मध्यप्रदेश में मुगलों का प्रभुत्व | MP Under Mugal Empire

 मध्यप्रदेश में मुगलों का प्रभुत्व

मध्यप्रदेश में मुगलों का प्रभुत्व | MP Under Mugal Empire


 

मध्यप्रदेश में मुगलों का प्रभुत्व - बाबर के समय से 

अप्रैल 1526 ई. में इब्राहीम लोदी और बाबर के मध्य हुए पानीपत के युद्ध के परिणाम स्वरूप ही भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना हुई तथा सल्तनत काल का अन्त हुआ ।

 

मालवा की सल्तनत की सीमाएँ ग्वालियर तक फैली हुई थी। जब बाबर ने मुगल साम्राज्य की स्थापना की तब ग्वालियर तातार खाँ सारंगखानी के अधिकार में था। पानीपत के युद्ध के पश्चात् ही तातार खाँ बाबर की अधीनता स्वीकार करना चाहता था। उसने बाबर को संदेश भी भेजे थे। बाबर समयाभाव के कारण ध्यान नहीं दे पा रहा था । परन्तु जब राणा सांगा ग्वालियर के निकटवर्ती प्रदेशों में विद्रोह करवाने लगा तब बाबर ने मुल्ला अपाक तथा शेख धूरन को ग्वालियर भेजा तथा उन्हें आदेश दिया कि ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार करके उसे रहीम दाद को सौप कर वे तुरन्त वापस लौट आये । परन्तु जैसे ही मुगल सेना ग्वालियर के निकट पहुँची, तातारखाँ सारंगखानी ने दुर्ग का समर्पण करने से इन्कार कर दिया। तब कुछ समय बाद शेख मुहम्मद गौस ने रहीम दाद को सूचित किया की तातारखाँ तथा उसके साथियों में फूट पड़ गयी है अतः दुर्ग पर आक्रमण कर वह दुर्ग को ले ले। तब रहीम दाद द्वारा ऐसा ही किया गया । तातारखाँ ने दुर्ग समर्पण कर दिया तथा बाबर की सेवा में चला गया। बाबर ने उसके खर्च हेतु 20 लाख दाम की आय वाला बियावा परगना उसे प्रदान किया ।

 

इसी तरह चन्देरी भी मालवा की सीमा पर स्थित था । चन्देरी का अपना राजनैतिक, व्यापारिक तथा सामरिक महत्त्व था । चन्देरी एक समृद्धशाली शहर भी था। चन्देरी दुर्ग 230 फीट ऊँचाई पर एक पहाड़ी पर बना हुआ है वहाँ के राजा मेदीनीराय ने राणा सांगा की अधीनता स्वीकार कर ली थी। खानवा के युद्ध के पश्चात् बाबर ने चन्देरी पर आक्रमण किया परन्तु उसे पराजय हाथ लगी। इसी तरह निरन्तर अथक प्रयास बाबर चन्देरी विजय हेतु करता रहा और अन्त में उसने चन्देरी पर अधिकार कर लिया। दुर्ग विजय करके उसने राजपूतों को मौत के घाट उतारा। इससे पूर्व राजपूत वीरांगनाएँ जौहर कर चुकी थी । राजपूतों को मारने के बाद उसने चन्देरी दुर्ग मालवा के शासक नासिरूद्दीन के पौत्र अहमदशाह को सौंप दिया। चन्देरी में से 50 लाख खालसा में सम्मिलित किये गये तथा मुल्ला अपाक को वहाँ का शिकदार नियुक्त किया गया

 

बाबर चूंकि साम्राज्यवादी नीति का पक्षधर था अतः वह पूर्ण भारत विजय की मंशा रखता था परन्तु उसे भारत में साम्राज्य स्थायित्व का समय ही नहीं मिला। मात्र 4 वर्ष भारत में शासन करके ही 1530 ई. में उसका निधन हो गया ।

 

हुमायूँ के समय में मध्यप्रदेश की स्थिति : 

बाबर की मृत्युपरान्त हुमायूँ जब मुगल सम्राट बना तब मालवा पर महमूद खाँ खिलजी द्वितीय का अधिकार था तथा गुजरात का शासक बहादुरशाह था । अपनी महत्त्वाकांक्षी प्रवृत्ति के कारण वह मालवा को अपने अधिकार में करना चाहता था बहादुरशाह को मालवा के महमूद द्वितीय से दुश्मनी हो गई, जिसने गुजरात में बहादुरशाह के छोटे भाई चाँदखान को गुजरात में गृह युद्ध कराये जाने के लिये उकसाया था। इसलिये बहादुरशाह ने मालवा के अधिकारियों से गुप्त रूप से षड़यंत्र करना शुरू कर दिया। महमूद ने चित्तौड़ के राणा रतनसिंह के विरुद्ध भी कई आक्रमण किये थे। सन् 1513 ईस्वीं में रतनसिंह ने रायसेन के सलहदी और समवास (सिवास) के सिकंदर खान को मालवा पर आक्रमण करने को भेजा। बहादुरशाह ऐसी ही अनुकूल परिस्थिति के अवसर में था, वह डूंगरपूर के राजा पृथ्वीराज से सनीला (समिलाह) के निकट आकर मिला तथा बहादुरशाह, सिकन्दरखान, दलपतराव (धार का राजा) व सलहदी से सिलाह के नजदीक मिला। इनके साथ बहादुरशाह ने मालवा के सुलतान से भी मिलने को कहा, परन्तु मालवा के सुलतान ने एक के बाद एक बहाना बनाकर टाल दिया, उसके इस दुर्व्यवहार को कारण बनाकर बहादुरशाह ने उस पर आक्रमण का निर्णय किया।

 

बहादुरशाह ने थोड़े समय के घेरे के बाद ही 28 मार्च सन् 1531 ईस्वी को माण्डू को अपने अधिकार में ले लिया। महमूद द्वितीय को मार दिया गया, और उसके लड़के को मोहम्मदाबाद की जेल में डाल दिया गया। इस प्रकार मालवा आक्रमणकारियों की दया पर निर्भर हो गया। मालवा का एक छोटा हिस्सा राणा और महमूद के विद्रोही सरदारों को दे दिया गया।

 

इस विजय से प्रोत्साहित होकर बहादुरशाह ने रायसेन के सलहदी पर आक्रमण करने का विचार किया। सलहदी ने अपनी जान बचाने के लिये किले को बहादुरशाह के सुपुर्द कर दिया, और इस्लाम धर्म ग्रहण कर मुसलमान हो गया। बाद में सलहदी से अप्रसन्न होकर बहादुशाह ने उसे कत्ल करवाने का आदेश दिया। इस पर राजपूतों ने विरोध किया और बजाय समर्पण के पूरी शक्ति से लड़ने का इरादा किया, और सलहदी एक राजपूत की भांति लड़ते-लड़ते मारा गया। विजित प्रदेश बहादुरशाह ने हुमायूँ द्वारा कालपी से भगाए गए आलमखान लोदी के सुपुर्द कर दिया, और बहादुरशाह जीत का सेहरा बांधकर वापस गुजरात लौट गया । अपनी इस जीत से निर्भय होकर बहादुरशाह ने दिल्ली और राजपूताना की सर्वोच्चता को खत्म करने का इरादा किया, और चित्तौड़ के राणा पर आक्रमण करने की तैयारी की।

 

बहादुरशाह ने मोहम्मद खाँ असीरी व खुदाबंद खाँ को माण्डू से चित्तौड़ के किले पर आक्रमण करने के लिये भेजा, तब ये दोनों सेनापति मन्दसौर पहुँचे तो राणा का वकील आकर बहादुरशाह से मिला, और उससे मालवा के क्षेत्र से राणा का अधिकार हटाने व सालाना कर देने का वायदा किया, और उसकी अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव रखा।


राणा के आंतरिक गृह क्लेश की वजह से उसकी स्थिति कमजोर थी, यह सोचकर बहादुरशाह ने राणा के संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बहादुरशाह के सेनापति तातार खाँ ने राणा के क्षेत्र को लूटा व किले के 7 द्वारों में से 2 द्वारों पर कब्जा कर लिया। जब दबाव अधिक बढ़ा तो घबराकर रानी कर्णावती (कर्मा) ने हुमायूँ से सहायता की प्रार्थना की। परन्तु हुमायूँ इसकी जिम्मेदारी से बचने के लिये, ग्वालियर चला गया और वहाँ दो माह रुका, वहाँ उसे बहादुरशाह का एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि वह ( बहादुरशाह) धार्मिक युद्ध (जिहाद ) में लगा हुआ है, इसलिये हुमायूँ उसके विरुद्ध अधर्मियों की सहायता नहीं करें।

 

इस युद्ध में अंततः राणा ने हथियार डाल दिये, और मालवा का क्षेत्र और बहुत सा धन देकर संधि की। बहादुरशाह 24 मार्च सन् 1533 ईस्वी को हुमायूँ से लड़ने की तैयारी के लिये वापस चल दिया। इस समय गुजरात दरबार मुगल वंश के विरुद्ध षड़यंत्रों की शरणस्थली बना हुआ था,' सभी षड़यंत्र हुमायूँ के विरुद्ध बनाये जा रहे थे। इनमें से सबसे अधिक खतरनाक शरणार्थियों में तातारखाँ लोदी, पुत्र अलाउद्दीन खाँ लोदी था, जो मुगल बादशाह के विरुद्ध बहादुरशाह की सहायता चाहता था और अन्य शरणार्थी भी यही चाहते थे।

 

सन् 1534 ईस्वी में जब हुमायूँ बंगाल और पूर्वी प्रदेश के विद्रोहों को दबाकर लौटा तो उसे खबर मिली कि तातारखाँ ने बहादुरशाह द्वारा दिये धन का उपयोग करके 50 हजार सैनिक 'एकत्र कर लिये हैं, और इसी वजह से वह बहुत तेजी से आगरा पहुँचा। उसे खबर मिली कि तातारखाँ ने बयाना को नियंत्रण में ले लिया है, और तेजी से आगे बढ़ रहा है, साथ ही यह खबर भी मिली कि बहादुरशाह ने पुनः चित्तौड़ को घेर लिया है व चित्तौड़ का पतन होने वाला है ।

 

इस बार भी आंतरिक कलह की वजह से राजपूतों की स्थिति कमजोर थी । हुमायूँ अनुभव किया कि यह जटिल परिस्थितियाँ हैं, इसलिये उसने तातारखाँ की शक्ति को नष्ट करने का निर्णय लिया। हुमायूँ ने 18 हजार घुड़सवारों की सेना के साथ मिर्जा अस्करी, हिण्डाल कासिम हुसैन, सुलतान, मीर फकीर अली, जाहिद बेग एवं दोस्त बेग को आक्रमणकारियों से मुकाबले के लिये भेजा, तब तातारखाँ भाग गया, अतः इस समय तो खतरा टल चुका था ।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.