पाठ्यचर्या निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त |Basic Principles of Curriculum Design
पाठ्यचर्या निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त
पाठ्यचर्या निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त
1. अतीत को जानने या सुरक्षित रखने का सिद्धान्त-
हमें अपने देश के विकास को ध्यान में रखते हुए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम वर्तमान को देखें और अतीत को भूल जायें। अतीत वर्तमान के लिए महान पथ प्रदर्शक की भूमिका में रहता है। हमें प्रगतिशील राष्ट्र के निर्माण में अतीत की सहायता लेनी चाहिए अन्यथा हम यह नहीं जान पायेंगे कि अतीत में हमने अपने देश के हित में क्या किया है और वर्तमान में क्या करना है। अतः स्पष्ट है कि हम अतीत को सुरक्षित रखते हुए उस पाठ्यचर्या का निर्माण करेंगे। जिसके द्वारा हम वर्तमान में छात्रों को उस संस्कृति से परिचित करायें जो हमारी पारम्परिक धरोहर है। साथ ही हम उन विषयों तथा कार्यक्रमों को चुनेंगे जो कि हमें वर्तमान समय में लाभ पहुंचायेंगे। हमें अतीत को इसलिए जानना है क्योंकि हमारा अतीत अत्यन्त गौरवशाली है और अन्य देशों को ज्ञान का मार्ग दिखाने का काम किया है। अतीत के अध्ययन से यह पता चलता है कि हमारे पूर्वजों के लिए क्या उपयोगी तथा लाभदायक था और वर्तमान समय में क्या लाभदयाक होगा। इस बात का ध्यान रखते हुए स्कूल का कर्तव्य है कि वह परम्पराओं, उनके ज्ञान तथा उनके व्यावहारिक मानदण्डों का संरक्षण करे और आने वाली पीढ़ी को सौंप दें, अन्यथा हमारे देश की सभ्यता समाप्त हो जायेगी। इसलिए हमें चाहिए कि परम्पराओं, प्रथाओं एवं अतीत को जानते हुए पाठ्यचर्या के निर्माण में अतीत को जानने की परम आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या निर्माण किया जाए।
2. जीवन की उपयोगिता से सम्बन्धित होने का सिद्धान्त
पाठ्यचर्या में उन विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो वर्तमान में बालकों के भावी जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके साथ ही उनका वास्तविक जीवन से सम्बन्ध हो, पाठ्यचर्या में वे सभी कार्यक्रम समाविष्ट होने चाहिए जो कि बालकों को इस योग्य बना दें कि वह बड़ा होने पर प्रभावपूर्ण ढंग से सामाजिक कार्यों में भाग ले सके और वर्तमान जीवन को सरलता से व्यतीत कर सके। ऐसे पुराने विषयों को नहीं पढ़ाया जाना चाहिए जिससे जीवन का कोई सम्बन्ध न हो । पाठयचर्या में ऐसी बातों को जोड़ा जाये जिसके द्वारा बालक अपनी उपयोगिता का समक्ष सके, पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो बालकों के भावी जीवन में काम आ सके। अनुपयोगी विषयों को पाठ्यचर्या से अलग रखा जाना चाहिए। पाठ्यचर्या में मातृभाषा, राष्ट्रभाषा, सामाजिकता को प्रथम स्थान पर रखा जाना चाहिए, जिससे बालकों को उपयोगिता के आधार पर पाठ्यचर्या दिया जा सके। पाठ्यचर्या बालक के भावी जीवन के लिए उपयोगी होना चाहिए।
3. रचनात्मक एवं सृजनात्मक शक्तियों का सिद्धान्त-
पाठ्यचर्या में ऐसे सभी विषयों को जोड़ा जाना चाहिए जिसमें रचनात्मक एवं सृजनात्मक शक्तियों के विकास में अपना योगदान प्रदान कर सके। इसके लिए बालकों को समय-समय पर प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए तथा उचित दिशा निर्देश दिया जाना उपयुक्त होगा। प्रत्येक बालक में किसी न किसी रूप में रचनात्मक कार्य करने की योग्यता अवश्य होती है। बालक की रुचियों तथा विशिष्ट योग्यताओं की खोज करके उनके अन्दर रचनात्मक एवं सृजनात्मक भावनाओं का विकास किया जा सके। 4. क्रियाशीलता का सिद्धान्त- पाठयचर्या का निर्माण क्रियाओं तथा अनुभवों को ध्यान में रखते हुए किया जाये बच्चे की दैनिक क्रियाओं की ओर अनुभूति करते हुए पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाना चाहिए जिससे भविष्य में बालक सर्वांगीण विकास किया जा सके साथ ही पाठ्यचर्या में ऐसी क्रियाओं एवं अनुभवों की स्थान दिया जाना चाहिए जो लोकतांत्रिक दृष्टिकोण को अधिक से अधिक विकसित कर सकें।
5. नैतिकता एवं उत्तम आदर्षों का सिद्धान्त-
बालक को शिष्ट एवं नैतिक जीवन व्यतीत करने हेतु पाठ्यचर्या में नैतिकता का विकास करना होगा जिसके द्वारा बालकों को बताना होगा इस लोकतांत्रिक देश में नैतिक मूल्य क्या है और इनकी उपयोगिता क्या है। क्योंकि पाठयचर्या में जब तक नैतिकता को स्थान नहीं होगा तब तक हम अपने लोकतांत्रिक उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। पाठ्यचर्या के निर्माण के समय ध्यान रखना होगा कि बालक के अन्दर उत्तम आदर्शों का होना अति आवश्यक है। इसके लिए हमें चाहिए कि उन विषयों, क्रियाओं का समावेश करे जिससे बालकों को उत्तम आदर्श प्राप्त हो सके। पाठयचर्या में हमें समाज, देश एवं परोपकार की भावना का भी समावेश करना होगा।
6. लचीलेपन का सिद्धान्त-
पाठ्यचर्या निर्माण के समय ध्यान देना होगा कि हमारा पाठ्यचर्या लचीला हो जिसमें बालक की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन किया जा सके और अनावश्यक बालक पर बोझ न लादा जाये। अन्यथा बालक निराशा की भावना से ग्रसित हो सकता है और व बालक की रुचियों आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अनुपक्त साबित होता है। अतः वर्तमान को देखते हुए पाठ्यचर्या का लचीला होना अनिवार्य है। जिसमे आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके।
7. विकास एवं प्रगतिषीलता की प्रक्रिया का सिद्धान्त
किसी भी पाठ्यचर्या का निर्माण सदैव के लिए नहीं होता है। हमें परिस्थिति के अनुसार पाठयचर्या में बदलाव की आवश्यकता होती है। जिससे हम अपने आने वाले भविष्य को तैयार कर सकें। और पाठ्यचर्या के माध्यम से शिक्षा को विकासोन्मुख बना सकें हमें चाहिए कि अपने राष्ट्र के विकास हेतु वर्तमान समय एवं परिस्थितियों का ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या का निर्माण करना होगा जिसके द्वारा हम बालक का विकासशील प्रक्रिया से जोड़ सकें। किसी भी देश की प्रगति में पाठ्यचर्या का महत्वपूर्ण स्थान होता है क्योंकि यदि आप बालक को देश की प्रगति के बारे में नहीं बतायेंगे तो वह वर्तमान में देश की प्रगति में किए जा रहे प्रयासों में शामिल नहीं हो पायेगा । आज के बच्चे कल के आदर्श नागरिक हैं अतः उनको इस प्रकार शिक्षित किया जाना चाहिए कि उनमें प्रगतिशील विचारों की अवधारणा विकसित हो सके।
8. अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त-
पाठ्यचर्या का अर्थ केवल सैद्धान्तिक विषयों से नहीं होना चाहिए बल्कि पाठ्यचर्या में उन सभी अनुभवों को स्थान दिया जाना चाहिए जिनको बालक विद्यालय के बाहर अन्य जगहों पर प्राप्त करता है। जैसे खेल का मैदान, प्रयोगशाला, वर्कशाप आदि। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पाठयचर्या में बालक द्वारा विभिन्न क्रियाओं से प्राप्त अनुभव भी विशेष महत्व रखते हैं।
9. खाली समय के सदुपयोग का सिद्धान्त-
पाठ्यचर्या निर्माण के समय ध्यान दिया जाना चाहिए कि बालक खाली समय का उपयोग किस प्रकार करे। पाठ्यचर्या में साहित्य, कला, खेलकूद, सामुदायिक कार्यों का समावेश होना चाहिए। हम कह सकते हैं कि पाठयचर्या इस प्रकार नियोजित किया जाये कि छात्रों के सर्वांगीण विकास सहायक सिद्ध हो।
10. संस्कृति एवं सभ्यता का सिद्धान्त-
शिक्षा का एक उद्देश्य छात्रों को अपनी संस्कृति एवं सभ्यता के संरक्षण के प्रति जागरूकता प्रदान करना भी है। पाठ्यचर्या में उन विषयों, वस्तुओं एवं क्रियाओं को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए जिनके द्वारा बालकों को अपनी संस्कृति एवं सभ्यता का ज्ञान प्राप्त हो सके। पाठयचर्या के माध्यम से छात्रों को अपनी सांस्कतिक धरोहरों एवं सभ्यताओं के संरक्षण के लिए प्रेरित किया जा सके।
11. प्रजातन्त्रात्मक भावना के विकास का सिद्धान्त
हमारा देश एक प्रजातांत्रिक देश है हमें चाहिए कि पाठयचर्या के द्वारा प्रजातांत्रिक भावना को विकसित किया जाना चाहिए जिससे कि शिक्षा का मूल उद्देश्य की प्राप्ति हो सके। हमारा पाठ्यचर्या ऐसा होना चाहिए जो जनतंत्र की भावना एवं आदर्श को पोषक हो हमें बालक के अन्दर लोकतांत्रिक भावना को जागृत करना इसलिए पाठ्यचर्या जनतांत्रिक भावना का समावेश होना चाहिये।
12. नवीनता की खोज का सिद्धान्त-
पाठ्यचर्या के निर्माण के समय हमें ध्यान देना चाहिये कि हम उस नवीन ज्ञान की प्राप्ति हेतु अग्रसर रहे जिसके द्वारा बालक का विकास पाठ्यचर्या में चाहिए कि वर्तमान का ध्यान रखते हुए नवीन ज्ञान को भी स्थान दिया जा चाहिए। सकता है।
13. सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त -
पाठ्यचर्या में चाहिए कि एक विषय की शिक्षा दूसरे विषय की शिक्षा का आधार बन सके, विषयों के सम्बन्धित न होने पर पाठ्यचर्या की प्रभावशीलता समाप्त हो जाती है। बालक को सह-सम्बन्ध के आधार पर पाठ्यचर्या बताया जाना चाहिए।
14. सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त-
बालक को ऐसा पाठ्यचर्या देना चाहिए जिससे कि वह हर प्रकार का ज्ञान अर्जित कर सके जिससे वह अपना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक, संवेगात्मक तथा नैतिक विकास कर सके। यदि हमारा पाठ्यचर्या बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक होगा तभी हम उन शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति कर पायेंगे।
15. सामुदायिक जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त -
पाठ्यचर्या के निर्धारण के समय यह भी ध्यान रखा जाये कि बालक को सामुदायिक जीवन यापन करते समय कठिनाई का सामना न करना पड़े। उसके लिए हमें चाहिए स्थानीय आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए प्रथाओं, संस्कारों, मान्यताओं, विश्वासों, मूल्य एवं मूलभूत समस्याओं को पाठयचर्या में स्थान दिया जाना चाहिए।
16. सन्तुलन का सिद्धान्त-
पाठ्यचर्या के निर्माण में ध्यान देना चाहिए कि जीवन का हर पहलू एवं हर विषय में समान महत्व की प्राप्ति हो। ऐसा न हो कि किसी विषय या पहलू को अधिक महत्व दिया जाये, अतः बालक पाठ्यचर्या के द्वारा प्रत्येक क्षेत्र का समान ज्ञान प्राप्त कर सके।
17. शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का सिद्धान्त-
पाठ्यचर्या में उन्ही क्रियाओं एवं विषयों को रखा जाना चाहिए जो शिक्षा के उद्देश्यों के अनुकूल हो हमें बालक को सामाजिक हितों के संरक्षण योग्य बनाना है । हमें पाठयचर्या के माध्यम में बालक को व्यवसाय परक एवं कार्यक्षमता में निपुण बनाना है। वर्तमान समय में हमें बालक के अन्दर शारीरिक, सामाजिक, सांस्कतिक एवं चारित्रिक विकास के बच्चे बच्चे शिक्षा के क्षेत्र में सर्वांगीण विकास हो जिससे हमारे शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके।
18. चेतना का सिद्धान्त-
पाठयचर्या इस प्रकार का जिसमें छात्र के अन्दर भविष्य में होने वाली घटनाओं के विषय में जानकारी दी जा सके ताकि समाज एवं देश के विकास में बालक सहयोग प्रदान कर सके और किसी प्रकार घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। बालक का भविष्योपयोगी जानकारी प्रदान की जाये।
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