विद्यालय निरीक्षण की विशेषताएँ उद्देश्य |पर्यवेक्षण की त्रुटियाँ |School Inspection Objectives in Hindi
विद्यालय निरीक्षण की विशेषताएँ उद्देश्य
विद्यालय निरीक्षण की विशेषताएँ
विद्यालय निरीक्षण ब्रिटिश शासन की देन है जिसे हम आज भी प्रयुक्त करते हैं। इसकी प्रमुख विशेषतायें अधोलिखित है।
1. निरीक्षण का उद्देश्य विद्यालय व्यवस्था तथा कार्य संचालन की जाँच करना है और निहित कमियों को उजागार करना है।
2. विद्यालय निरीक्षण औपचारिक तथा समयबद्ध क्रिया है। निरीक्षक जिला अधिकारियों द्वारा नियुक्त किये जाते है।
3. निरीक्षण के परामर्श, सुझाव तथा नेतृत्व को कम महत्व दिया जाता है। आलोचना पर विशेष बल दिया जाता है।
4. निरीक्षण कृत्रिम वातावरण में होता है। विद्यालय की वास्तविक संचालन व्यवस्था की जाँच नहीं होती है।
5. निरीक्षण का कार्यक्षेत्र व्यापक होता है। इसमें विद्यालय की लगभग सभी विद्यालयों की समीक्षा की जाती है।
(अ) विद्यालय के भवन तथा सफाई व्यवस्था,
(ब) विद्यालय की शिक्षण क्रियाओं का निरीक्षण,
(स) विद्यालय में पुस्तकालय तथा वाचनालय की सुविधायें,
(द) विद्यालय के खेल-कूद सामग्री तथा खेल का मैदान,
(य) विद्यालय के प्रयोगाशाला तथा शिक्षण सामग्री,
(ट) शिक्षकगण तथा कर्मचारी वर्ग,
(ल) वित्तीय व्यवस्था तथा अनुदान का सदुपयोग,
(श) छात्रों की संख्या तथा विभागों की व्यवस्था आदि,
6. निरीक्षणगण सभी पक्षों पर रिपोर्ट तैयार करते हैं जिसमें वस्तुस्थिति की समीक्षा तथा कमियों अनियमिताओं का भी उल्लेख करते हैं।
7. निरीक्षण काल में तथा उससे पूर्व प्राचार्य, शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी अधिक सजग तथा क्रियाशील रहते हैं। निरीक्षण के कारण विद्यालय में सफाई तथा पुताई हो जाती है।
विद्यालय निरीक्षण के उद्देश्य
विद्यालय निरीक्षण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हो सकते हैं-
i. निरीक्षण का प्रयोजन शिक्षकों को अच्छा बनाना है। निरीक्षण के माध्यम से शिक्षकों की कमियों को दूर करते हुए गुणों का विकास करके अच्छे शिक्षक तैयार किए जा सकते हैं।
ii. अध्यापक को मार्गदर्शन देने का कार्य भी निरीक्षक का है। कोई भी मार्गदर्शक तब तक मार्गदर्शन नहीं दे सकता, जब तक वह अपने अधीन व्यक्ति की क्षमताओं को नहीं पहचानता । इन क्षमताओं को निरीक्षण से ही समझा जा सकता है।
iii. निरीक्षण द्वारा उनके सीखने की स्थितियों का मूल्यांकन करना होता है। इसमें यह ज्ञात हो जाता है कि विद्यार्थी किन परिस्थितियों में अधिक सीखते हैं। इस आधार पर पाठन विधियों में भी सुधार किया जा सकता है।
iv. निरीक्षण का कार्य शिक्षकों के विद्यार्थियों की समस्याओं का निदान करने तथा उनकी योग्यता का मूल्यांकन करने में सहायता देना है।
v. निरीक्षण का कार्य शिक्षकों को पाठ्यक्रम निर्माण करने का ज्ञान प्रदान करना तथा पाठ्यक्रम निर्माण के मुख्य उद्देश्य से अवगत कराना है ।
vi. निरीक्षण से शिक्षकों को अधिक अध्ययन की प्रेरणा मिलती है। क्योंकि निरीक्षक निरन्तर शिक्षक के विकास के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह शिक्षक के चहुँमुखी विकास के लिए प्रयत्नशील रहता है अतः शिक्षकों का न केवल व्यावसायिक वरन् एकादिमिक विकास भी निरीक्षण द्वारा होता हैं।
आइए निरीक्षण का अर्थ, ऐतिहासिक स्वरूप तथा उद्देश्य जानने के उपरान्त परम्परागत निरीक्षण तथा आधुनिक परिनिरीक्षणों में अन्तर जाने
i. परम्परागत निरीक्षण विद्यालय में प्रचलित स्थितियों की जाँच तथा विद्यालय व्यवस्था की कमियों को बताने तक ही सीमित है, उसको दूर करने के लिए उत्तरदायी नहीं है। आधुनिक प्रवृति के अनुसार निरीक्षण सम्पूर्ण विद्यालय व्यवस्था, उनके संचालन, प्रतिदिन उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान आदि से सम्बन्धित है।
ii. परम्परागत निरीक्षण अल्पकालिक होता है, जबकि निरीक्षण दिन-प्रतिदिन के कार्यों की देखभाल से सम्बद्ध व्यक्तियों की कुशलता के विकास से सम्बन्धित है तथा इसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए शैक्षिक सुझाव की व्यवस्था रहती हैं।
iii. प्रचलित निरीक्षण विधि अधिकारिक है, जबकि निरीक्षण लोकतन्त्रीय सहयोगी एवं प्रेम की भावना से पूर्ण होता है। कुछ विद्धानों के अनुसार इसमें सरकार द्वारा नियुक्त निरीक्षक, विद्यालय-प्रबन्धक, प्रधानाध्यापक, शिक्षक अन्य व्यक्ति एक-दूसरे के सहयोग से विद्यालय के हित के लिए कार्य करते हैं तथा एक-दूसरे के व्यक्तित्व का आदर करते है।
iv. परम्परागत निरीक्षण में सहायता एवं उत्तरदायित्व की भावना का अभाव होता है, जबकि निरीक्षक मुख्यतः इन्हीं दोनों तत्वों पर आधारित है। परम्परागत निरीक्षण में निरीक्षक अपने अधीनस्थों की सहायता देने की अपेक्षा उनकी भूलों की ओर संकेत करता है तथा अपने निर्देशों का पालन करवाता है, प्रस्तावित भावना में परिनिरीक्षक जब-जब उसके परामर्श व प्रेरणा की आवश्यकता होती है, तब-तब वह अपने साथियों को सहर्ष एवं सहानुभूतिपूर्ण ढंग से सहायता देता है। वास्तव में वह स्थिति को सुधारने के लिए स्वयं को भी उत्तरदायी समझता है।
V. परम्परागत निरीक्षण में नेतृत्व का अभाव है। इनमें निरीक्षक अपने अधीनस्थों को किसी कार्य के लिए प्रेरित नहीं करता है, वरन् उन्हें उस कार्य को करने के लिए बाध्य करता है। निरीक्षण सृजनात्मक नेतृत्व पर आधारित है। इसमें निरीक्षक अपने सहयोगियों को कार्य करने के लिए प्रेरणा एवं पथ-प्रदर्शन प्रदान करके अग्रसर करता है।
vi. परम्परागत निरीक्षण में प्रायः एक ही व्यक्ति पर विद्यालय की सुव्यवस्था का दायित्व रहता है, परन्तु निरीक्षण एक सहयोगी प्रक्रिया है जिसमें बहुत-से व्यक्तियों प्रधानाध्यापक, वरिष्ठ शिक्षक, अन्य शिक्षक तथा प्रबन्धक एवं सरकार की ओर से नियुक्त परिनिरीक्षक आदि सभी के प्रयास सम्मिलित हैं।
vii. प्रचलित निरीक्षण औपचारिक व अस्वाभाविक होता है। इसके अतिरिक्त यह लादा हुआ होता है। परिनिरीक्षण अनौपचारिक तथा स्वाभाविक होता है। तथा यह वास्तविक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है, अर्थात् आवश्यकतानुसार इसकी माँग उत्पन्न होती है।
viii. निरीक्षण के कार्यों की अपेक्षा पर्यवेक्षक के कार्य अधिक व्यापक, उदार तथा सहायक होते है।
विद्यालय निरीक्षक के कार्य
विद्यालय निरीक्षक को अनेक कार्य पड़ते है। इन कार्यों को तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
a. प्रशासनिक कार्य
b. निरीक्षण कार्य
c. सम्पर्क कार्य।
i. प्रशासनिक कार्य-
जिला स्तर पर शिक्षा विभाग का कार्यालय जिला विद्यालय निरीक्षक के नेतृत्व में कार्य करता है। इस स्थिति में उसे अपने कार्यालय से सम्बन्धित सभी कार्यो का संचालन तथा व्यवस्था करनी पड़ती है। प्रशासनिक अधिकारी के रूप में वह जिलान्तर्गत राजकीय माध्यमिक व प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों की व्यवस्था स्थानान्तरण, अवकाश स्वीकृत आदि का कार्य करता है। वेतन, भत्ते तथा अन्य आर्थिक पहलुओं के दायित्व सँभालता है। जिला विद्यालय निरीक्षक ही विभागीय परीक्षओं का अपने जिले में कार्य पूरा करता है। जिला विद्यालय निरीक्षक जिले में शिक्षा की प्रगति के लिए योजनाएँ बनाता है तथा उन्हें क्रियान्वित करने की व्यवस्था करता है।
ii. निरीक्षण कार्य-
अपने कार्यालय को व्यवस्था, संचालन तथा देखरेख करने के अलावा जिला विद्यालय निरीक्षक को अपने जिले की सीमान्तर्गत स्थित माध्यमिक एवं प्राथमिक विद्यालयों का सामयिक निरीक्षण भी करना पड़ता है। अपने निरीक्षण के अन्तर्गत निरीक्षक विद्यालय को अनेक पहलुओ से की जाँच करता है। विद्यालय में वह समय-चक्र उपस्थिति, शिक्षण कार्य, सहभागी क्रियाओं का संचालन, परीक्षा कार्य, आय-व्यय आदि अनेक पहलुओं का निरीक्षण करता है।
iii. सम्पर्क कार्य-
जिला विद्यालय निरीक्षक को अनेक व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करना पड़ता है। सामान्यतः उसे अपने कार्यालय के अधिकारियों, विभाग के उच्च पदाधिकारियों, प्रधानाध्यापकों, शिक्षकों, अन्य विभागों के अधिकारियों से सम्पर्क स्थापित करना पड़ता है। उसे जन-सम्पर्क की भी आवश्यकता पड़ती है। वह अभिभावकों से सम्पर्क बनाता है। उसे जिलाधीश तथा अन्य विकास अधिकारीयों से सम्बन्ध बनाने पड़ते है।
विद्यालय निरीक्षण-पद्धति के दोष
ब्रिटिश कालीन भारत में जिस प्रकार के निरीक्षण की नींव डाली गयी, वह 'परम्परागत निरीक्षण' या आदेशात्मक निरीक्षण' के नाम से पुकारा जा सकता है, क्योंकि इसमें निरीक्षण की स्थिति निरंकुशतापूर्ण होती है। जब निरीक्षक विद्यालय भवन में प्रवेश करता है तब विद्यालय के सम्पूर्ण वातावरण में विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एच0एस0 लॉरेन्स ने प्रचालित विद्यालय निरीक्षण-पद्धति का निम्नलिखित शब्दों में बड़ा ही स्पष्ट चित्रण किया है।
"बहुधा विद्यालय निरीक्षण की असावधानीपूर्वक, अन्यमनस्क एवं असहानुभूतिपूर्ण कहकर आलोचना की जाती है। प्रायः निरीक्षण-दिवस कुछ सीमा तक भयोत्पादक माने जाते हैं। निरीक्षक द्वारा हिसाब-किताब के मामलों पर बल दिया जाता है। इसके द्वारा शिक्षा सम्बन्धी मामलों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। निरीक्षण केवल आँकड़ों परीक्षाफलों के प्रतिशत, फर्नीचर तथा प्रतिदिन की उपस्थिति में रूचि रखते हैं। सकारात्मक पक्ष की अपेक्षा नकारात्मक पक्ष को अभिव्यक्त किया जाता है। केवल ध्वंसात्मक पक्ष की आलोचना ! प्रस्तुत की जाती है। परीक्षक खोज करने वाला होता है जो कि विद्यालय की त्रुटियों को बताने के लिए प्रयत्नशील रहता है, जबकि प्रधानाचार्य तथा शिक्षकगण समस्त प्रकार के साधनों से उसको प्रसन्न करने का प्रयत्न करते है। अतः निरीक्षण को केवल शिक्षकों में नैराश्य एवं असन्तोष उत्पन्न करने वाला कहा जाता है।"
माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा विद्वानों ने भी वर्तमान निरीक्षण-पद्धति के अधोलिखित दोषों की ओर संकेत दिया है।
i. वर्तमान निरीक्षण पद्धति में निरीक्षण की स्थिति एक सहयोगी नेता के रूप में न होकर एक अधिनायक जैसी होती है। वह शिक्षकों को शिक्षा-सम्बन्धी समस्याओं के विषय में न तो बताने का अवसर देता है और न उनको अपनी मौलिकता सूझ-बूझ असहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करता है। वह मित्र दार्शनिक तथा मार्गदर्शक न बनकर निरंकुश शासक बन जाता है इस कारण इसके द्वारा किया गया विद्यालय निरीक्षण यदि क्रोध का विषय नहीं बनता है तो कुछ मात्रा तक भय उत्पन्न करने वाला विषय अवश्य बन जाता है। लाल ने लिखा है कि उसका प्रमुख कार्य फाइलों पर आदेश प्रदान करने तथा विद्यालय में दर्शन देने के लिए जाना है, जहाँ वह राजसी ठाठ-बाट जैसा स्वागत प्राप्त करता हैं। उससे अच्छी रिपोर्ट प्राप्त करने के लिए सभी प्रकार से उसको सम्मान प्रदान किया जाता है।
ii. निरीक्षण-पद्धति का दूसरा दोष यह है कि विद्यालय निरीक्षण केवल दिखावटी होते हैं निरीक्षकों द्वारा केवल खानापूरी की जाती है। वे निरीक्षण को प्रायः बड़े अन्यमनस्क ढंग से लापरवाही के साथ करते हैं। निरीक्षक अपने निरीक्षण की तिथियों से विद्यालय अधिकारियों को पहले से सूचित कर देते है जिसके परिणामस्वरूप विद्यालय अधिकारी अपने कार्य की कमियों को पूरा कर लेते है। इसके अतिरिक्त उनका निरीक्षण भी प्रहार के समान होता है। वे लोग मुख्यतः प्रशासन, वितीय आदि मामलों की जाँच करके चले जाते है उनके द्वारा शिक्षा सम्बन्धी मामलों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है जो निरीक्षण का वास्तविक एवं महत्वपूर्ण अंग है। इनके द्वारा न तो शिक्षकों से उनकी शैक्षिक समसयाओं के विषय में पूछा जाता है। और न उसका किसी प्रकार से मार्ग प्रदर्शित किया जाता है। यहाँ तक कि शिक्षकों तथा निरीक्षकों के बीच किसी प्रकार का परिचय भी नहीं हो पाता। माध्यमिक शिक्षा आयोग का विचार है कि “निरीक्षण दिखावटी होते है। निरीक्षक द्वारा विद्यालय निरिक्षण के लिए जो समय प्रदान किया जाता है, वह अपर्याप्त है। इस अपर्याप्त समय काअधिकांश भाग दिन-प्रतिदिन के प्रशासकीय कार्य को दिया जाता है: उदाहरणार्थ-विद्यालय के हिसाब-किताब तथा पत्र व्यवहार आदि को । शैक्षिक कार्यों के निरीक्षण के लिए बहुत कम समय दिया जाता है और शिक्षकों तथा निरीक्षकों के बीच सम्पर्क बहुत ही कम होते है।”
iii. निरीक्षण-पद्धति का यह दोष यह भी है कि निरीक्षकों का दृष्टिकोण रचनात्मक न होकर ध्वंसात्मक रहता है। वे निरीक्षण आलोचनात्मक एवं परीक्षात्मक दृष्टिकोण से करते है। उनके द्वारा निरीक्षण के पश्चात् त्रुटियों की एक बहुत लम्बी सूची बना दी जाती है। इस कारण निरीक्षण हर्षोत्पादक न बनकर भयोत्पादक होता है।
iv. शिक्षा के प्रचार के कारण विद्यालयों की संख्या में पर्याप्त रूप मे वृद्धि हो गई है। परन्तु वृद्धि के साथ- साथ निरीक्षकों की संख्या में वांछित अनुपात में वृद्धि नही हो पायी है, जिसके परिणामस्वरूप वे अपने कार्य को सुचारु रूप में नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन पर कार्य - भार बहुत अधिक है। माध्यमिक शिक्षा आयोग का मत है, “एक निरीक्षक की देखभाल में जिन स्कूलों को रखा गया है, उनकी संख्या अधिक है। इस कारण वह स्वयं को अपने वास्तविक कार्य- शैक्षिक कार्यक्रम की उन्नति से परिचित भी नहीं करा पाता तथा अपनी समस्याओं का मूल्यांकन करने में भी असमर्थ रहता है।
V. वर्तमान निरीक्षण पद्धति में एक दोष विषयगत निरीक्षकों का अभाव भी पाया जाता है। एक निरीक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह प्रत्येक विषय के शिक्षक के कार्य का निरीक्षण करे। इस सम्बन्ध में निरीक्षक की रुचि एवं योग्यता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। यह प्रथा शैक्षिक रूप से त्रुटिपूर्ण एवं हानिकार है क्योंकि वह केवल एक विषय का ही विशेषज्ञ हो सकता है तथा उसी विषय के शिक्षकों का उचित रूप से मार्गदर्शन कर सकता है।
भारत में विद्यालय निरीक्षण की वर्तमान स्थिति
पहले अधिनायकवादी दृष्टिकोण से अधिकारी बनकर अध्यापकों के कार्य का जायजा लिया जाता है, अब उसके स्थान पर पर्यवेक्षण संप्रत्यय आने से कार्य पद्धति तथा उसकी भावना में अन्तर आ गया है।
संविधान के अनुसार प्रत्येक राज्य की शिक्षा व्यवस्था संचालित करने का दायित्व स्वयं राज्य पर है। इस व्यवस्था को तथा नीति निर्धारण आदि कार्यों का सचिवालय करता है इन नीतियों और व्यवस्थाओं की सही स्थिति की देखभाल के लिए शिक्षा विभाग ने प्रत्येक राज्य के जिले में एक निरीक्षक नियुक्त किया है, जो निरीक्षण के द्वारा शैक्षिक उद्देश्यों का मूल्यांकन करता है शिक्षा शास्त्रियों ने निरीक्षण सम्बन्धी नवीन धारणा की अभिव्यक्ति करने के लिये एक नवीन शब्द का प्रयोग किया है जो पर्यवेक्षण के नाम से जाना जाता है। यह केवल शब्दों का हेरफेर नहीं है वरन् उनमें उद्देश्य, क्षेत्र, विधि एवं दृष्टिकोण का भी बड़ा अन्तर है।
पहले प्रायः विद्यालय निरीक्षण एक ऑडीटर के समान कार्य करता था। सरकारी आडीटर वर्ष में दो- तीन दिन के लिए आता है और एक समय जितना हिसाब किताब देख सकता है, उसकी अशुद्धियों एवं कमियों को अपनी रिपोर्ट में लिखकर अपने उच्चाधिकारी के पास भेज देता है। इस रिपोर्ट के फलस्वरुप कुछ मास के पश्चात् विद्यालय को उन भूलों को ठीक करने का आदेश प्राप्त होता है। परन्तु जो त्रुटियाँ थोड़े समय के कारण उनकी दृष्टि में नहीं आई, वे ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। निरीक्षक अपनी अल्पकालीन जाँच में विद्यालय के समस्त अंगों व तत्वों का निरीक्षण नहीं कर सकता और न ही विद्यालय के कार्यकत्ताओं को रचनात्मक सुझाव हीं दे सकता है। उन्हें विकास के समुचित निर्देशन भी दिये जाने चाहिए।
एन.सी.ई.आर.टी. के एक सर्वेक्षण के अनुसार -
1. माध्यमिक या उच्च माध्यमिक विद्यालय में निरीक्षण अवधि में से 2 दिन (आकस्मिक निरीक्षण मात्र) पाई गई।
2. 1/2 से 1 दिन शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्य करने वाली संस्थाओं के निरीक्षण हेतु लगाया गया है।
3. वर्ष भर में एक इन्सपेक्टर प्रायः 120 दिन निरीक्षण करता है।
4. प्रायः विभिन्न राज्यों में एक वर्ष में औसतन 100 स्कूलों को देखता है।
एन0सी0ई0आर0टी0 के इस सर्वेक्षण से यह ज्ञात होता है कि निरीक्षण कम अवधि के कारण औपचारिक मात्र रह जाते हैं। जिला अधिकारियों के प्रशासनिक कार्यों के कारण कुछ विद्यालय ही एक वर्ष में देखे जा सकते हैं। अतः हर विद्यालय का नियमित निरीक्षण सम्भव नहीं हो पाता। जिला शिक्षा अधिकारी निरीक्षण के अतिरिक्त अनेक प्रशासनिक उत्तरदयित्वों में उलझा रहता है, जो उसके अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं इस सम्बन्ध में नित्न सुझाव दिए जा सकते हैं।
1. प्रत्येक जिला स्तर पर अलग से ही एक शिक्षा अधिकारी हो, जो केवल शिक्षा के गुणातमक विकास के लिए कार्य करे। यही बात कोठारी आयोग ने भी सुझाई हैं
2. प्रशासनिक कार्य के लिए एक अतिरिक्त जिला शिक्षा अधिकारी हो सकता है।
3. निरीक्षण के लिए निरीक्षण कर्ताओं की संख्या बढ़ाई जा सकती हैं।
4. निरीखण पूर्वसूचित व आकस्मिक दोनों हों और उनकी संख्या बढ़ाई जाए।
5. निरीक्षण कार्य की अवधि भी बढ़ाई जाए। जिससे विद्यालय का व्यापक मूल्यांकन सम्भव हो सके।
निरीक्षण प्रणाली मे सुधार हेतु सुझाव;
प्रचलित आदेशात्मक निरीक्षण पद्धति के दोषों व कमियो का निवारण सहयोगी व परामर्शदायी परिनिरीक्षण की नवीन धारणा से हो सकता है। इस विषय में यदि परिर्वतन किया जाए तो वर्तमान निरीक्षण पद्धति के बहुत-से दोषों का निवारण ही नहीं होगा, बल्कि उसकी उपयोगिता भी बढ़ जाएगी। विद्यालय के सामान्य निरीक्षण की प्रचलित पद्धति में निरीक्षकों की संख्या कम की जा सकती है जिसमें व्यय में बहुत अधिक वृद्धि न हो। सामानय प्रशासन से सम्बन्धित निरीक्षक विद्यालय संचालन के कार्यों का निरीक्षण करें तथा विशेषज्ञ, परामर्शदाता शैक्षिक कार्यक्रम की उन्नति के लिए अपनी सेवाएँ दें तो शिक्षा का स्तर अवश्य उन्नत होगा।
इस प्रकार की व्यवस्था से शिक्षकों को विशिष्ट विधियों जैसे संगीत, कला, हस्तकला, गृह विज्ञान में भी कुशल सेवाएँ प्राप्त हो सकेंगी। विद्यालयों में विशेषज्ञों, या निरीक्षकों या सलाहकारों तथा शिक्षकों के निकट सम्पर्क के फलस्वरूप स्वयं शिक्षकों में अपने विषय के लिए उत्साह होगा और वे अपनी शिक्षण योग्यता को सुधारने में अधिक रूचि लेंगे।
उपर्युक्त सुझाव के अतिरिक्त विद्यालय निरीक्षण का कार्य आन्तरिक स्तर पर भी होना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भी विशेषज्ञ निरीक्षकों की नियुक्ति पर बल दिया है और शिक्षा आयोग ने प्रशासकीय तथा शैक्षिक कार्यों की देखभाल के लिए पृथक-पृथक् अधिकारियों की नियुक्ति का सुझाव दिया है।
भारत में निरीक्षण सुधार का प्रयास;
निरीक्षण के दोषों को दूर करके उसे अधिक उपयोगी बनाने के लिए भारत में एक विशाल प्रोजेक्ट नेशनल इन्स्टीट्यूट आफ एजूकेशन के द्वारा लिया गया हैं इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण अध्ययन-अध्यापन की परिस्थित का विशलेषण करके हर क्षेत्र के लिए सभी विषयों के सम्पूर्ण क्षेत्र को लेते हुए प्रश्नावलियाँ तैयार की गई हैं। पूरे देश में शिक्षाशास्त्रियों द्वारा इनकों प्रामाणिक बनाने के लिए प्रयोग चल रहा हैं प्रयोग की दो आवृतियाँ अब तक हो चुकी हैं। अपने अन्तिम स्परूप में तैयार होने के बाद यह प्रश्नावली सभी निरीक्षकों और पर्यवेक्षकों के पास भेज दी जायेगी आशा है तब उसी के अनुरूप पर्यवेक्षण होगे।
निरिक्षकों का एक समूह होगा, जिसमें सभी विषयों के विशेषज्ञ होंगे। ये लोग विद्यालयों में जाकर, पर्याप्त समय तक रूककर उनका विस्तृत निरीक्षण करेगे, समस्याओं का अध्ययन करेंगे और वैज्ञानिक ढंग उसके समाधान के लिए शिक्षकों को प्रेरणा देगें। शिक्षा का आदर्श पाठ भी प्रस्तुत कर सकते हैं।
आज निरीक्षण प्रणाली दोषपूर्ण हैं। परन्तु समाप्त नहीं करना चाहिए क्योंकि वयवस्था संचालन की निरीक्षण द्वारा सुदृढ़ बनाया जा सकता है। इस सन्दर्भ में कुछ सुझाव अधोलिखित है-
1. निरीक्षकों का प्रशिक्षण तथा अभिविन्यास किया जाय जिससे निरीक्षण का कार्य समुचित ढंग से कर सकें
2. निरीक्षण हेतु पूर्व समय तथा तिथि का निर्धारण नहीं किया जाय। अचानक निरीक्षक पहुँच कर विद्यालय की वास्तविक परिस्थितियों तथा संचालन प्रक्रिया की जाँच कर सकें।
3. निरीक्षकों को अध्यापकों तथा प्राचार्य के साथ मीटिंग करनी चाहिए। उसमें विद्यालय की समस्याओं एवं कठिनाइयों पर विचार किया जाय। निरीक्षण अपनी रिपोर्ट में संस्तुतियाँ भी दे सके।
4. निरीक्षकों में विषय भी होने चाहिएं। निरीक्षण के बाद शिक्षण का आदर्श प्रदर्शन भी करना चहिए।
5.निरीक्षकों में अच्छे कार्यों तथा व्यवस्था हेतु मौखिक तथा रिपोर्ट मे प्रशंसा भी करनी चाहिए जिससे उन्हें पुनर्बलना भी मिल सके।
6. निरीक्षकों को छात्रों तथा शिक्षकों व कर्मचारियों से साक्षात्कार द्वारा भी कार्य विधि के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करनी चाहिएं.
7.निरीक्षकों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का कार्यान्वयन भी होना चाहिए। उसका अनुसरण भी किया जाय।
8. निरीक्षकों को शिक्षा के नये आयामों एवं प्रवर्तनों की जानकारी तथा प्रर्शन भी करना चाहिए जिससे गुणात्मक सुधार किया जा सके। निरीक्षकों में सहकारिता, सहानुभूति तथा उदारता की भावना होनी चाहिए। जिससे निरीक्षण शिक्षा प्रशासन में सहायक प्रणाली का कार्य कर सकें।
9. निरीक्षकों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक तथा रचनात्मक होना चाहिए।
10. निरीक्षक ऐसे शिक्षक नियुक्ति किये जायें जो अपने-अपने विषय एवं क्षेत्र में नेतृत्व प्रदान कर सकें।
पर्यवेक्षण की त्रुटियाँ
समय-समय पर शिक्षा आयोगों तथा अन्य शैक्षिक विचारकों ने पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण के जो दोष बताये हैं, वे लगभग सभी आज भी हैं। कई बार तो क्षुब्ध होकर शिक्षा सुधारकों का कहना है कि यदि हम पर्यवेक्षण में सुधार नहीं ला सकते तो इसे समाप्त ही कर दिया जाये। लगभग 100 वर्ष पूर्व एच. एस. एस. लैरेन्स ने प्रचलित विद्यालय निरीक्षण पद्धति का निम्नलिखित शब्दों में बड़ा ही स्पष्ट चित्रण किया है-
“बहुधा विद्यालय निरीक्षण की असावधानीपूर्वक अन्यमनस्क एवं असहानुभूतिपूर्ण कहकर आलोचना की जाती है। प्रायः निरीक्षण दिवस कुछ सीमा तक भयोत्पादक माने जाते हैं। निरीक्षक द्वारा केवल हिसाब-किताब के मामलो पर बल दिया जाता है। इसके द्वारा शिक्षा सम्बन्धी मामलों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है....... निरीक्षकगण केवल आँकड़ों, परीक्षाफलों के प्रतिशत फर्नीचर तथा प्रतिदिन की उपस्थिति में रूचि रखते हैं। सकारात्मक पक्ष की अपेक्षा नकारात्मक पक्ष को अभिव्यक्त करने में रूचि रखते हैं। सकारात्मक पक्ष की आलोचना प्रस्तुत की जाती हैं निरीक्षक खोज करने वाला होता है जो कि विद्यालय की त्रुटियों को बताने के लिए प्रयत्नशील रहता है, जबकि प्रधानाचार्य या शिक्षकगण समस्त प्रकार के साधनों से उसको प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। अतः निरीक्षण को केवल शिक्षकों में नैराश्य एवं असन्तोष उत्पन्न करने वाला कहा जाता है। "
माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा शिक्षा आयोग ने पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण में निम्न दोषों का उल्लेख किया है-
1. वर्तमान पद्धति में पर्यवेक्षक की स्थिति एक सहयोगी के नेता के रूप में न होकर एक 'अधिनायक' जैसी होनी है।
2. स्कूल पर्यवेक्षक केवल दिखावा' होता है।
3. पर्यवेक्षकों का दृष्टिकोण 'रचनात्मक' न होकर 'ध्वंसात्मक' है।
4. पर्यवेक्षकों का अनुपात स्कूलों के अनुपात के अनुकूल नहीं है।
5.पर्यवेक्षक प्रशासनिक तथा प्रबन्धात्मक शिकायतों की जाँच में बहुत समय व्यतीत करते हैं।
6. पर्यवेक्षकों का कार्य प्रायः स्कूलों से विभिन्न प्रकार के आँकड़े एकत्रित करके मुख्यालय में भेजना रह गया है।
7. पर्यवेक्षकों के उपयुक्त प्रशिक्षण का अभाव है।
पर्यवेक्षण में 'सुधार' के उपाय
1. पर्यवेक्षण लचीला बनाया जाये।
2. पर्यवेक्षण एक सतत् प्रक्रिया के रूप में किया जाये।
3. पर्यवेक्षण को प्रबन्धन से अलग किया जाये।
4. पर्यवेक्षणकर्ताओं की संख्या बढ़ायी जाये।
5. पर्यवेक्षणकर्त्ताओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाये।
6. योग्य पर्यवेक्षणकर्त्ताओं की नियुक्ति की जाये।
7. पर्यवेक्षण पूर्व-नियोजित हो।
8. पर्यवेक्षणकर्त्ताओं के लिए स्कूलों में आने-जाने की समुचित सुविधाएँ प्रदान की जाये।
9. पर्यवेक्षण की रिपोर्ट स्कूलों में पर्यवेक्षण के एक सप्ताह के भीतर भेज दी जाये।
10. पर्यवेक्षण की रिपोर्ट पर उचित कार्यवाही की जाये।
11. उपर्युक्त संख्या में लड़कियों के स्कूलों के लिए स्त्री पर्यवेक्षणकर्त्ताओं की नियुक्ति की जाये।
12. पर्यवेक्षण की विभिन्न प्रक्रियाएँ प्रयोग में लायी जाये।
13. अध्यापकों के साथ विचार-विमर्श किया जाना चाहिए।
14. पर्यवेक्षण रिपोर्ट में ठोस सुझाव दिये जायें।
15. पर्यवेक्षण के आधार पर प्रतिभाशाली अध्यापकों को प्रोत्साहन दिया जाये।
शैक्षिक प्रशासन में निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण के अभिकरण
शैक्षिक प्रशासन में निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण के निम्नलिखित अभिकरण है-
1. स्कूल एक आन्तरिक अभिकरण के रूप में।
2. शिक्षा निदेशालय बाह्य अभिकरण के रूप में (सरकारी पर्यवेक्षण)
3. राज्य शिक्षा बोर्ड बाह्य अभिकरण के रूप में (अर्द्ध-सरकारी पर्यवेक्षण)
आन्तरिक पर्यवेक्षण -
स्कूल में पर्यवेक्षण के लिए आन्तरिक व्यवस्था की जाये। आन्तरिक पर्यवेक्षण के लिए प्रधानाध्यापक, विभिन्न विभागों के अध्यक्षों आदि को उत्तरदायी ठहराया जाय। दिन-प्रतिदिन की समस्याओं का निवारण तो स्कूल में प्रधानाध्यापक स्वयं अपने अन्य सहयोगियों की सहायता व परामर्श से करे। जो समस्याएँ प्रधानाध्यापक की सामर्थ्य के बाहर है उनको सरकारी पर्यवेक्षकों को सुलझाना पड़ेगा। इस प्रकार सरकारी पर्यवेक्षकों तथा स्कूल अधिकारियों को सुलझाना पड़ेगा। इस प्रकार सरकारी पर्यवेक्षकों तथा स्कूल अधिकारियों के सम्मिलित प्रयासों द्वारा स्कूल में सुधार की दिशा में नई जागृति होगी तथा शिक्षा के क्षेत्र में जो धन, समय व शक्ति की हानि हो रही है, उसका सदुपयोग होगा। इस समय मानव संसाधनों की सबसे अधिक क्षति हो रही है जिसकी अविलम्ब रोकना अत्यावश्यक है।
स्कूल में आन्तरिक परिवीक्षण व्यवस्था
आन्तरिक परिवीक्षण व्यवस्था का अर्थ आन्तरिक परिवीक्षण व्यवस्था से तात्पर्य है - कार्यक्रमों की - गतिविधियों के साथ-साथ उनका अवलोकन करना तथा पाई गयी त्रुटियों में परिवीक्षण की प्रक्रिया निरन्तर चलने वाली है। परिवीक्षण में आकलन निदान की दृष्टि से किया जाता है। सुधार लाना । आन्तरिक परिवीक्षण प्रक्रिया में स्कूल का मुख्याध्यापक अनेक समितियों का निर्माण करता है जिसके सदस्य शिक्षक होते हैं। कभी-कभी इस कार्य में स्कूल के छात्र प्रतिनिधि या मॉनीटर भी शामिल किये जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर अभिभावक शिक्षक संघ का सहयोग भी लिया जाता है। आन्तरिक परिवीक्षण में जबावदेही को ध्यान में रखा जाता है।
परिवीक्षण का उद्देश्य कार्य में पारदर्शिता रखना है। परिवीक्षण स्कूल का आन्तरिक मामला है जिसमें स्कूल कार्यों का स्कूल द्वारा निरीक्षण किया जाता है। अनियमितताओं को जानकर उनमें सुधार लाया जाता है। के
स्कूल के परिवीक्षण में मुख्याध्यापक की अहम भूमिका है। परिवीक्षण में देखा जाता है कि स्कूल के सभी वर्ग अपना-अपना कार्य ठीक प्रकार से कर रहे हैं। यह आश्वासित किया जाता है कि सभी कर्मचारी अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।
प्रधानाध्यापक तथा प्रबन्धन के पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण के कार्य
अध्यापकों तथा छात्रों के कार्य का निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण प्रायः प्रबन्धन मुख्याध्यपाक पर ही छोड़ता है। प्रबन्धन विशेष परिस्थिति में ही यह कार्य करता है।
प्रधानाध्यपाक अध्यापकों के पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण का कार्य दो प्रकार से करता है- 1. अनौपचारिक पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण
अनौपचारिक पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण
1. औपचारिक पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण प्रधानाध्यापक योजनाबद्ध पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण करता है। -
प्रत्येक अध्यापक तथा प्रत्येक विषय तथा प्रत्येक कक्षा का निरीक्षण तथा पर्यवेक्षण करता है। पहले से ही कार्यक्रम बनाकर सम्बन्धित अध्यापकों को बता देता है कि वह कक्षा में जाकर कार्य देखेगा। वह कुछ समय कक्षा में जाकर अध्यापक के कार्य को देखता है। लिखित अथवा मौखिक रूप से अपने सुझाव देता है। इसी प्रकार प्रोग्राम बनाकर छात्रों के लिखित कार्य का अपने कार्यालय में बैठकर निरीक्षण करता है तथा सम्बन्धित अध्यापक से चर्चा करता है। पर्यवेक्षण कार्य के लिए समय सारणी बनाता है।
2. अनौपचारिक पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण प्रधानाध्यापक बिना सूचित किये अध्यापकों के कक्षा कार्य - का तथा छात्रों द्वारा किये जा रहे कार्यों का पर्यवेक्षण करता है।
पर्यवेक्षक तथा निरीक्षक के रूप में प्रधानाचार्य के मुख्य कार्य निरीक्षक तथा पर्यवेक्षक के रूप में उसके निम्न प्रमुख कार्य हैं -
1. अध्यापकों के कार्यों का निरीक्षण करके उन्हें समय-समय पर निर्देशन देना एवं प्रगति हेतु प्रेरित करना ।
2. अध्यापकों द्वारा शिक्षण कार्यों में अपनाई जाने वाली विधियों, प्रविधियों, प्रवृत्तियों, शिक्षा दर्शन एवं सहायक सामग्री का निरीक्षण करना।
3. स्कूल की सम्पूर्ण गतिविधियों एवं अंगों का निरीक्षण करके उनमें सुधार लाने का प्रयास करना
4. स्कूल में गठित की जाने वाली पाठ्य सहगामी क्रियाओं का निरीक्षण करना जिसके माध्यम से बालकों के व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास होता है।
5. स्कूल के भौतिक तत्वों, खेल एवं शारीरिक क्रियाओं, स्कूल सहकारी भण्डार, कैण्टीन आदि का निरीक्षण करते रहना।
6. स्कूल के पुस्तकालय, प्रयोगशालाओं, भवन, फर्नीचर आदि का निरीक्षण करते रहना।
7. स्कूल में सम्पन्न होने वाली विभिन्न परीक्षाओं तथा प्रश्न-पत्रों का निरीक्षण करते रहना चाहिए, जिससे पाठ्य पुस्तक तथा प्रश्न पत्रों में साम्यता बनी रहे।
8. अध्यापकों को विभिन्न पाठ्य पुस्तकों के चयन करने में परामर्श देना तथा पाठ्य पुस्तकों का अध्ययन करके उपयोगिता की दृष्टि से निरीक्षण करना.
9. अभिभावकों से सम्पर्क बनाये रखना तथा ऐसी बातों का निरीक्षण करना जिनसे स्कूल और अभिभावकों मध्य सुदृड़ सम्बन्ध स्थापित हो सके।
10. स्कूल के ऐसे तत्वों का निरीक्षण करते रहना एवं उन पर नियन्त्रण रखना जिनसे स्कूल को हानि होने की सम्भावना बनी रहती हो ।
11. स्कूल में छात्रों की प्रवेश संख्या, शिक्षकों की संख्या तथा अन्य कर्मचारियों की संख्या में सन्तुलन बनाये रखने हेतु निरीक्षण करना।
12. छात्र-जीवन से सम्बन्धित स्कूल के आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार की क्रियाओं का निरीक्षण करना ।
13. कार्यालय के कार्य का निरीक्षण समय-समय पर करते रहना ।
14. स्कूल के विभिन्न रजिस्टरों की देखरेख करते रहना तथा उन पर नियन्त्रण रखना।
15. छात्रावास का निरीक्षण करते रहना।
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