अकबर ने फरवरी 1561 ई. को मालवा विजय करने के लिए आधमखां (माहम अनगा का पुत्र) पीरमोहम्मद खां (बैरामखां का शत्रु), अब्दुल्लाखाँ, कियाखाँ कंग, शाहमुहम्मद खाँ, आदिलखाँ और इसका पुत्र सादिक खाँ, हबीबकुलीखाँ, हैदरअलीखाँ, मुहम्मद कुलीं तकवायी, कियाखाँ साहेब हसन, मिराक बहादुर, समानजीखाँ, पायन्दामुहम्मद खाँ मुगल, मुहम्मद ख्वाजा कुश्तीगीर, मिहर अली सिल्दौज, मीरान अरधुन, शाह फनाई आदि को श्रेष्ठ घुड़सवार सेना के साथ भेजा। इस अवसर पर निजामुद्दीन लिखता है कि 'बाजबहादुर का अधिकांश समय संगीत एवं भोगविलास में ही व्यतीत होता था, वह हिन्दी गायन में बड़ा ही निपुण था। इस समय बादशाह को विदित हुआ कि बाजबहादुर अपने राज्य की कुछ चिन्ता नहीं करता अत्याचारी और साहसिक लोग गरीब और असहाय लोगों को सता रहे हैं और किसान लोग बड़े दुःखी हैं। वह आगे लिखता है कि शाही तख्त का कर्तव्य था कि इस देश (मालवा) को पुनः अपने अधिकार में लेकर वहाँ शान्ति और सुरक्षा स्थापित करता ।
आधमखाँ जब शाही सेना को लेकर सारंगपुर से दस कोस के फासले पर पहुँच गया, तब बाजबहादुर की आखें खुली। इस समय बाजबहादुर सारंगपुर में ही था। उसने नगर से दो कोस के फासले पर किलेबंदी कर मोर्चा जमाया। परन्तु उसकी सेना के अफगान सिपाही असन्तुष्ट थे, वे चुपके से खिसक गये. दोनों सेनाएँ अब एक दूसरे के आगे 2-3 कोस के फासले पर खड़ी हो चुकी थी, देखते ही देखते दोनों सेनाएँ आपस में भिड़ गयीं। मुगल सेना ने बाजबहादुर की सेना की रसद काटना प्रारम्भ कर दी। किन्तु कोई सफलता नहीं मिली तब शाहमुहम्मदखान कंधारी, सादिकखान, पायन्दा मुहम्मद खान शाहफनी, मिहरअली सिलदान सामजीखान और मुहम्मद कुस्तगीर बहादुर के शिविर के पास सेना से युद्ध करने लगे। युद्ध की खबर जैसे ही मुगल सेना में पहुँची, सम्पूर्ण सेना ने बाजबहादुर की सेना को घेर लिया और उन पर टूट पड़े। बाजबहादुर ने वीरतापूर्वक युद्ध किया, किन्तु फिर भी वह पराजित हो खानदेश बुरहानपुर की ओर भाग गया। उसकी प्रिय पत्नी रूपमती जो सुन्दर ढंग से गायन वादन करती थी और उसकी दूसरी पत्नियाँ दासियाँ तथा उसका राजकोष आधमखां के हाथ में आ गया। जब बाजबहादुर भागा जा रहा था तो उसके एक नाजिर ने रूपमती को तलवार से आहत कर दिया, जिससे कि वह दूसरे लोगों के हाथ में न पड़ जाये। जब अहमदखाँ ने रूपमती को जबरदस्ती पाना चाहा तब उसने जहर खा लिया और मर गई |
आधमखाँ ने मालवा विजय का वृतान्त अकबर को लिखकर भेजा आधमखां ने स्त्रियाँ और गायिकाएँ तो अपने पास रख ली और सादिक खाँ के साथ कुछ हाथी बादशाह को भेज दिये । इन स्त्रियों को और लूट का माल अपने पास रख लेने के कारण अकबर नाराज हो गया। अकबर ने मालवा चलने की स्वयं तैयारी की। अतः 27 अप्रैल 1561 ई. को आगरा से मालवा की ओर कूच किया। अकबर के सारंगपुर आने पर अदहमखाँ ने लूट का सब माल इकट्ठा किया और बादशाह को भेंट कर दिया। अकबर वहाँ कुछ दिन आमोद-प्रमोद करने के लिए ठहरा और फिर आगरा लौट गया .
आधमखाँ की तरफ से अकबर का दिल पूरी तरह से साफ नहीं हुआ था । आधमखाँ की माँ माहम अनगा के कहने से वह कुछ समय के लिए शान्त हो गया था। नवम्बर, 1561 ई. में शमसुद्दीन मोहम्मदखाँ अतगा को, जो काबुल से आया था, अकबर ने मंत्री बनाकर साम्राज्य का राजनीतिक, सैनिक और अन्य प्रमुख काम सब उसके सुपुर्द कर दिया और उसी की सलाह से आधमखाँ को मालवा से वापस बुला लिया गया। माहम अनगा अतगाखाँ की उच्च पद पर नियुक्ति के विरुद्ध थी और इस बात से बड़ी परेशान थी कि अकबर धीरे-धीरे उसके प्रभाव के बाहर होता जा रहा था। लेकिन साथ ही यह एक बहुत विचित्र बात थी कि पीरमोहम्मद को मालवा में आधमखाँ के स्थान पर नियुक्त किया गया, 24 जो उस समय भी सूबेदार आधमखां का प्रधान सहायक था। मालवा के सुल्तान बाजबहादुर के समर्थकों का इस क्षेत्र से सफाया करने में उसने विशेष तत्परता दिखाई। उसने बीजागढ़ पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया तथा दुर्ग के समस्त सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। चूँकि बाजबहादुर ने खानदेश में शरण ली थी और वह मालवा के दक्षिणी सीमान्त पर अशान्ति फैला रहा था । अतः पीरमोहम्मद ने उस क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया और बुरहानपुर तक आ पहुँचा। खानदेश के मुबारक द्वितीय और बाजबहादुर ने बरार के वास्तविक शासक तुफत खान से सहायता की याचना की और उसके आ मिलने पर वे पीरमोहम्मद पर टूट पड़े और उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया तथा उसे माण्डू की ओर भागने के लिए विवश कर दिया।
जब पीरमोहम्मद नर्मदा नदी पार कर रहा था तब वह उसमें डूब कर मर गया । तथापि मुगल सेना का पीछा किया जाता रहा और उसे विवश हो आगरा भागना पड़ा। इस प्रकार बाजबहादुर ने कुछ समय पर पुनः अधिकार कर लिया। अकबर ने मालवा पर अधिकार करने के लिए पुनः सेना भेजी। इस बार बाजबहादुर चित्तौड़ में महाराणा उदयसिंह के पास जा पहुँचा। अब्दुल्लाखान ने मालवा पर मुगल शासन की पुनः स्थापना की और माण्डू को अपना मुख्यालय बनाया। शाही सेना उज्जैन, सारंगपुर तथा अन्य क्षेत्रों में भी गई और उसने वहाँ शान्ति स्थापित की।
यद्यपि अब्दुल्लाखान एक कुशल प्रशासक था, तथापि वह महत्त्वाकांक्षी और विद्रोही सिद्ध हुआ। अतएव अकबर ने उसे दबाने का संकल्प किया और अब्दुल्लाखाँ को सबक सिखाने के लिए 1 जुलाई, 1564 ई. को आगरा से प्रस्थान किया। ग्वालियर, नरवर, सारंगपुर होता हुआ उज्जैन और वहाँ से धार पहुँचा, जो उसे यह समाचार मिला कि अब्दुल्लाखान जो माण्डू में था, माण्डू से सात मील दूर लावनी की ओर भाग गया। 5 अगस्त की संध्या को अकबर लावनी पहुँचा। अगस्त 6 को बाघ नामक गाँव के पास विद्रोहियों और अकबर की सेना की अग्रिम टुकड़ी के बीच युद्ध हुआ । अन्ततः अब्दुल्लाखान की पराजय हुई और वह गुजरात की ओर भाग गया। तत्पश्चात् अकबर माण्डू लौटा और वह 10 अगस्त को वहाँ पहुँचा। मालवा की शासन व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए वह वहाँ लगभग एक माह रूका रहा। उसने कारा बहादुरखान को मालवा को सूबेदार नियुक्ति किया, उसके पश्चात् शिहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन खान सूबेदार नियुक्त हुए ।
इस प्रकार मालवा अन्तिम रूप से मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया। प्रशासनिक व्यवस्था के पुनर्गठन में मालवा सूबे 12 सरकार सम्मिलित थीं । इन्दौर जिले की वर्तमान देपालपुर और सांवेर तहसीलें उज्जैन सरकार के महालों के रूप में दिखाई गई हैं। इसी प्रकार इन्दौर-धार मार्ग पर स्थित बेटमा को माण्डू सरकार के महाल के रूप में दिखाया गया है। उज्जैन सरकार के 10 महलों में से उज्जैन, उन्हेल, पानबिहार, खाचरौद तथा नोलई (बड़नगर ) महालों से मिलकर बना है। इसी प्रकार सारंगपुर सरकार के सुन्दरसी, कायथा मोहम्मदपुर तथा तराना के महाल भी वर्तमान उज्जैन जिले में सम्मिलित हैं। धार जिले के धार, माण्डू नालछा तथा मनावर के महाल माण्डू सरकार में शामिल थे।
मुगल सेना का गढ़ा राज्य पर आक्रमण :
मालवा विजय के साथ ही मुगल साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा महारानी दुर्गावती के गढ़ा राज्य से टकराने लगी। ख्वाजा अब्दुल मजीद जिसको आसफखाँ की पदवी दी गई थी कड़ा माणिकपुर का सूबेदार नियुक्त किया गया। उसने इस प्रदेश में अच्छा कार्य किया था । उसकी इन सेवाओं में गढ़ा की विजय भी एक थी। इस प्रदेश में बहुत सी पहाड़ियाँ और जंगल थे और जिसे इस्लाम के उदय के समय से अब तक हिन्दुस्तान का कोई भी शासक विजित नहीं कर सका था । यहाँ पर रानी दुर्गावती राज्य करती थी। आसफखाँ ने कई प्रकार के बहानों से उसके राज्य में गुप्तचर भेजे थे और जब उसको गढ़ा की परिस्थिति और विशेषता से परिचय हो गया और यह भी पता लग गया कि रानी के पास बहुत बड़ा खजाना है और उसकी स्थिति दृढ़ है। रानी दुर्गावती ने बीस हजार घुड़सवार और पाँच सौ हाथियों के साथ शाही सेना का मुकाबला किया। दोनों सेनाएँ बड़ी वीरता के साथ लड़ी। रानी के जो अपने घुड़सवारों के आगे होकर लड़ रही थी, एक तीर लगा और जब उस वीर महिला ने देखा कि वह गिरफ्तार कर ली जावेगी तो उसने महावत के हाथ से खंजर लेकर अपने पेट में मार लिया और वह मर गई .
आसफ खाँ को विजय प्राप्त हुई और चौरागढ़ के तालुक तक जा कर, जहाँ पर गढ़ा के शासकों खजाना था, वह रुक गया। रानी के पुत्र ने स्वयं को दुर्ग में बन्द कर लिया, परन्तु उसी दिन शाही सेना ने दुर्ग छीन लिया और युवा राजा को घोड़ों से कुचलवाकर मार डाला गया। शाही सेना के हाथ इतने जवाहरात, सोना, चाँदी और दूसरी चीजें आयीं कि उसके दशांश का भी कोई अनुमान नहीं कर सकता । इस अपार लूट में से आसफखाँ ने दरबार में केवल 15 हाथी भेजे और शेष समस्त सम्पत्ति अपने पास रख ली .
विन्सेंट ए. स्मिथ ने लिखा है कि ऐसी उच्च चरित्र वाली रानी के विरुद्ध अकबर का सेना केवल अतिक्रमण था । विशेषतः उसने अकबर के विरुद्ध कोई ऐसा कार्य नहीं किया था, जिससे वह उत्तेजित होता। अकबर की इस चढ़ाई में कोई औचित्य नहीं था । यह केवल लूट और विजय की तृष्णा से ही गई थी ।
गढ़ा राज्य की विजय के बाद अकबर ने गढ़ा को मालवा सूबा में मिला लिया और अधिकांश क्षेत्र गढ़ा सरकार के अन्तर्गत शेष भाग चंदेरी सरकार में मिला दिये गये तदनन्तर - यह प्रदेश मुगल नियंत्रण में ही रहा
बाजबहादुर द्वारा पुनः मालवा पर अधिकारः
पीरमोहम्मद ने आधमखाँ के स्थान पर नियुक्त होने के बाद मालवा में सेना एकत्र कर असीरगढ़ तथा बुरहानपुर के इलाकों को जीतने के लिए रवाना हुआ। इस क्षेत्र में मुख्य दुर्ग बीजागढ़ का था, जिसको घेर कर उसने जीत लिया और सारे दुर्ग रक्षकों को मौत के घाट उतार दिया। फिर उसने सुल्तानपुर के ऊपर चढ़ाई की और उसको जीतकर शाही इलाके में मिला लिया। फिर वह असीरगढ़ पहुँचा। नर्मदा पार करके उसने बहुत से कस्बों को और गाँवों को तहस नहस कर डाला और फिर बुरहानपुर पहुँचा। इस नगर पर उसने अधिकार कर लिया और वहाँ के सब निवासियों को मार डालने का हुक्म दिया। उसने अपनी उपस्थिति में ही वहाँ के बहुत से मुल्लाओं और सैय्यदों को मरवा दिया। असीरगढ़ और बुरहानपुर के सूबेदार और बाजबहादुर, जो मालवा से भागने के बाद इसी स्थान पर छिपे हुए थे, एकत्र होकर उस पर आक्रमण करने का विचार किया इसमें क्षेत्र के जमींदारों ने उसका साथ दिया। तब सेना इकट्ठी कर बाजबहादुर ने पीरमोहम्मद पर उस समय हमला किया जब लूट का बहुत सारा माल लेकर उसकी सेना वापस लौट रही थी। पीरमोहम्मद इस अचानक हुए आक्रमण का सामना नहीं कर सका और माण्डू की ओर भागा और नर्मदा पार करते हुए घोड़े से गिरकर डुबकर मर गया। निजामुद्दीन लिखता है कि उसको दुष्कर्मों का फल मिल गया |
पीर मोहम्मद की मृत्यु से सेना में हताशा व डर फैल गया क्योंकि उन्होंने मालवा मुगल सेना निवासियों पर इतने अत्याचार किये थे कि अब उन्हें अपना ही जीवन संकट में नजर आने लगा था। अतएव वे मालवा छोड़कर आगरा भाग गये। बाजबहादुर ने उनका पीछा किया और एक बार फिर मालवा पर अपना अधिकार कर लिया। उन अमीरों को जो बिना हुक्म के मालवा छोड़कर आगरा में आ गये थे, कुछ समय के लिए कैद में रखा गया और बाद में रिहा कर दिया गया।
अतः अकबर ने अब्दुल्लाखाँ उजबेग, जिसने मालवा विजय में अदहमखाँ की सहायता की थी, तथा वह मालवा की परिस्थितियों से भी परिचित था, को पुनः मालवा विजय के लिए भेजा ई. सन् 1562 के अन्त में अब्दुल्ला और उसकी सहायक सेना ने मालवा में प्रवेश किया ।
बाजबहादुर उनका सामना नहीं कर सका और दक्षिण की पहाड़ियों में चला गया। मुगल सेना द्वारा जब उसका पीछा किया गया तब वह छिपता- छिपता मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह की शरण में चला गया . अन्त में उसने अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया तब अकबर ने उसे दो हजारी जात और सवार का मनसब दिया। अकबर के दरबार में बाजबहादुर की गणना मनसबदारों तथा गायकों दोनों में होती थी ।
जुलाई 1564 ई. में अब्दुल्लाखाँ ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह करने का इरादा किया और अकबर को स्वयं उसके विरुद्ध जाना पड़ा। अब्दुल्लाखाँ को शीघ्र ही मालवा छोड़कर गुजरात भागना पड़ा। अकबर अपनी सेना सहित माण्डू पहुँचा तब आस-पास के जमींदार स्वामि भक्ति प्रकट करने के लिए आये। अगस्त 1564 ई. को अकबर माण्डू से रवाना हुआ। कर्रा बहादुरखाँ को माण्डू का सूबेदार नियुक्त किया गया .
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