शैक्षिक नियोजन: परिप्रेक्ष्य संस्थागत नियोजन अर्थ प्रकार |Perspective institutional planning meaning type
शैक्षिक नियोजन: परिप्रेक्ष्य नियोजन
परिप्रेक्ष्य नियोजन
परिप्रेक्ष्य नियोजन से तात्पर्य किसी भी प्रकार की छोटी या बड़ी योजना के लिये परिप्रेक्ष्य अथवा केन्द्र बिन्दू निर्धारित करना । ये योजनाएँ अपनी क्रियाओं द्वारा निश्चित रूप से दीर्घकालीन परिणाम देती हैं। ये योजनाएँ कुछ परिस्थितियों में प्रभावकारी होती हैं एवं कुछ परिस्थितियो में प्रभावहीन । परन्तु दोनों ही परिस्थितियों में उनसे जुड़े परिप्रेक्ष्य की प्राप्ति में कुछ हद तक सफलता प्राप्त हो जाती है। परिप्रेक्ष्य नियोजन एक ऐसी नियोजन व्यवस्था है, जिसमें एक निश्चित केन्द्र बिन्दू के इर्द-गिर्द लक्ष्यों का निर्धारण किया जाता है, विकल्पों की खोज, चयन, मूल्यांकन एवं क्रियान्वयन किया जाता है, तत्पश्चात् योजना का मूल्यांकन एवं पृष्ठपोषण प्राप्त किया जाता है।
परिप्रेक्ष्य नियोजन के प्रकार :
परिप्रेक्ष्य नियोजन के प्रकार निम्नलिखित हैं-
(1) सामरिक नियोजन (Strategic Planning):
इसे दीर्घकालिक नियोजन भी कहते हैं। इसका केन्द्र बिन्दू सम्पूर्ण व्यवस्था होती है। दीर्घकालिक या सामरिक नियोजन 10 से 20 वर्ष की अवधि का होता है और वृहद परिप्रेक्ष्य पर आधारित होता है। यह संस्थागत लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु विभिन्न स्तर पर निर्मित की जाने वाली योजनाओं को निर्देशित करता है। इसमें योजनाओं के क्रियान्वयन एवं उनका परिणाम देखने का समय मिल जाता है इस कारण भी महत्वपूर्ण माना जाता है।
(2) अल्पकालीन नियोजन ( Short-term Planning):
अल्पकालीन नियोजन 3 से 5 वर्ष हेतु किया जाता है। इसका केन्द्र बिन्दू तत्कालिक एवं दबावयुक्त समस्याएँ होती हैं। विशिष्ट एवं लघु उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु यह नियोजन अधिक उपयुक्त होता है।
(3) प्रबन्ध नियोजन (Management Planning):
इसका सम्बन्ध उन निर्णयों से होता है जो पहले से निर्मित योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु लिये जाते हैं। यह नियोजन प्रक्रिया का एक अंग है जो लक्ष्यों एवं नीतियों से सम्बन्धित मूल निर्णय लेने के बाद क्रियान्वित किया जाता है। यह नियोजन प्रासंगिकता नियोजन (Contingency Planning) की अवधारणा पर आधारित है, जिसका तात्पर्य है ऐसे विकल्पों की खोजकर उनका चयन करना है जो अनापेक्षित परिस्थितयाँ उत्पन्न होने पर प्रयोग किये जा सकें। यह दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन दोनों प्रकार की योजनाओं में प्रयुक्त किया जाता है और दोनों प्रकार की योजनाओं की प्रभावशीलता प्रबन्ध नियोजन के प्रभावी होने पर निर्भर करती हैं।
(4) आधार- स्तर नियोजन ( Grass-Root Planning):
शैक्षिक नियोजन अनेक स्तरों पर किया जा सकता है अर्थात् राष्ट्रीय, राजकीय, जिला, ब्लाक या संस्थागत स्तर पर । प्रत्येक स्तर पर उस स्तर से जुड़ी सभी विशेषताओं सुविधाओं, समस्याओं को नियोजन में सम्मिलित करके एक सम्पूर्ण योजना का निर्माण किया जाता है। तभी वह योजना सम्पूर्ण स्तर के लिए लाभदायक सिद्ध होती है। ऐसा करने के लिए आधार स्तर का ही सहारा लिया जाता है, अर्थात् एक विशिष्ट स्तर के नियोजन हेतु उस स्तर से जुड़े सभी आधार बिन्दू के इर्द-गिर्द लक्ष्यों का निर्धारण एवं विकल्पों का क्रियान्वयन किया जाता है। जैसे ब्लाक स्तर नियोजन हेतु स्थानीय स्वार्थो को आवश्यक महत्व दिया जाता है जबकि राष्ट्रीय नियोजन में राजकीय, जिला, ब्लाक या संस्थागत स्तर पर भी योजनाएँ निर्मित की जाती है।
(5) क्षेत्र नियोजन ( Area Planning):
क्षेत्र नियोजन, आधार स्तर नियोजन का ही एक रूप है। क्षेत्र नियोजन में केन्द्र बिन्दू एक विशिष्ट क्षेत्र होता है। जिस पर विकास के दृष्टिकोण से ध्यान दिया जाना आवश्यक होता है। इसमें योजना के क्रियान्वयन का कार्य क्षेत्र विशेष सत्ता को सौंपा जाता है।
संस्थागत नियोजन (Institutional Planning)
संस्थागत नियोजन किसी संस्था के भीतर संसाधनों के सर्वात्तम प्रयोग को सुनिश्चित करता है। संस्था अपन समस्याओं एवं विकास के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को जानती है, इस कारण वह अपनी समस्याओं का समाधान भी ढूंढ़ सकती हैं। नियोजन के माध्यम से संस्था अपने पास उपलब्ध संसाधनों का अपनी समस्याओं के अनुरूप आवंटन करती हैं और नीतियों का क्रियान्वयन इस रूप में करती है कि समस्याओं का हल हो सके। संस्थागत नियोजन में शैक्षिक संस्था की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए नियोजन किया जाता है।
संस्थागत नियोजन को परिभाषित करते हुए एम0बी0 बुच ( 1968 ) का कहना है, विद्यालय कार्यक्रमों एवं विद्यालयी क्रियाओं को ध्यान में रखते हुए, विद्यालयी आवश्यकताओं का विचार एवं उपलब्ध संसाधनों के आधार पर किसी शैक्षिक संस्था के विकास एवं सुधार हेतु कार्यक्रम बनाना संस्थागत नियोजन के अन्तर्गत आता है। यह विद्यालय एवं समुदाय में उपलब्ध संसाधनों के अनुकूलतम (Optimum) उपयोग पर आधारित होता है। इस प्रकार का नियोजन अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन दोनों ही प्रकार की हो सकता हैं।
संस्थागत नियोजन के लाभ :
संस्थागत नियोजन के लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) आवश्यकता आधारित न कि अनुदान आधारित :
संस्थागत नियोजन संस्था की आवश्यकताओं अथवा समस्याओं पर आधारित होता है न कि संस्था को मिलने वाले अनुदानों पर संस्था इन अनुदानों का प्रयोग अपनी आवश्कताओं की पूर्ति हेतु करती है और योजना बनाती है।
(2) संसाधनों का अनुकूलत उपयोग :
इस नियोजन में संस्था को अपने पास उपलब्ध संसाधनों एवं अपनी समस्याओं दोनों का पूर्ण ज्ञान रहता है। अतः संस्था अपने संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग कर पाती है। कौन-सा संसाधन किस समस्या हेतु आवश्यक है इसका ज्ञान होने से नियोजन करते समय संसाधनों का अपव्यय नहीं होने पाता।
(3) लक्ष्य-परक :
संस्थागत नियोजन संस्था के विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु किया जाता है। इस नियोजन में संस्था के लक्ष्य ही नियोजन के केन्द्र बिन्दु होते हैं और सम्पूर्ण नियोजन इन्हीं की प्राप्ति हेतु किया जाता है।
(4) भावी एवं विशिष्ट चेतना :
संस्थागत नियोजन भविष्य में संस्था के विकास एवं समस्याओं के समाधान हेतु निर्मित विशिष्ट योजना है जो कि संस्था की विशिष्ट समस्याओं को दूर करती हैं और भविष्य में संस्था उत्थान करती है।
(5) सुधारात्मक प्रेरणां :
यह नियोजन एक सुधारात्मक प्रेरणा के रूप में कार्य करता है जो भविष्य में संस्था द्वारा निर्मित होने वाली अन्य योजनाओं को अतीत की कमियों से दर रहने की प्ररेणा देता है। अतीत की योजनाओं में आने वाली कमियों को दूर करने के उपाय आने वाली पीढ़ी को समझाता है।
(6) विद्यालयी सुधार एवं विकास :
विद्यालयी कार्यक्रमों एवं क्रियाओं हेतु आवश्यक उपलब्ध संसाधनों कुशलतम 'उपयोग द्वारा यह नियोजन विद्यालय व्यवस्था में सुधार लाता है तथा विद्यालय के उत्थान एवं विकास को प्रोत्साहन देता है। कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, शिक्षण कार्यक्रम, परीक्षा आदि सभी क्रियाओं में आने वाली बाधाओं को दूर करता है।
(7) सतत् विकास :
संस्थागत नियोजन संस्था में सतत् विकास को प्रोत्साहन देता है। समय-समय पर आने वाली बाधाओं को दूर करने की पूर्व तैयारी करता है।
(8) प्रजातंत्रीय दृष्टिकोण :
इस प्रकार के नियोजन में प्रबन्धक, आधिनस्थों को भी सम्मिलित करता है। उनके सहयोग, सुझाव आदि सुनता है एवं आवश्यक स्थानों पर उनके सुझावों के आधार पर निर्णय लेता है। अपने निर्णय सदस्यों पर थोपता नहीं है। इस प्रकार इस नियोजन में प्रजातंत्रीय दृष्टिकोण को अपनाया जाता है।
(9) समुदाय का सहयोग :
संस्थागत नियोजन हेतु संस्था, समुदाय के व्यक्तियों, अभिभावकों, सामथ्र्यवान विशेषज्ञो आदि का सहयोग लेती है, ताकि नियोजन के प्रत्येक स्तर पर छोटी से छोटी समस्या का हल ढूंढा जा सके साथ ही संसाधनों की अनुपलब्धता की स्थिति में समुदाय द्वारा उनकी पूर्ति की जा सके।
(10) वैज्ञानिक एवं कार्य-परक :
यह नियोजन वैज्ञानिक विधियों को अपनाते हुए कार्य एवं सेवाओं को केन्द्रीय बिन्दू के रूप में रखता है। इसमें कार्य प्रधानता होती है न कि सम्बन्ध प्रधानता तथा सदस्यों द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ ही महत्वपूर्ण मानी जाती है।
संस्थागत नियोजन की प्रक्रिया :
किसी भी विद्यालय के विकास के लिए योजना बनाते समय वर्तमान एवं भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए लक्ष्यों / उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है, तत्पश्चात् आवश्यकताओं की तीव्रता के अनुरूप लक्ष्यों की प्राथमिकता निर्धारित की जाती है। प्राथमिकता के आधार पर लक्ष्यों का चयन हो जाने के बाद कार्यक्रम तय किये जाते हैं, जिनकी क्रियान्वति के आधार पर निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति संभव हो पाती है। कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु विद्यालय संस्था के पास उपलब्ध संसाधनों का चयन किया जाना चाहिए। संसाधन मानवीय एवं भौतिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। संसाधन चयनित होने के पश्चात् उन्हें कार्यक्रमों के क्रियान्वयन हेतु उपयोग में लाया जाता है एवं कार्यक्रम को विस्तार दिया जाता है। नियोजन में समय-समय पर कार्यक्रम की प्रगति का मूल्यांकन आवश्यक है जो कार्यक्रम में आने वाली बाधाओं का ज्ञान कराता है। ये मूल्यांकन मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक अथवा वार्षिक हो सकते हैं। मूल्यांकन जितना वैध एवं विश्वसनीय होता है, उतना ही कार्यक्रम की वास्तविक स्थिति का पता चलता है। मूल्यांकन के पश्चात् कार्यक्रम में आने वाली बाधाओं को दूर करने हेतु आवश्यक उपयों को अपनाया जाता है और योजना में आवश्यक संशोधन किया जाता है। इस नियोजन में कार्यक्रमों, उनकी उपलब्धियों का विस्तृत ब्यौरा रखना आवश्यक है इनके आधार पर वर्तमान कार्यक्रमों का उचित मूल्यांकन होता और भावी कार्यक्रमों हेतु आधार प्राप्त होता है। ये प्रगति विवरण भावी योजनाओं हेतु उद्देश्य निर्धारण में सहायक होता है।
अतः स्पष्ट है कि संस्थागत नियोजन शिक्षण संस्था द्वारा अपने विकास एवं प्रगति हेतु अपने उद्देश्यो, आदर्श एवं परम्पराओं तथा प्राप्त संसाधनों द्वारा किये जाने वाले अनुकूलतम प्रयासों की रूपरेखा है।
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