शिक्षा पर्यवेक्षण का उद्गम एवं विकास |Origin and development of education supervision

शिक्षा पर्यवेक्षण का उद्गम एवं विकास

शिक्षा पर्यवेक्षण का उद्गम एवं विकास |Origin and development of education supervision


 

शिक्षा पर्यवेक्षण का उद्गम एवं विकास

शिक्षा पर्यवेक्षण का प्रत्यय अधिक प्राचीन नहीं है। सन् (1909) 0 से पूर्व इसका अस्तित्व ही नहीं था। सर्व प्रथम इंग्लैड के बोस्टन नामक नगर में इस शब्द का प्रयोग किया गया। वहाँ विद्यालयों का निरीक्षण कार्य करने के लिये सन् (1909) 0 में एक विशेष समिति की स्थापना की गयी जिसमें कुछ चुने हुए धर्माधिकारीकुछ धनिक व्यक्ति सम्मिलित किये गये। इस समिति का कार्य सामान्य रूप से भवन की देखभाल करनाविद्यालय के लिये धन जुटाना तथा शिक्षकों की नियुक्ति पर ध्यान देना था। इस समिति के अधिकांश सदस्य अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित होते थे उनमें कार्यक्षमता अधिक नहीं होती थीइसीलिये वे निरीक्षण कार्य को भी अपर्याप्त एवं अनियन्त्रित ढंग से करते थेकुछ समय पश्चात् निरीक्षण की आवश्यकता पर और अधिक बल दिया जाने लगा । सन् (1914) 0 से निरीक्षकों के लिये शैक्षिक योग्यता को अनिवार्य माना जाने लगा। सन् (1921) 0 से निरीक्षण के क्षेत्र में शिक्षित कार्यशिक्षण विधि एवं शिक्षण के उद्देश्यों के सम्बन्ध में अपने सुझाव दिये। सन् 1922 ई0 में बर्टन ने निरीक्षण के महत्व पर अधिकाधिक ध्यान आकृष्ट किया। बर्टन ने शिक्षा के सुधार कार्यक्रमों के निरीक्षण के कार्य को सर्पोपरि माना। बर्टन का मत था कि शिक्षण कार्य में सुधार तथा उन्नति के लियेशिक्षक कार्य में सुधार करने के लियेविषय एवं पाठ्यवस्तु का चयन करने के लियेपरीक्षण तथा मापन के लिये तथा शिक्षकों की योग्यताओं के आधार पर उनका श्रेणीकरण करने के लिये निरीक्षण का अत्यधिक महत्व है। इस प्रकार निरीक्षण के प्रत्यय का उद्भव इंग्लैंड में हुआ जो आगे चलकर पर्यवेक्षण के स्वरूप परिवर्तित होता चला गया। में

 

भारवर्ष में पर्यवेक्षण का प्रादुर्भाव 

भारतवर्ष में पर्यवेक्षण का प्रारम्भ पाश्चात्य शिक्षण प्रणाली का अनुकरण करने के फलस्वरूप ही हुआ। भारतवर्ष में वुड डिस्पैच की संस्तुतियों के फलस्वरूप प्रत्येक प्रान्त में शिक्षा मण्डलों तथा निरीक्षण मण्डलों की स्थापना की गयी। पर्यवेक्षण के सन्दर्भ में वुड डिस्पैच की संस्तुति अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह संस्तुति प्रकार थी -

 

"हमारी शिक्षा प्रणाली का भविष्य में अत्यावश्यक अंग निरीक्षण प्रणाली का उचित स्वरूप होगा। हमारी इच्छा है कि सरकार द्वारा चलाये गये विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में निरीक्षकों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ि की जाय जो समय-समय पर इन विद्यालयों की गतिविधियों की आख्या भी प्रस्तुत कर सकेंगे। ये निरीक्षक इन विद्यालयों में परीक्षा सम्बन्धी कार्यों में भी सहायता करेंगे।"

 

इन सुझावों का परिणाम यह हुआ कि शिक्षण कार्य की गुणात्मकता को परखने के लिये तथा विद्यालयों को दिये गये अनुदानों का उचित प्रयोग परखने के लिये निरीक्षकों की नियुक्ति की गयी। निरीक्षकों के अधिकारों में भी कुद वृद्धि की गयी जिसके फलस्वरूप निरीक्षक शिक्षण संस्थाओं में आतंक भी उत्पन्न करने लगे। वास्तव में यह समय भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का था और निरीक्षकों को अधिक शकित एवं अधिकारों को देने का आशय तत्कालीन राष्ट्रीय भावनाओं को कुचलना था। सन् 1921 ई0 में महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में आन्दोलन हुए और पर्याप्त संख्या में राष्ट्रीय संस्थाएं खोली गयी। सन् (1919) 0 में सैडलर कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया था।

 

‘“अधिकांश रूप में निरीक्षण द्रुत गति से किया जाता हैउसमें सौहार्दपूर्ण सुझावों का अभाव है। शिक्षण- पद्धति तथा संगठन सम्बन्धी सुधार की ओर लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता जो विद्यालयों के लिये अत्यावश्यक है"।

 

वास्तव में इन आयोगों तथा समय-समय पर नियुक्त समितियों के प्रतिवेदनों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में सुयोग्य एवं प्रशिक्षित निरीक्षकों का सर्वथा अभाव है जिसके कारण यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था दूषि तथा प्रभाव शून्य है। इस प्रतिवेदना का एक प्रभाव यह भी हुआ कि निरीक्षण के स्थान पर पर्यवेक्षण के महत्व को समझा जाने लगा। निरीक्षक के कार्यों में सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार को सम्मिलित किया जाने लगा। सन् 1934 ई0 में अंग्रेजी सरकार द्वारा दो परामार्शदाता वुड तथा अबोट को भारतवर्ष के विद्यालयों में निरीक्षण करने के लिये भेजा गया। उनके कथन का सारांश निरीक्षण के कार्य में सुधार के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। उनका कथन इस प्रकार था-

 

"The chief duty of the inspector is to inspect the schools. He must do this sympahetically and give advice based on his own knowledge and experience, which will help the teacher to make their schools enlightened and humanized institutions. He should feel free and, of course, be qualified to praise or to criticize. But his criticism should be calculated to encourage and not to intimidate."

 

आचार्य नरेन्द्र देव द्वारा प्रतिवेदन में निरीक्षकों के कार्यों को अत्यधिक परम्परागत तथा मशीनवत् बताया गया तथा उसमें पर्याप्त सुधार करने के लिये सुझाव भी दिये गये। इसी क्रम में सन् (1952) 0 में ए0एल0 मुदालियरमाध्यमिक शिक्षा आयोग के अध्यक्ष थे। उन्होंने भी अपनी रिपोर्ट में निरीक्षण की तत्कालीन स्थिति को सोचनीय बताते हुए इस प्रकार कहा-

 

"It was pointed out by several witnesses that inspections were perfunctory, that the time spent by the inspector at any particular place was insufficient, that the greater part of his time was taken up with routine administration. - Narendra Dev.

 

"माध्यमिक शिक्षा आयोग की सिफारिशों के आधार पर पर्यवेक्षक के महत्व को और अधिक स्वीकार किया गया। यह धारणा बनी कि शिक्षा संस्थाओं का उचित निर्देशन पर्यवेक्षक द्वारा ही दिया जा सकता है। पर्यवेक्षकों की गुणात्मकता एवं शक्ति में वृद्धि करने के प्रयास किये गये। निरीक्षक को विद्यालयों के प्रशासनिक कार्यों के प्रति पूर्णरूप से उत्तरदायी स्वीकार किया गया। 


माध्यमिक शिक्षा आयोग की प्रमुख संस्तुतियां इस प्रकार थी-

 

1. कम से कम दस वर्षों के अनुभवी अध्यापकोंप्रधानाचार्यों तथा प्रशिक्षण महाविद्यालयोंसुप्रशिक्षि प्रवक्ताओं को निरीक्षण करने के लिये भेजा जाना चाहिए।

 

2. जो निरीक्षक नियुक्त होंउन्हें शैक्षिक तथा प्रशासनिक दोनों प्रकार के कार्यों का निरीक्षण करने के अतिरिक्त विद्यालयों के हिसाब-किताब तथा कार्यलय से सम्बन्धित सभी मामलों का निरीक्षण करना चाहिए।

 

3. निरीक्षकों के साथ प्रशासनिक कर्तव्यों की देख-भाल के लिये क्षमतायुक्त व्यक्तियों की नियुक्ति होनी चाहिए।

 

4. मुख्य निरीक्षक के साथ विशिष्ट योग्यता प्राप्त टोली निरीक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए जिससे विद्यालय के शिक्षण कार्य का गहराई से निरीक्षण किया जा सके।

 

5. निरीक्षकों का कर्त्तव्य विद्यालयों की उन्नति में सहयोग देना होना चाहिए।

 

माध्यमिक शिक्षा-आयोग की संस्तुतियों को भारतीय सरकार द्वारा स्वीकार किया गया। इसके साथ ही पर्यवेक्षण के महत्व पर दृष्टि रखते हुए भारतीय सरकार ने पर्यवेक्षण का गहन अध्ययन करने के लिये इस आयोग को पुनः प्रेरित किया। इसी उद्देश्य से सरकार द्वारा See Education Project Team की नियुक्ति की गयी। इस टीम में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के व्यक्तियों को भी सम्मिलित किया गया जिनकी प्रमुख संस्तुतियाँ निम्नलिखित थी-

 

1. प्रशासन की भावना में शीघ्र परिवर्तन किया जाना चाहिए। निरीक्षकों के कर्त्तव्यों में नियमों तथा कानूनों तथा मशीनवत् कार्य प्रणाली की अपेक्षा मानवीय सम्बन्धों की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

 

2. निरीक्षक का कर्त्तव्य निर्णय देने की अपेक्षा परामर्श देने का अधिक होना चाहिए।

 

3. निरीक्षण कार्य की क्षमता में वृद्धि करने के लिये निरीक्षकों को विशिष्ट प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए।

 

4. निरीक्षक के लिये प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

 

5. निरीक्षक के दौनिक प्रशासनिक कार्यों को किसी अन्य सहायक निरीक्षक को सौंप दिया जाना चाहिए।

 

6. विद्यालय को स्वतंत्रता अधिक दी जानी चाहिए जिससे प्रत्येक विद्यालय ऐसी उचित योजनाओं की व्यवस्था कर सके जिसमें अध्यापक भाग ले सकें और विद्यालय के कार्यों में सहायता देने की योग्यता प्राप्त कर सकें।

 

उपर्युक्त सभी संस्तुतियों का प्रभाव हुआ कि विद्यालयों में निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण की प्रक्रिया पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाने लगा। 'निरीक्षणशब्द में व्याप्त भय तथा आशंका को दूर कर के परामर्श तथा सुझाव को अधिक महत्व दिया जाने लगा।

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