पाठ्यचर्या प्रारुप के स्रोत |Sources of curriculum design
पाठ्यचर्या प्रारुप के स्रोत
पाठ्यचर्या प्रारुप के स्रोत
पाठ्यचर्या प्रारूप के निम्नलिखित तीन मुख्य स्रोत हैं:
i. सुव्यवस्थित पाठ्यवस्तु
ii. विद्यार्थी
iii. समाज
अब आप बारी-बारी से एक-एक का अध्ययन करेंगे।
1. सुव्यवस्थित पाठ्यवस्तु -
पाठ्यचर्या प्रारूप के विभिन्न स्रोतों में यह सबसे ज़्यादा प्रयुक्त होनेवाला स्रोत है। इसका प्रयोग इसलिए किया जाता है कि यह मानव जाति के सामूहिक ज्ञान को प्रतिबिंबित करता है तथा मनुष्य के सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। ज्ञान के एक संगठित इकाई के रुप में विभिन्न विषयों का अध्ययन सभ्यता के विकास के लिए अवश्यक है। पाठ्यचर्या प्रारूप का यह एक प्रारंभिक स्रोत है और इसके प्रयोग का एक प्रमुख लाभ यह है कि यह विषयवस्तु के तार्किक संगठन को बल प्रदान करता है ( हॉकिंस, 1980 सेलर एण्ड अलेक्जेंडर, 1974 ताबा, 1962 जैस, 1976)।
इस स्रोत के प्रयोग की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
i. विभिन्न विषय, विद्यार्थियों को उनके सांस्कृतिक विरासत को क्रमिक ढंग से समझने एवं सीखने में सहायता करते हैं
ii. पाठयचर्या प्रारूप के इस स्रोत का प्रयोग कर पाठ्यचर्या के निर्माण का एक लंबा इतिहास है
iii. शिक्षक इसी तरीके से शिक्षित किए गए हैं।
iv. अधिकांश उपयोगी सामग्री एवं संसाधन का निर्माण इसी स्रोत का प्रयोग कर के किया गया है।
इस स्रोत के प्रयोग की निम्नलिखित सीमाएँ हैं:
i. यह ज्ञान के खंडन को बढ़ावा देता है, जिससे विस्मरण की प्रवृति को बल मिलता है; ii. इस स्रोत के प्रयोग से बना पाठ्यचर्या प्रारुप विद्यार्थियों के वास्तविक जीवन से परे होता है;
iii. यह स्रोत विद्यार्थियों की क्षमता, रुचि, आवश्यकता एवं विगत अनुभवों पर कम ध्यान देता है फलस्वरुप विद्यार्थियों में अधिगम के लिए अभिप्रेरणा की कमी होती है; तथा
iv. यह अधिगम में सतहीपन एवं निष्क्रियता को बढ़ावा देता है।
2. विद्यर्थी पाठ्यचर्या प्रारूप के स्रोत के रुप में
जब विद्यार्थी को पाठ्यचर्या प्रारुप के स्रोत के रूप में स्थान दिया जाता है तो पाठ्यचर्या प्रारूप के निर्माण में विद्यार्थी की आवश्यकताओं, रुचियों, क्षमताओं एवं विगत अनुभवों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। अधिगम अनुभव तथा विषयवस्तु के चयन एवं संगठन के लिए विद्यार्थियों से संपर्क कर उनका अवलोकन किया जाता है तथा उनसे साक्षात्कार किया जाता है। विषय क्षेत्र विद्यार्थियों के रुचि एवं आवश्याकता के अनुकूल होते हैं। जब विद्यार्थी को पाठ्यचर्या प्रारूप के मुख्य स्रोत के रुप में लिया जाता है तब इस प्रकार के पाठ्यचर्या को नवोदित क्रिया-कलाप या अनुभव पर आधारित पाठ्यचर्या कहा जाता है। मुक्त विद्यालय, वैकल्पिक विद्यालय, मुक्त शिक्षा एवं ब्रिटिश शिशु विद्यालय इसी प्रकार के पाठयचर्या प्रारूप का प्रयोग करते हैं। इस स्रोत के समर्थक यह मानते हैं कि वास्तविक शिक्षा तभी सम्पन्न हो सकती है जबकि विद्यार्थी खुद अपने लिए पाठ्यवस्तु का चयन करे और इसे कोई व्यक्तिगत अर्थ प्रदान करें।
इस स्रोत के प्रयोग की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
i. जब विद्यार्थी को पाठयचर्या प्रारूप के स्रोत के रुप में प्रयुक्त किया जाता है तो विद्यार्थियों की आवश्यकताएँ, रुचि, योग्यताएँ एवं अनुभव पाठ्यचर्या प्रारूप को निर्देशित करती हैं, परिणामस्वरुप अधिगम व्यक्तिगत, प्रासंगिक एवं अर्थपूर्ण होता है।
ii. विद्यार्थी स्वतः प्रेरित होते हैं और उन्हें अभिप्रेरणा के लिए किसी बाहरी तत्व की आवश्यकता नहीं होती है;
iii. व्यक्तिगत विभिनाता को पूर्ण महत्व दिया जाता है; तथा
iv. विद्यार्थियों को जीवन की माँग को संतुष्ट करने के लिए तैयार करता है (हॉकिंस, 1980 जैस, 1976)।
इस स्रोत के प्रयोग की निम्नलिखित सीमाएँ हैं:
i. यह शिक्षा के सामाजिक लक्ष्यों एवं मानव के सांस्कृतिक विरासत की उपेक्षा करता है;
ii. अधिगम के परिणाम अनिश्चित होते तथा
iii. पाठ्यसामग्री की उपलब्धता असहज होती है और यह खर्चीला होता है।
3. समाज-
यह पाठ्यचर्या प्रारुप का तीसरा प्रमुख स्रोत होता है। यह एक अद्वितीय पाठ्यचर्या प्रारुप के निर्माण में सहायक होता है, जिसका मूल्य, समाज को समझने एवं उन्नत करने में होता है। सामुदायिक विद्यालय पाठ्यचर्या प्रारूप के इसी स्रोत का प्रयोग करते हैं। समाजिक अध्ययन के कार्यक्रम भी समाज को पाठयचर्या प्रारुप के रूप में प्रमुख स्रोत के 'प्रयुक्त करते हैं। इस प्रारूप में पाठ्यवस्तु सामाजिक जीवन से निकाली जाती है। यह के कार्य, सामाजिक जीवन के मुख्य समस्याओं पर बल देता है। मुख्य कार्य-कलाप तथा विद्यार्थियों या मनुष्य की
इस स्रोत के प्रयोग की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
1. यह पाठ्यवस्तु की अखंडता एवं विद्यार्थी तथा समाज के लिए उसकी प्रासंगिकता पर बल देती है ( ताबा, 1962); समस्या समाधान विधि पर बल दिया जाता है: पाठ्यवस्तु विद्यार्थियों के लिए व्यावहारिक रुप में होती है
2. इस प्रकार पाठ्यवस्तु विद्यार्थियों के लिए प्रासंगिक एवं अर्थपूर्ण होती है;
3. चूँकि विद्यार्थी, अध्ययन के सभी चरण पर, इसमें सक्रिय रूप से शामिल होते हैं, इसलिए वो अध्ययन को बनाए रखने के लिए आंतरिक रूप से अभिप्रेरित होते हैं; तथा 4. इस प्रारूप से समाज के विकास में भी सहायता मिलती है।
इस स्रोत के प्रयोग निम्नलिखित सीमाएँ हैं:
i. इसका क्षेत्र और क्रम स्पष्ट नहीं होता है
ii. शिक्षक इस विधि से पढ़ाने के लिए तैयार नहीं होते हैं.
iii. संसाधन नहीं उपलब्ध होते हैं।
Post a Comment