पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धांत |Principles of Curriculum Design
पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धांत
पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धांत
पाठ्यचर्या के निर्माण में दर्शन, समाज, राज्यतंत्र, अर्थतंत्र, विज्ञान एवं मनोविज्ञान की महती भूमिका होती है। चाहे कोई भी राष्ट्र हो या कोई भी समाज, उपरोक्त उल्लिखित सारे तत्व पाठ्यचर्या पर अपना प्रभाव डालते हैं। इन तत्वों के प्रभाव को हीं सिद्धांतों का नाम दे दिया गया है। शिक्षा के भिन्न-भिन्न स्तर के लिए यह भिन्न-भिन्न होते है। वर्तमान समय में हमारे देश में 10+2+3 शिक्षा पद्धति प्रचलित है और इसमें प्रथम 10 वर्षों की शिक्षा सामान्य है। अतः, हम इसी 10 वर्षीय शिक्षा के स्तर के लिए पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धांतों की चर्चा करेंगे।
इस स्तर के लिए पाठ्यचर्या निर्माण के लिए निम्नलिखित 11 मुख्य सिद्धांत हैं-
1. उद्देश्यों की प्राप्ति का सिद्धांत- .
शिक्षा प्रदान करने के कुछ उद्देश्य होते हैं और शिक्षा प्रदान करने के लिए पाठ्यचर्या का होना अनिवार्य है। अतः, पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय हमें शिक्षा के उद्देश्यों को ध्यान में रखना चाहिए और पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं का समावेश करना चाहिए, जिनको हम छात्रों में विकसित करना चाहते हैं।
2. उपयोगिता का सिद्धांत -
पाठ्यचर्या निर्माण का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत, उपयोगिता का सिद्धांत है। इस सिद्धांत का आशय यह है कि पाठयचर्या विद्यार्थी के वास्तविक जीवन के लिए उपयोगी होना चाहिए। इस संबंध में नन का कहना है- “साधारण मनुष्य सामान्यतः यह चाहता है कि उसके बच्चे केवल ज्ञान के प्रदर्शन के लिए कुछ व्यर्थ की बातों को ही न सीखे, परंतु समग्र रुप से वह यह चाहता है कि उनको वो बातें सिखाई जाएँ जो बालक के वास्तविक जीवन से संबंधित हो" । उदाहरणार्थ, आज का युग कम्प्युटर का युग है। यदि आज हम कोई पाठ्यचर्या निर्मित करते हैं तो हमें उसमें कम्प्युटर प्रौद्योगिकि को ज़रूर स्थान देना चाहिए।
3. रचनात्मक कार्य का सिद्धांत -
प्रत्येक बालक अद्वितीय होता है और उसमें कुछ न कुछ सृजन करने की शक्ति होती है। अतः, पाठ्यचर्या ऐसा होना चाहिए कि वो विद्यार्थियों को अपने अंदर छुपी हुई रचनात्मक शक्ति को पहचानने एवं पहचान कर उसे निखारने का अवसर प्रदान करे। रेमॉण्ट ने इस संदर्भ में लिखा है- “ जो पाठ्यचर्या, वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त है, उसमें निश्चित रुप से रचनात्मक विषयों के प्रति निश्चित सुझाव है”।
4. वरीयता क्रम का सिद्धांत -
पाठ्यचर्या अनेक विषयों का समूह होता है। लेकिन यह समूहू अव्यवस्थित नहीं होता है। बल्कि एक निश्चित व्यवस्था में बँधा होता है। यह व्यवस्था पाठ्यचर्या में शामिल विषय एवं प्रत्येक विषय में शामिल पाठ्यवस्तु के क्रम को विद्यार्थियों की आवश्यकता के आधार पर निर्धारित करती है। अतः, पाठयचर्या का निर्माण करते समय हमें इस वरीयता क्रम का भी ध्यान रखना चाहिए।
5. सामुदायिक जीवन से संबद्धता का सिद्धांत-
माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार " पाठ्यचर्या सामुदायिक जीवन से सजीव की ओर आंगिक रूप से संबंधित होना चाहिए | मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज में ही अपने जीवन के समस्त कार्य-व्यापार संपादित करता है। अतः, उसे पढ़ाया जानेवाला पाठयचर्या भी सामुदायिक एवं सामाजिक जीवन से संबंधित होना चाहिए। पाठयचर्या निर्माण के समय हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए।
6. अग्रदर्शिता का सिद्धांत-
शिक्षा विद्यार्थियों का सिर्फ वर्तमान ही नहीं वरन् भविष्य भी सँवारती है। अत:, पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि भविष्य में शिक्षा की दशा एवं दिशा क्या होगी? अर्थात भविष्य में किस क्षेत्र में कुशल मानव शक्ति की माँग होगी और कितनी मात्रा में होगी। ? इन तथ्यों को ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या में पाठ्यवस्तु का समावेश किया जाना चाहिए ताकि पाठयचर्या वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की आवश्यकताओं को भी संतुष्ट कर सके।
7. आवश्यकता का सिद्धांत-
पाठयचर्या विद्यार्थी के लिए निर्मित किया जाता है न कि विद्यार्थी पाठ्यचर्या के लिए। अतः, पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए । विद्यार्थियों की आवश्यकताएँ सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, एवं धार्मिक परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग होती है। अतः, पाठ्यचर्या के निर्माण में, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि विद्यार्थी किस सामाजिक, राजनैतिक आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थिति में रहते हैं। इसके इतर विद्यार्थियों की आवश्यकताएँ, उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास की अवस्थाओं पर भी निर्भर करती है। अतः, पाठयचर्या निर्माण के समय विद्यार्थियों के शारीरिक एवं मानसिक विकास की अवस्थाओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
8. रुचि का सिद्धांत -
अतीत में हुए अनेक शोधकार्यों द्वारा यह प्रमाणित हो है कि विद्यार्थियों की रुचि एवं उनके शैक्षिक उपलब्धि में गहन संबंध होते हैं। इसका कारण यह है कि जिस कार्य में विद्यार्थी की रुचि होती है, उसे सीखने के लिए विद्यार्थी आंतरिक रूप से अभिप्रेरित होते हैं और फलस्वरुप परिणाम अच्छा होता है। अतः, पाठयचर्या का निर्माण करते समय हमें विद्यार्थियों की रुचि को ध्यान में रखना चाहिए।
9. सुसंबद्धता का सिद्धांत -
पाठ्यचर्या के संदर्भ में सुसंबद्धता से आशय इस बात से है पाठ्यवस्तु एक-दूसरे से भली-भाँति संबंधित हो। इसके अलावा जो क्रिया-कलाप पाठ्यचर्या में शामिल किए जाएँ वो भी पाठ्यवस्तु से भली-भाँति संबंधित हो। अतः, पाठ्यचर्या निर्माण करते समय हमें सुसंबद्धता के सिद्धांत को ध्यान में रखना चाहिए।
10. क्रिया का सिद्धांत-
मनोविज्ञान में हुए शोधकार्यों ने यह प्रमाणित किया है कि 'कर के सीखा ज्ञान' ज़्यादा स्थायी होता है और यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। अतः, हमें पाठयचर्या का निर्माण करते समय विभिन्न क्रिया-कलापों को पाठ्यचर्या में स्थान देना चाहिए ताकि विद्यार्थी द्वारा अर्जित ज्ञान में स्थायित्व आ सके और विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास हो सके।
11. विविधता एवं लचीलेपन का सिद्धांत-
माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, पाठ्यचर्या में काफी विविधता एवं लचीलापन होना चाहिए, जिससे कि वैयक्तिक विभिन्नताओं और वैयक्तिक आवश्यकताओं एवं रुचियों का अनुकूलन हो सके। पाठ्यचर्या में विविधता एवं लचीलापन इस कारण से होना चाहिए कि उसे विद्यार्थियों कि शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं तथा उनकी रुचि के अनुकूल बनाया जा सके। अतः, निर्माण करते समय हमें इस सिद्धांत को ध्यान में रखना चाहिए।
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