पाठ्यचर्याः क्षेत्र एवं विशेषताएं |पाठ्यचर्या का अधिगमकर्ता के साथ सम्बन्ध| Curriculum: Scope and Features
पाठ्यचर्याः क्षेत्र एवं विशेषताएं
पाठ्यचर्या: क्षेत्र
हर समाज राज्य अथवा राष्ट्र की अपनी मान्यताएं, विश्वास, आदर्श, मूल्य और आवश्यकताएं होती हैं, इनकी पूर्ति के लिए वह शिक्षा का विधान करता है और शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करता है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जिन विषयों का ज्ञान एवं क्रियाओं का प्रशिक्षण आवश्यक समझा जाता है उन्हें पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाता है। इस प्रकार पाठ्यचर्या शिक्षक और छात्रों के सामने स्पष्ट एवं निश्चित लक्ष्य रखती है और उनकी प्राप्ति के लिए उनके कार्य निश्चित करती है । नियोजित शिक्षा के लिए पाठ्यचर्या की बहुत आवश्यकता होती है। यह सर्वविदित है कि जो आवश्यक है वह उपयोगी होगा और साथ ही उसका एक निश्चित महत्व होगा। यही बात पाठ्यचर्या पर भी लागू होती है ।
पाठ्यचर्या के क्षेत्र को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है-
1. पाठ्यचर्या के माध्यम से शिक्षा की प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती है। शिक्षा के किस स्तर (पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च) पर किन पाठ्य विषयों को पढ़ाना है, किन क्रियाओं को सिखाना है और किन अनुभवों को देना है ये सभी बातें पाठ्यचर्या में स्पष्ट रूप से दी जाती हैं । इस प्रकार से विद्यालयी जीवन के कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा पाठ्यचर्या में मिलती है।
2. पाठ्यचर्या के उपलब्ध हो जाने से आवश्यक एवं वांछित पाठ्य सामग्री को पुस्तक की रचना के समय ध्यान में रखा जाता है। इससे उपयुक्त एवं स्तरानुकूल पुस्तकों का निर्माण हो पता है जिनसे बालक के विकास में सहायता मिलती है।
3. पाठ्यचर्या छात्र एवं अध्यापक दोनों को सही दिशा बोध कराती है इससे समय और शक्ति का अपव्यय नहीं होता है। दोनों निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं और समय पर वहां पहुँच जाते हैं। इस प्रकार पाठ्यचर्या द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति संभव हो पाती है।
4. एक निश्चित स्तर के लिए एक निश्चित पाठ्यचर्या होने से पूरे प्रदेश अथवा देश में शैक्षिक स्तर की समानता और एकरूपता बनी रहती है जब किसी नए विषय की पढ़ाई किसी शिक्षा संस्था में प्रारंभ हो जाती है अथवा कोई नयी योजना लागू की जाती है तब सबसे पहले पाठ्यचर्या को ही निर्धारित करना पड़ता है।
5. पाठ्यचर्या से मूल्यांकन सरल और संभव होता है। बिना पाठ्यचर्या के मूल्यांकन करना संभव नहीं होता है। अतः मूल्यांकन के लिए पाठ्यचर्या एक निश्चित आधार प्रदान करती है।
6. पाठ्यचर्या से उद्देश्यों की प्राप्ति संभव होती है ।
7. पाठ्यचर्या से समय और शक्ति का सदुपयोग होता है
पाठ्यचर्या के मुख्य रूप से निम्न भेद दिखाई पड़ते हैं -
1. विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या
2. बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या
3. मिश्रित पाठ्यचर्या
4. आधारभूत पाठ्यचर्या
5. क्रिया केन्द्रित पाठ्यचर्या
6. अनुभव केन्द्रित पाठ्यचर्या
7. समाकलित केन्द्रित पाठ्यचर्या
8. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या
9. कोर पाठ्यचर्या
पाठ्यचर्या: विशेषताएं
हर व्यक्ति की अपनी कुछ आवश्यकताएं होती हैं व्यक्ति की भांति समाज और देश की भी अपनी- अपनी आवश्यकताएं होती हैं। आवश्यकता के परिक्षेत्र में शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं इन उद्देश्यों की प्राप्ति विषयों के ज्ञान और क्रियाओं के माध्यम से होती है इन विषयों और क्रियाओं को पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाता है। पाठ्यचर्या से पता लगता है कि क्या पढ़ना और क्या पढ़ाना है ? किन क्रियाओं में भाग लेना है ? इसलिए छात्र और अध्यापक दोनों के लिए पाठ्यचर्या की आवश्यकता होती है। छात्र के व्यक्तित्व विकास के लिए शिक्षा एक साधन है। व्यक्तित्व विकास के उद्देश्य से पाठ्यचर्या में अनेक बौद्धिक विषयों को सम्मिलित किया जाता है अनेक क्रियाओं और खेल - कूदों का आयोजन होता है अनेक कौशलों को सिखाया जाता है पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशाला आदि की समुचित व्यवस्था की जाती है। इस प्रकार बालक की सुप्त शक्तियों को जगाने और उनके विकास के निमित्त पाठ्यचर्या आवश्यक प्रतीत होती है।
जब बालक विभिन्न विषयों को पढ़ता है, विभिन्न क्रियाओं में भाग लेता है, विभिन्न तरह के अनुभव प्राप्त करता है तब इन सबके द्वारा उसे अपने समाज की, अपने देश की परम्परा और संस्कृति से परिचय होता है । संस्कृति की रक्षा के साथ-साथ बालक अपनी सृजनात्मक शक्तियों द्वारा संस्कृति में आवश्यक परिवर्तन, परिवर्द्धन एवं परिष्कार करता है। समाजीकरण की इस प्रक्रिया में प्रभावी ढंग से भाग लेने के लिए पाठ्यचर्या की बहुत आवश्यकता होती है। पाठ्यचर्या विद्यालयीय कार्यक्रम की एक निश्चित योजना प्रस्तुत करती है । विभिन्न स्तरों के विद्यालयों में बालकों के मानसिक तारानुकूल किन क्रियाओं को सिखाया जायेगा और किन विषयों को पढ़ाया जायेगा यह पाठ्यचर्या द्वारा ही निश्चित हो पाता है । पाठ्यचर्या कि सहायता से पुस्तकें निर्धारित कि जाती हैं पाठ्यचर्या के आधार पर मूल्यांकन कार्य सरल हो जाता है। पाठ्यचर्या विशेष कर प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर समाजोपयोगी उत्पादन कार्य एवं कार्यानुभव पर बल देकर शिक्षा को जीवन से जोड़ती है। इन सब कारणों से पाठ्यचर्या आवश्यक है।
पाठ्यचर्या की विशेषताओं या महत्व को इस प्रकार से समझा जा सकता है-
1. शिक्षक के लिए महत्व -
पाठ्यचर्या से शिक्षक को अपने शिक्षणके स्वरुप का निर्धारित करने, शिक्षण का संचालन करने तथा छात्रों की उपलब्धियों को जानने का अवसर प्राप्त होता है। पाठ्यचर्या से शिक्षक अपनी शिक्षण विधि का चयन करने में समर्थ होता है और छात्रों का उचित प्रकार से मार्गदर्शन करने में समर्थ होता है।
2. शिक्षार्थियों के लिए महत्व -
शिक्षार्थी को इससे अपने शिक्षा के उदेश्यों को पूरा करने में मदद मिलती है। छात्रों को पाठ्यचर्या से पूर्व तैयारी का अवसर मिलता है तथा वे यह जानने में समर्थ होते हैं कि अमुख विषयों में कितना तथ्य पढ़ना है? अर्थात् पाठ्यचर्या के आधार पर शिक्षार्थी अपनी अध्ययन योजना बनाते हैं तथा उस पर चलकर सफलता की प्राप्ति करते हैं।
3. समाज के लिए महत्व-
पाठ्यचर्या से समाज को भी लाभ पहुँचता है। समाज पाठ्यचर्या द्वारा नवीन मंतव्यों को जानता है तथा उसके अनुरूप अपनी जीवन शैली एवं मान्यताओं को समय के साथ बदलता जाता है। पाठ्यचर्या से ही समाज में पारस्परिक मान्यताओं के स्थान पर परिवर्तित मान्यताओं का दिग्दर्शन होता है। कारण यह है कि विद्यालयी जीवन में पाठ्यचर्या में निहित नवीन मान्यताओं एवं तथ्यों को सीखने के बाद जब बालक विद्यालयी जीवन से निकलकर सामाजिक जीवन में पदार्पण करता है तो वह समाज को कुछ नवीनता युक्त मंतव्य देता है जब इसका व्यापक स्तर पर प्रचार प्रसार हो जाता है तो वह नवीन आयाम, तथ्य, विचार, मान्यता, मूल्य के साथ मिलकर उस आदर्श समाज का अभिन्न अंग बन जाता है। इस प्रकार पाठ्यचर्या समाज के लिए भी उपयोगी है।
4. सांस्कृतिक उन्नयन हेतु महत्व
समाज एवं संस्कृति के उन्नायक तत्वों को पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाता है यह तत्व शिक्षा एवं समाज दोनों के उन्नयन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं पाठ्यचर्या के सांस्कृतिक मूल्यों की सीख प्राप्त करके विद्यार्थी अपनी संस्कृति एवं सभ्यता की विशिष्टता, उसकी मौलिकता, करणीय एवं अकरणीय कर्तव्यों, जीवनदर्शों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। कालान्तर में ऐसे बालक ही विद्यालय से निकलकर अपनी सृजनात्मक प्रतिभा द्वारा सांस्कृतिक विरासत की रक्षा तथा उसके उन्नयन हेतु समर्पित होकर कार्य करते हैं।
5. अवबोध के विकास हेतु महत्व -
विद्यालय में बालक विविध विषयों का जब अध्ययन करता है एवं विविध पाठ्य सहगामी क्रियाओं में हिस्सा लेता है तथा अध्ययन के द्वारा पाठ्यचर्या से तरह-तरह के अनुभव अर्जित करता है तो इससे उसकी अंतर्दृष्टि (बोध) प्रखर है और उसमें अवबोध (समझदारी) का प्रकटन होता है।
पाठ्यचर्या का अधिगमकर्ता के साथ सम्बन्ध
पाठ्यचर्या छात्र और अध्यापक दोनों के लिए अति महत्तवपूर्ण अंग होती है। यह छात्र के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक होती है। इससे छात्र समाजीकरण की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए तैयार हो जाते हैं पाठ्यचर्या यह निश्चित करने के लिए भी महत्तवपूर्ण है कि विभिन्न मानसिक स्तर के विद्यालयों में पढ़ने वाले बालकों के उनके मानसिक स्तर के अनुकूल कौन सी क्रियाएँ सिखाना है और कौन सी नहीं ? यह छात्रों को समुचित पुस्तकों के निर्धारण एवं चयन में सहायक होती है। इससे छात्रों को अपना मूल्यांकन कार्य करने में सरलता होती है । यह छात्रों को समाजोपयोगी उत्पादन कार्य और कार्यानुभव पर बल देकर शिक्षा को जीवन से जोड़ने के लिए प्रेरित करती है । इससे क्या पढ़ाना है? क्या सिखाना है? क्या कार्यानुभव देना है? यह शिक्षक ज्ञात कर सकते हैं । इससे छात्र और अध्यापक दोनों को सही दिशा बोध कराने से समय और शक्ति की बचत हो जाती है यह अधिगम हेतु सही समय का निर्धारण करने में उपयोगी होती है। इससे बालकों की मनोवैज्ञानिक आवश्कता की पूर्ति होती है। पाठ्यचर्या के निर्माण एवं क्रियान्वयन में अध्यापक का विशेष महत्व है । पाठ्यचर्या शिक्षा प्रक्रिया का महत्वपूर्ण अंग है । शिक्षा के उद्देश्य तभी पूरे होते हैं जबकि पाठ्यचर्या का निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से होता है और यह निर्माण तथा क्रियान्वयन प्रभावपूर्ण ढंग से तभी हो सकता है जबकि अध्यापक और छात्र सजग एवं जागरूक हों और उत्साह तथा लगन के साथ इस कार्य में भाग लें। आदर्श पाठ्यचर्या तो वह है जो प्रत्येक छात्र का सर्वांगीण विकास कर सके परन्तु ऐसे पाठयचर्या का निर्माण अभी तो कोरी कल्पना है । यह कार्य तभी संभव है जबकि प्रत्येक अध्यापक प्रत्येक छात्र के लिए अलग-अलग पाठ्यचर्या का निर्माण करे। वैसे विकसित देशों में इस प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं, जिनमे शिक्षा तथा पाठ्यचर्या बाल केन्द्रित हो। कहने का आशय यह है कि बालक की रुचियों, अभिरुचियों तथा शक्तियों के विकास के लिए अधिक से अधिक अवसर प्राप्त हों। हमे इस प्रकार की पाठ्यचर्या के निर्माण एवं क्रियान्वयन के प्रति सजग रहना होगा ।
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