नेतृत्व का अर्थ एवं प्रकृति और नेतृत्व के सिद्धान्त |Nature of Leadership and Principles of Leadership
नेतृत्व का अर्थ एवं प्रकृति और नेतृत्व के सिद्धान्त
नेतृत्व का अर्थ एवं प्रकृति और नेतृत्व के सिद्धान्त प्रस्तावना
कोठारी कमीशन (1964-66) के अनुसार भारत के भविष्य का निर्माण इसकी कक्षाओं में हो रहा है। यह कथन पूर्णरूपेण सत्य है, वास्तव में किसी भी राष्ट्र के विकास में शिक्षा का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान होता है। राष्ट्रीय एवं सामाजिक विकास हेतु शिक्षा प्रदान करने का कार्य मुख्यतः शैक्षिक संस्थाओं द्वारा किया जाता है एवं शैक्षिक उद्देश्यों की प्रभावी प्राप्ति के लिये उक्त संस्थाओं / संगठनों में कुशल नेतृत्व की आवश्यकता महत्वपूर्ण हो जाती है। कुशल नेतृत्व ही शिक्षण संस्थाओं में अधिकाधिक मानव संसाधन विकास करते सीमित व्यय,साधन एवं समय में अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल होता है।
नेतृत्वः अर्थ एवं प्रकृति
नेतृत्व एक
मूल्य-परक अवधारणा है। परम्परागत अवधारणा के अनुसार नेतृत्व एक व्यक्तिगत योग्यता
है। नेता आलौकिक शक्तियों द्वारा बनते थे जिनमें मानव मस्तिष्क को पढ़ने की
योग्यता होती थी। वर्तमान समय में नेतृत्व को एक व्यक्तिगत योग्यता के रूप में
देखा जाता है। वर्तमान परिभाषाओं में नेतृत्व को एक समाज- प्रभावित प्रक्रिया माना
गया है। नेतृत्व, किसी दी हुई
परिस्थिति में निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु समूह क्रियाओं प्रभावित करने वाली
प्रक्रिया है। यह प्रबंधक की वह योग्यता है जिसके द्वारा वह अपने सहयोगियों को
पूर्ण उत्साह एवं आत्म-विश्वास के साथ कार्य करने को प्रेरित करता है। संक्षेप में, नेतृत्व समूह
उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु व्यक्तियों की क्रियाओं को प्रभावित करने वाली क्रिया
है। नेतृत्व वह प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत नेता अपने सहयोगियों को एक निश्चित ढंग से
कार्य करने का आदेश देता है। समूह के सदस्यों को सहयोगपूर्ण ढंग से कार्य करने
हेतु दिशा निर्देश देता है। यह एक अन्तर्व्यक्तिक सम्बन्ध है, जिसमें दूसरे
व्यक्ति नेता के आदेशों को मानते हैं क्योंकि वे उन्हें मानना चाहते हैं न कि उनके
ऊपर मानने का दबाव डाला जाता है। एक नेता का कार्य ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करना
होता है जिसमें समूह प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य कर सके। एक अच्छा नेता वही होता है
जो ऐसा समूह तैयार करे जो विभिन्न परिणाम दे सके। नेता का यह गुण सामाजिक समस्या
समाधानका जटिल रूप प्रदर्शित करता है। सामान्यतया नेतृत्व एवं प्रबंधन दोनों को
एक-दूसरे से जुड़ा माना जाता है। ये दोनों आपस में जुड़े तो होते हैं, परन्तु प्रबंधन
में जहाँ कुशलता, नियोजन, कागजी कार्य, प्रणाली, नियामक, नियंत्रण एवं
संगतता का गुण मौजूद होता है, वहीं नेतृत्व गत्यात्मकता जोखिम लेना, सृजनात्मकता, परिवर्तन, दूरदर्शिता आदि
गुणों से जुड़ा रहता है। प्रबंधक जहाँ प्रशासक, नियामक, नियंत्रक, अल्पकालीन विचारों वाला होता है वही नेता सृजनात्मक, प्रेरणादायी, नवाचारी एवं
दीर्घकालीन विचारों वाला होता है। प्रबंधक एवं नेता दोनों ही आपस में जुड़े रहते
हैं परन्तु उनके कार्यों में भिन्नता पायी जाती है।
नेतृत्व: अर्थ, परिभाषाएँ:
नेतृत्व समूह
अथवा संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सदस्यों को प्रभावित करने की योग्यता है।
नेतृत्व, मुख्य रूप से
व्यवहार को प्रभावित करने वाली सतत् प्रक्रिया है। एक नेता समूह में ही साँस लेता
है और समूह के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रेरणां प्रदान करता है। यह गुण कुछ
करने को दर्शाता है न कि पहले से मौजूद गुण को । नेतृत्व को समझने के लिए
निम्नलिखित परिभाषाओं का अध्ययन आवश्यक है-
“नेतृत्व एक ऐसी
क्रिया है जो व्यक्तियों को इस प्रकार प्रभावित करे कि वे अपनी इच्छा से सामूहिक
उद्देश्यों के लिए प्रयास करें।" (जॉर्ज आर0 टैरी, 1954)
"Leadership is an activity of
influencing people to strive willingly for group objectives.” George R. Terry,
1954
“नेतृत्व एक
परिस्थिति में प्रयुक्त किया गया तथा विशिष्ट लक्ष्य अथवा लक्ष्यों की प्राप्ति की
ओर निर्देशित पारस्परिक प्रभाव है।” ( राबर्ट टैननबाम, 1959)
"Leadership is an interpersonal
influence exercised in a situation and directed
towards the attainment of a
specialized goal or goals.” Robert Tennunbaun, 1959 समान लक्ष्यों
की प्राप्ति में व्यक्तियों को अनुगमन करने के लिए प्रभावित करना नेतृत्व है।” (कून्ट्ज़ एवं
डोनैल, 1959)
"Leadership is influencing people to follow in the achievement of a common goal.” Koontz and Donnell, 1959
इस प्रकार
परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट होता है कि नेतृत्व समूह लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए
सदस्यों को प्रभावित करने वाली प्रक्रिया है। नेतृत्व का विचार अपने आप में कला और
विज्ञान दोनों है। नेतृत्व कला इस रूप में है कि इसमें परिस्थितियों को समझ कर
उसके अनुरूप समूह लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सदस्यों के व्यवहारों को प्रभावित
करने का कौशल मौजूद होता है एवं विज्ञान इस रूप में है कि 'क्या करना है', यह जानने के
अतिरिक्त ‘कब’, 'कहाँ', 'कैसे', करना है इसका
ज्ञान भी नेता को होता है। कभी-कभी परिस्थितयों के मापन एवं क्रियाओं की पूर्णता
हेतु नेतृत्व नियमबद्ध, स्पष्ट एवं
तर्कसंगत हो जाता है और कभी-कभी भावनात्मक रूप भी धारण कर लेता है, क्योंकि मानव
प्रकृति भावनाओं से अछूती नहीं रह सकती। अतः नेतृत्व वह सामाजिक अवधारणा है
अन्तःक्रियात्मक विशेषताओं एवं गुणों पर बल देती है।
शैक्षिक नेतृत्व की प्रकृति
नेतृत्व को समझने
के लिए नेतृत्व की प्रकृति भी जाननी आवश्यक है। प्रकृति के आधार पर नेतृत्व
विज्ञान भी हैं, जो यह स्पष्ट
करता है कौन सी क्रियाएँ कब, कहाँ, कैसे करनी है तथा उन क्रियाओं के सम्पादन में नियमबद्धता, क्रमबद्धता, तर्क-संगतता, कारण- परिणाम
सम्बन्धों में एकरूपता आदि गुणों की उपस्थिति आवश्यक होती है। नेतृत्व कला इस रूप
में है कि इसमें परिस्थितियों के अनुरूप सदस्यों के व्यवहारों को प्रभावित करने, उनमें
आवश्यकतानुसार परिवर्तन लाने एवं सदस्यों को भावनात्मक सहयोग देने का कौशल उपस्थित
होता है। नेतृत्व की प्रकृति अधिक स्पष्ट रूप से समझने हेतु निम्नलिखित विशेषताओं
का अध्ययन आवश्यक है -
1. समूह-क्रिया विकसित करना (To develop team-work):
समूह क्रिया हेतु तीन प्रमुख तत्व हैं- नेता, सहयोगी एवं
वातावरण। ये कारक अपने आप में स्वतंत्र रहते हैं। इन्हें समूह उद्देश्यों की
प्राप्ति हेतु आपस में क्रिया योग्य बनाना नेता का उत्तरदायित्व होता है। वह ही
कर्मचारियों की योग्यताओं,
रूचियों को जानकर
उनके अनुरूप उन्हें कार्य प्रदान करता है । कर्मचारियों की जिज्ञासाओं को उत्साहित
करके एवं धोखेबाजी एवं कपटी व्यवहारों पर नियंत्रण लगाकर नेता एक स्वस्थ वातावरण
का निर्माण करता । वह ही कर्मचारियों में समूह भावना को उजागर करके उन्हें एक समूह
(group) के रूप में कार्य
करने के लिए प्रेरित करता है।
2. कर्मचारियों का प्रतिनिधि (Representative of subordinates ):
नेतृत्व में अपने अधिनस्थ कर्मचारियों के प्रतिनिधि होने का गुण मौजूद रहता है। रेनिस लिकर्ट ने नेता को 'संयोजक कड़ी' कहा है। ये सम्पूर्ण संगठन को समन्वित करने का कार्य करता है। एक प्रतिनिधि के रूप में अपने अधिनस्थों की माँगों को उच्च प्रबंधन स्तर तक पहुँचाता है।
3. उपयुक्त परामर्श देना (To provide appropriate counselling):
अक्सर पदोन्नति, आय वृद्धि, प्रदर्शन स्तर एवं उपयुक्त स्थान पर स्थानान्तरण आदि बातों
को लेकर कर्मचारी दबाव में रहते हैं और कई प्रकार की भावनात्मक समस्याओं से गुजरते
हैं। ये बाधाएँ कर्मचारियों को उनके मार्ग से भटका देती है। ऐसी परिस्थितियों में
नेता उनकी परेशानियों की सुनता है एवं उनके कार्य में आने वाली इन बाधाओं को दूर
करने हेतु उन्हें परामर्श देता है और उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है।
4. शक्तियों का सही उपयोग करना (To use power properly):
नेता से अपेक्षित उद्देश्यों की प्रभावपूर्ण प्राप्ति के
लिए नेता के पास ऐसी शक्तियाँ एवं अधिकार होते हैं जिनके माध्यम से वह कर्मचारियों
से सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने हेतु उनकी क्रियाओं को प्रेरित कर सकता है। यदि
आधिनस्थों द्वारा नेता की आज्ञा का पालन न किया जाए तो नेतृत्व प्रभावहीन हो जाता
है। इसलिए नेता द्वारा ऐसी शक्तियों का उपयोग किया जाता है जिनके अधीन आधिनस्थों
द्वारा नेता की आज्ञा और आदेशों का इच्छा से पालन किया जाता है।
5. समय का सदुपयोग करना (To use time well):
समय मूल्यवान है
लेकिन प्रबन्धन में अक्सर उनका सही उपयोग नहीं हो पाता है। एक नेता समय-प्रबन्धन
चार्ट, तकनीक सूची आदि
के प्रयोग द्वारा अपने समय का उत्पादकतापूर्ण प्रयोग करता है। सूचना, सत्य एवं
सांख्यिकी आगतों के प्रभावपूर्ण संयोजन द्वारा समय का निर्णय ले पाता है।
6. प्रभावपूर्णता लाने का प्रयत्न करना (To strive for effectiveness):
प्रभावपूर्ण ढंग से लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु नेता कई प्रकार के निर्णय लेता है। इस सन्दर्भ में लक्ष्य तक समय से पहुँचने के लिए अनेक सहायक क्रियाओं को अपनाता है। नेतृत्व के अन्तर्गत आधिनस्थों द्वारा पहल करने को प्रोत्साहन देना, अच्छे प्रदर्शन के लिए पुरस्कार की व्यवस्था, आधिनस्थों से घुलना-मिलना और आवश्यकतानुसार अनुशासन एवं नियंत्रण लगाना आदि क्रियाओं को अपनाया जाता है।
7. कर्मचारियों को प्रेरित करना (To inspire employees ):
एक नेता अपने कर्मचारियों में उच्च स्तर के प्रदर्शन की
प्रवृत्ति विकसित कर सकता है। वह उनके दृष्टिकोणों को उच्चता प्रदान करता है।
कार्य करने के सही तरीके की पहचान कराकर नेता, कर्मचारियों को संगठन के लिए अपना श्रेष्ठ देने में मदद
करता है।
8. सहयोग विकसित करना (To develop cooperation):
एक गतिशील नेता समूह में साँस लेता है। वह सदस्यों के व्यवहारों को इस प्रकार प्रभावित करता है कि वे संगठन के उद्देश्यों को पूर्ण करने हेतु तत्पर हो जाते हैं। वह उन्हें एहसास दिलाता है कि योजनाओं को कार्य रूप में परिणित करने पर वे पुरस्कार प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह वह कर्मचारियों में समूह भावना का विकास करता है, ताकि वे एक समूह के रूप कार्य कर सकें। समूह-क्रियाओं हेतु नेतृत्व आवश्यक अवधारणा है। एक सुदृढ़ नेतृत्व के बिना सहयोगपूर्ण क्रियाएँ असम्भव है। नेतृत्व ही समूह को एक चरित्र प्रदान करता है और विभिन्न स्तरों पर समन्वित प्रयासों का मार्ग दर्शाता है।
9. विश्वास जगाना (To Create confidence):
संगठन में
कर्मचारी अक्सर भावनात्मक समस्याएँ झेलते हैं। कुछ कार्य को करने की अयोग्यता, पदोन्नति की
चिन्ता, अपनी कुशलताओं का
और विकास करना एवं साथियों से घुलना-मिलना आदि कारणों की वजह से वे कुण्ठित हो
जाते हैं। ऐसी स्थिति में नेता ही उनको परामर्श देता है, उनके मार्ग की
बाधाओं को दूर करने में सहयोग करता है एवं कर्मचारियों में विश्वास जगाता है। वह
क्षमताओं को वास्तविकताओं में रूपान्तरित करता है।
10. कार्य हेतु उपयुक्त वातावरण प्रदान करना (To provide good working climate):
नेतृत्व द्वारा ही कार्य
हेतु एक स्वस्थ वातावरण प्रदान किया जाता है, जहाँ व्यक्ति उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु खुशी से कार्य
करते हैं। नेता ही आवश्यक परिवर्तन लाने की पहल करता है और कर्मचारियों के
व्यवहारों में एकरूपता लाता है। समय एवं धन के न्यायपूर्ण प्रयोग द्वारा वह
कार्यों की प्राथमिकता तय करता है। एक नेता ही कर्मचारियों में कल्पना, दूरदर्शिता, उत्साह एवं पहल
करने की योग्यता विकसित करता है।
नेतृत्व के सिद्धान्त (Theories of Leadership)
विस्तृत रूप से
नेतृत्व के सिद्धान्त तीन रूपों में वर्गीकृत किए जाते हैं- गुण सिद्धान्त (Trait Theory), व्यावहारात्मक
सिद्धान्त (Behavioural
Theory) एवं परिस्थितियात्मक सिद्धान्त (Situational Theory)। गुण सिद्धान्त
के अनुसार नेतृत्व व्यक्तित्व गुणों का संयोजन है। व्यावहारात्मक सिद्धान्त के
अनुसार नेता के व्यक्तिगत व्यवहार प्रभावी नेतृत्व से सम्बन्धित होते हैं।
परिस्थितियात्मक सिद्धान्त के अनुसार कुछ निश्चित परिस्थितियात्मक कारक प्रभावी
नेतृत्व शैली निर्मित करते हैं। इन सिद्धान्तों को अधिक स्पष्ट ढंग से समझने के
लिए इनका विस्तृत विवरण निम्नलिखित है-
1. गुण सिद्धान्त (Trait Theory):
यह नेतृत्व का
क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित विश्लेषण करने वाला सिद्धान्त है। जो कि 1960 तक ही मान्य रहा
इस सिद्धांत की मुख्य अवधारणा यह थी कि प्रत्येक व्यक्ति में नेतृत्व के गुण
उपस्थित नहीं होते है। वे व्यक्ति जिनमें नेतृत्व के निश्चित गुण/विशेषताएं होती
है वे ही नेतृत्व के क्षेत्र में सफल हो सकते है।
इस सिद्धान्त के
अनुसार नेता के व्यक्तिगत गुण ही सफल नेतृत्व की चाभी हैं। यह सिद्धान्त नेता के
जन्मजात होने की मान्यता को नकारता है । गुण सिद्धान्त के अनुसार, नेताओं में कुछ
संख्या में गुणों के आधार पर उनके अनुयायियों द्वारा भिन्नता की जाती है और ये गुण
समय के साथ अपरिवर्तित रहते हैं। गिसेली ने सामान्य रूप स्वीकृत गुणों की एक सूची
निर्मित की है जो नेतृत्व को प्रभावशाली बनाते हैं। ये सूची निम्नलिखित है-
व्यक्तित्वगुण (Personality Traits)
कीथ डेविस ने महान सफल नेताओं के निम्नलिखित चार गुण बताए हैं:
बुद्धिमत्ता (Intelligence):
नेता में अपने
अनुयायियों से अधिक बुद्धिमत्ता होती है।
सामाजिक परिपक्वता ( Social maturity):
नेता भावनात्मक रूप से परिपक्व होते हैं और एक उच्च कार्य
स्तर रखते हैं। वे जीत से न बहुत खुश होते हैं और हानि से बहुत दुःखी । उनमें
कुण्ठा सहन करने की शक्ति होती है।
अन्तःप्रेरणां एवं उपलब्धि चालक ( Inner motivation and achievement drive) :
नेता में उपलब्धियों को प्राप्त करने की चाहत
होती है। एक उपलब्धि प्राप्त करने के बाद दूसरी को प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते
हैं।
मानवीय सम्बन्ध अभिवृत्ति (Human relations attitude):
नेता लोगों के प्रति आदर भाव रखते हैं और जानते हैं कि कौन
से कार्य उन्हें किस प्रकार करने हैं ताकि सम्बन्धों में तनाव उत्पन्न न हो।
आलोचनाः :
गुण सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है-
(क) व्यक्तित्व गुणों की सूची बहुत लम्बी है। यद्यपि नेतृत्व हेतु व्यक्तित्व के सौ से अधिक गुणों की पहचान की गई है, परन्तु इनमें संगतता का अभाव है।
(ख) प्रभावी नेतृत्व हेतु महत्वपूर्ण गुणों के सम्बन्ध में शोधकर्ताओं में मतभेद पाया जाता है। एक सफल नेता हेतु आवश्यक गुणों की कोई सार्वभौमिक सूची नहीं है।
(ग) सफल नेतृत्व हेतु गुणों की पहचान एवं मापन में बहुत कठिनाई आती है। इनकी पहचान एवं मापन हेतु उपलब्ध उपकरणों को भी सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है। उदाहरणतः कुछ मनोवैज्ञानिक गुणों जैसे बृद्धिमत्ता या पहल करने की शक्ति आदि केवल व्यवहारों में परिलक्षित होते हैं।
(घ) प्रभावी नेतृत्व केवल गुणों द्वारा संभव नहीं है। इसमें नेता के व्यवहारों एवं परिस्थितियों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है।
(ङ) नेतृत्व कौशल
में संगठन में किए जाने वाले कार्यों की भिन्नता के अनुरूप विभिन्नता पायी जाती
है। एक नेता संगठन में तीन भिन्न प्रकार के कौशलों- तकनीकी, मानवीय एवं
प्रशासकीय का प्रदर्शन करता है और ये गुण सभी प्रबन्धकीय स्तर पर समान रूप से
वितरित हो अथवा पाए जाएं. यह मानना हास्यास्पद है। व्यक्तित्व गुणों एवं
प्रभावशाली नेतृत्व में सहसम्बन्ध विषयक शोधकार्य में इनके मध्य कोई संबंध नहीं
पाया गया। (स्टोगडिल,
1948, मान, 1959, बास, 1960) अतः यह विचार
किया जाने लगा कि संभवतः बल्कि व्यवहार नेतृत्व को अधिक प्रभावित करता है। गुण नही
2. व्यावहारात्मक सिद्धान्त (Behavioural Theory):
गुण सिद्धान्त के विपरीत, व्यावहारात्मक सिद्धान्त, नेता क्या करता
है, इस आधार पर
नेतृत्व का वर्णन करता है,
जबकि गुण
सिद्धान्त, नेता क्या है, इस आधार पर
नेतृत्व की व्याख्या करता है। इस उपागम के अनुसार, नेतृत्व प्रभावी भूमिका निर्वाह हेतु किए जाने
वाले व्यवहारों का परिणाम है। नेतृत्व, नेता के गुणों की बजाए उसकी क्रियाओं से झलकता है। अतः यह
अत्यंत गत्यात्मक है। इस सिद्धांत के अंतर्गत प्रभावशाली नेतृत्व की व्यवहार शैलियाँ
तथा व्यवहार प्रारूपों का विश्लेषण कर अध्ययन किया गया कि व्यवहार प्रारूप नेतृत्व
को किस प्रकार प्रभावित एवं निर्मित करते है।
इस उपागम को
निम्नलिखित अध्ययनों द्वारा स्पष्टतः समझा जा सकता है:
(A) मिशिगन अध्ययन :
विभिन्न औद्योगिक परिस्थितियों का अध्ययन करने के पश्चात् मिशिगन शोधकर्ताओं
निम्नलिखित दो प्रकार की नेतृत्व शैलियों की पहचान की है जो कर्मचारियों के
प्रदर्शन एवं उत्पादकता को प्रभावित करती है-
(1) कर्मचारी केन्द्रित नेता
(2) उत्पादकता केन्द्रित नेता
कर्मचारी-
केन्द्रित नेता
1. आधिनस्थ मानव है।
2. कर्मचारियों के स्वास्थ्य के प्रति चिन्तित ।
3. लक्ष्य निर्धारण
में कर्मचारियों को सम्मिलित व प्रोत्साहित करना।
उत्पादकता
केन्द्रित नेता
1. कार्य के तकनीकी पक्ष पर ज़ोर ।
2. कार्य स्तर पर ध्यान एवं बंद पर्यवेक्षण ।
3. उत्पादन
प्रक्रिया में कर्मचारी एक उत्पादन यन्त्र ।
मिशिगन अध्ययन के
आधार पर शोधकर्ता कर्मचारियों के व्यवहार एवं उत्पादकता को प्रभावित करने वाले
व्यवहारों की पहचान करने में सक्षम हुए और परामर्श दिया कि कार्य की पहचान एवं
दिशा निर्धारण से पहले व्यक्तियों की पहचान एवं व्यवहारों की पहचान आवश्यक है। इस
परिणाम ने 1950 के दशक में इस
विश्वास को बढ़ावा दिया कि कर्मचारी-परक नेतृत्व शैली ही उत्तम शैली है।
(B) ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी अध्ययन :
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के अध्ययन के अन्तर्गत वृहद परिस्थितियों में वास्तविक नेतृत्व व्यवहारों का विश्लेषण करके दो मुख्य नेतृत्व व्यवहारों की पहचान की गई। वे हैं - आत्मउद्योगी ढाँचा Initiating Structure एवं महत्व देना Consideration महत्व देना, नेता का कर्मचारियों के साथ द्विमार्गी सम्प्रेषण, आपसी आदर एवं सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता आदि को दर्शाता है। आत्मउद्योगी ढाँचा नेता की सीमा एवं संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कर्मचारियों की क्रियाओं के परिभाषीकरण को दर्शाता है। अपने शोध के दौरान ओहियो स्टेट के शोधकर्ताओं ने नेतृत्व की पहचान के लिए दो प्रकार की प्रश्नावलियाँ Leader Behaviour Description Questionnaire (LBDQ एवं Leader Opinion Questionnaire (LOQ) का निर्माण किया। इनके माध्यम शोधकर्ताओं ने पाया कि आत्मउद्योगी ढाँचा (IS) एवं महत्व देना (C) दो स्वतंत्र एवं भिन्न आयाम थे। एक आयाम पर उच्च अंक प्राप्त करने का तात्पर्य यह नहीं है कि दूसरे आयाम पर निम्न अंक प्राप्त हों। इन प्रश्नावलियों के माध्यम से शोधकर्ताओं ने आत्मउद्योगी ढाँचा एवं महत्व देना के संयोजन के चार मापक विकसित किए-
- High Consideration and low structure
- Low Consideration and Low structure
- High Consideration and High structure.
- Low Consideration and High structure
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दो स्वतंत्र व्यवहार शैलियों यथा- व्यवस्था प्रधान तथा व्यक्ति प्रधान की पहचान की जो नेतृत्व के क्रमशः व्यवस्था तथा व्यक्ति पर केंद्रित परिस्थितिजन्य व्यवहार को दर्शाती है।
ओहियो स्टेट
यूनिवर्सिटी के अध्ययन का बहुत अधिक महत्व था। महत्व देना एवं आत्म-उद्योगी ढाँचा
दोनों अवधारणाओं की प्रबन्धकीय प्रशिक्षण में इतनी अधिक माँग हो गयी थी कि विभिन्न
प्रशिक्षण कार्यक्रमों में इनका प्रयोग किया जाने लगा। इनके माध्यम से नेतृत्व की
पहचान करना आसान हो गया था,
परन्तु समय के
साथ इनकी आलोचना भी की गयी,
जो निम्नलिखित
है-
(क) फिडलर के
अनुसार ( IS ) एवं (C) दो स्वतंत्र आयाम
नहीं है। एक व्यक्ति के लिए कर्मचारी परक एवं उत्पादन-परक दोनों होना संभव नहीं
है। ये दोनों पक्ष दो भिन्न व्यक्तियों में हो सकते हैं।
(ख) उच्च ( IS ) एवं (C) का संयोजन प्रदर्शन बेहतर बनाता है, यह विश्वास भी उचित नहीं है।
कोरमैन के अनुसार नेता के व्यवहार एवं उत्पादक जैसे मापकों में कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है।
(ग) ओहियो स्टेट
यूनिवर्सिटी का नेता व्यवहार उपागम वास्तविकता से परे है। किसी भी निश्चित नेतृत्व
व्यवहार पर वातावरण द्वारा पड़ने वाले प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया गया है।
प्रबन्धकीय जाल :
इस अवधारणा को अमेरिका के औद्योगिक मनोवैज्ञानिक आर0आर0 ब्लेक एवं जेन एस) मोऊन द्वारा विकसित किया गया है।
प्रबन्धकीय जाल की अवधारणा औद्योगिक परिस्थितियों में व्यवहारिक विज्ञानों में किए
जाने वाले प्रायोगिक शोधों पर आधारित है। इस अवधारणा का प्रमुख पक्ष संगठन के
अन्दर संगठन के लाभों हेतु व्यक्तियों के व्यवहारों एवं अभिवृत्तियों में प्रभावी
सुधार से है । यह प्रबन्धन की कला को विज्ञान में परिवर्तित करता है। ब्लेक एवं
मोऊटन के अनुसार उत्पादन एवं व्यक्तियों सम्बन्धी विचार एक सिक्के के दो पहलू हैं
और संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दोनों का समन्वित उपयोग किया जाना
चाहिए।
प्रबन्धकीय जाल
की अवधारणा इस तर्क पर आधारित है नेता की नेतृत्व शैली उत्पादन सम्बन्धी एवं
व्यक्ति सम्बन्धी दोनों आयामों का संयोजन है। कोई भी प्रबन्धक पूरी तरह कार्य परक
या सम्बन्ध परक नहीं हो सकता, उसमें दोनों के गुण मौजूद रहते हैं। इस दोनों आयामों को
स्पष्ट करते हुए ब्लेक एवं मोऊटन के विचार निम्नलिखित हैं-
1. उत्पादन सम्बन्धी:
यह केवल वस्तुओं तक सीमित नहीं होता। उत्पादन का मापन सृजनात्मक विचारों
की संख्या से होता है जो शोधों को उपयोगी उत्पाद में परिवर्तित करते हैं, कर्मचारी सेवाओं
की गुणात्मकता, भार, कुशलता आदि इनका
मापन करते हैं। कार्य-
2. व्यक्ति सम्बन्धी:
यह विचार केवल अन्तर्व्यक्तिक सम्बन्ध एवं मित्रता तक सीमित नहीं होते, बल्कि इसके
अन्तर्गत कार्य को पूरा करने का व्यक्तिगत वचनबद्धता, आत्म-सम्मान, कार्य में
सुरक्षा की इच्छा, सहयोगियों के साथ
मित्रता जो एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करती है आदि बातें भी आती हैं।
प्रबन्धकीय जाल
को निम्न रेखाचित्र द्वारा समझा जा सकता है-
कन्ट्री क्लब:
संतुलित, मित्रतापूर्ण
संगठन वातावरण हेतु सम्बन्ध को सन्तुष्ट करने के दृष्टिकोण से व्यक्तियों की
आवश्यकताओं पर विचारपूर्वक ध्यान देना.
मध्य मार्गः कार्य करने की आवश्यकता को सन्तुष्टि स्तर तक व्यक्तियों की नैतिकता को बनाए रखते हुए संतुलित करना ताकि संगठन का प्रदर्शन उत्तम हो सके। कार्यः संगठन के परिणामों में कुशलता प्राप्त करने हेतु कार्य की दशाओं को इस प्रकार व्यवस्थित करना ताकि मानवीय तत्वों का हस्तक्षेप न्यूनतम मात्रा में हो।
समूहः समर्पित
एवं आत्मनिर्भर व्यक्तियों द्वारा कार्य की पूर्णता ताकि संगठन में विश्वास एवं
आदर युक्त सम्बन्ध स्थापित हो।
सैद्धान्तिक रूप
से जाल में 81 संभावित नेतृत्व
शैलियाँ प्रकट होती हैं परन्तु सामान्य 5 शैलियों पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है। नेता (9,1) का मुख्य सम्बन्ध
उत्पादन क्रियाओं से और व्यक्तियों से निम्न सम्बन्ध होता है। इस प्रकार का नेता
उत्पादन सूची चाहता है और किसी भी कीमत पर कार्य की पूर्णता चाहता है। (9,1) शैली उत्पादन के
प्रति निम्न महत्व एवं व्यक्तियों के प्रति अधिक महत्व को दर्शाती है। (1, 1) शैली वाला नेता
दोनों (उत्पादन एवं व्यक्ति) के प्रति थोड़ी-थोड़ी भावना रखता है। (5,5) शैली दोनों
पक्षों के प्रति उदारता रखती है। (9,9) शैली नेतृत्व की आदर्श शैली को प्रदर्शित करती है। यह शैली
दोनों पक्षों के प्रति घनिष्ठ सम्बन्ध को दर्शाती है, इसमें दोनों
पक्षों को महत्व दिया जाता है। प्रबन्धकीय जाल के अनुसार (9,9) शैली अनुकूलतम
नेतृत्व उपागम है और बहुत से संगठन इस शैली के प्रबन्धक तैयार करने हेतु कार्यक्रम
चलाते हैं।
आलोचना: यद्यपि
जाल उपागम आकर्षक, निर्देशात्मक एवं
प्रबन्धकीय गुणों एवं शैलियों को दर्शाने वाला है। इसके माध्यम से प्रबन्धकों को
स्वयं की नेतृत्व शैली की पहचान करने में सहायता प्राप्त होती है, परन्तु इस उपागम
में मापन आयामों को इतना जटिल बना दिया गया है कि साधारण व्यक्ति द्वारा इनके
माध्यम से नेतृत्व शैलियों एवं नेता के व्यवहारों की पहचान करना कठिन हो जाता है।
शोधकर्ताओं में इस उपागम के सम्बन्ध में मतभेद पाया जाता है, क्योंकि इससे
सम्बन्धित अभुभाविक ज्ञान का अभाव है।
(3) परिस्थितियात्मक अथवा स्थितिपरक सिद्धान्तः
नेतृत्व एक जटिल, सामाजिक एवं अन्तर्व्यक्तिक प्रक्रिया है। इसको पूर्ण रूप
से समझने के लिए हमें उन परिस्थितियों को जानना आवश्यक है जिसमें नेता कार्य करता
है। एक प्रभावी नेता को आधिनस्थों एवं स्थितियों की भिन्नता को अपनाने में लचीला
होना चाहिए। अर्थात् परिस्थिति अनुसार नेता की नेतृत्व शैली भी आवश्यकतानुसार
सुसमायोजित होते रहना चाहिये। इस सिद्धांत के अनुसार नेतृत्व परिस्थितिजन्य चरों
पर निर्भर होता है।
प्रभावी नेतृत्व
व्यक्तित्व, कार्य, शक्तियों
अभिवृत्तियों, प्रत्यक्षीकरण
आदि पर निर्भर करता है। इस अवधारणा पर आधारित कई सिद्धान्त विकसित किए गए हैं, जो निम्नलिखित
हैं-
फीडर का प्रासंगिकता सिद्धान्तः
नेतृत्व की प्रभावशीलता नेता व्यवहार तथा नेतृत्व का
प्रयोग की जाने वाली परिस्थितियों के बीच अन्तः क्रिया का परिणाम है। प्रासंगिकता
सिद्धान्त में नेताओं की सफलता स्थितिपरक चरों पर निर्भर करती है।
फ्रेड फीडलर (1967) के अनुसार संगठन
के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु एवं उत्पादन हेतु परिस्थितिजन्य विशेषताएँ एवं
नेता के गुण दोनों का संयोजन आवश्यक है। नेता का कार्य नेता के व्यक्तित्व एवं
परिस्थिति के उपयुक्त संयोजन पर निर्भर करता है। साथ ही परिस्थितियों में निहित
कुछ विशेष कारक नेतृत्व की प्रभावशीलता को प्रभावित करते हैं। फीडलर ने इन विशेष
कारकों को परिस्थिति की अनुकूलता का नाम दिया है। नेतृत्व की प्रभावशीलता
परिस्थिति की अनुकूलता पर निम्न विशेषताओं के सन्दर्भ में निर्भर करती है-
नेता एवं अधिनस्थों के मध्य सम्बन्ध ।
कार्य संरचना की सीमा ।
नेता की अधिकारिक शक्ति ।
परिस्थितियों का
पक्ष में होना।
फीडर द्वारा
वर्णित इन चरों का वर्गीकरण निम्नलिखित रेखाचित्र द्वारा स्पष्टतः समझा जा सकता
है- फीडलर के परिस्थितिजन्य चरों का वर्गीकरण
नेता एवं सदस्यों
के मध्य अच्छे सम्बन्ध, उच्च स्तर पर
संगठित क्रियाएँ एवं नेता का अपने आधिनस्थों पर पूर्ण प्रभाव रखने की शक्ति
पूर्णतः पक्ष वाली परिस्थिति को दर्शाती है । सारणी का पहला प्रकोष्ठ पूर्णतः पक्ष
को दर्शाता है। जहाँ नेता की शक्तियाँ कमज़ोर होती हैं, सदस्यों के साथ
सम्बन्ध खराब होते हैं और कार्य असंगठित एवं अनिश्चित होते हैं वहाँ पूर्णतः
विपक्ष की परिस्थिति को दर्शाती है। यह सारणी के अन्तिम प्रकोष्ठ वाली स्थिति है।
इन दोनों ही परिस्थितियों के बीच की परिस्थितियाँ अत्यन्त कठिन होती हैं। फीडर के
अनुसार सम्बन्ध-परक शैली सामान्य स्तर पर पक्ष एवं सामान्य स्तर पर विपक्ष वाली
परिस्थितियों में उपयुक्त होती है। उच्च पक्ष एवं उच्च विपक्ष वाली परिस्थितियों
में कार्य-परक शैली उपयोगी होती है। रेखाचित्र के आधार पर समझा जा सकता है कि कोई
नेता एक परिस्थिति में प्रभावशाली हो सकता है। तथा दूसरी में प्रभावहीन ।
सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ-
• नेतृत्व शैली:
फीडलर के अनुसार कार्य प्रधान एवं सम्बन्ध प्रधान व्यवहार ही दो मूलभूत शैलियाँ
हैं। ये दोनों शैलियाँ आधिनस्थों के साथ अच्छे सम्बन्ध एवं कार्य के सफल सम्पादन
की माँग पर निर्भर करती हैं।
• समूह के कार्य निष्पादन में वृद्धि:
इस सिद्धान्त में नेतृत्व की उन शैलियों पर बल दिया गया है
जो कार्य निष्पादन में वृद्धि एवं संस्थागत लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होती
हैं।
समूह-कार्य परिस्थिति:
इस सिद्धान्त के अनुसार नेतृत्व शैली की उपयुक्तता समूह कार्य-
परिस्थिति पर निर्भर करती है। इसको फीडलर द्वारा पारस्परिक- विन्यास के रूप में
देखा है जो नेता के प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होता है।
आलोचना :
फीडलर का मॉडल प्रकट करता है कि नेता परिस्थिति की माँगों के अनुरूप कार्य-परक या सम्बन्ध परक हो जाता है। इस मॉडल की आलोचना इस आधार पर की जाती है कि फीडलर अपने सिद्धान्त को ज्ञात परिणाम प्राप्त करने हेतु आकार देते हैं।
• फीडलर के प्रासंगिकता सिद्धान्त का कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं है, यह केवल ल अनुभाविक सामान्यीकरण पर आधारित है।
• फीडलर द्वारा दी गई परिस्थिति में उच्च पद शक्ति दूसरी परिस्थिति में निम्न पद-शक्ति हो सकती है।
• यद्यपि फीडलर का
सिद्धानत नेतृत्व शैली के अध्ययन के दृष्टिकोण से बहुत अधिक उपयुक्त है तथापि
इसमें बहुत अधिक जटिलता है।
हरसे तथा ब्लेनचर्ड का स्थितिपरक सिद्धान्त:
ओहियो विश्वविद्यालय के पाल हरसे एवं कैनेथ एच0 ब्लेनचर्ड के
अनुसार नेतृत्व की विभिन्न शैली विभिन्न परिस्थितियों में प्रभावशाली एवं
अप्रभावशाली हो सकती हैं। एक शैली एक परिस्थिति में प्रभावशाली होती है तो दूसरी
परिस्थिति में अप्रभावशली हो जाती है। परिस्थितियाँ ही नेता की शैली को प्रभावी
अथवा अप्रभावी बनाती हैं। लेखकद्वय ने सैद्धान्तिक परिस्थितियों के लिए दो आयामों
कार्य - वातावरण एवं परिस्थिति को अपनाया है। यह सिद्धान्त नेतृत्व का जीवन चक्र
सिद्धान्त" के नाम से भी जाना जाता है।
इस सिद्वान्त के
अनुसार विभिन्न परिस्थितियों में संगठन के सदस्यों का परिपक्वता स्तर एक विशिष्ट
कारक होता है, जो नेतृत्व को
प्रभावी अथवा अप्रभावी बनाता है। समूह का ये परिपक्वता स्तर सदस्यों द्वारा
सम्पादित विशिष्ट कार्य के माध्यम से जाना जाता है। लेखकद्वय के अनुसार परिपक्वता
दो अन्तर्सम्बन्धित कारकों में संयोजन से निर्मित होती है। ये कारक हैं-
उच्च लेकिन वास्तविक लक्ष्यों का निर्धारण करने की क्षमता एवं इच्छा।
लक्ष्य प्राप्ति हेतु उत्तरदायित्व लेने की क्षमता एवं इच्छा।
इन कारको के आधार
पर नेतृत्व प्रभावशीलता को ज्ञात करने के तीन आयाम निर्धारित किए गए हैं-
कार्य प्रधान
सम्बन्ध प्रधान
समूह की
परिपक्वता
यह सिद्धान्त
मानता है कि समूह के सदस्यों के परिपक्वता स्तर को समय के साथ प्रशिक्षण आदि के
माध्यम से बढ़ाया जा सकता है। यही परिपक्वता स्तर नेतृत्व शैली की प्रभावशीलता में
वृद्धि करता है। सदस्य जिनते परिपक्व होंगे वे नेता के आदेशों को उतनी ही कुशलता
से समझेंगे और उनके पालन में अपना योगदान देंगे। लेखकद्वय ने अनुसार सदस्यों की
परिपक्वता स्तर को कार्य-प्रधान व्यवहार में कमी एवं सम्बन्ध-प्रधान व्यावहार में
वृद्धि द्वारा जाना जा सकता है।
आलोचना:
1. हरसे-ब्लेनचर्ड
द्वारा दिए गए सिद्धान्त में परिस्थिति से जुड़े आयामों के बारे में बताया गया है
परन्तु उनका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है।
2. यह सिद्वान्त
सदस्यों की परिपक्वता स्तर को नेतृत्व की प्रभावशीलता से जोड़ता है, परन्तु सदस्यों
में व्यक्तिगत भिन्नता के फलस्वरूप परिपक्वता स्तर प्राप्त करने का भी भिन्न-भिन्न
स्तर होता है। ऐसी स्थिति में एक समय पर सभी सदस्यों से एक जैसी परिपक्वता की आशा
नहीं की जा सकती है।
3. परिपक्वता स्तर
कार्य-प्रधान व्यवहार में कमी एवं सम्बन्ध प्रधान व्यावहार में वृद्धि द्वारा पाया
जा सकता है, परन्तु ये कमी
एवं वृद्धि परिस्थितियों के अनुरूप हो तभी लक्ष्यों की प्राप्ति संभव है। ऐसी
स्थिति में आवश्यक समय पर आवश्यक परिपक्वता की प्राप्ति की आशा करना व्यर्थ है।
ब्रूम तथा यैटन का मानकीय प्रासंगिकता सिद्वान्त:
विक्टर वूरम तथा फिलिप यैटन का प्रासंगिकता सिद्धान्त बताता है कि विशिष्ट परिस्थितियों से सम्बन्धित प्रासंगिकता के दृष्टिकोण से प्रभावित होने के लिए कैसा व्यवहार नेता द्वारा किया जाना चाहिए। इस सिद्धान्त को मानकीय सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। क्योंकि यह नेता-व्यवहार से जुड़ी प्रासंगिकताओं के मानक तय करता है। अर्थात् किसी विशेष परिस्थिति में नेता का व्यवहार किस प्रकार होना चाहिये का मानक निश्चित करता है। इस सिद्धान्त में लेखकद्वय ने निम्नलिखित पाँच प्रकार की नेतृत्व शैलियों का वर्णन किया है-
तानाशाही या निरंकुश प्रक्रिया:
इस श्रेणी में दो प्रकार की नेतृत्व शैलियाँ आती हैं।
1: नेता उपलब्ध सूचनाओं का अध्ययन कर निर्णय लेता है।
2: नेता सदस्यों से
सूचनाएँ प्राप्त कर निर्णय लेता हैं एवं सदस्यों को समस्या का ज्ञान करा सकता है
या नहीं भी कराता है।
परामर्शवादी
प्रक्रिया : इस श्रेणी में दो प्रकार की नेतृत्व शैलियाँ आती हैं-
1: इस शैली में नेता मुख्य सदस्यों के सहयोग से निर्णय लेता है। वह एक-एक से व्यक्तिगत रूप से सूचनाएँ ग्रहण करता है, न कि समूह में।
2: इस शैली में नेता किसी समूह में सदस्यों से सूचनाएँ प्राप्त कर समूह में ही निर्णय लेता है।
समूह प्रक्रियाएँ :
यह शैलियों का समूह है जिसमें नेता निम्न प्रकार से निर्णय लेता है।
इस शैली में नेता
समूह में सदस्यों के साथ समस्या पर विचार करता है। साथ ही सदस्यों को सहयोग भी
प्रदान करता है ताकि सामूहिक निर्णय हेतु एकमत पर पहुँचा जा सके। नेता सदस्यों से
सूचनाएँ प्राप्त करता है,
अपने विचार
प्रदान करता है परन्तु वह अपने निर्णय सदस्यों पर थोप नहीं सकता, केवल अप्रत्यक्ष
ढंग से सदस्यों को अपने निर्णय की स्वीकृति के लिए तैयार कर सकता है। अन्त में वह
उन्हीं निर्णयों को पारित करता है जिनमें सर्वसम्मति हो ।
ब्रूम तथा यैटन
का सिद्वान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित हैं-
मान्यताएँ :
निर्णय शैली परिस्थितियों के अनुरूप बदलती है।
नेतृत्व शैली निर्णयों द्वारा प्रभावित होने वाले सदस्यों की संख्या के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है।
कोई भी नेतृत्व शैली प्रत्येक परिस्थिति में उपयुक्त नहीं होती।
निर्णय प्रक्रिया
में सदस्यों की सहभागिता को प्रभावित करने हेतु नेता को उपयुक्त प्रक्रिया का चयन
करना चाहिए।
नेतृत्व शैली का
चयन निम्न तीन चरों पर निर्भर करता है-
निर्णय की गुणात्मकता
निर्णय की स्वीकृति
निर्णय लेने हेतु
आवश्यक समय की मात्रा
परिस्थिति का निदान:
किन परिस्थितियों में कैसे नेतृत्व का प्रयोग किया जाना है उनके निदान हेतु
सात प्रश्नों के उत्तरों को जानना आवश्यक है। जिनके उत्तर हाँ या नहीं में दिये
जायेंगे। ये प्रश्न हैं-
क्या समस्या में गुणवत्ता की आवश्यकता निहित है? इसका तात्पर्य यह देखना है कि क्या निर्णय तुरन्त लिये जाने हैं तथा दूसरो से परामर्श का समय नहीं है।
क्या समस्या भली-भाँति सुगठित है?
क्या सही एवं अच्छा निर्णय लेने हेतु नेता के पास पर्याप्त समय है?
यदि नेता अकेले निर्णय लेता है तो दूसरों द्वारा स्वीकृति दी जाने की कितनी निश्चितता है? क्या संस्थागत लक्ष्यों के निर्धारण में सदस्यों ने भाग लिया है?
क्या क्रियान्वयन हेतु निर्णय को सदस्यों की स्वीकृति आवश्यक है ?
क्या समस्या के
चुने हुए समाधान से सदस्यों में विरोध होने की सम्भावना है?
इन प्रश्नों के
उत्तर जानकर परिस्थिति की प्रासंगिकता के निदान के पश्चात् ऐसी नेतृत्व शैली खोजी
जाती है, जो सर्वाधिक
उपयुक्त है। इस प्रकार वूरम एवं येटन के मॉडल से दो निष्कर्ष प्राप्त होते हैं- (1) किसी विशिष्ट
परिस्थिति में एक या एक से अधिक नेतृत्व शैली प्रभावी होती है।
(2) यदि समय की कमी
है एवं विरोधाभास की स्थिति है तो नेता को निरंकुश शैली अपनानी चाहिए और यदि वह
अपने आधिनस्थों के विकास हेतु कुछ समय चाहता है तो उसे सहभागी शैली अपनानी चाहिए।
आलोचना
(1) इस सिद्धान्त की
सबसे बड़ी कमी 'समय बाध्यता' की है। ऐसी
बाध्यता में नेता ऐसी शैली अपनाने में लाभ समझता है जो कम समय लेती हैं। परन्तु
ऐसी शैली प्रत्येक परिस्थिति में उपयुक्त नहीं हो सकती।
(2) इस सिद्धान्त में
विधि सम्बन्धी समस्याएँ विद्यमान है, अर्थात् यदि प्रबंधक निर्णय में अपने सदस्यों की सहभागिता
चाहता है तो उसे सदस्यों के प्रशिक्षण हेतु समय चाहिए साथ ही सदस्यों को निर्णय
लेने में, सुझाव में समय
लगता है तथा उन्हें प्रेरित करने के लिए पुरस्कृत भी किया जाना चाहिए। इन सब
विधियों के बाद भी नेतृत्व शैली की प्रमाणिकता सिद्ध नहीं होती और यह कमी
सिद्धान्त की उपयोगिता को कम कर देती है।
मार्ग-लक्ष्य सिद्धान्तः
आर. जे. हाउस द्वारा प्रस्तावित मार्ग-लक्ष्य सिद्धान्त के अनुसार, नेता को संगठन के
लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सदस्यों को व्यक्तिगत पुरस्कार प्राप्ति का मार्ग
प्रशस्त करते हुए प्रेरित करना चाहिए। ये मार्ग तभी स्पष्ट होगा जब सदस्यों के
विचारों की दुविधा अथवा विरोधाभास को समाप्त किया जाएगा। आधिनस्थों को दिए जाने
वाले पुरस्कारों के प्रकार एवं मात्रा में नेता द्वारा वृद्धि की जानी चाहिए। उसे
पुरस्कार प्राप्ति के मार्ग को स्पष्ट करने हेतु निर्देशन एवं परामर्श भी देना
चाहिए। दूसरे शब्दों में,
आधिनस्थो को
कार्य- सुरक्षा, वास्तविक अनुभव
प्राप्त करने हेतु स्पष्टीकरण एवं मूल्यपरक लक्ष्यों की प्राप्ति में आने वाली
बाधाओं को प्रबन्धक द्वारा दूर किया जाना चाहिए। नेता को लक्ष्य एवं मार्ग को
स्पष्ट करना चाहिए । सहयोग एवं पुरस्कार प्रदान करना चाहिए, साथ ही कार्य, परिस्थितियों एवं
कर्मचारियों की आवश्यकताओं का विश्लेषण करना चाहिए।
उपरोक्त कार्या
के सम्पादन हेतु नेता को निम्नलिखित व्यावहार शैलियाँ अपनानी चाहिए-
(1) सहयोगात्मक :
नेता, आधिनस्थों के
प्रति मित्रवत् हो, कर्मचारियों की
आवश्यकता, सुरक्षा एवं
स्थिति के प्रति सचेत हो और सहयोगियों को अपने बराबर समझे।
(2) निर्देशात्मक :
नेता इस शैली में नियोजन,
संगठन एवं कर्मचारियों
की क्रियाओं को निर्देशित करता है। वह प्रदर्शन के स्तर को परिभाषित करता है और
आधिनस्थों को प्रकट करता है कि उनसे क्या आशा की जाती है?
(3) सहभागी : इस शैली
में नेता, कर्मचारियो से
सलाह लेता है, उनके सुझावो को
अपनाकर एक उत्तम निर्णय लेता है।
(4) उपलब्धि-परकः इस शैली को अपनाने वाले नेता चुनौतीपूर्ण लक्ष्य निर्धारित करते हैं, कर्मचारियों से अपना उत्तम देने की आशा करते हैं और निरन्तर कर्मचारियों के प्रदर्शन स्तर में सुधार चाहते हैं। हाउस के अनुसार एक निश्चित नेतृत्व शैली, जो कि सदैव उत्तम कार्य करे, दो चरों द्वारा निर्धारित होती है-
कर्मचारियों के गुण:
नेता द्वारा अपनायी जाने वाली शैली उसके अनुयायियों की आवश्यकता, योग्यता एवं
व्यक्तित्व पर निर्भर करती हैं। यदि अनुयायी उच्च योग्यता वाले हैं तो सहयोगात्मक
शैली उपयुक्त होती है और यदि अनुयायी निम्न योग्यता वाले हैं तो निर्देशात्मक शैली
उपयुक्त होती है। उच्च आवश्यकता वाले अनुयायियो हेतु सहयोगी नेता एवं उच्च
आवश्यकता वाले, उपलब्धि प्राप्त
करने वाले अनुयायियों हेतु कार्य- परक नेता आवश्यक हैं। अन्तर्मुखी व्यक्तित्व
वाले कर्मचारी जो मानते हैं कि वे अपने व्यवहार को नियंत्रित कर सकते हैं, वे सहयोगी
व्यावहार वाला नेता चाहते हैं।
कार्य वातावरण:
वातावरणीय चर कर्मचारियों के नियंत्रण में नहीं होते लेकिन वे प्रभावी प्रदर्शन की
योग्यता अथवा सन्तुष्टि हेतु महत्त्वपूर्ण होते हैं। इसके अन्तर्गत कर्मचारी
क्रियाएँ, औपचारिक अधिकारिक
ढाँचा एवं प्राथमिक कार्य समूह आते हैं।
कार्य सन्तुष्टि
प्रासंगिकता कारक
कार्य ढाँचे के साथ आधिनस्थ सन्तुष्टि एवं निर्देशालय नेता के बीच परिकल्पनात्मक
सम्बन्ध स्पष्ट होता है कि ढाँचागत अथवा संगठित कार्य, उच्च स्तर के
निर्देशालय व्यवहार, निम्न कार्य
सन्तुष्टि से जुड़े रहते हैं। असंगठित कार्या के लिए उच्च स्तर की निर्देशात्मकता, उच्च स्तर की
कार्य सन्तुष्टि के साथ जुड़ी रहती है । अन्तिम विश्लेषण के अनुसार, मार्ग-लक्ष्य
सिद्धान्त प्रस्तावित करता हैं, कि कर्मचारियो को वातावरणीय अनिश्चितताओं से जूझने के लिए
कर्मचारियों को उपाय समझाने हेतु नेता का व्यवहार प्रेरणादायक होगा। कार्य की
अनिश्चितताओं को कम करने की योग्यता रखने वाला नेता प्रेरक होना चाहिए क्योंकि वह
कर्मचारियों की अपेक्षाओं को बढ़ाता है ताकि उनके प्रयास उन्हें पुरस्कार प्रदान
करें। इस प्रकार मार्ग- लक्ष्य सिद्धान्त नेता को आधिनस्थों एवं परिस्थितियों
दोनों को समान महत्व देने को प्रेरित करता है।
आलोचना:
(1) यह एक जटिल स्थितिपरक सिद्धान्त है। विधियों की जटिलता के कारण अनुभाविक परीक्षण कठिन है।
(2) इस सिद्धान्त के पीछे शोधकर्ताओं एवं विशेषज्ञों की मान्याताओं का अभाव है। इस सिद्धान्त से जुड़े शोधों की संख्या भी नाममात्र है, इस कारण इसकी प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
(3) इस सिद्धान्त से जुड़े शोध प्रमाण कभी-कभी सिद्धान्त निर्माणक तत्व बन जाते हैं।
(4) यह एक अपूर्ण सिद्धान्त है जो नेता के व्यवहार को प्रभावित करने वाले कर्मचारियों से जुड़े कुछ कारकों जैसे अपेक्षा, स्वीकृति, सन्तुष्टि आदि पर ही विचार करता है। यह नेतृत्व शैली का संभावित स्पष्टीकरण मात्र है।
(5) यह नेता के व्यवहार को प्रभावित करने वाले व्यक्तिगत गुणों की अवहेलना करता है ।
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