देवगढ़ राज्य का इतिहास भाग -01 |जाटबा और देवगढ़ | Deogarh History in Hindi

देवगढ़ राज्य का इतिहास भाग -01

देवगढ़ राज्य का इतिहास भाग -01 |जाटबा और देवगढ़  | Deogarh History in Hindi


देवगढ़ राज्य का इतिहास 

  • देवगढ़ का गोंड राज्य सतपुड़ा के अंचल में सोलहवीं सदी के अन्त में अस्तिव में आया और यह अठारहवीं सदी के मध्य तक मौजूद रहा। करीब पौने दो सौ साल के अपने इतिहास में देवगढ़ राज्य पहले गढ़ा - मण्डला के गोंड राज्य के अधीन रहा और 1564 ईस्वी में गढ़ा राज्य पर मुगल बादशाह अकबर की विजय के बाद यह गढ़ा राज्य के साथ मुगल साम्राज्य का हिस्सा हो गया। 
  • मुगल साम्राज्य की अधीनता में रहते हुए भी देवगढ़ के शासकों ने अपने राज्य की दुर्गम स्थिति का फायदा उठाया और समय-समय पर देवगढ़ राज्य का विस्तार किया लेकिन उन्होंने इसके लिए उन मैदानी प्रदेशों को भी चुना जो पर्वत के दक्षिणी हिस्से में थे और अपनी दुर्गमता के साथ ही उपजाऊ भी थे। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि जहाँ फारसी अखबारात में गढ़ा के राजा का कहीं उल्लेख नहीं आता है, वहाँ देवगढ़ के राजाओं का नाम कई बार आया है। वास्तव में देवगढ़ का उत्थान गढ़ा राज्य की निर्बलता से उत्पन्न शून्य का परिणाम था। मुगल साम्राज्य का दबाव कम होते ही देवगढ़ के शासक कर चुकाना बन्द कर देते थे और इसके लिए उन्हें मुगल सेनाओं द्वारा बार-बार प्रताड़ित होना पड़ा। मुगलों के पतन के बाद देवगढ़ राज्य की स्थिति कुछ दशकों तक अच्छी रही किन्तु मराठों के उदय ने उसकी स्थिति संकटप्रद कर दी और बाद में मराठों ने ही उसका अस्तित्व समाप्त किया। 

 

  • देवगढ़ के किले के खण्हर आज मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में छिंदवाड़ा से करीब 40 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर स्थित हैं। करीब पौने दो सौ साल के अस्तित्व के दौरान देवगढ़ के शासकों का मुख्यालय पहले हरयागढ़, फिर देवगढ़, और अन्त में नागपुर रहा। 


देवगढ़ राज्य का मध्यकालीन भौगोलिक विवरण 

  • मध्यकाल के ऐतिहासिक स्रोतों से इस इलाके की भौगोलिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है कि मध्यकाल में इस इलाके के बड़े हिस्से में इतने घने वन थे कि यहाँ कई जगह हाथी पाये जाते थे । आइन-ए-अकबरी में इस बात का एकाधिक जगह उल्लेख है। सूबा बरार के अन्तर्गत खेरला के किले का वर्णन करते हुए अबुल फजल लिखता है "इसके पूर्व में जाटबा नामक जमींदार रहता है जिसके पास 2000 घुड़सवार 50 हजार पैदल और 100 से ज्यादा हाथी हैं.......... यहाँ के सभी निवासी गोंड हैं। इस इलाके में हाथी पाये जाते हैं।"" इसी प्रकार शाही हाथीखाने का विवरण देते हुए अबुल फजल लिखता है "नरवर से लेकर बरार तक के जंगलों में, मालवा सूबे में हण्डिया, उछोड़, चन्देरी, सतवास, बीजागढ़, रायसेन, होशंगाबाद, देवगढ़ और हरयागढ़ में हाथी पाये जाते है।" आइन-ए-अकबरी में देवगढ़ सरकार के वर्णन में अबुल फजल 57 महालों में से 56 महालों के जमींदार गोंड बताये हैं। इस इलाके का विवरण देते हुए अबुल फजल अकबरनामा में लिखता है कि "इस इलाके में गोंड रहते हैं। उनकी तादाद बहुत ज्यादा है और वे ज्यादातर जंगली इलाकों में रहते हैं। वहां रहते हुए वे खाने-पीने और सन्तान पैदा करने में लगे रहते हैं। वे निम्न कोटि के लोग हैं और हिन्दुस्तान के लोग उन्हें पसन्द नहीं करते और उन्हें अपने धर्म और कानून के बाहर समझते हैं।

 

  • इस विवरण से प्रकट होता है कि जिस क्षेत्र में देवगढ़ राज्य का विस्तार था वह ऐसा इलाका था जिसकी भौगोलिक दुर्गम स्थिति ने इसे उत्तर या दक्खन के इतिहास की मुख्य धारा से अलग रखा। उत्तर भारत की केन्द्रीय शक्ति हस्तक्षेप यहाँ बहुत कम रहा। उत्तर से आने के रास्ते में . विन्ध्याचल पर्वत, नर्मदा नदी और सतपुड़ा पर्वत पार करना होता था। इस कारण इस इलाके में स्थानीय सत्ता को पनपने का मौका मिला और उस पर आधिपत्य कायम रखने के लिए मुगलों को बारम्बार देवगढ़ पर धावे करने पड़े। देवगढ़ के शासकों ने अपनी सुरक्षित भौगोलिक स्थिति का हमेशा लाभ उठाने की कोशिश की और मौका मिलते ही उन्होंने मुगलों को कर देना बन्द किया और फिर से मुगल आक्रमण होने पर कर देना फिर शुरू कर किया। यह आँख मिचोली काफी समय तक चलती रही। उत्तर से तो देवगढ़ सुरक्षित रहा किन्तु जब दक्षिण के मैदानी भाग से मराठों ने धावे किये तब देवगढ़ राज्य का अस्तित्व खतरे में पड़ गया।

 

देवगढ़ राज्य का पारंपरिक इतिहास 

  • देवगढ़ राज्य के प्रारंभिक राजाओं का एक पारंपरिक विवरण 1864 ई. में प्राप्त एक दस्तावेज में दिया गया है। इसमें वंश की शुरुआत महाभारतकालीन राजा विचित्रवीर्य से मानी गई है और 54 वीं पीढ़ी में जाटबाशाह आजानबाहु का नाम है। दूसरे पारंपरिक विवरण के अनुसार पहले देवगढ़ का राजा गवली लोगों के पास था। गढ़ा के शासक सांडबाशाह ने देवगढ़ के गवली राजा को मारकर राज्य पर अधिकार कर लिया और उसके वंशज ही देवढ़ के शासक बने। तीसरे पारंपरिक विवरण के अनुसार जाटबा नामक व्यक्ति ने अपने स्वामी देवगढ़ के राजाओं रनसूर और घनसूर को मारकर देवगढ़ की राजगद्दी प्राप्त कर ली।

 

जाटबा और देवगढ़ 

  • गढ़ा राज्य की रानी दुर्गावती के प्रतापी ससुर के गढ़ों की जो सूची स्लीमेन ने दी है उसमें देवगढ़ का उल्लेख न होकर हरयागढ़ का उल्लेख है जिससे पता चलता है कि हरयागढ़ गढ़ा राज्य के अंतर्गत था। जब 1564 ई. में रानी दुर्गावती की पराजय के बाद गढ़ा राज्य को मालवा के सूबे का हिस्सा बना लिया गया तो उसके साथ हररिया का इलाका भी मुगलों के पास चला गया। अबुल फजल कहता है कि हरयागढ़ का राजा हमेशा मालवा के सूबेदार के अधीन रहा किन्तु सीधे तौर पर वह गढ़ा के मर्जबान के अधीन था। आइन-ए-अकबरी में मालवा सूबे की गढ़ा सरकार के 57 महालों की सूची में हररिया और देवगढ़ का स्पष्ट उल्लेख है। इसमें लिखा है, "हररिया, देवगढ़, 2 महाल पहाड़ी पर लकड़ी का किला है। राजस्व 9 लाख दाम, सेना 1500 घुड़सवार 50 हजार पैदल, जाति गोंड।

 

  • जाटबा देवगढ़ का ऐसा पहला शासक था, जिसका उल्लेख निर्विवाद रूप से इतिहास में मिलता है। देवगढ़ के शासक के रूप में जाटबा का उल्लेख अकबरनामा और आइन-ए-अकबरी दोनों में मिलता है और इस कारण जाटबा की ऐतिहासिकता सन्देह से परे है। यह भी तय है कि देवगढ़ में गोंड सत्ता का संस्थापक जाटबा ही था। अकबरनामा में अकबर के शासन के अट्ठाइसवें साल याने 1584 ईस्वी के विवरण में अबुल फजल लिखता है कि मोहम्मद जमान ने मालवा के एक बड़े जमींदार जाटबा के खिलाफ एक सेना का नेतृत्व किया था। जाटबा ने उसे भेंट भेजी और अच्छी सेवा करने का वादा किया। अनुभवहीनता के कारण मोहम्मद जमान नये समझौते का भी उल्लंघन करके हरया शहर रवाना हुआ और लूटमार की। इसके बाद उसने देवगढ़ को लूटा। जब वह वापिस लौटने लगा तो जाटबा को मौका मिला और मोहम्मद जमान मारा गया। इस घटना से यह प्रतीत होता है कि इस सुदूर इलाके पर बादशाह अकबर का नियंत्रण काफी कमजोर था। तभी मोहम्म्द जमान ने जाटबा के समर्पण की उपेक्षा करके उसके इलाके की लूटमार करने का दुस्साहस किया।

 

  • आइन-ए-अकबरी में मालवा सूबे की गढ़ा सरकार के विवरण में हररिया देवगढ़ में दो महाल बताये गये हैं और उनकी आय 9 लाख दाम बताई गई है। किन्तु शासक का नाम यहाँ नहीं दिया गया है।' आइन-ए-अकबरी में बरार के सूबे के अन्तर्गत भी जाटबा का उल्लेख है। बरार के सूबे का वर्णन करते समय आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल लिखता है- "खेरला, मैदान में एक मजबूत किला है ....... इसके पूर्व में चाटवा (जाटबा) नामक जमींदार रहता है जिसके पास 2000 घुड़सवार, 50 हजार पैदल और एक सौ से ज्यादा हाथी हैं। पहले इसके पड़ौस में हतिया नामक जमींदार था, किन्तु अब उसके पास के प्रदेश अन्य लोगों के अधिकार में हैं। सभी लोग गोंड हैं। इस इलाके में जंगली हाथी पाये जाते हैं। यहाँ के सरदार हमेशा मालवा के हाकिम के करद रहे हैं। पहला गढ़ा के मर्जबान को कर देता था और अन्य लोग हंडिया सरकार को कर देते थे।

 

  • जाटबा को एक लाभ यह था कि उसका इलाका थाने देवगढ़ का राज्य मुगल साम्राज्य के दक्षिणी छोर पर दुर्गम इलाके में था और वह बरार के निजामशाही राज्य की कमजोरी का फायदा उठाकर नागपुर की तरफ अपना विस्तार कर सकता था। उसने ऐसा किया भी। उसने खेरला की तरफ कुछ परगनों पर अधिकार कर लिया था यह आइन-ए-अकबरी में बरार के सूबे के विवरण में दिया गया है। जब 1595-96 ई. में बरार पर मुगल साम्राज्य का अधिकार हुआ और जब बरार का सूबा बना तो देवगढ़ का विस्तार रुक गया। वह अब बरार के सूबे का हिस्सा बन गया था और दक्षिण की तरफ बढ़ने का अर्थ था मुगल इलाके से टकराव इस कारण अब देवगढ़ का विस्तार दक्षिण की तरफ रुक गया।

 

जहाँगीर के समय देवगढ़ राज्य 

  • जाटबा का अगला उल्लेख जहाँगीर की आत्मकथा में मिलता है। अपने शासन के 11 वें वर्ष याने 1616 ई. में बादशाह जब अजमेर के सूबे से दक्षिण मालवा के सूबे की यात्रा पर जा रहा था तब वह अपनी आत्मकथा में लिखता है- 'इस इलाके के एक प्रभावशाली जमींदार जाटबा ने भेंट के रूप में दो हाथी मुझे भेजे और ये हाथी मेरे सामने लाये गये थे।" जाटवा को मालवा का एक महान और प्रभावशाली जमींदार कहा गया है और आइन-ए-अकबरी के अनुसार उसके पास 50 हजार पैदल सैनिक, 1500 घोड़े और एक सौ हाथी थे। इतने सैनिक गढ़ा सरकार में किसी जमींदार के पास नहीं थे। उसके नाम का ताँबे का सिक्का मिला है जिसमें "श्री राजा जाटवा प्रतिराज" लिखा है। यह सिक्का नागपुर संग्रहालय में है। जाटबा के उत्तर पूर्व और पश्चिम में गुगल प्रदेश थे इसलिए विस्तार के लिए उसने दक्षिण के मैदानों की ओर जाना बेहतर समझा। हरयागढ़ से राजधानी देवगढ़ आना इस बात का संकेत है कि जाटबा किस दिशा में विस्तार करने वाला था। देवगढ़ राज्य के पारिवारिक इतिहास में जाटवा का शासन 1542 ई. से 1602 ई. तक बताया गया है पर उसका शासनकाल 1580 ई. से 1620 ई. तक मानना ठीक होगा।

 

  • अकबर के शासन के अंतिम सालों में दक्खन में तीन नए सूबे बने। इनमें से एक था बरार का सूबा और देवगढ़ राज्य का दक्षिणी हिस्सा मुगल साम्राज्य के इस नए सूबे के सम्पर्क में आया। 17वीं और 18 वीं सदी में देवगढ़ के इतिहास का संबंध पहले दक्खन के मुस्लिम वाइसरायों और बरार के सूबेदारों से और बाद में मराठा सरदारों से हुआ जिन्होंने क्रमशः मुगल प्रदेशों के इस हिस्से पर क्रमशः अतिक्रमण किया। आइन-ए-अकबरी में देवगढ़ हरियागढ़ के साथ मात्र एक परगना था जो मालवा सूबे की गढ़ा सरकार के अन्तर्गत था । किन्तु जब बरार का सूबा बना तो देवगढ़ को सरकार के रूप में बरार सूबे में शामिल किया गया। देवगढ़ का विस्तार दक्षिण की ओर होने के कारण उनकी शत्रुता पड़ोस के चाँदा के गोंड राजा के साथ हुई और हम आगे देखेंगे कि चाँदा के शासक देवगढ़ को उखाड़ फेंकने में मुगलों का साथ देने के लिए एकाधिक बार तैयार रहे।

 

दलशाह -देवगढ़ राज्य 

  • देवगढ़ राज्य के पारम्परिक पारिवारिक वृत्तांत के अनुसार जाटबा के आठ बेटे थे दलशाह, दिनकर शाह, कोकशाह, पोलशाह, केसरीशाह, दुर्गशाह, वीरशाह । किन्तु 10 अप्रैल 1864 ई. को देवगढ़ राजवंश की जो वंशावली तैयार की गई थी उसमें कहा गया है कि जाटबा के चार बेटे थे- दलशाह, कोकशाह, दुर्गशाह और केसरीशाह,  पर आगे दिये प्रमाणों से स्पष्ट होगा कि इन दोनों विवरणों को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें केसरीशाह को जाटबा का बेटा बताया गया है। केसरीशाह कोकशाह का बेटा था और गद्दी पर बैठने के बाद उसने जाटबा द्वितीय नाम धारण कर लिया था। वास्तव में जाटबा के तीन बेटे थे- दलशाह, दुर्गशाह और कोकशाह । जाटबा का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र दलशाह हुआ और वह 1620 ई. में देवगढ़ राज्य गद्दी पर बैठा ।"

 

  • दलशाह के समय देवगढ़ राज्य की सीमा से लगे गढ़ा राज्य का शासक प्रेमनारायण या प्रेमशाह राजसिंहासन पर था और उसके संबंध मुगल दरबार से अच्छे थे तथा सतपुड़ांचल का वह एक ताकतवर शासक था। उसकी राजधानी चौरागढ़ में थी जो आज नरसिंहपुर जिले में चौगान के नाम से जाना जाता है। उन दिनों जहाँगीर के शासन का अन्तिम दशक चल रहा था और उन दिनों शाहजादा शाहजहाँ के विद्रोह और तदनन्तर जहाँगीर की बीमारी के कारण उत्पन्न स्थिति में यह संभव नहीं रहा होगा कि सतपुड़ा के दुर्गम इलाके में स्थित देवगढ़ राज्य पर साम्राज्य का प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया जा सके। दलशाह को इसका लाभ जरूर मिला होगा। जहाँगीर की मृत्यु 1627 ई. में होने के बाद उसका पराक्रमी बेटा शाहजहाँ बादशाह बना। शाहजहाँ के शासनकाल में 1633 ई. में मुगल सेनाओं ने दक्खन के अहमदनगर राज्य को अधिकृत करके साम्राज्य में शामिल कर लिया। इससे आगे चलकर देवगढ़ के भाग्य पर भी गंभीर असर पड़ा। दलशाह का शासन 1634 ई. तक रहा और इस प्रकार उसने 14 साल राज्य किया। 

 

  • दलशाह के बाद कोकशाह देवगढ़ का शासक बना। 1634 ई. की एक घटना का विवरण अब्दुल हमीद लाहौरी की पुस्तक बादशाहनामा में मिलता है जिसमें देवगढ़ के शासक के नाम का तो उल्लेख नहीं है, किन्तु यह दलशाह का उत्तराधिकारी कोकशाह हो सकता है। इसमें कहा गया है कि शाहजहाँ के शासन के आठवें साल (1634 ईस्वी.) समाचार मिला कि विद्रोही जुझार सिंह बुन्देला चौरागढ़ से दो कोस दूर शाहपुर नाम के गाँव में रुका है और उसने देवगढ़ के जमींदार को एक दूत भेजा है और उसकी प्रतीक्षा कर रहा है कि यदि वह जमींदार उसके वादों के झांसे में आ गया तो वह उसके इलाके से होकर दक्खन को बच भागेगा। अब्दुल्ला खान बहादुर, फिरोज जंग और खानदौरान अपने अमीरों के साथ 25 तारीख को शाहपुर की तरफ बढ़े। जुझार ने देवगढ़ के जमींदार की मृत्यु की खबर सुनकर बाहर आने का निर्णय किया और अपने परिवार और माल असबाब के साथ लांजी और करोला होकर दक्खन की ओर रवाना हो गया। उस समय लांजी और करोला देवगढ़ के जमींदार के इलाके में थे। 

 

  • कोकशाह का शासन शुरू होने के बाद ही दक्खन की घटनाओं में तेजी से बदलाव आया। 1636 ई. में मुगल सेनाओं के सामने गोलकुण्डा और बीजापुर ने भी समर्पण कर दिया और शाहजादा औरंगजेब को दक्खन का वाइसराय बनाया गया। शाहजादा औरंगजेब पहली बार 1636 ई. से 1644 ई. तक दक्खन का वायसराय रहा। दक्खन की राजनीतिक स्थिति में हुए इस परिवर्तन का असर देवगढ़ राज्य पर भी हुआ और हम पाते हैं कि इसके शीघ्र बाद शाहजहाँ के सेनानायक खानदौरान ने देवगढ़ पर आक्रमण किया। यह आक्रमण बरार की तरफ से किया गया।

 

देवगढ़ राज्य पर पहला मुगल आक्रमण 

  • खानदौरान के इस आक्रमण का विस्तृत उल्लेख मुगलों के दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपनी किताब बादशाहनामा में किया है। वह लिखता है कि शाहजहाँ के शासन के दसवें साल याने 1637 ई. में बरार के सूबेदार खानदौरान बरार की सेना के साथ पवनार सरकार से होकर नागपुर को घेरने के लिए बढ़ा, जिस पर देवगढ़ के गौंड शासक कोकिया का अधिकार था। खानदौरान देवगढ़ की तरफ बढ़ा और उसने केलझर और आष्टा के किलों पर अधिकार कर लिया। खानदौरान नागपुर के पड़ोस में पहुँचा और उसने नागपुर से चौदह मील दूर शिविर डाल दिए। इसके बाद उसने कोकिया यानी कोकशाह से चर्चा करने के लिए कनकसिंह बैस को इस संदेश के साथ भेजा कि यदि कोकिया चाहता है कि उस पर आक्रमण न किया जाए तो उसे उपयुक्त पेशकश के साथ हाजिर होना चाहिए, नहीं तो उसके अस्तित्व को खत्म कर दिया जाएगा। जब कोकशाह ने इसे स्वीकार नहीं किया तब खानदौरान ने नागपुर के किले पर अधिकार करने का निश्चय किया जो कि देवगढ़ के राज्य के सभी किलों में सबसे ज्यादा मजबूत समझा जाता था। कोकशाह ने नागपुर के सूबे में देवाजी को सूबेदार के रूप में नियुक्त किया था और उसकी सेना नागपुर के किले में थी। 

 

नागपुर का घेरा 

  • मुगल सेना ने नागपुर के किले को घेर लिया और चार कोनों की कमान पहलवान दर्वेश, राजा जयसिंह, सिपहदर खान, तुगलक और कीवा (चाँदा का जमींदार) को सौंपी गई। एक और मौका देने के लिए खानदौरान ने कोकिया को एक आदमी भेजा जिसने कोकिया को सहमत कर लिया। उसने डेढ़ सौ हाथी और हथनियों के नामों की लंबी सूची के साथ अपना प्रतिनिधि खानदौरान को यह बताने के लिए भेजा यदि वह घेरा उठा ले और उसकी सुरक्षा का वादा करें तो कोकिया खुद आकर इन डेढ़ सौ हाथियों को सौंपेगा। जब कोकिया का प्रतिनिधि किला खाली करने के लिए सहमत नहीं हुआ तो सुरंगों में आग लगा दी गई और किले की एक बुर्ज और दीवार को नुकसान पहुँचाया। सिपहदर खान और राजा जयसिंह के सैनिकों ने किले में प्रवेश किया और सभी सैनिकों को काट डाला। किले के किलेदार देवाजी को जिंदा पकड़ लिया गया। जब कोकिया ने मुगल सेना के सामने खुद को नष्ट होते देखा तो वह देवगढ़ से 60 मील चलकर नागपुर आया और उसने 19वीं शबान (16 जनवरी 1637) को खानदौरान से मुलाकात की। उसने खानदौरान के समक्ष पूरी तरह समर्पण कर दिया। उसने डेढ़ लाख रुपये और एक सौ सत्तर हाथी सौंपे। उसने बादशाह की अधीनता स्वीकार कर ली और भविष्य में बादशाह के प्रति निष्ठा की शपथ ली। उसने हर तीन साल में सरकारी खजाने को चार लाख रुपये देने का वादा भी किया। अब खानदौरान ने उसे नागपुर का किला वापिस कर दिया। 

 

  • इस विवरण का शासक कोकियां और कोई नहीं कोकशाह ही था। इससे यह बात स्पष्ट है कि नागपुर पर 1637 ई. में देवगढ़ के शासकों का अधिकार था और मुगल भी उसे देवगढ़ के अधीन मानते थे। इस मुगल आक्रमण से देवगढ़ की आर्थिक हालत पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ा और उसे आने वाले दिनों में मुश्किलों का सामना करना पड़ा। बल्कि यह कहना होगा कि इस घटना के बाद के पचास साल तक याने जब तक बरार वास्तविक रूप से मुगलों के पास रहा तब तक देवगढ़ के भाग्य का सितारा मद्धम रहा। कोकशाह की मृत्यु 1640 ई. में हुई और उसके बाद उसका बेटा केसरीशाह गद्दीनशीन हुआ ।

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