पाठ्यचर्या संरचना के समाजशास्त्रीय आधार |Sociological Basis of Curriculum Design
पाठ्यचर्या संरचना के समाजशास्त्रीय आधार
पाठ्यचर्या संरचना के समाजशास्त्रीय आधार प्रस्तावना
शिक्षा जीवन
पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके द्वारा
व्यक्ति के व्यवहार में निरंतर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। व्यक्ति के व्यवहार
में यह परिवर्तन औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों माध्यमों से होता है। पाठ्यचर्या का
संबंध शिक्षा के औपचारिक माध्यम से है। पाठ्यचर्या को विभिन्न विद्वानों ने
परिभाषित किया है। कनिंघम ने पाठ्यचर्या को कलाकार के हाथ में एक ऐसे साधन के रूप
में परिभाषित किया जिससे वह अपनी सामग्री (शिक्षार्थी) को अपने आदर्श ( उद्देश्य)
के अनुसार अपनी चित्रशाला (विद्यालय) में ढाल सके। डीवी के अनुसार “सीखने का विषय या पाठयचर्या, पदार्थों, विचारों और सिद्धांतों का चित्रण है जो निरंतर
उद्देश्यपूर्ण क्रियांवेषण साधन या बाधा के रूप में आ जाते हैं।" भारतीय
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने पाठयचर्या को निम्न प्रकार परिभाषित किया, ‘पाठ्यचर्या का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों
से नहीं है जो विद्यालयों में परंपरागत रूप से पढ़ाये जाते हैं, बल्कि इसमें अनुभवों की संपूर्णता भी सम्मिलित
होती है, जिनको विद्यार्थी
विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोशाला, कार्यशाला,
खेल के मैदान तथा शिक्षक एवं छत्रों के अनेकों
पाठ्यचर्या निर्माण के समाजशास्त्रीय आधार
मनुष्य समाज में
रहकर जीवन व्यतीत करता है जिसके कारण उसके जीवन का प्रत्येक पक्ष समाज से प्रभावित
होता है। शिक्षा मनुष्य के जीवन के महत्वपूर्ण पक्षों में से एक है। शिक्षा का
मुख्य लक्ष्य ही बालक का समाजीकरण करना अर्थात उसे उचित सामाजिक जीवन जीने हेतु
आवश्यक ज्ञान, योग्यतायें व
कौशल प्राप्त करने में सहायता करना है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा के इस लक्ष्य की
प्राप्ति हेतु निर्मित होने वाले पाठयचर्या में सामाजिक पृष्ठभूमि एवं समाज की
अपेक्षाएँ अवश्य सम्मिलित रहती हैं। शिक्षा के माध्यम से बालक के व्यवहार में
अपेक्षित/वांछित परिवर्तन लाया जाता है यह अपेक्षा वांछनीयता सामाजिक आकांक्षाओं
की दिशा में होती है। अतः पाठ्यचर्या जहाँ एक ओर व्यक्तू से संबन्धित होता है वहीं
दूसरी ओर समाज से भी जुड़ा होता है। शिक्षा द्वारा व्यक्ति समाज का योग्यतम सदस्य
बनता है। कुछ विद्वानों का मत है कि 'शिक्षा समाज विज्ञान व्यक्ति तथा उसके सांस्कृतिक वातावरण में जिसमें दूसरे
व्यक्ति, सामाजिक समूह व्यवहार के
नमूने होते हैं। व्यक्ति के प्रतिक्रिया का अध्ययन करता है।'
शिक्षा के समाजशास्त्रीय आधार की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-
• सामाजिक जीवन के
लिये तैयार करता है। शिक्षा का उद्देश्य बालकों को सामाजिक जीवन के लिये तैयार
करना है। इसलिये विद्यालयी परिस्थितियों में ऐसी क्रियाओं का संगठन एवं आयोजन किया
जाता है जिससे बालकों में सामाजिक भावना पैदा हो। जैसे-खेलकूद, वाद- विवाद सभा, सांस्कृतिक रंगारंग कार्यक्रम, स्काउट-गाइड आदि
• समाजहित की भावना
का विकास करना- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होता है कुशल एवं बुद्धिजीवी नागरिक
तैयार करना जो समाज हित के लिए प्रयासरत हो ।
• सामाजिक
प्रवृत्ति पर आधारित पाठ्यचर्या - समाज के आधार पर ही पाठ्यचर्या पर प्रभाव पड़ता
है। आधुनिक समय में सामाजिक विषयों पर लोगों का रूझान बढ़ा है तथा इस विषय को अधिक
महत्व दिया जा रहा है। पाठ्यचर्या सदैव समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप् होना चाहिए।
• शिक्षा का
सामाजिक उन्नति में योगदान- शिक्षा के द्वारा समाज के प्रत्येक व्यक्ति में
सामाजिक चेतना के भाव पैदा किये जातें है। मनुष्य में जागृत यह चेतना सामाजिक
उन्नति एवं प्रगति में सहायक होती है अतः यह आवश्यक है कि समाज के हर व्यक्ति को
शिक्षा ग्रहण करने का अवसर प्रदान किये जाये।
• विद्यालय समाज के
लघु रूप में- विद्यालय को समाज का लघु रूप कहते हैं तथा विद्यालय का समाज से अधिक
संबंध होता है। अतः बालक को जो उपयोगी हो वही शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
• प्रजातंत्र शासन
का समर्थन- “सामाजिक प्रकृति
प्रजातंत्र शासन का समर्थन करती है। यही कारण है कि अब शिक्षा देना सक सामाजिक
कार्य माना जाता है। उपरोक्त विवरण के आधार पर आप समझ गये होंगे कि हमारी शिक्षा
के क्या उद्देश्य हैं? तथा समाज के
उत्थान में शिक्षा किस प्रकार महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है?
समाजशास्त्रीय आधार और आधुनिक शिक्षा
आज भी शिक्षा में
समाजशास्त्रीय आधार को विशेष रूप से लिया गया है। आप देखेंगे कि इन्हीं कारणों से
शिक्षा में परिवर्तन दिखता है। ये परिवर्तन निम्नलिखित हैं।
• अध्यापकों की समय-समय पर तथा उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था पर अधिक बल दिया जाने लगा है।
• मानसिक मन्द एवं विकलांग श्रेणी के साथ-साथ गरीब बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाने लगी है।
• मजदूरों एवं प्रौढ़ो की भी शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाने लगी है।
• व्यवसायिक शिक्षा हेतु विभिन्न शैक्षिक / प्रशिक्षण संस्थान भी खोले जा रहे हैं।
• स्त्री शिक्षा पर
बल दिया जा रहा है। उपरोक्त तथ्यों के आधार पर आप देख सकते हैं कि आधुनिक समय में
शिक्षा पर समाजशास्त्रीय विचार का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। शिक्षा के क्षेत्र में
समाजवादी प्रवृत्ति का महत्व भी इस विचारधारा के साथ-साथ तथा अन्य कारणों से
नयी-नयी प्रवृत्तियों का जन्म हो रहा है।
समाजशास्त्रीय
प्रवृत्तिः-
शिक्षा में समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति का तात्पर्य शिक्षा में
समाजिकतावाद को अधिक महत्व देने से ही अर्थात प्रत्येक मनुष्य में पूर्ण रूप से
समाजिक विकास करने से है जिससे कि व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिये तैयार हो सके और
समाज का कल्याण कर सके। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में अर्थात
शिक्षा संगठन, शिक्षा प्रबन्ध,
पाठ्य वस्तु, शिक्षण-पद्धति आदि में कई परिवर्तन हुए। शिक्षा एक सामाजिक
प्रक्रिया है जो व्यक्ति के द्वारा जाति की सामाजिक चेतन में भाग लेने से विकसित
होती है।
शिक्षा में प्रवृत्ति के कारण
i. समाजिक उद्देश्य:-
समाजशास्त्र के विकास के साथ-साथ शिक्षा में समाजशास्त्रीय विचार का ठीक विकास हुआ जिसके फलस्वरूप शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य को मिली।
ii. औद्योगिक क्रान्तिः -
18वीं शताब्दी में यूरोप में एक महान् व्यावसायिक औद्योगिक क्रान्ति हुई। इसके पश्चात नये-नये समाजों की रचना हुई और जीवन के आदर्शो में भी परिवर्तन दिखलाई पड़ने लगा तथा लेखकों एवं राजनीतिज्ञों का ध्यान जन साधारण तथा काम-जीवियों की भलाई की ओर आकर्षित हुए।
iii. मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक प्रवृत्तियां:-
मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति के प्रवर्तक पेस्तालॉजी ने जनसाधारण का जीवन सुधारने पर, हरबर्ट ने नैतिक चरित्र के विकास पर तथा फ्रोबेल ने समाज सुधार पर बल दिया अर्थात सभी मनोवैज्ञानिको ने समाज सुधार पर ध्यान दिया।
iv. जनतन्त्रीय भावनाओं का विकास-
18वीं तथा 19वीं शताब्दी में जनतंत्र का विकास चारों तरफ हुआ तथा इस समय राजनीतिज्ञों ने यह अनुभव किया कि प्रजातंत्र के स्थायित्व में जनसाधारण का सहयोग आवश्यक है। यह सहयोग जनतंत्र से तभी पा सकते है जब उनके रहने का, उनकी आवश्यकता की पूर्ति का तथा उनकी शिक्षा का समुचित प्रबन्ध किया जाए। तथा ये भी देखा गया कि अशिक्षित जनता द्वारा जनतंत्र का सफल संचालन नहीं हो सकता।
v. सामाजिक शिक्षा की उत्पत्तिः
व्यक्तिवादी धारा की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप सामाजिक प्रवृत्तियों
को बल मिला और ऑगस्ट कॉम्टे ने समाजशास्त्र नामक एक नये विषय की रचना की जिसका
उद्देश्य मानव तथा उसके सामाजिक संबंधों का अध्ययन था । इसी समय जार्ज पेनी ने
समाज शास्त्री के आधार शैक्षिक समाजशास्त्र की रचना की जिसने समाजशास्त्र के
अनुसार शिक्षा के विभिन्न अंगों को निश्चित किया। इससे न केवल समाजिकतावादी
प्रवृत्ति को बल मिला। अपितु उसकी नींव और भी पक्की हो गयी ।
vi. अतः उपरोक्त
विस्तृत चर्चा के आधार पर आप सामाजिक प्रवृत्तियों तथा समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति के
विकास के कारणों के विषय में विस्तार से जान गये होंगे कि शिक्षा किस प्रकार
समाजशास्त्रीय प्रवृत्तियों में समय-समय पर परिवर्तन करता है। जिससे हमारे समाज
में शिक्षा एवं समाज के मध्य सामंजस्य रहता है।
पाठ्यचर्या विकास हेतु समाज एक बल रूपी कारक
शिक्षा और समाज में संबंध :-
शिक्षा तथा समाज में घनिष्ठ संबंध होता है। शिक्षा और समाज को एक
दूसरे से स्वतंत्र नहीं माना जा सकता है। वे एक दूसरे पर आधारित तथा एक-दूसरे के
पूरक हैं। समाज में ही प्रत्येक मनुष्य का जन्म होता है। इनका पालन-पोषण होता है।
और उसके व्यक्तित्व का विकास भी होता है। वह समाज के सदस्यों के साथ अंतः क्रिया
करता है। वर्तमान समय की आवश्यकतानुसार समाज ही वर्तमान शिक्षा का आधार तथा भविष्य
निर्धारित करता है। समाज ही नयी पीढ़ी हेतु सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण एवं उसका
हस्तांतरण करने का प्रबंध शिक्षा के माध्यम से ही करता है।
शिक्षा का समाजवादी दर्शन:-
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति
द्वारा जाति की सामजिक चेतना में भाग लेने से विकसित होती है। इस दृष्टि से उचित
शिक्षा के विधान के लिए सामाजिक चेतना का अध्ययन करना अति आवश्यक है। शैक्षिक समाज
शास्त्र में व्यक्ति, समाज, सामाजिक संस्थाओं, समूहों और सामाजिक वर्गों आदि का अध्ययन किया जाता है और यह
देखा जाता है कि इन सबका मनुष्य के विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है। तत्पश्चात आधार
पर शिक्षा का स्वरूप निश्चित किया जाता है।
अतः उपरोक्त
विवरण के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा में पाठयचर्या विकास हेतु समाज एक
आधार प्रदान करता है। समय-समय पर सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं जिससे समाज में रहने
वालों का रहन-सहन तथा सोच परिवर्तित हो रहा है। इस परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए
समाजिक प्राणियों के आवश्यकतानुसार समय-समय पर पाठ्यचर्या में भी परिवर्तन आवश्यक
होता है। तथा इनके आवश्यकता अनुरूप इन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। समाज की
अपेक्षाओं/आकांक्षाओं के अनुरूप ही पाठयचर्या विकास अर्थात पाठ्यचर्या निर्माण
करना सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होता है। वर्तमान
समय में पाठयचर्या में ऐसे तथ्यों का समावेश करने पर ज़ोर दिया जा रहा है जो
बालकों को व्यावसायिक रूप से दक्ष बनाने के साथ-साथ उनमें सहयोग,प्रेम, सहिष्णुता, परोपकार आदि
सामाजिक मूल्यों का विकास हो सके, जिससे समाज का
हित हो सके। क्योंकि हम सभी यह जानते हैं कि विद्यालय समाज का एक लघु रूप है
विद्यालय से जो शिक्षा ग्रहण करेंगे, वैसे ही हम समाज में रहेंगे।
उपरोक्त विवरण से आप जान गयें होंगे कि किस प्रकार समाज, पाठ्यचर्या विकास हेतु मुख्य आधार का काम करता है?
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