मध्यप्रदेश में मुगल शासन का प्रसार : बुंदेलखण्ड (बुंदेला मुगल टकराव) | Mugal Empire in MP
मध्यप्रदेश में मुगल शासन का प्रसार : बुंदेलखण्ड (बुंदेला मुगल टकराव)
बुंदेलखण्ड ( बुंदेला मुगल टकराव)
बाबर की विजय और लोधी वंश के पतन के परिणाम स्वरूप उत्तर
भारत की राजनैतिक स्थितियों से उथल-पुथल मच गई। इन्द्रप्रताप बुंदेला ने शीघ्र ही
इस अवसर का लाभ उठाया और आस-पास के क्षेत्र जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया।
मधुकर शाह के शासनकाल (155492 ई.) के दौरान
बुंदेला मुगल टकराव का प्रारम्भ हुआ। ग्वालियर और सिरोंज के आसपास आक्रमणों की
श्रृंखला बना दी और इस प्रकार मुगल बादशाह अकबर को अपने कार्यकलापों से असंतुष्ट
कर दिया इसलिए अकबर ने कई बार मधुकर शाह के खिलाफ मुगल सेनाएँ भेजी और उसे मुगलों
के आगे समर्पण के लिए बाध्य होना पड़ा। 1592 ई. में मधुकर शाह की मृत्यु हो गई और इसका ज्येष्ठ पुत्र
रामशाह गद्दी पर बैठा । तथापि वह एक कमजोर शासक सिद्ध हुआ
असीरगढ़ पर मुगलों का अधिकार :
अकबर खानदेश के फारूकी सुल्तान मीरान बहादुरखाँ से अधीनता स्वीकार नहीं करवा सका। इसलिए वह छः कोस की दूरी पर बुरहानपुर चला गया और अपने एक सेनानायक को असीरगढ़ को घेरे रहने के लिए नियत किया। जब अर्से तक घेरा चलता रहा तो दुर्ग के अन्दर की जलवायु खराब हो गयी और बीमारी फैल गई और बहुत से दुर्ग रक्षक मारे गये यद्यपि मीरान बहादुरखाँ के पास काफी सैनिक थे और युद्ध सामग्री भी बहुत थी परन्तु उसपर निराशा के बादल छाने लगे। इसी समय अहमदनगर का पतन हो गया। इसलिए ई. सन् 1600 में उसका रहा सहा साहस भी भंग हो गया और उसने असीरगढ़ को अकबर को समर्पित कर दिया । पुश्तों से जो कोष और माल किले में इकट्ठा किया जा रहा था, वह अकबर के हाथ लगा। अहमदनगर की सम्पत्ति भी बुरहानपुर मंगवाई गई।
असीरगढ़ पर विजय के बाद अकबर ने असीरगढ़ के किले का दौर
किया जिससे कि वह खुद उसका निरीक्षण कर सके। वह वहाँ चार दिन तक ठहरा और उसके बाद
अपने मुख्यालय बुरहानपुर लौट गया। पूरा खानदेश मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया
और इस प्रकार वर्तमान मध्यप्रदेश का बुरहानपुर जिला तथा पूर्वी निमाड़ जिला भी
अकबर के अधीन हो गये । बुरहानपुर को खानदेश का मुख्यालय बनाया गया। शाहजादा
दानियाल को खानदेश का प्रशासक नियुक्त किया गया और वह 18 फरवरी 1601 को बुरहानपुर
पहुँचा। बहुत ज्यादा शराब पीने से बुरहानपुर में 11 मार्च 1605 को दानियाल का निधन हो गया ।
अकबर के समय असीरगढ़ के किले ओर बुरहानपुर का बहुत महत्व हो गया क्योंकि दक्खिन के अभियानों के लिये ये दोनों प्रवेशद्वार का काम करने वाले थे। इसके अलावा सूरत से और दक्खिन से आगरा दिल्ली जाने वाले मार्ग में होने के कारण भी बुरहानपुर महत्वपूर्ण था परिणाम यह हुआ कि मुगलों का अधिकार होने के बाद बुरहानपुर न सिर्फ सैनिक केन्द्र बन गया बल्कि वह आन्तरिक और विदेशी व्यापार का भी केन्द्र हो गया।
जहाँगीर का काल
1605 में अकबर के निधन के बाद उसका उत्तराधिकारी जहाँगीर हुआ। 1610 ई. में उसने अपने बेटे शाहजादा परवेज को खानदेश के हाकिम के रूप में बुरहानपुर भेजा और उसकी सहायता के लिये अब्दुर्रहीम खानखाना को नियुक्त किया गया । ( एम्बेसी ऑफ सर टामस रो टु इण्डिया, संपादक विलियम फोस्टर, पृ 68-71 ) । सूरत से आगरा जाने वाले सभी विदेशी यात्री बुरहानपुर से होकर गये। इंगलैंड के राजा जेम्स प्रथम का राजदूत सर टामस रो बुरहानपुर से होकर ही आगरा गया था। उसने अपने संस्मरणों में बुरहानपुर का वर्णन किया हैं । जहाँगीर ने ओरछा के शासक रामशाह को 1607 ई. में हटाकर उसके छोटे भाई वीरसिंह देव को गद्दी पर बैठा दिया। इसके पूर्व वीरसिंह देव ने शाहजादा सलीम के उकसाने पर अकबर के मंत्री अबुल फजल की हत्या करवा दी थी और इस प्रकार उसका अनुग्रह प्राप्त कर दिया था। रामशाह को चंदेरी बानपुर की जागीर प्रदान की गई।
परवेज के बाद शाहजादा खुर्रम को दक्खिन को अभियानों का
दायित्व सौंपा गया। वह मार्च 1617 को बुरहानपुर पहुँचा । खुर्रम को दक्षिण का जब दायित्व
सौंपा गया तब यह तय हुआ कि स्वयं जहाँगीर मालवा में युद्ध क्षेत्र के पास माण्डू
में निवास करेगा और अक्टूबर सन् 1616 ई. में खुर्रम अजमेर से दक्षिण के लिए प्रस्थान करेगा।
नवम्बर में उसे 'शाह' की उपाधि प्रदान
की गई। 10 नवम्बर, 1616 ई. को जहाँगीर
ने अजमेर से माण्डू के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में कई एक पड़ाव के बाद
महत्त्वपूर्ण पड़ाव उज्जैन के समीप एक हिन्दू सन्यासी जदरूप से मुलाकात करने हेतु
डाला गया, जिससे मिलने के
लिए बादशाह स्वयं आधे मील की दूरी पैदल चलकर गया | 33 यहाँ से दाउदखेड़े, गाँव जराव, देपालपुर, नालछा हासिलपुर, सांगोर 4 व 3 मार्च 1617 ई. को माण्डू
पहुँचा। बादशाह जहाँगीर अजमेर से ही अब्दुल करीम मामूरी को माण्डू के पूर्व
सुल्तानों की इमारतों के जीर्णोद्धार के वास्ते भेजा था। उसने बादशाह के अजमेर में
रहने तक कई पुराने भवनों की मरम्मत करा दी थी और कई नये स्थान बनवाये थे। बादशाह
लिखता है कि उसने ऐसा निवास स्थान बना दिया था कि उस समय किसी जगह वैसा सुन्दर व
सुरम्य भवन न था। तीन लाख रुपये इसमें लगे थे। ऐसी विशाल इमारत उन बड़े शहरों में
होनी चाहिए जो हमारे निवास करने की योग्यता रखते हैं।
10 मार्च 1617 ई. से 10 मार्च 1618 ई. तक जहाँगीर
ने माण्डू के महल और इमारतों का भ्रमण किया व वहीं रहा। जहाँगीरनामा में इसका
सुरम्य वर्णन किया गया है,
बादशाह लिखता है
कि 'यह दुर्ग एक
पहाड़ के ऊपर बसा है, इसका घेरा दस कोस
नापा गया है। वर्षा के दिनों में इस गढ़ के समान कोई स्वच्छ वायु व सुन्दरता से
परिपूर्ण स्थान नहीं होता है। यहाँ शीतऋतु में रात्रि को ऐसी ठण्ड पड़ती है कि रजाई
ओढ़े बिना निर्वाह नहीं होता तथा दिन में पंखे की आवश्यकता नहीं पड़ती।
9 सितम्बर, 1617 ई. को बादशाह जहाँगीर बेगमों सहित माण्डू के किले से उतरकर नर्मदा दर्शन और शिकार खेलने को निकला, परन्तु मच्छरों और खटमलों के कारण एक रात्रि से अधिक वहाँ न रह सका। दूसरे दिन तारापुर आ गया और 12 सितम्बर को आया 135 माण्डू लौट आया ।
रीवा का इतिहास मुगल काल में
रीवा के राजा विक्रमादित्य ने 1610 ई. में विद्रोह
कर दिया जिस पर जहाँगीर ने राजा मानसिंह कछवाहा के पौत्र राजा महासिंह को विद्रोह
का दमन करने भेजा और उसके बाद जहाँगीर ने बघेल क्षेत्र महासिंह को जागीर में दे
दिया। विक्रमादित्य ने खुर्रम से सम्पर्क स्थापित कर जहाँगीर से माफी माँग ली और
अपने क्षेत्र पुनः प्राप्त कर लिए। इस प्रकार जहाँगीर के काल में मुगल बघेल
संबंधों में सुधार हुआ 1624 ई. में
विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद अमरसिंह उत्तराधिकारी बना। वह प्रथम बघेल शासक था।
जिसने मुगलशाही सेवा तथा उनके अधिराज्य को स्वीकार किया था । गद्दी पर बैठने के
पश्चात् दिल्ली जाकर बादशाह के प्रति सम्मान व्यक्त किया ।
जहाँगीर का धार भ्रमण :
शनिवार 15 नवम्बर 1617 ई. को जहाँगीर धार पहुँचा धार का वर्णन करते हुए बादशाह
लिखता है कि 'धार पुराने शहरों
में से है। राजा भोज यहीं रहता था उसके समय से एक हजार वर्ष व्यतीत हुए हैं। मालवा
के बादशाह भी बहुत वर्षों तब धार में रहे। सुल्तान मुहम्मद तुगलक जब दक्षिण विजय
करने को गया था तब उसने यहाँ छिले हुए पत्थरों का किला एक टीले पर बनवाया जो बाहर
से तो बहुत सुन्दर है, परन्तु भीतर सूना
है। मैंने इसकी लम्बाई-चौड़ाई नापने का हुक्म दिया। अमीशाह गौरी जिसका खिताब
दिलावर खाँ था, दिल्ली के
सुल्तान फीरोज के समय में मालवा का स्वतंत्र सूबेदार था। उसने किले के बाहर की
बस्ती में जामा मस्जिद बनवाई थी, जिसके सामने लोटे की लाट गाड़ी, जब सुल्तान
बहादुर गुजराती ने मालवा को अपने अधीन किया, तो इस लाट को गुजरात ले जाना चाहा परन्तु उखाड़ते समय इसके
दो टुकड़े हो गये । मैंने बड़े टुकड़े को आगरा में स्वर्गवासी हजरत के रोजे ( अकबर
का मकबरा) में खड़े करने को कहा 36
शाहजादा शाहजहाँ का मालवा आगमन :
शाहजहाँ ने जब उत्तर से दक्षिण हेतु प्रस्थान किया था तब चम्बल के तट पर पहुँचकर उसने अपने पूर्वज बाबर जो कि शाहजहाँ का आदर्श भी था, का अनुसरण करते हुए प्रतिज्ञा की और मदिरा का समस्त भण्डार चम्बल नदी में उड़ेल दिया और सोने चाँदी के बहुमूल्य एवं सुन्दर प्याले तोड़कर निर्धनों में बांट दिये। शाहजहाँ जब उज्जैन पहुँचा तो उसे माण्डू के किलेदार मोहम्मद तकी का समाचार प्राप्त हुआ कि दक्षिणी सेना मंसूर के नेतृत्व में 8000 सैनिकों की संख्या में नर्मदा नदी को पार करके निकटवर्ती क्षेत्रों में लूट-पाट करते हुए दुर्ग की ओर अग्रसर है .
शाहजहाँ ने मोहम्मद तकी की मदद हेतु तुरन्त ही अबुल हसन और बेरम बेग को सेना सहित रवाना किया, जिसकी सहायता से तकी ने दक्षिण सेना पर आक्रमण कर उन्हें 4 कोस तक खदेड़ दिया एवं लौटते हुए अकबरपुर में पड़ाव डाला। जब शाहजहाँ आगे बढ़कर माण्डू पहुँचा तो उसे खानेखाना का पत्र मिला जिसमें सुझाव था कि शाहजादा आगे ना बढ़े, जहाँ है वहीं रुक जाये, क्योंकि बुरहानपुर में वह स्वयं ही शत्रु से घिरा है, शत्रु सेना की संख्या 60,000 है किन्तु शाहजहाँ शत्रु सेना से विचलित होने वाला नहीं था। अतः 25 मार्च, 1621 ई. को वह सेना सहित माण्डू से बुरहानपुर को निकल पड़ा। शाहजहाँ ने बुरहानपुर के आस-पास के जागीरदारों को जो कि दक्षिण की सेना द्वारा लूटे गये थे सबको एकत्र किया किन्तु मलिक अम्बर द्वारा संधिवार्ता से युद्ध समाप्त हो गया ।
1622 में शाहजहाँ ने बादशाह जहाँगीर के खिलाफ विद्रोह का झण्डा उठाया। जब शाही ने परवेज और महाबतखान के अधीन उसका पीछा किया तो शाहजहाँ ने असीरगढ़ के मजबूत किले में शरण ली। लेकिन जल्दी ही उसे वहाँ से भागना पड़ा। 1626 ई. में यह विद्रोह समाप्त हो गया। बुरहानपुर में अब शाहजहाँ परवेज के संरक्षक के रूप में खानजहाँ लोदी को रखा गया। कुछ समय बाद बुरहानपुर में ही परवेज का निधन हो गया।
शाहजहाँ का काल मध्यपदेश में
1627 ई. में जहाँगीर
का निधन होने के बाद शाहजहाँ ने मुगल साम्राज्य की बागडोर संभाली। दक्खिन के
राज्यों पर अभियान करने के लिये वह 1 मार्च 1630 ई. को बुरहानपुर पहुँचा और वहाँ वह दो साल रहा और बीजापुर, अहमदनगर और
गोलकुण्डा के विरूद्ध सैन्य गतिविधियों का संचालन करता रहा। (बनारसी प्रसाद
सक्सेना, हिस्ट्री ऑफ
देल्ही, 1987, पृ. 309)। आगे चलकर
शाहजहाँ के शासनकाल में दक्खिन के जितने अभियान हुए वे बुरहानपुर को आधार बनाकर ही
हुए।
बुरहानपुर में ही 1631 में शाहजहाँ की प्रिय पत्नी मुमताजमहल बेगम का निधन हुआ । बुरहानपुर से ताप्ती नदी के दूसरे तट पर दफनाया गया और 6 माह बाद उसके अवशेषों उसे को आगरा ले जाया गया और वहाँ ताजमहल में उसके अवशेषों को फिर से दफनाया गया।
शाहजहाँ के राज्यकाल में खानदेश के साथ बुरहानपुर जिले और पूर्वी निमाड़ जिले का वैभव शिखर पर था। विदेशी यात्री टेवर्नियर इस इलाके की सम्पन्नता का उल्लेख करता है। और लिखता है कि बुरहानपुर एक बड़ा नगर है और वहाँ पारदर्शक मलमल तथा जरी के कपड़े बड़े पैमाने पर बनाये जाते हैं और ये फारस, तुर्की, रूस, पोलैंड, अरब, काहिरा तथा अन्य जगहों को निर्यात किये जाते हैं।
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