ई.) में हुआ । निजामशाह ने शिवराजशाह के समय राजकार्य में भाग लिया था और उसे अपने पूर्वाधिकारियों की अपेक्षा शासन का अच्छा अनुभव था । निजामशाह 1742 ई. के समझौते के अनुसार पेशवा को नियमित रूप से कर देता रहा। 14 फरवरी, 1755 को रघुजी भोंसला की मृत्यु हुई और उसके बाद जानोजी भोंसला सेना साहेब सूभा हुआ। अब स्थिति में परिवर्तन आ गया और जानोजी ने समय-समय पर गढ़ा मण्डला की सीमा पर धावे करने प्रारम्भ कर दिए। रघुजी ने पहले गढ़ा मण्डला राज्य के तीन महाल - लाँजी, खैरागढ़ और पसरिया (पडरिया) अधिकृत किए थे, उनसे जानोजी संतुष्ट नहीं था। वह गढ़ा मण्डला का और भी क्षेत्र अपने अधीन करना चाहता था। 59 पेशवा और भोंसला दोनों के मध्य पिसना निजामशाह को भारी पड़ रहा था, अतः उसने आक्रान्ता भोंसला के विरुद्ध अपने पुराने संरक्षक पेशवा से संरक्षण माँगना ही उचित समझा। एक समझौता करके उसने पेशवा को तीनों महाल - पनागढ़, गौरझामर और देवरी सौंप दिए गए और पचास हजार रुपयों के वार्षिक कर से मुक्ति पा ली 80 लेकिन जानोजी भोंसला का उपद्रव शीघ्र समाप्त नहीं हुआ। निजामशाह का सौभाग्य था कि भोंसला और पेशवा दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे, इस कारण दोनों गढ़ा मण्डला पर पूरा अधिकार करने में हिचक रहे थे। यदि गढ़ा मण्डला को लेकर दोनों में मतभेद न होता तो सम्भवतः बहुत पहले ही गढ़ा मण्डला पर किसी एक का पूर्ण स्वामित्व हो गया होता।
निजामशाह के समय लक्ष्मीप्रसाद दीक्षित संस्कृत के कवि थे। उन्होंने "गजेन्द्रमोक्ष” नामक काव्य संस्कृत में लिखा। शिवराजशाह के समय के कवि बीर वाजपेयी निजामशाह के समय भी थे। अपनी दूसरी कृति प्रेमदीपिका की रचना उन्होंने निजामशाह के समय मण्डला में 1761 ई. (संवत् 1818) में किया। निजामशाह ने कुल 26 या 27 वर्ष राज्य किया और तद्नुसार उसकी मृत्यु 1776 ई. में हुई। निजामशाह के पुत्र का नाम सुमेरशाह था और एक दासी से उसका पुत्र महीपालसिंह था निजामशाह के भाई धनसिंह का बेटा नरहरिशाह था.
निजामशाह की मृत्यु होते ही गढ़ा मण्डला राज्य का राजदरबार षड्यंत्रों और आंतरिक द्रोह का केन्द्र हो गया। निजामशाह के उत्तराधिकारियों की निर्बलता, आंतरिक द्रोह, अन्य संकट और मराठों के आक्रमणों से गढ़ा - मण्डला राज्य को सुरक्षित न रख सकी। निजामशाह की मृत्यु के छः वर्ष के भीतर ही गढ़ा मण्डला राज्य का अवसान हो गया।
नरहरिशाह
निजामशाह की मृत्यु के उपरांत उसकी इच्छानुसार उसके पुत्र सुमेरशाह के दावे की उपेक्षा करके निजामशाह के एक दासीपुत्र महीपाल सिंह को गद्दी दी गई। महीपालसिंह उस समय शिशु ही था। शिवराजशाह की विधवा रानी विलासकुँवरि को यह रुचिकर नहीं लगा। उसने निजामशाह के भाई धनसिंह के 25 वर्षीय पुत्र नरहरिशाह का पक्ष समर्थन किया। महीपालसिंह को सत्ताच्युत करने के लिए उसके समर्थकों को नष्ट कर दिया और निजामशाह के भतीजे नरहरिशाह को गद्दी पर बिठाया वह 1776 ई. में ही सत्तारूढ़ हुआ। नरहरिशाह का एक प्रतिद्वंद्वी अभी विद्यमान था। वह था निजामशाह का पुत्र सुमेरशाह सुमेरशाह स्वयं सिंहासन का प्रत्याशी था। जब विलासकुँवरि के प्रयास से नरहरिशाह को गद्दी मिली तो उसे बड़ी निराशा हुई। उसने अपना पक्ष सबल करने के उद्देश्य से नागपुर के भोंसला राजा से नरहरिशाह के विरुद्ध सहायता माँगी। नागपुर में इस समय जानोजी भोंसला का उत्तराधिकारी रघुजी द्वितीय "सेना साहेब सूबा था और उसका चाचा मुधोजी "सेसा धुरंधर' की पदवी के साथ रघुजी द्वितीय का संरक्षक था। सुमेरशाह का आमंत्रण पाकर मुधोजी ने 1776 ई. में ही गढ़ा - मण्डला पर आक्रमण करने हेतु एक सेना भेजी, किन्तु विलासकुँवरि ने अपने मंत्री को मुधोजी से समझौता करने भेजा। मंत्री ने तीन लाख पचहत्तर हजार रुपये देने के वादे पर भोंसला की सेना को वापस लौटा दिया। लेकिन नरहरिशाह ने विलासकुँवरि के प्रयास से हुए इस समझौते को स्वीकार नहीं किया और यह राशि वह भोंसला को देने के लिए राजी न हुआ।1 भोंसला के लौट जाने पर सुमेरशाह की आशाओं पर तुषारापात हो गया। यहाँ से निराश होकर उसने सागर स्थित पेशवा के प्रतिनिधि विसाजी चांदोरकर से सम्पर्क किया। विसाजी ने नरहरिशाह को सुमेरशाह की इच्छा के बारे में लिखा। नरहरिशाह ने विसाजी से आग्रह किया कि वह उसके प्रतिद्वंद्वी सुमेरशाह को सहायता न दें। इस पर विसाजी ने सवा चार लाख रुपये की माँग की लेकिन नरहरिशाह ने इतना रुपया विसाजी को देने में काव्य संस्कृत में लिखा। शिवराजशाह के समय के कवि बीर वाजपेयी निजामशाह के समय भी थे। अपनी दूसरी कृति प्रेमदीपिका की रचना उन्होंने निजामशाह के समय मण्डला में 1761 ई. (संवत् 1818) में किया। निजामशाह ने कुल 26 या 27 वर्ष राज्य किया और तद्नुसार उसकी मृत्यु 1776 ई. में हुई। निजामशाह के पुत्र का नाम सुमेरशाह था और एक दासी से उसका पुत्र महीपालसिंह था निजामशाह के भाई धनसिंह का बेटा नरहरिशाह था.
निजामशाह की मृत्यु होते ही गढ़ा मण्डला राज्य का राजदरबार षड्यंत्रों और आंतरिक द्रोह का केन्द्र हो गया। निजामशाह के उत्तराधिकारियों की निर्बलता, आंतरिक द्रोह, अन्य संकट और मराठों के आक्रमणों से गढ़ा - मण्डला राज्य को सुरक्षित न रख सकी। निजामशाह की मृत्यु के छः वर्ष के भीतर ही गढ़ा मण्डला राज्य का अवसान हो गया।
नरहरिशाह
निजामशाह की मृत्यु के उपरांत उसकी इच्छानुसार उसके पुत्र सुमेरशाह के दावे की उपेक्षा करके निजामशाह के एक दासीपुत्र महीपाल सिंह को गद्दी दी गई। महीपालसिंह उस समय शिशु ही था। शिवराजशाह की विधवा रानी विलासकुँवरि को यह रुचिकर नहीं लगा। उसने निजामशाह के भाई धनसिंह के 25 वर्षीय पुत्र नरहरिशाह का पक्ष समर्थन किया। महीपालसिंह को सत्ताच्युत करने के लिए उसके समर्थकों को नष्ट कर दिया और निजामशाह के भतीजे नरहरिशाह को गद्दी पर बिठाया वह 1776 ई. में ही सत्तारूढ़ हुआ। नरहरिशाह का एक प्रतिद्वंद्वी अभी विद्यमान था। वह था निजामशाह का पुत्र सुमेरशाह सुमेरशाह स्वयं सिंहासन का प्रत्याशी था। जब विलासकुँवरि के प्रयास से नरहरिशाह को गद्दी मिली तो उसे बड़ी निराशा हुई। उसने अपना पक्ष सबल करने के उद्देश्य से नागपुर के भोंसला राजा से नरहरिशाह के विरुद्ध सहायता माँगी। नागपुर में इस समय जानोजी भोंसला का उत्तराधिकारी रघुजी द्वितीय "सेना साहेब सूबा था और उसका चाचा मुधोजी "सेसा धुरंधर' की पदवी के साथ रघुजी द्वितीय का संरक्षक था। सुमेरशाह का आमंत्रण पाकर मुधोजी ने 1776 ई. में ही गढ़ा - मण्डला पर आक्रमण करने हेतु एक सेना भेजी, किन्तु विलासकुँवरि ने अपने मंत्री को मुधोजी से समझौता करने भेजा। मंत्री ने तीन लाख पचहत्तर हजार रुपये देने के वादे पर भोंसला की सेना को वापस लौटा दिया। लेकिन नरहरिशाह ने विलासकुँवरि के प्रयास से हुए इस समझौते को स्वीकार नहीं किया और यह राशि वह भोंसला को देने के लिए राजी न हुआ।1 भोंसला के लौट जाने पर सुमेरशाह की आशाओं पर तुषारापात हो गया। यहाँ से निराश होकर उसने सागर स्थित पेशवा के प्रतिनिधि विसाजी चांदोरकर से सम्पर्क किया। विसाजी ने नरहरिशाह को सुमेरशाह की इच्छा के बारे में लिखा। नरहरिशाह ने विसाजी से आग्रह किया कि वह उसके प्रतिद्वंद्वी सुमेरशाह को सहायता न दें। इस पर विसाजी ने सवा चार लाख रुपये की माँग की लेकिन नरहरिशाह ने इतना रुपया विसाजी को देने में अपनी असमर्थता प्रकट की। नरहरिशाह सुमेरशाह के विरुद्ध सुरक्षा चाहता था एवं उसके बदले धन भी खर्च नहीं करना चाहता था। मुधोजी को उसने अभी तक वादे के अनुसार रुपया नहीं चुकाया था । विसाजी में प्रतीक्षा के लिए धैर्य नहीं था। उसने इस स्वर्ण अवसर को न छोड़कर गढ़ा मण्डला पर आक्रमण करके वहाँ सुमेरशाह को प्रतिष्ठित करने का निश्चय किया ।
सुमेरशाह
विसाजी ने अप्रैल, 1780 के कुछ पूर्व ही
गढ़ा - मण्डला पर अधिकार किया और नरहरिशाह को कैद करके सुमेरशाह को सिंहासन पर
बैठाया। गढ़ा मण्डला के सिंहासन पर बैठाने के बदले विसाजी ने सुमेरशाह से कुल बीस
लाख रुपयों की माँग की। इसमें से गढ़ा -प्रांत की वसूली पाँच लाख रुपये और भेंट के
पाँच लाख रुपये अर्थात् दस लाख रुपये तो उसने तुरन्त वसूल कर लिए। शेष दस लाख में
से दो लाख रुपये के ऊंट, हाथी, घोड़े और
जवाहिरात लेकर बाकी आठ लाख रुपये चुकाने का भार गंगागिर तथा अन्य किसी प्रमुख
राज्याधिकारी के ऊपर सौंपकर विसाजी सागर लौट गया। सागर जाते समय वह नरहरिशाह
पुरुषोत्तम वाजपेयी, गंगागिर गोसाई और
उसके चेले शिवगिरि को बंदी बनाकर सागर ले गया। ये बंधक तीस लाख रुपये ( 13 लाख लूट का
मुजरा, 3 लाख बंधक और 14 लाख किश्त बंदी)
के बदले रखे गए।
अप्रैल 1780 ई. में नरहरिशाह
के कैद हो जाने के बाद सागर के विसाजी चाँदोरकर की सहायता से सुमेरशाह सत्तारूढ़
हुआ । विलासकुँवरि की ओर से सुमेरशाह निश्चिन्त नहीं था। नरहरिशाह के सत्तारोहण के
समय से ही विलासकुँवरि और सुमेरशाह एक दूसरे के शत्रु थे। अभी भी सुमेरशाह को भय
था कि कहीं मराठों की सहायता से विलासकुँवरि पुनः नरहरिशाह को सिंहासन दिलाने का
यत्न न करे। अतः उसने विलासकुँवरि की हत्या करवा दी। 64 विलासकुँवरि की
हत्या से एक ऐसे व्यक्तित्व का अंत हुआ जो 1749 ई. से गढ़ा मण्डला की राजनीति में सक्रिय था। लगभग तीस वर्ष
के वैधव्य काल में उसने राजनीति में सक्रिय भाग लिया।
गढ़ा मण्डला के सम्बन्ध में भोंसला की चिन्ता
गढ़ा - मण्डला पर अप्रैल 1780 में विसाजी के आक्रमण के बाद इधर सुमेरशाह सत्तारूढ़ हुआ, उधर विसाजी की इस कार्यवाही से गढ़ा मण्डला पर स्वामित्व के अन्य प्रत्याशी मुधोजी भोंसला की चिंता प्रारम्भ हुई। मुधोजी को सारी स्थिति बड़ी उलझी हुई मालूम पड़ी, क्योंकि एक ओर तो उसे गढ़ा - मण्डला का कार्यभार दिया गया था और जब विसाजी ने गढ़ा पर आक्रमण किया तो पूना से समाचार आया कि विसाजी को सागर लौटने को लिखा जा रहा है और दूसरी ओर पूना के इस आदेश के बावजूद भी विसाजी ने ये सारी कार्यवाही गढ़ा मण्डला में कीं। उसने पेशवा से इस बारे में काफी पत्रव्यवहार किया लेकिन पत्रों और कूटनीतिक प्रयासों से मुधोजी को कुछ सफलता न मिली। अब मुधोजी ने दूसरी चाल चली।
अब भोंसला के प्रतिनिधि राजाराम पण्डित ने अंग्रेजों से संधि वार्ता शुरू कर दी। 6 अप्रैल, 1781 को अंग्रेजों एवं नागपुर के राजा के मध्य एक सधि हो गई जिसकी एक शर्त यह भी थी सेना बहादुर तुरन्त उड़ीसा छोड़कर गढ़ा मण्डला पर आक्रमण करने रवाना हो जायें और हिन्दुस्तान (उत्तर भारत) में स्थित अंग्रेज अधिकारी एक सेना लेकर गढ़ा-मण्डला लेने में सेना बहादुर की सहायता करे। अंग्रेज सरकार दस या पन्द्रह लाख रुपया प्राप्त करने में उसकी सहायता करेगी। ये रुपये गढ़ा - मण्डला की विजय से प्राप्त किये जाएँगे। जब उपर्युक्त कार्यवाहियाँ चल रही थीं तब सुमेरशाह का शासन था।
विसाजी की कृपा पर शासक बना रहना सुमेरशाह के मन में सदैव चुभता रहा। उसने विसाजी की क्षतिपूर्ति की सारी शर्तें तो मानीं, किन्तु वह मात्र कठपुतली शासक नहीं रहना चाहता था। उसने विभिन्न जमींदारों से मिलकर विसाजी के विरुद्ध खड़े होने की योजना बनाई विसाजी को सुमेरशाह की गतिविधियाँ मालूम थीं। उसने भी सेना एकत्र की और सुमेरशाह से लोहा लेने के लिए आगे बढ़ा। दोनों पक्षों में मानगढ़ के निकट युद्ध हुआ और उस युद्ध में चंद्रहंस मारा गया। विसाजी ने सुमेरशाह को गढ़ा बुलवाया और तिलवारा में (जबलपुर के निकट) उसे कैद कर लिया। विसाजी ने अब नरहरिशाह को इस शर्त पर पुनः राजा बनाया कि वह पिछली संधि की शेष राशि चुकाये मोराजी को मण्डला के किले में निगरानी के लिए रखकर विसाजी चॉंदोरकर गढ़ा चला गया।
सुमेरशाह को कैद करके जटाशंकर के किले में रख दिया गया। जटाशंकर का किला दमोह जिले में हटा से सोलह किलोमीटर पश्चिम में है और यह बहुत मजबूत होने के साथ ही प्राकृतिक रूप से सुदृढ़ स्थान पर बना हुआ है। सुमेरशाह ने लगभग ढाई वर्ष तक राज्य किया और 1782 के मध्य में उसके शासन का अंत हुआ। उसके एकमात्र पुत्र का नाम शंकरशाह था। पुन: नरहरिशाह सुमेरशाह को अपदस्थ करके 1782 के प्रारम्भ में नरहरिशाह को पुनः गद्दी दी गई। नरहरिशाह पुनः शासक तो बना किन्तु वास्तविक सत्ता मराठों के हाथ में रही। ऐसी अपमानजनक स्थिति को वह अधिक समय तक सहन न कर सका। शीघ्र ही उसने विसाजी चाँदोरकर तथा उसके प्रतिनिधि मोराजी के शिकंजे से स्वयं को मुक्त करने की योजना बनानी प्रारम्भ कर दी। योजना को अंतिम रूप देकर नरहरिशाह ने नवम्बर 1782 के प्रारम्भ में मराठों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और लगभग सात हजार सैनिकों के साथ चल पड़ा।
नरहरिशाह द्वारा युद्ध की घोषणा होते ही विसाजी सागर से एक सेना लेकर नरहरिशाह के विरुद्ध चला। एक आकस्मिक युद्ध में गंगागिर की सेना ने विसाजी की सेना को परास्त कर दिया। इस युद्ध में विसाजी मारा गया और विसाजी के चार सौ आदमी भी मारे गए। इस युद्ध में मराठों की बहुत क्षति हुई। विसाजी की मृत्यु से वे नेतृत्वहीन हो गए। विसाजी और उसके भाई की मृत्यु होते ही नरहरिशाह और उसके सहयोगियों का हौसला बढ़ गया और वे हर तरफ सक्रिय हो उठे। नरहरिशाह के पक्ष के अन्य सरदार भी मण्डला पहुँचे और उन्होंने मोराजी की रसद के रास्ते बन्द कर दिए । मोराजी ने निराश होकर प्रतिरोधियों से सागर जाने की अनुमति माँगी। नरहरिशाह के समर्थकों ने मोराजी को सागर जाने की अनुमति दे दी और वह सागर चला गया .
वास्तव में मोराजी को सागर जाने की अनुमति देना गढ़ा मण्डला के शासक की भंयकर भूल थी। मोराजी ने शीघ्र ही मराठा सैनिकों को एकत्र किया और नरहरिशाह की सेना से युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गया। दिसंबर, 1782 के लगभग तेजगढ़ (दमोह जिला में) नामक स्थान में दोनों पक्षों के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें गंगागिर गोसाईं और नरहरिशाह की पराजय हुई। नरहरिशाह और लक्ष्मण पासवान भागकर चौरागढ़ पहुँच गए और वहाँ आकर उन्होंने उस किले को मजबूत किया। गंगागिर भी पराजित होकर चौरागढ़ चला गया। इस युद्ध के बाद स्थिति मराठों के पक्ष में हो गई। चौरागढ़ छोड़कर लगभग सारे विद्रोही केन्द्र समाप्त हो गए। वस्तुतः जनवरी, 1783 के पश्चात् ही गढ़ा मण्डला राज्य पर सागर के मराठों का नियंत्रण स्थापित हो गया। केवल नरहरिशाह और उसके सहयोगी अभी चौरागढ़ में थे।
शीघ्र ही सागर की सेना गढ़ा के राजा नरहरिशाह और उसके साथियों के दमन के लिए तैयार हो गई। जून 1784 में चौरागढ़ पर अधिकार कर लिया गया। इस विजय के बाद नरहरिशाह, गंगागिर गोसाई और लक्ष्मण पासवान आदि को बंदी बनाकर मण्डला लाया गया। नरहरिशाह को बंदी बनाकर खुरई (सागर जिला में) के किले में रखा गया।
नरहरिशाह के परिवार के सम्बन्ध में कुछ जानकारी उपलब्ध है। उसकी पाँच पत्नियाँ थीं। इनके नाम थे- रानी जेचंदेलिन, चित्रकुँवरि देवी, रानी बघेलिन वेरेडीवार उत्तमकुँवरिंदेवी, रानी यवरिन भंतकुँवारिदेवी, रानी सुरकिन मिलापकुँवरिदेवी और रानी लक्ष्मणकुँवरि इनमें से सुरकिन मिलापकुँवरिदेवी और यवरिन भंतकुँवरिदेवी ज्येष्ठ रानियाँ थीं और उत्तमकुंवरिदेवी छोटी रानी थी। रानी लक्ष्मणकुँवरि तब बालिका ही थी और 1780 ई. के बाद ही उसका विवाह नरहरिशाह से हुआ था। तब उसकी उम्र 6 वर्ष की थी। नरहरिशाह संतानहीन था। 1779 ई. में उसे नर्मदा तट पर एक शिशु पड़ा मिला था जिसे उसने गोद ले लिया था और उसका नाम उसने नर्बदाबख्श रखा था।
बंदी होने के उपरांत नरहरिशाह पाँच वर्ष और जीवित रहा तथा 1789 ई. में खुरई के किले में ही उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय उसकी आयु 38 वर्ष की थी। जब राजा की मृत्यु हुई तब एक रानी सती हो गई किन्तु लक्ष्मणकुँवरि को सती न होने दिया गया क्योंकि उसकी आयु मात्र पन्द्रह वर्ष की थी। राजा नरहरिशाह की विधवा रानी लक्ष्मणकुँवरि को सागर स्थित पेशवा के प्रतिनिधि ने पेंशन दे दी और नर्बदाबख्श लक्ष्मणकुँवरि के पास रहा।
गढ़ा राज्य समाप्त होने के बाद प्रशासन
गढ़ा राज्य समाप्त होने के 16 साल बाद याने 1801 में जब अंग्रेज यात्री जे. टी. ब्लंट गढ़ा और जबलपुर से होकर निकला तो वह गढ़ा प्रदेश की समृद्धि की तारीफ करता है। गढ़ा राज्य के अवसान के सिर्फ 16 साल के बाद यह स्थिति बताती है कि अवसान के दिनों में भी गढ़ा राज्य में पर्याप्त समृद्धि थी और यह मानना गलत न होगा कि अपनी उन्नति के दिनों में याने 16वीं 17वीं सदी में गढ़ा राज्य और ज्यादा समृद्ध रहा होगा। अबुल फज़ल कहता है कि "यहाँ के किसान मोहर और हाथी के रूप में अपना लगान चुकाते थे। यहाँ इतना अनाज होता है कि वह गुजरात और दक्खन को प्रदाय करने के लिये काफी था। गढ़ा राज्य की समृद्धि के प्रमाण के रूप में अबुल फजल का यह विवरण भी ' उद्धरित किया जा सकता है, “जब आसफखाँ ने चौरागढ़ पर अधिकार किया तब उसे अलाउद्दीन के समय की अशर्फियों से भरे सौ देग प्राप्त हुए।"
गढ़ा राज्य के केन्द्रीय शासन के ढ़ाचे का कोई व्यवस्थित विवरण हमें उपलब्ध नहीं है पर गढ़ा राज्य के स्थानीय वृत्तान्तों और गढ़ा के शासकों के द्वारा जारी की गई सनदों से हमें केन्द्रीय शासन के कुछ पदाधिकारियों के बारे में जानकारी मिलती है। फौजदार का पद महत्वपूर्ण था और इसे सेनाध्यक्ष के समकक्ष माना जा सकता है। अबुलफज़ल के विवरण में रानी दुर्गावती के फौजदार अर्जुनदास बैस का उल्लेख है ।
एक महत्वपूर्ण अधिकारी दीवान होता था। चौरागढ़ के पतन के समय जौहर का जिम्मा भोजसिंह कायथ को सौंपा गया था, ऐसा अबुलफज़ल कहता है। हृदयशाह के समय भागवतराय दीवान, कस्तूर साहनी दीवान नरेन्द्रशाह के समय खिज्रखाँ दीवान, राव खाण्डेराय दीवान और रामकृष्णा वाजपेयी दीवान, दुर्जनशाह के समय दीवान लोकशाह बरगाह, निजामशाह के समय खाण्डेराय दीवान, विश्रामसिंह दीवान का उल्लेख मिलता है। नरेन्द्रशाह के समय प्रधान के पद का भी उल्लेख मिलता " है। राज ज्योतिषी के पद का भी उल्लेख मिलता है। पुरोहित का भी एक महत्वपूर्ण पद था। इस पर दलपतिशाह और रानी दुर्गावती के समय महेश ठक्कुर राजपुरोहित के पद पर था। बाद में हृदयशाह के समय रामकिशन बाजपेयी, कामदेव वाजपेयी, निजामशाह के समय कमलादत्त, फत्ते वाजपेयी और ब्रजनाथ वाजपेयी का उल्लेख मिलता है। राजमहल में भांडागारिक का पद भी होता था क्योंकि हमें हृदयशाह के समय विश्वंभर ओझा भांडागारिक का उल्लेख मिलता है निजामशाह के समय धर्मशास्त्री के पद का उल्लेख मिलता है। प्रेमनिधि ठक्कुर सचल मिश्र और शिवराम मिश्र धर्मशास्त्री थे। पीताम्बर ओझा व्यवस्थापक याने न्यायशास्त्री थे।
गढ़ा राज्य की सेना के मुख्य तीन हिस्से थे- हस्तिसेना, घुड़सवार सेना और पैदल सेना रानी दुर्गावती पर जब मुगल सेना का आक्रमण हुआ था तब उसके पास बीस हजार अच्छे घुड़सवार और एक हजार हाथी थे। जहाँ तक पैदल सेना का प्रश्न है, इनकी संख्या बहुत बड़ी थी। आइन-ए-अकबरी में गढ़ा राज्य पर मुगलों का आधिपत्य होने के बाद मालवा सूबे के गढ़ा सरकार के जमींदारों के पास कुल 5495 घुड़सवार और 2 लाख 54 हजार पैदल सैनिक होने का उल्लेख किया गया है, जबकि मालवा सूबे की अन्य सरकारों के घुड़सवार और पैदल सैनिकों की संख्या इससे बहुत कम बताई गई है। ऐसा लगता है कि ये सैनिक वैतनिक नहीं थे और युद्ध के समय गोंड समुदाय से एकत्र किये जा सकते थे। गढ़ा सरकार की कबीलाई व्यवस्था में ऐसा होना संभव है। यहाँ यह स्मरणीय है कि मुगलों के समय गढ़ा राज्य गढ़ा सरकार के अन्तर्गत था ।
गढ़ा राज्य की सबसे बड़ी कमजोरी थी उसके पास तोपखाना न होना। मुगलों के विरुद्ध रानी की पराजय का मुख्य कारण यह था कि आक्रान्ता आसफखाँ के पास तोपखाना था, जिसके सामने रानी की सेना न टिक सकी। नर्रई के युद्ध के विवरण ये यह बात स्पष्ट होती है। सेना का मुख्य अधिकारी फौजदार होता था।
गढ़ा राज्य के शासकों के समय परगना प्रशासन की सबसे छोटी इकाई था और इसके अन्तर्गत कुछ गाँव रहते थे। गढ़ा राज्य के शासकों द्वारा समय समय पर जारी सनदों में जिन गाँवों को दान में दिये जाने का उल्लेख है उसमें यह भी बताया गया है कि वह गाँव किस परगने में था। गढ़ा राज्य के प्रशासन के बारे में अबुलफज़ल का एक विवरण विचारणीय है। आसफखाँ द्वारा गढ़ा की विजय के में पहले के विवरण में अबुल फज्ल हमें बताता है कि उसने "वहाँ रह चुके अनुभवी लोगों से उसने यह सुना है रानी दुर्गावती के अधिकार में 23,000 खेतिहर गाँव थे और इनमें से 12000 गाँवों में उसके शिकदार थे। बाकी गाँव उसके अधीन थे और उनके प्रमुख रानी के नियंत्रण में थे।" रानी के समय खेतिहर गाँवों और शिकदारों की यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण है। शिकदार के बारे में यह कहा जा सकता है वह ग्राम का मुखिया जैसा कोई अधिकारी रहा होगा।
आईन-ए-अकबरी में सूबा मालवा और गढ़ा सरकार का जो विवरण दिया गया है उससे पता चलता है कि गढ़ा राज्य में खेती उन्नत थी और 16वीं सदी के अन्त में वहाँ इतना अनाज होता था कि वह गुजरात और दक्खन को प्रदाय करने के लिए काफी था। इसके अलावा सूबा मालवा की अन्य सरकारों की तुलना में गढ़ा सरकार का क्षेत्र बहुत बड़ा था फिर भी गढ़ा सरकार से आय अन्य सरकारों की तुलना में अपेक्षाकृत कम थी। गढ़ा सरकार से आय एक करोड़ दाम से कुछ ही ज्यादा थी, जबकि अन्य सरकारों की आय इससे ज्यादा थी
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