पाठ्यचर्या की संक्रियाओं के संदर्भ में पाठ्यचर्या संगठन की विधियाँ |Methods of Curriculum Organization

पाठ्यचर्या की संक्रियाओं के संदर्भ में पाठ्यचर्या संगठन की विधियाँ

पाठ्यचर्या की संक्रियाओं के संदर्भ में पाठ्यचर्या संगठन की विधियाँ |Methods of Curriculum Organization
 

पाठ्यचर्या की संक्रियाओं के संदर्भ में पाठ्यचर्या संगठन की विधियाँ 

पाठ्यचर्या मुख्य रुप से इस बात पर निर्भर करती है हम विद्यार्थियों में किन अधिगम अनुभवों विकसित करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में यदि कहें तो अधिगम के प्रत्याशित परिणाम पर पाठ्यचर्या का संगठन निर्भर करता है। अतःसर्वप्रथमअधिगम के परिणाम को निश्चित किया जाता हैउसके बाद पाठ्यचर्या को । सामान्यतः पाठ्यचर्या में जो भी विषय रखने होते हैं और उन विषयों के तहत जो भी पाठ्यवस्तु रखनी होती हैपहले उसपर संबंधित विभाग मेंतब उस विद्यालय या संकाय के बोर्ड ऑफ स्टडीज्स में और उसके बाद एकेडमिक कौंसिल में चर्चा की जाती है। इसके बाद इसे अस्तित्व में लाया जाता है। शिक्षक इसमें दोहरी भूमिका निभाता है - एक तो उपरोक्त निकायों के सदस्य के रुप में तथा दूसरा पाठ्यचर्या के मूल प्रारूप को तैयार करने में। लेकिन शिक्षक अपने मन से पाठ्यचर्या में विषयों और विभिन्न विषयों के पाठ्यवस्तुओं को शामिल नहीं करता है। इसके लिए वो विभिन्न उपागमों का सहारा लेता है। ये उपागम ही पाठ्यचर्या के संगठन की विधियाँ या पाठ्यचर्या के संगठन के उपागम कहलाते हैं। ये निम्नलिखित हैं:

 

i. विषयवस्तु / अनुशासन आधारित उपागम 

ii. विशिष्ट दक्षता उपागम 

iii. मानवीय गुण / प्रक्रिया उपागम 

iv. सामाजिक प्रकार्य / क्रिया-कलाप उपागाम 

V. व्यक्तिगत आवश्यकता एवं रुचि उपागम ।

 

1. विषयवस्तु / अनुशासन उपागम 

अध्ययन किए जानेवाले प्रत्येक विषय या अनुशासन - अपने विशिष्ट गुण एवं प्रारूप होते हैं जो एक पाठ्यचर्या निर्माता को पाठ्यचर्या बनाने में सहायता करते हैं। उदाहरण के तौर पर विज्ञान विषय की विशेषता हैअवलोकन योग्य तथ्यों का ज्ञानप्रयोग द्वारा प्रमाणित किया जा सकने वाला सिद्धांत तथा उन सिद्धांतों का सामान्यीकरण । कला से संबंधित विषयों की विशेषता हैउन सामाजिक घटनाओं क अध्ययन जिनसे व्यवहार के प्रारुप का सामान्यीकरण होता है तथा विविध प्रकार के संस्कृति के अस्तित्व का वर्णन करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों का निर्माण होता है। एक बार अधिगम उद्देश्य एवं उनके प्रत्याशित परिणामों के आधार पर जब अनुशासन या विषय का चयन कर लिया जाता है तब उसके क्षेत्र अर्थात उसके अंतर्गत पढ़ाए जानेवाले पाठ्यवस्तु का चयन किया जाता है। इसके लिए अंतर- अनुशासनिक उपागम का भी सहारा लिया जाता है। उदाहरण के तौर परप्रबंध विज्ञान के एक पाठयचर्या में विज्ञान और कला दोनों अनुशासनों के विषयजैसे- संगठनात्मक प्रारूप एवं ऑपरेशन रिसर्च शामिल होते हैं।

 

2. विशिष्ट दक्षता उपागम- 

प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ विशेष गुण होते हैं। पाठ्यचर्या ऐसा होना चाहिए कि वो विद्यार्थी के अंदर निहित विशेष गुण को पहचानने का तथा पहचान कर उन्हें निखारने का अवसर प्रदान करे ताकि विद्यार्थी उस गुण में दक्ष हो जाए और वो विशेष गुण उसका एक कौशल बन जाए। पाठ्यचर्या के लिएपाठ्यचर्या का संगठन करते समय उसमें ऐसे क्रिया-कलापों एवं विषयों को स्थान दिया जाता है जो उपरोक्त कार्य में विद्यार्थी की सहायता कर सके। अधिगम संबंधी क्रिया-कलापों के साथ- साथ विद्यार्थियों के निष्पत्ति के सूचक भी उन्हीं विशिष्ट कौशलों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इसमें कर के सीखनेपर ज़्यादा पर बल दिया जाता है। सभी व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में पाठ्यचर्या संगठित करने की इस विधि का ज़्यादा प्रयोग किया जाता है।

 

3. मानवीय गुण/प्रक्रिया उपागम - 

यह विधि मुख्य रुप से विद्यार्थी में मानवीय मूल्योंविशेषतः सामाजिक एवं राष्ट्रीय मूल्यों को विकसित करने पर बल देती है। इसमें सबसे मुख्य बात उपयुक्त अनुभवों की उपलब्धता होती है। मूल्यों का विकास तभी संभव है जब विद्यार्थी को अनुभवों एवं गुणों / मूल्यों के संबंध के विषय मेंसोचने एवं विश्लेषण करने का अवसर प्राप्त हो। रोल मॉडल को भी स्थान दिया जा सकता है क्योंकि मूल्यों के विकास में ये भी सहायक होते हैं। भारतीय संदर्भ में इस उपागम की बड़ी भूमिका होती है।

 

4. सामाजिक प्रकार्य / क्रिया-कलाप उपागम 

यह उपागम इस मान्यता पर आधारित है कि शिक्षण प्रक्रिया समाज में सम्पन्न होती है और इसलिए उस समाज के प्रति उत्तरदायी है। जिसमें यह कार्य करती है। इस उपागम का प्रयोग कर जब पाठ्यचर्या का संगठन किया जाता है तो उसमें तीन बातों का विशेष रुप से ध्यान दिया जाता है:

 

  • जीवन के वास्तविक परिस्थितियों के इर्द-गिर्द विकसित होना चाहिए; 
  • समाज की आवश्यकता को व्यक्ति विशेष की आवश्यकता से ज़्यादा बल देना चाहिए; 
  • विद्यार्थियों की प्रत्यक्ष सहभागिता के द्वारा सामाजिक कार्य क्षमता एवं सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देना चाहिए।

 

5. व्यक्तिगत आवश्यकता एवं रुचि उपागम

इस विधि के द्वारा पाठ्यचर्या संगठन में विद्यार्थीको केन्द्र में रखा जाता है। इस विधि के प्रयोग के पीछे यह मान्यता कार्य करती है कि विद्यार्थी को केन्द्र में रखने से अधिगम प्रक्रिया में उनकी रुचि बढ़ती है। वर्तमान में पाठ्यचर्या के संदर्भ में जो शोध हो रहे है उनमें इस उपागम को ज़्यादा महत्व दिया जा रहा है।

 

पाठ्यचर्या संगठन की उपयुक्त विधियों को जानने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि पाठ्यचर्या संगठन के ये विभिन्न उपागम यद्यपि अपने-आप में पूर्ण है लेकिन इनमें से किसी एक के प्रयोग से संतुलित पाठ्यचर्या का निर्माण नहीं हो सकता है। संतुलित पाठ्यचर्या के निर्माण में इन सभी उपागमों का सहरा लेना पड़ता है। अतःएक संतुलित पाठ्यचर्या के निर्माण के लिए इन सभी उपागमों का समुचित प्रयोग आवश्यक है।

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