पाठ्यचर्या विकास के प्रमुख सोपान |Major Steps in Curriculum Development
पाठ्यचर्या विकास के प्रमुख सोपान
पाठ्यचर्या विकास के प्रमुख सोपान
प्रसिद्ध विद्वान डी0के0 व्हीलर ने अपनी पुस्तक “ Curriculam Process” में पाठ्यचर्या संरचना के प्रमुख पाँच पद या सोपानों का उल्लेख किया है जो इस प्रकार हैं-
1. शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण ।
2. निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु उपयुक्त अधिगम अनुभवों का चयन।
3. अधिगम अनुभवों को प्रस्तुत करने के लिए उपयुक्त अन्तर्वस्तु का चयन.
4. अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया की दृष्टि से चयनित अधिगम अनुभवों एवं अन्तर्वस्तु का संगठन ।
5. सम्पूर्ण प्रक्रिया का उद्देश्यों की प्राप्ति की दृष्टि से मूल्यांकन ।
1. शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण
➽ शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण पाठ्यचर्या विकास का प्रथम सोपान है पाठयचर्या के उद्देश्यों के निर्धारण से शैक्षिक कार्यक्रमों को दिशा मिलती है। शैक्षिक क्रियाओं की प्रकृति का निर्धारण होता है। शैक्षिक कार्यक्रमों के नियोजन एवं व्यवस्थीकरण को निश्चित आधार मिलता है। शैक्षिक कार्यक्रमों को क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत करने में सहायता मिलती है अधिगम के विभिन्न पक्षों में विभेदीकरण सम्भव होता है। विकास एवं उपलब्धि के मापन को आधार मिलता है। शैक्षिक कार्यक्रमों की प्राथमिकताओं को सुनिश्चित करने में सहायता मिलती है। शैक्षिक निर्णयों के लिए उचित निर्देशन प्राप्त होता है। शैक्षिक कार्यक्रमों के विभिन्न पक्षों में सन्तुलन स्थापित करने में सुविधा होती है। अधिगमानुभवों एवं मूल्यांकन एवं स्तरीकरण करने में सहायता मिलती है। उपयुक्त अन्तर्वस्तु के चयन में सुविधा होती है। शैक्षिक विकास कार्यों को निर्देशन मिलता है। अधिगम को कार्यात्मक बनाने में सहायता मिलती है। उपयुक्त अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने में एवं शैक्षिक प्रक्रिया को सुपरिभाषित किया जा सकता है एवं वैध मूल्यांकन सम्भव होता है। उपयुक्त महत्व को देखते हुए पाठ्यचर्या का निर्माण करने से पूर्व सभी सम्बद्ध व्यक्तियों को उन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के बारे में निश्चित जानकारी होनी चाहिए जिनकी प्राप्ति वे पाठ्यचर्या निर्माण द्वारा कराना चाहते है । शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण हेतु प्रमुख स्रोत समाज व्यक्ति एवं ज्ञान है।
➽ बी0एस0 ब्लूम के अनुसार “शैक्षिक उद्देश्यों की सहायता से केवल पाठ्यचर्या की ही रचना तथा अनुदेशन के लिए निर्देश नहीं दिया जाता बल्कि ये मूल्यांकन की प्रविधियों के विशिष्टीकरण में भी सहायक होते हैं।"
➽ बी0 एस0 ब्लूम महोदय ने शैक्षिक उद्देश्यों को तीन पक्षों में वर्गीकृत किया है। ज्ञानात्मक पक्ष (ज्ञान, अवबोध, अनुप्रयोग, विश्लेषण, संश्लेषण, मूल्यांकन) भावात्मक पक्ष ( आग्रहण या प्राप्ति, अनुक्रिया, अनुमूल्यन, व्यवस्थापन, मूल्य का लक्षण वर्णन ) क्रियात्मक पक्ष (अनुकरण, , हस्तादि प्रयोग अथवा कार्य करना, सुतथ्यता, सन्धियोग, स्वाभावीकरण या नैसर्गिकरण)
➽ बी0 के0 व्हीलर ने अपनी पुस्तक “Curriculam Process” में आधुनिकतम स्थिति और दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण के कुछ महत्वपूर्ण मानदण्ड पप्रस्तावित किए हैं।
1. मानवीय अधिकारों से तादात्म्य-
शिक्षा मानव उत्थान का सशक्त माध्यम है अतः मानव समाज को संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र की धारा 55 के अनुसार निम्नांकित बातों की अनिवार्य रूप से व्याख्या करनी चाहिए।
• उच्च जीवन स्तर, पूर्ण कार्य, आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति तथा विकास की स्थितियां ।
• अन्तराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य एवं अन्य सामाजिक समस्यायें तथा अन्तराष्ट्रीय सांस्कृतिक एवं शैक्षिक सहयोग।
• सभी के मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रता के प्रति जाति, धर्म, भाषा एवं लिंग भेद के बिना सार्वभौमिक समादर ।
2. लोकतांत्रिक दृष्टि से अनुकूलन-
शिक्षा के वैध उद्देश्य केवल प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों से ही प्राप्त किए जा सकते हैं क्योंकि प्रजातंत्र ही वह व्यवस्था है जिसमें सभी आवश्यकताओं की सही ढंग से पूर्ति की जा सकती है। इस व्यस्था की इस प्रकार हैं- मूलभूत मानवीय प्रमुख विशेषताएं-
• प्रत्येक व्यक्ति के महत्व एवं उसकी गरिमा का समादर किया जाता है।
• प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं का अधिकतम विकास करने तथा दूसरों के विकास में सहयोगी बनने के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
• सामान्य जनता द्वारा स्वतंत्र रूप से व्यक्त की गई सहमति से सरकार का निर्माण होता है तथा सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी होती है।
• व्यक्तिगत भिन्नता का समादर किया जाता है तथा उन्हें प्रोत्साहित और विकसित बनाया जाता है।
• प्रत्येक व्यक्ति को अपने विवके, बुद्धि अथवा अन्तर्रात्मा के अनुसार विचार करने, बोलने, लिखने-पढ़ने तथा पूजा - अर्चना की स्वतंत्रता होती है। तथा उससे उपेक्षा की जाती है कि वह दूसरों की इसी प्रकार की स्वतंत्रता में बाधक न बने बल्कि उसका पोषक बने।
3. समाजिक सार्थकता -
बालकों में ऐसे सामाजिक मूल्य एवं निष्ठा विकसित करने में सहायता की जानी चाहिए जिनके माध्यम से वह विभिन्न प्रस्तावित समाधानों का सही मूल्यांकन कर सकें। इसके लिए उनमें वर्तमान को विश्लेषित करने तथा उससे समायोजन स्थापित करने के साथ साथ भावी समाज के बारे में सोचने तथा उपयुक्त योजना बनाने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए।
4. वैयक्तिक आवश्यकतायें -
पाठ्यचर्या आयोजकों को वैयक्तिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण हेतु निम्नांकित बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
• बालक की प्रकति, व्यक्तित्व, शारीरिक एवं बौद्धिक भेदों को समझते हुये व्यक्तिगत भेदों को स्वीकार किया जाए।
• बालक को अपनी गति के अनुसार विकसित होने की स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए।
• बालक की सुरक्षा का सर्वप्रथम दायित्व परिवार का है किन्तु शिक्षालयों की भी इस हेतु अपनी भूमिका है। अतः शिक्षालयों को इस कार्य में परिवार एवं समाज को सहायता प्रदान करनी चाहिए।
• बालक में इस भावना का विकास करना चाहिए कि वह जीवन के किसी न किसी क्षेत्र में अवश्य सफल हो सके।
• प्रत्येक बालक अपने कार्य की पुष्टि एवं मान्यता चाहता है। शिक्षा द्वारा की गई पुष्टि तथा मान्यता सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बालक प्रायः अपने वर्ग के सदस्य के रूप में कार्य करना चाहता है।
• पाठ्यचर्या निर्माताओं को बालकों की दो प्रकार की आवश्यकताओं पर विशेष बल देना चाहिए
• स्व की आवश्यकतायें अर्थात वे आवश्यकतायें जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती हैं।
• वे आवश्यकताएं जो प्रौढ़ लोगों के अनुसार बालको के लिए आवश्यक हैं जैसे-: शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य, जीवन के विभिन्न पक्षों के लिए तैयारी आदि ।
5. सन्तुलन -
सन्तुलन से तात्पर्य शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण करते समय पूर्व वर्णित चारों बिन्दुओं पर समुचित बल प्रदान करना है अर्थात किसी एक बिन्दु पर आवश्यकता से अधिक बल नहीं दिया जाना चाहिए।
2. अधिगम अनुभवों का चयन
पाठ्यचर्या विकास का द्वितीय सोपान अधिगम अनुभवों का चयन है। शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अधिगम-अनुभवों का चयन से तात्पर्य है कि अधिगम अनुभवों का प्रस्तुतीकरण अधिगम और उसके आयोजन से सम्बंधित प्रकिया है। विद्यालय में बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए आता है। वह अपने विद्यालयी जीवन में विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है। इन अनुभवों से उसके ज्ञान में वृद्धि, सोचने के ढंग में परिवर्तन, कार्यशैली में परिवर्तन होता है तथा उसकी संवेदनशीलता और अभिवृत्ति विकसित होती है। बालक के इस व्यवहार परिवर्तन में ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा कियात्मक पक्ष सम्मिलित होते हैं।
अधिगम अनुभवों के चयन के संबंध में दो सिद्धान्त विशेष रूप से उल्लेखनीय है- एक ही अधिगम अनुभव से विभिन्न प्रकार के व्यवहार परिवर्तन किए जा सकते है। साथ ही भिन्न प्रकार के व्यवहार परिवर्तनों के लिए भिन्न प्रकार के अधिगम अनुभवों की आवश्यकता हो सकती है।
अधिकांश स्थितियों में भावात्मक पक्ष, ज्ञानात्मक पक्ष से नियंत्रित होता है अर्थात किसी विषय के सम्बंध में भावनाएं तभी संकिय हो सकती हैं जब उसे समझने के लिए आवश्यक ज्ञान तथा कौशल प्राप्त कर लिया गया हो । पाठयचर्या -आयोजकों को अधिगम अनुभवों के चयन के सम्बंध में निम्नलिखित निर्देशों का अनुसरण करना चाहिए।
1. प्रत्यक्ष तथा दूसरों के द्वारा प्राप्त अनुभवों के अवसरों में संतुलन स्थापित किया जाये।
2. दोनों प्रकार के अनुभवों का आलोचनात्मक विश्लेषण करने के अवसर उपलब्ध कराये जायें।
3. विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के अधिगम अनुभवों के गारे में समुचित निर्णय लिया जाए।
4. ऐसे अधिगम अनुभवों का चयन किया जाये जो उपयुक्त भावनाओं को विकसित कर सकें तथा भय की सम्भावनाओं को कम करें।
5. चूंकि अधिगम कई रूपों में होता है अतः ऐसे अधिगम अनुभवों का चयन करना चाहिए जो एक साथ एक से अधिक क्षेत्रों अथवा उद्देश्यों के लिए उपयोगी हों।
6. अधिगम अनुभव उद्देश्यों से सीधे सम्बन्धित हो।
7. अधिगम अनुभव विद्यार्थियों के लिए सार्थक एवं संतोषप्रद हो ।
8. अधिगम अनुभव बालकों की परिपक्वता के अनुसार हो ।
अधिगम अनुभवों के चयन के निर्धारण हेतु प्रमुख दो प्रस्तावित मानदण्ड इस प्रकार है- बर्टन द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड के अनुसार अधिगम अनुभवों को निम्नलिखित छः शर्ते पूरी करनी चाहिए-
• वह विद्यार्थियों की दृष्टि से उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाने के योग्य हो।
• शिक्षकों की दृष्टि में, वह वांछनीय सामाजिक उद्देश्यों की ओर ले जाने वाला हो।
• वह वर्ग के परिपक्वता स्तर के लिए उपयुक्त हो अर्थात वर्ग के लिए चुनौतीपूर्ण हो, प्राप्य हो, नवीन अधिगम की ओर ले जाने वाला हो।
• उसमें विद्यार्थियों के समुचित विकास के लिए, संतुलित विकास के लिए विभिन्न प्रकार की वैयक्तिक तथा वर्गगत कियाओं का समावेश हो ।
उसका आयोजन विद्यालय तथा समाज में उपलब्ध साधन सुविधाओं के द्वारा किया जाना सम्भव हो
उनमें व्यक्तिगत भिन्नताओं की दृष्टि से इतनी विविधता हो कि वर्ग के सभी सदस्यों को प्रवृत्तियां सुलभ हो सकें। उपयुक्त व्हीलर द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड अधिक व्यापक एवं वैज्ञानिक हैं। इसके सात बिन्दु हैं जो अधि के सिद्धान्तों के आधार पर निर्धारित किए गए हैं। ये बिन्दु इस प्रकार हैं-
• वैधता
• व्यापकता
• विविधता
• उपयुक्तता
• प्रतिमान
• जीवन से तादात्म्य
• विद्यार्थियों का सहभागीत्व
3. अन्तर्वस्तु का चयन
पाठ्यचर्या विकास का तृतीय सोपान अन्तर्वस्तु का चयन करना होता है। अन्तर्वस्तु चयन के अंतर्गत निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है-
• अन्तर्वस्तु के विभिन्न स्रोतों पर ज्ञान प्राप्त कर
• अन्तर्वस्तु चयन का आधार निश्चित करना
• अन्तर्वस्तु चयन की प्रमुख समस्याओं का ज्ञान एवं उनके समाधान का प्रयास
• अन्तर्वस्तु चयन प्रकिया के मानदण्ड निर्धारित करना ।
• अन्तर्वस्तु चयन प्रकिया के प्रमुख पदों का ज्ञान ।
अन्तर्वस्तु के स्रोत के अंतर्गत पोषित मूल्य, आवश्यकताएं समाज का वर्तमान एवं सम्भावित स्वरूप, शिक्षार्थी की प्रकृति, लोकतांत्रिक नागरिकता की भावी आवश्यकताओं के रूप में प्रौढ़ कियाएं, जनमत, मानवीय ज्ञान का बढ़ता हुआ भण्डार, विषय अथवा अनुशासन की प्रकृति एवं स्वरूप सम्मिलित है। अन्तर्वस्तु चयन का मूल आधार शैक्षिक उद्देश्य होते हैं।
अन्तर्वस्तु चयन के दो प्रमुख मानदण्ड हैं- प्रस्तावित
1. स्टेनली निस्वत द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड-
स्टेनली निस्वत ने दो वर्गों में 12 उद्देश्यों को निर्धारित किया है-
अ. पर्यावरण समायोजन सम्बंध
1. कौशल
2. संस्कृति
3. गृह सदस्यता
4. व्यवसाय
5. अवकाश
6. सक्रिय नागरिकता
ब. व्यक्तिगत विकास
7. शारीरिक विकास
8. सौन्दर्य बोधात्मक विकास
9. सामाजिक विकास
10. आध्यात्मिक विकास
11. बौद्धिक विकास
12. नैतिक विकास
2. व्हीलर द्वारा मानदण्ड- व्हीलर द्वारा प्रस्तावित मानदण्डों को दो भागों में विभक्त किया गया है-
अ. मुख्य मानदण्ड- इसके अंतर्गत दो बिन्दु है-
i. वैधता
ii. महत्व
ब. गौड़ मानदण्ड- इसके अंतर्गत चार बिन्दु हैं-
i. शिक्षार्थी की आवश्यकताएं एवं अभिरुचियां
ii. उपयोगिता
iii. अधिगम योग्यता
iv. सामाजिक तथ्यों के साथ संगति अन्तर्वस्तु चयन प्रक्रिया के दो प्रमुख पद होते हैं-
प्रथम पद-
i. विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों का निश्चय ।
ii. उन विषयों का निश्चय जिनमें से छात्र अपनी रुचि के अनुसार वैकल्पिक चयन कर सके।
द्वितीय पद-
प्रत्येक विषय के शिक्षण के लिए समय की अवधि का निर्धारण ।
4. अधिगम अनुभवों एवं अन्तर्वस्तु का संगठन
यह पाठ्यचर्या विकास का चतुर्थ सोपान है। हैरिक एवं हाइटलर के अनुसार अधिगम अनुभवों एवं अन्तर्वस्तु संग्रथन एवं संगठन ही पाठ्यचर्या प्रक्रिया की केन्द्रीयभूत समस्या है। जेम्स एम0ली0 के अनुसार पाठ्यचर्या की संरचना का निर्माण छः पृथक तत्वों के मिलने से होता है-आयोजन या प्रकल्प (Design), क्षेत्र (Scope), अनुक्रम ( Sequence), सातत्य (Continuity), संतुलन अथवा विस्तार (Balance or Range), तथा एकीकरण (Integration)। सेलर एवं एलेक्जेन्डर ने पाठ्यचर्या आयोजन का प्रकल्प क अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है-
“पाठ्यचर्या प्रकल्प आयोजन वह ढांचा या संरचना है जिसका विद्यालय में शैक्षिक अनुभवों के चुनने, नियोजित करने तथा कार्यान्वित करने में प्रयोग किया जाता है। अतः प्रकल्प वह योजना है जिसका सीखने की क्रियाओं को प्रदान करने के लिए शिक्षक द्वारा अनुसरण किया जाता है। '
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रकल्प वह ढंग है जिसको अपनाकर सीखने के अनुभवों एवं चयनित अन्तर्वस्तु को संगठित तथा निर्मित किया जाता है।
पाठ्यचर्या संगठन सम्बंधी कुछ विद्वानों द्वारा प्रस्तुत क्रमिक चरण निम्नलिखित हैं-
1. प्रारम्भिक बाल्यावस्था के 2 या 3 वर्ष बोध तथा आत्म विश्वास का अभ्यास ।
2. इसके बाद 3 या 4 वर्ष पठन, कथन, लेखन आदि आधारभूत कौशलों पर बल ।
3. तत्पश्चात विषयों पर ध्यान दिये बिना महत्वपूर्ण विचारों तथा चिन्तन विधियों पर ध्यान ।
4. अंत में विशिष्ट विषयों पर ध्यान ।
स्पष्ट है कि ये चरण एक दूसरे से पृथक न रहकर परस्पर जुड़े रहेंगे तथा प्रत्येक छात्र एक ही समय में एक से अधिक स्तरों पर रहेगा। इससे यह भी लाभ रहेगा कि छात्र किसी चरण से वंचित नही रहेगा।
सेलर तथा एलेक्जेन्डर ने अपनी पुस्तक “Curriculum Planning in Modern School” में विद्यालयी विषयों के लिए अंतर्वस्तु का चयन एवं संगठन इस प्रकार प्रस्तावित किया है-
1. अनुशासन आधारित विद्यालयी विषय -
गणित, विज्ञान, भाषा, कुछ सामाजिक विषय, संगीत एवं कला के सैद्धांतिक विषय
2. ऐसे विद्यालयी विषय जिनकी अंतर्वस्तु अनुशासन आधारित नहीं है- व्यापारिक उद्योग, विदेशी भाषा, स्वास्थ्य, गृहकला, औद्योगिक कला व्यवसाय आदि ।
3. क्रियात्मक कौशलों के विकास पर आधारित विद्यालयी विषय- पठन, भाषण, पत्रकारिता, शारीरिक विज्ञान, संगीत, कला, व्यापारिक क्षेत्र के अनेक अध्ययन औद्योगिक कला एवं व्यवसाय।
इसमें दूसरे क्रम का आधार सामाजिक जीवन तथा छात्रों की आवश्यकताएं, अभिरुचियां, समस्याएं, अनुभव तथा व्यावसायिक आवश्यकताएं हैं, जबकि तीसरे क्रम का आधार अपेक्षित कौशलों का विकास करना है।
उपर्युक्त बिन्दुओं से स्पष्ट है कि पाठ्यचर्या का निर्माण बालकों की आवश्यकताओं रुचियों, योग्यताओं, विशिष्टताओं एवं विभिन्नताओं को दृष्टि में रखते हुए किया जाना चाहिए जिससे उनके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो सके तथा भावी जीवन में वे सफल जीवन-यापन के योग्य बन सकें। इस दृष्टि से विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन ही पाठ्यचर्या है। माध्यमिक शिक्षा आयोग का यह इसकी पुष्टि करता है
5. सम्पूर्ण प्रक्रिया का उद्देष्यों की प्राप्ति की दृष्टि से मूल्यांकन-
पाठ्यचर्या संरचना का अंतिम सोपान सम्पूर्ण प्रक्रिया का उद्देश्यों की प्राप्ति की दृष्टि से मूल्यांकन करना है। पाठ्यचर्या के मूल्यांकन का तात्पर्य शैक्षिक प्रयासों के परिणामस्वरूप उत्पन्न व्यवहारगत परिवर्तनों की प्रकृति, दिशा तथा सीमा के प्रमाण प्राप्त करना तथा उनको पाठ्यचर्या प्रक्रिया के पक्षों में सुधार लाने के लिए मार्ग-दर्शन के रूप में प्रयुक्त करना है।
विद्यार्थियों के व्यक्तिगत अथवा वर्गगत व्यवहार परिवर्तन के साथ-साथ विद्यालय के उद्देश्यों तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त अधिगम अनुभवों, अन्तर्वस्तु संगठन तथा शिक्षण विधियों के सम्बंध में निर्णय लेना भी मूल्यांकन के अंतर्गत आता है। अतः शिक्षा में मूल्यांकन के दो प्रमुख है- क्षेत्र
1. छात्रों में व्यवहारगत परिवर्तन तथा इन व्यवहारों को प्रभावित करने के लिए उत्तरदायी कारक |
2. मूल्यांकन कार्यक्रम का छात्र अभिप्रेरणा तथा अधिगम पर प्रभाव ।
3. पाठयचर्या प्रक्रिया के सभी पक्षों का मूल्यांकन ।
मूल्यांकन कार्य में मापन एवं परीक्षण सम्मिलित होता है। मूल्यांकन कार्यक्रम में प्रमुख निम्नलिखित है- विशेषताएं
1. क्रमबद्धता
2. वस्तुनिष्ठता
3. विश्वसनीयता
4. वैधता
5. व्यावहारिकता
6. व्यापकता
7. शिक्षार्थी की सहभागिता ।
मूल्यांकन के महत्व को क्रानबैक ने निम्न प्रकार स्पष्ट किया है-
मूल्यांकन पाठ्यचर्या - निर्माण की परिशिष्ट न होकर अनिवार्य अंग हैं"
मूल्यांकन चयन में सहायक आवश्यक प्रदत्तों को उपलब्ध कराता है तथा यह व्यक्ति अथवा वर्ग की अधिगम तत्परता का बोध कराता है। इस प्रकार पाठ्यचर्या की मूल्यांकन प्रक्रिया इसके विकास के सभी चरणों में सतत् रूप से चलती रहती है। तथा इससे भावी कदम के लिए दिशा निर्देश प्राप्त होता रहता है। पाठ्यचर्या -निर्माताओं को मूल्यांकन के इस महत्व को सदैव ध्यान में रखना चाहिए।
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