पाठ्यचर्या एवं मूल्यों के बीच सम्बन्ध |Relationship between Curriculum and Values

पाठ्यचर्या एवं मूल्यों के बीच सम्बन्ध

Relationship between Curriculum and Values


 

पाठ्यचर्या एवं मूल्यों के बीच सम्बन्ध

पाठ्यचर्या एवं मूल्यों के मध्य सम्बन्ध जानने से पहले आवश्यक है कि मूल्य क्या हैं ये जान लिया जाए ।

 

मूल्य 

मूल्य हमारे समाज में निहित आदर्श और विश्वास हैं जो हमारे विचारोंरीति-रिवाजोंरहन-सहनवेश-भूषा से परिलक्षित होता है। मूल्यों को विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया हैपरन्तु सभी का आशय कमोबेश एक जैसा ही है। 

काने ने मूल्यों को परिभाषित हुए कहा है कि, मूल्य वे आदर्श तथा विश्वास हैंजिन्हें समाज के अधिकांश सदस्यों ने अपना लिया है।” अर्थात जिस समाज में जो समाजसम्मत है उसे उस समाज का मूल्य माना जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय विश्वकोष के अनुसार, “मूल्य का अर्थ नियमों के समुच्चय से लिया जाता है जहाँ चरित्र को व्यक्ति तथा सामाजिक दलों के लिए नियंत्रित किया जाता है।” वहीँ अर्बन ने मूल्यों की परिभाषा इस रूप में दी है कि "मूल्य वे हैं जो मानवीय अभिलाषाओं को संतुष्ट करते हैं। आर. के. मुखर्जी के शब्दों में, “मूल्यों को सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य न इच्छाओं तथा लक्ष्यों के रूप में परिभाषित किया है जिन्हें अनुबंधनअधिगम या समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा आभ्यान्तरीकृत किया जाता है तथा जो आत्मनिष्ठ प्राथमिकताओंमानकों तथा आकांक्षाओं को ग्रहण करती है।" मानव कुछ लक्ष्यों को ले कर जन्म लेता है जिनकी प्राप्ति के लिए वह जीवन भर प्रयासरत रहता है।

 

इन्हीं जीवन लक्ष्यों को मूल्य की संज्ञा दी जाती है। जीवन से सम्बंधित इन लक्ष्यों की उत्पति इस प्रकार हैं.-

 

मूल्यों का स्त्रोत  

मूल्य हमारे जीवन में ही निहित हैं। जीवन से जुड़े कई पहलू होते हैं जैसे शारीरिकमानसिकबौद्धिकआर्थिकराजनीतिकआध्यात्मिक । अतः मानव जीवन से सम्बंधित प्रत्येक पहलू से मूल्य सम्बंधित होते हैं और समाज में व्याप्त प्रत्येक मूल्य का जन्म मानव से सम्बंधित इन विभिन्न पक्षों से होता है। ये विविध पक्ष इस प्रकार हैं।

 

i. दर्शन से सम्बंधित मूल्य 

ii. सामाजिक संरचना से सम्बंधित मूल्य 

iii. धर्म से सम्बंधित मूल्य 

iv. संस्कृति से सम्बंधित दर्शन

 

मूल्यों के प्रकार 

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ये मूल्य हमारे जीवन के लक्ष्यपक्षों से सम्बंधित होते हैं एवं संस्कृति का ही एक भाग हैं। मूल रूप से प्रत्येक संस्कृति में सर्वमान्य कुछ मूल्य होते हैं । व्यक्तिगतसमानतास्वतंत्रतासामाजिकआर्थिकराजनीतिकप्रजातान्त्रिकभ्रातृत्वधर्मनिरपेक्षतासत्य अहिंसाआध्यामिकताविश्व-बंधुत्वभौतिकता आदि इस प्रकार के मूल्य हैं। अर्बन ने मनुष्य के जीवन के तीन महत्वपूर्ण पक्षों के आधार पर मूल्य के तीन प्रकार बताये हैं (i) शारीरिक, (ii) सामाजिक, (iii) आध्यात्मिक । अर्बन के अतिरिक्त अन्य विद्वानों ने भी इन पक्षों से सम्बंधित मूल्य के विभिन्न प्रकार बताये हैं जो इस प्रकार हैं-

 

सामान्य रूप से मान्य मूल्य- 

i. दार्शनिक मूल्य  

ii. मनोवैज्ञानिक मूल्य 

iii सामाजिक मूल्य 

iv. मानवीय या सार्वभौमिक मूल्य

 

पाश्चात्य विद्वानों ने विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर मूल्य के भिन्न प्रकार बताये हैं जिनमें शारीरिकआर्थिकमनोरंजनसाहचर्यचरित्रसौन्दर्यबौद्धिक एवं धार्मिक आदि सम्मिलित होते हैं। पश्चिमी संस्कृति की मूल्य मीमांसा के अनुसार मूल्यों के चार प्रकार बताए हैं-

 

i. नैतिक मूल्य 

ii. सौन्दर्यपरक मूल्य 

iii सामाजिक या आर्थिक मूल्य 

iv. धार्मिक या सांस्कृतिक मूल्य

 

मनु ने अपनी स्मृति में चार पुरुषार्थों का उल्लेख किया हैधर्मअर्थकाम और मोक्ष । ये चारों पुरुषार्थ चार भारतीय मूल्य के रूप में जाने जाते हैं इसमें अर्थ और काम लौकिक मूल्य हैं तथा धर्म और मोक्ष आध्यात्मिक निम्नलिखित हैं- मूल्य हैं । इन मूल्यों के अतिरिक्त अन्य परंपरागत भारतीय मूल्य

 

i. सत्य 

ii. धर्म 

iiiशान्ति 

iv. प्रेम  

v. अहिंसा

 

जैसा कि पहले ही बताया गया है कि मूल्य समय के साथ परिवर्तनशील हैं। बदलते समय के साथ मूल्यों में भी परिवर्तन हुआ है। आधुनिक भारतीय समाज के मूल्यों के अंतर्गत स्वतंत्रतान्यायसमानताभ्रातृत्वसत्य व अहिंसादेश-प्रेमविश्व-बंधुत्व एवं अंतर्राष्ट्रीय सदभाव की भावना इन सबसे ऊपर नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य आते हैं जो प्राचीन काल से लेकर आधुनिक तक उसी प्रकार से अनुकरणीय हैं।

 

भारतीय सभ्यता और संस्कृति अति प्राचीन हैं। मूल्य संस्कृति में ही संलग्नित होते हैं । भारतीय संस्कृति स्वयं में अति मूल्यनिष्ठ संस्कृति मानी है । वस्तुतः प्रत्येक संस्कृति में कुछ मूल्य निहित होते हैं । ये मूल्य उस स्थान उस देशकाल के दर्शन पर आधारित होते हैं। जैसा कि अधिकांश लोगों का मानना है है कि आधुनिकता या पश्चिमी सभ्यता मूल्यहीन है। पश्चिमीकरणनगरीकरण अथवा आधुनिकीकरणये सभी अपने कुछ न कुछ मूल्यों को समाहित कर रखा है। ये बात और है कि ये सभी मूल्य एक हद तक हमारे देश में परंपरागत मान्य मूल्यों से नहीं मिलतेजिसकी वजह से इतना विरोध होता है । परन्तु मूल्यों के स्वरुप में परिवर्तन अवश्यम्भावी है।

 

इस विश्व में सनातन कुछ भी नहीं है। यदि कुछ स्थायी या सनातन है तो वह परिवर्तन ही है । समाज में परिवर्तन होता रहता है। विभिन्न परिवर्तनों के कारण समाज में परिवर्तन आता है। समाज में आए परिवर्तन के साथ ही दर्शनआदर्शविश्वासधर्मपरम्पराप्रथामनोभावसाहित्यविज्ञान सभी में परिवर्तन आता है और इन सभी के साथ मूल्यों में परिवर्तन आता है।

 

पाठ्यचर्या एवं मूल्य: 

पाठ्यचर्या के निर्माण के पीछे दार्शनिकमनोवैज्ञानिकसामाजिकआर्थिकसांस्कृतिक और मानवीय जैसे आधार उत्तरदायी हैं । ये आधार मूल्यों के निर्माण के लिए भी उत्तरदायी हैं तो जैसे ही इन आधारों में परिवर्तन होता है मूल्यों में भी परिवर्तन हो जाता है और पाठ्यचर्या का मुख्य उद्देश्य इन जीवन मूल्यों की प्राप्ति है तो परिवर्तित मूल्यों की प्राप्ति हेतु पाठ्यचर्या में भी परिवर्तन हो जाता है । जिस प्रकार के हमारे समाज के मूल्य होते हैं हमारी पाठ्यचर्या भी उसी प्रकार की होती है पाठ्यचर्या के माध्यम से इन मूल्यों को प्राप्त कर समाज के द्वारा नियत लक्ष्यों को पाने का प्रयास किया जाता है। शिक्षा एवं पाठ्यचर्या में व्याप्त मूल्यों का को इस रेखाचित्र के माध्यम से समझा जा सकता है। मूल्यों ये परिवर्तन आगे चल कर संस्कृति में परिवर्तन करते हैं।

 

पाठ्यचर्या एवं मूल्यों के मध्य अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । दोनों एक-दूसरे से अंतर्संबंधित हैं साथ ही एक-दूसरे को प्रभावित करते और होते हैं। मूल्यों के आधार पर शैक्षिक उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं और फिर उन उद्देश्यों के लिए शैक्षिक संरचना बनायी जाती है। शैक्षिक संरचना के हिसाब से विद्यालयी और कक्षा के वातावरण का निर्माण किया जाता है जिसमें निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षा दी जानी है । तद्पश्चात उचित पाठ्यचर्या का शिक्षण सहायक सामग्रियोंशिक्षण विधियों एवं तकनीकों के माध्यम से विद्यार्थियों को ज्ञान दिया जाता है। तद्पश्चात उनका मूल्यांकन कर निर्धारित एवं गैरनिर्धारित परिणाम प्राप्त किए जाते हैं। ये स्पष्ट करते हैं कि किन मूल्यों की प्राप्ति नहीं हुयी है और उसके आधार पर संपूर्ण शिक्षण व्यवस्था को पुनर्निर्मित किया जाता है और इस प्रकार यह चक्र निरंतर चलता रहता है ।

 

पाठ्यचर्या एवं मूल्यों के बीच सम्बन्ध


इस इकाई से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक दर्शन का शिक्षा को अपनी तरह से प्रभावित करता है । तत्कालीन आदर्शोंविचारधाराओं और सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है । किसी न किसी रूप में शिक्षा सम्बन्धी ये दर्शन आज भी व्यावहारिक हैं । जहाँ पदार्थवादी दर्शन वैज्ञानिकता पर बल देता है वहीँ प्रगतिवादी दर्शन प्राकृतिक विज्ञान के साथ-साथ सामाजिक विज्ञान पर भी बल देता है और पुनर्संरचनावादी दर्शन मूल रूप से सामाजिक विज्ञान एवं सामाजिकता का विकास करने से सम्बंधित दार्शनिक विचारधारा है । इसीप्रकार संस्कृति में निहित मूल्य भी शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करते हैं ।

 

देश की बढ़ती जनसंख्या के साथ कई समस्याओं ने जन्म लिया बेरोजगारी की समस्या भी उन्हीं समस्याओं में से एक है। इस बढ़ती जनसंख्या के लिए सरकार के द्वारा सभी के लिए रोजगार की व्यवस्था करना अत्यन्त कठिन कार्य है । इस हेतु प्रगतिवादी शिक्षा व्यवस्था आवश्यक है जो स्वयं करके सीखने पर बल देती है । स्वयं करके सीखने से जहाँ छात्रों द्वारा किया गया प्रयासप्रयोग एवं हस्तकौशल तथा अन्य गामक क्रियाओं द्वारा सीखे जाने पर बल देता है वहीँ कहीं न कहीं से स्वरोजगार में सहायक होता है। इसके साथ ही जनसंख्या बढ़ने के साथ देश में परिवार नियोजन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। जिससे पहले परिवार में जो माता-पिता और उनके दो बच्चे की संकल्पना थी वह दो बच्चों से घटकर मात्र एक बच्चे पर आ गयी है । समाजशास्त्रियों द्वारा यह अंदेशा व्यक्त किया जा रहा है कि आने वाली पीढियां भाईबहनबुआचाचामामामौसी जैसे रिश्तों से अनजान रहेंगी । इसका एक और दूरगामी पक्ष यह है कि इन रिश्तों से अनजान रहने के साथ ही उनमें सामाजिक एवं मानवीय गुणों जैसे सहयोगसामाजिकतापरोपकार त्यागकरुणादयासमायोजन जैसे गुणों का अभाव हो जाएगा क्योंकि जीवन से सम्बंधित इस पाठ का प्रारंभ घर एवं परिवार से होता है वर्तमान समय में भी नवीन पीढ़ियों में इन गुणों का अभाव दिख रहा है इसलिए इन सभी समस्याओं के निवारण के लिए प्रगतिवादी शिक्षा एक हल के रूप में देखी जा सकती है । इतना ही नहीं भारतवर्ष में विष की तरह व्याप्त साम्प्रदायिकताजातिवादवर्णवाद के निवारण में प्रगतिवादी एवं पुनर्संरचनावादी शिक्षा पद्धति उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

 

पदार्थवादी शिक्षा व्यवस्था भी आज की मांग को देखते हुए आवश्यक है । पदार्थवादी शिक्षा वैज्ञानिकता एवं व्यावहारिकता से सम्बंधित है जो आधुनिक वैज्ञानिक युग के लिए उपयोगी है।

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