पाठ्यचर्या संरचना पुनर्संरचनावाद दार्शनिक आधार | Reconstructionism Philosophical Foundations
पाठ्यचर्या संरचना पुनर्संरचनावाद दार्शनिक आधार
पुनर्संरचनावाद दार्शनिक आधार
पुनर्संरचनावाद को एक ऐसे शैक्षिक उपागम के रूप में देखा जाता है जिसने अमेरिका में सामाजिक परिवर्तन हेतु विद्यालयों के सामाजिक भूमिका निभाने पर बल दिया। पुनर्संरचनावाद के समर्थकों का मानना है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए विद्यालयों को मात्र शिक्षा देने वाली शाला बन कर ही नहीं रहना चाहिए वरन इसके इतर विद्यालयों की कुछ सामाजिक भूमिकाएं भी होती हैं जिसे उन्हें भली-भांति निभाना चाहिए । 1930 से 1960 के दौरान पुनर्संरचनावाद अमेरिका में एक अतिलोकप्रिय दर्शन था। वैसे तो पुनर्संरचनावाद का प्रारंभ 1930 के काफी पहले ही हो चुका था पर लम्बे समय तक यह विचारधारा अन्धकार के गर्त में रही। काफी समय तक अंधकार में रहने के पश्चात् 1930 के दशक में यह विचारधारा पुनः प्रकाश में आयी परन्तु 1950 के दशक में यह पूर्णरूपेण पुष्पित - पल्लवित हुई । पुनर्संरचनावाद को काफी हद तक कोलंबिया टीचर्स कॉलेज के थोओडोर ब्रैमेल्ड, के मष्तिस्क की उपज के रूप में देखा जाता है जिसके कार्यों के द्वारा पुनर्संरचनावाद 1950 के दशक में अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त कर सकी। थोओडोर ब्रैमेल्ड ने अध्ययन के फलस्वरूप अमेरिका में शिक्षा सम्बन्धी तीन मुख्य उपागमों की पहचान की। इस पहला स्थायित्ववाद है जिसका मानना है कि शिक्षा का आधार महान पुस्तकें होनी चाहिए दूसरा पदार्थवाद है जो सामाजिक विरासत उपागम पर आधारित थी और तीसरा प्रगतिवाद है जो विद्यार्थी को अपना विकास स्वयं के द्वारा करने की वकालत करता है । पहले दोनों को अस्वीकार करते हुए पाया कि उनकी शैक्षिक विचारधारा तीसरे से मिलती है। प्रारंभ में थोओडोर ब्रेमेल्ड एक कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे परन्तु कालांतर में पुनर्संरचनावाद की ओर मुड़ गए।
पुनर्संरचनावाद के अन्य प्रमुख समर्थक जॉर्ज काउंट्स (1932) थे जिन्होंने अपने भाषण, जिसका शीर्षक “Dare the School Build a New Social Order ” में यह सुझाव दिया कि विद्यालय सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक सुधार के प्रतिनिधि बन गए हैं। अतः इस दिशा में छात्रों से मात्र एक तटस्थ भूमिका निभाने को स्वीकार नहीं किया जा सकता है बल्कि उनसे समाज में एक स्थान, एक सामाजिक पद ग्रहण करने की आशा की जाती है ताकि वे सुधार में अपना विशेष योगदान दे सकें ।
पुनर्संरचनावाद के अधिकांश समर्थक वर्ग मुक्त एवं विभेदमुक्त समाज की कल्पना करते हैं अतः जाति, लिंग, धर्म और सामाजिक-आर्थिक स्तर के अंतर को लेकर अधिक संवेदनशील हैं। पुनर्संरचनावाद से सम्बंधित एक अन्य विश्वास Critical Pedagogy है। यह मुख् रूप से शिक्षण और पाठ्यचर्या सिद्धांत है जो कि हेनरी गिरोक्स और पीटर मैकलॉरेन के द्वारा इसका प्रारूप तैयार किया था जो कि कक्षा में क्रांतिकारी साहित्य के प्रयोग पर बल देता है जिसका लक्ष्य 'मुक्ति' को प्राप्त करना है । अपनी अवधारणाओं के आधार पर Critical Pedagogy मार्क्स के विचारधारा पर आधारित थी जो कि समाज में धन के वितरण में समानता की वकालत करती है और पूंजीवाद का घोर विरोध करती है।
नवीन पुनर्संरचनावादी जैसे पाउलो फ्रेइरे (1968) अपनी पुस्तक 'Pedagogy of the Oppressed' (1968) में गरीब छात्रों के लिए क्रांतिकारी शिक्षा की वकालत करते हैं जिसमें व्यक्ति विभिन्न चरणों से गुजरते पूर्णता को प्राप्त करता है। छात्र स्वयं के लिए स्वयं ही क्रिया करें। ज्ञान के द्वारा वे विभेदनशीलता के विरुद्ध कारवाई करने में सक्षम हो सकें तथा स्वयं ही उत्पीड़न से बाहर निकल सकें ।
समाज में परिवर्तन हेतु शिक्षा को एक उपकरण के रूप में है। पुनर्संरचनावादी समाज में सुधार के पक्ष में तर्क देते हैं और साथ ही शिक्षा में इस बात पर विशेष बल देते हैं कि विद्यार्थियों को यह सिखाना या पढाना चाहिए की संपूर्ण समाज या इसके किसी भी भाग में परिवर्तन किस प्रकार लाया जाए । सामान्य रूप में पुनर्संरचनावाद वह दर्शन है जो सामाजिक और सांस्कृतिक आधारभूत सुविधाओं के पुनर्निर्माण पर विश्वास करती है पुनर्संरचनावाद के अनुसार शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जो छात्रों की सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करे और साथ ही समस्याओं के अध्ययन के पश्चात् सामाजिक उन्नति के लिए उचित रास्तों की तलाश करे।
पुनर्संरचनावादी पाठ्यचर्या का स्वरुप
पुनर्संरचनावादी दर्शन के अनुसार पाठ्यचर्या का स्वरुप निम्नवत होना चाहिए ।
1. पुनर्संरचनावादी पाठ्यचर्या में, छात्रों के लिए सामाजिक समस्याओं की व्याख्या, विश्लेषण एवं मूल्यांकन करना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि रचनात्मक परिवर्तन लाने के लिए छात्रों को सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा करना और निवारण के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना आवश्यक है। उन्हें इस प्रकार तैयार करना जरुरी है कि वे सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध हो जाएँ.
2. पाठ्यचर्या सामाजिक और आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ सामाजिक सेवा पर भी आधारित होना चाहिए । पाठ्यचर्या में स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समुदायों महत्वपूर्ण विश्लेषण होना चाहिए जिससे छात्रों को स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समुदायों का समुचित ज्ञान हो सके। इन मुद्दों के कुछ उदाहरण पर्यावरण ह्रास, बेरोजगारी, अपराध, राजनीतिक उत्पीड़न, युद्ध, भूख इत्यादि हैं।
3. पुनर्संरचनावादी ऐसी पाठ्यचर्या की बात करते हैं जो सामाजिक असमानताओं को ख़त्म करने में मदद करती है समाज में कई तरह की असमानताएं एवं अन्याय हैं जैसे- जाति, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्थिति से सम्बंधित असमानताएं एवं इसकी वजह से उपजा अन्याय । विद्यालयों को छात्रों को इन अन्यायों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी कदम लेने को प्रेरित करना चाहिए। इसके साथ ही साथ छात्रों को विवादस्पद मुद्दों की जाँच से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। छात्रों को विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने के सम्बन्ध में सीखना चाहिए और इसके लिए छात्रों को एक साथ समूह में कार्य करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
4. समाज में हो रहे लगातार परिवर्तन के साथ ही पाठ्यचर्या को भी परिवर्तित होते रहना चाहिए। छात्रों को विभिन्न वैश्विक मुद्दों एवं राष्ट्रों के मध्य अन्योन्याश्रित संबंधों से अवगत होना चाहिए। इसके साथ ही पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जिसमें छात्रों में आपसी समझ और वैश्विक सहयोग बढ़ाने से सम्बंधित पाठ हों।
5. शिक्षकों को सामाजिक परिवर्तन, सांस्कृतिक नवीकरण एवं अंतर्राष्ट्रीयता को बढ़ाने वाले मुख्य प्रतिनिधियों के रूप में देखा जाता है अतः उन्हें पुरानी संरचनाओं को चुनौती देने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और एक नयी सामाजिक व्यवस्था जो काल्पनिक हो सकती है, को लेने का प्रयास करना चाहिए।
6. पुनर्संरचनावादी सामान्य रूप से पाठ्यचर्या में विज्ञान के स्थान पर सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों को रखने की वकालत करते हैं। पाठ्यचर्या में जिन विषयों के समावेश पर मुख्य रूप से बल दिया जाता है उनमें इतिहास, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्म, मूल्य, वि और दर्शन है.
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