देवगढ़ राज्य का इतिहास भाग -03 इस्लामयार खान | Deogarh History - Islaamyaar Khan
देवगढ़ राज्य का इतिहास भाग -03 इस्लामयार खान
देवगढ़ राज्य- इस्लामयार खान
- 1669 ई. में इस्लामयार खान देवगढ़ का शासक बना। इस बीच दक्खन में मुगलों के विरुद्ध शिवाजी की गतिविधियाँ उग्र हो गई थीं। इस पर दिलेरखान को बादशाह का जरूरी आदेश मिला कि वह देवगढ़ के मामलों को संतोषजनक तरीके से निपटाए और मुअज्जम की ताकत बढ़ाने के लिए औरंगाबाद जाये क्योंकि शिवाजी ने फिर से दक्खन में सर उठा लिया है। अब दिलेरखान को देवगढ़ छोड़कर दक्खन जाना पड़ा। 29 मार्च 1670 ई. को वह नागपुर से औरंगाबाद रवाना हो गया ।
- देवगढ़ के शासकों के धर्मपरिवर्तन की घटना देवगढ़ राज्य के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी। गढ़ा, चाँदा और देवगढ़ तीनों गोंड राज्य थे पर अभी तक किसी राज्य के शासक के साथ ऐसा नहीं हुआ था। देवगढ़ के शासक को राजनीतिक कारण से इस्लाम स्वीकार करना पड़ा और बाद में इस्लामयार खान के बड़े भाई महीपतशाह ने भी सिंहासन पाने के लिए इस्लाम स्वीकार कर लिया। अब इस्लाम देवगढ़ राजवंश का एक जरूरी हिस्सा बन गया और यह स्थिति देवगढ़ राज्य के पतन के एक सदी बाद तक बनी रही। इस्लामयार खान एक मुस्लिम के रूप में देवगढ़ का शासक बना, किन्तु धर्म बदलने से भी उस गोंड राजा का रुख मुगल सत्ता के प्रति नहीं बदला। वह विद्रोही रुख अपनाता रहा और साल के अन्त में खान-ए-आजम को देवगढ़ के शासक इस्लामयार खान को चेतावनी देने के लिए देवगढ़ आना पड़ा ।
- इस्लामयार खान ने करीब दस साल तक राज्य किया किन्तु वह बरार के मुगल अधिकारी के हाथ की कठपुतली बना रहा। देवगढ़ राज्य की इस कमजोर स्थिति का फायदा उठाकर चाँदा और गढ़ा के राजाओं ने देवगढ़ के इलाकों का अतिक्रमण किया। चाँदा ने नागपुर को और उमरेड़ तक के बारह महालों को तथा गढ़ा के राजा ने भी देवगढ़ के कुछ महालों तथा रामटेक को अधिकृत कर लिया। इस्लामयार खान की मृत्यु 1679-80 ई. में हुई ।
दींदर खान- देवगढ़ राज्य
- इस्लामयार खान की मृत्यु के बाद उसका वह भाई 1680 ई. में गद्दी पर बैठा जो दींदर खान के नाम से इस्लाम स्वीकार कर चुका था। उसके ज्येष्ठ भाई महीपतशाह को शायद इसलिए दरकिनार कर दिया गया, क्योंकि उसने इस्लाम स्वीकार नहीं किया था। कहने की जरूरत नहीं कि गद्दी पाने के लिए दींदर खान को बरार के मुगल अधिकारियों का सहयोग मिला होगा।
- जिस साल दींदरखान देवगढ़ राज्य के सिंहासन पर बैठा उस साल एक महत्वपूर्ण घटना यह हुई कि शिवाजी का निधन हो गया और मराठों का बढ़ता ज्वार कुछ रुक गया। एक साल बाद ही याने 1681 ई. में बादशाह औरंगजेब दक्खन के मामलों को निपटाने के लिए सेना के साथ खुद दक्खन आ गया। बादशाह औरंगजेब के दक्खन आगमन का असर पूरे दक्खन की राजनीति पर पड़ा और एक बारगी दक्खन युद्धों का रणक्षेत्र बन गया। देवगढ़ राज्य के शासक पिछले दशकों में जिस प्रकार मुगलों से आँख मिचौली कर रहे थे, वह अब संभव नहीं था क्योंकि उनका दमन करने के लिए मुगल सेनाएँ उनके पड़ोस में ही थीं।
- दींदर खान के समय प्रणामी सम्प्रदाय के दूसरे प्रसिद्ध गुरु महाप्रभु प्राणनाथ देशाटन करते हुए 1681 ई. के प्रारम्भ में देवगढ़ से होकर गढ़ा राज्य की राजधानी रामनगर गये थे। उनके साथ उनके पाँच हजार अनुयायी भी थे। वे मुगल बादशाह औरंगजेब के अत्याचारों से हिन्दू धर्म की रक्षा करने के इच्छुक थे और इसके लिए वे हिन्दू राजाओं का सहयोग चाहते थे .
महीपतशाह उर्फ बख्तबुलन्द
- अपने छोटे भाई दींदर खान से देवगढ़ का सिंहासन छीनने के लिये महीपतशाह 1686 ई. में मुगल बादशाह की सहायता पाने गया बादशाह औरंगजेब ने उसे इस शर्त पर सहायता देने का वचन दिया कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले। महीपतशाह ने गद्दी पाने के लालच में इस्लाम धर्म अपनाना स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि उसने "भात" में इस्लाम अपनाना तो स्वीकार किया किन्तु "साथ" में अपनाना स्वीकार नहीं किया। इसका मतलब यह था कि वह मुस्लिमों के साथ खानपान तो करेगा किन्तु उनके साथ विवाह संबंध नहीं रखेगा और मुस्लिम होने के बावजूद वह और उसके उत्तराधिकारी गोंड वधुएँ ला सकेंगे। बादशाह इससे सहमत हो गया और महीपतशाह ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और महीपतशाह को बख्तबुलन्द नाम दिया गया। 1686 ईस्वी में बख्तबुलन्द को बादशाह द्वारा देवगढ़ उर्फ इस्लामगढ़ की जमींदारी प्रदान की गई और उसे एक खिलअत, आइना और एक घोड़ा दिया गया।
- बख्तबुलन्द का शासनकाल उतार-चढ़ावों से भरपूर रहा। उसने कई बार कोशिश की कि वह अधिपत्य से हो जाये पर उन दिनों दक्खन में लगातार मुगल सेनाओं की उपस्थिति के कारण बख्तबुलन्द को हर बार असफलता मिली। पड़ोसी गढ़ा राज्य के शासक नरेन्द्रशाह से उसके संबंध मधुर थे और जैसा कि हम आगे देखेंगे उसने संकट के समय नरेन्द्र शाह की सहायता भी की थी । देवगढ़ राज्य के दक्षिण में चाँदा का गोंड राज्य अभी भी मौजूद था जहाँ किशन सिंग शासक था। चाँदा पहले के समान देवगढ़ के खिलाफ मुगलों का सहायक रहा ।
- गद्दी पर बैठने के बाद चार साल तक बख्तबुलन्द दिल्ली दरबार को कर चुकाता रहा किन्तु उसकी महत्वाकांक्षा ने उसे अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने के लिए प्रेरित किया और वह स्वतंत्र रुख अपनाकर मुगल इलाकों पर आक्रमण करने लगा। बरार का इलाका उसके राज्य की सीमा से लगा हुआ था और उपजाऊ भी था। बादशाह औरंगजेब की दक्खन में व्यस्तता का लाभ उठाकर वह मुगल इलाकों को खासकर बरार के उर्वर इलाके में अपना विस्तार करना चाहता था।
दींदरखान
- बख्तबुलन्द की इन गतिविधियों के कारण जून 1691 ई. में मुगल बादशाह ने उसे अपदस्थ कर दिया और देवगढ़ का सिंहासन फिर से बख्तबुलन्द के भाई दींदरखान को दे दिया, जो उस समय शाही शिविर में था । स्मरणीय है कि दींदर को ही अपदस्थ करके बख्तबुलन्द ने देवगढ़ का राज्य पाया था। बख्तबुलन्द के लिए यह अप्रत्याशित था क्योंकि उसे यह आशंका नहीं थी कि विरोधी गतिविधियाँ अपनाने के फलस्वरूप उसे गद्दी से हाथ धोना पड़ेगा। पर दक्खन में मुगल सेनाओं की उपस्थिति से बख्तबुलन्द के खिलाफ तेजी से कार्यवाही की गई। उल्लेख मिलता है कि 1691 ईस्वी में देवगढ़ उर्फ इस्लामगढ़ के जमींदार दींदर को एक हजार का मनसब दिया गया। उसे खिलअत, एक घोड़ा और एक हाथी और राजा की पदवी देकर विदा किया गया ।
बख्तबुलन्द मुगल सेना में
- अपदस्थ बख्तबुलन्द को कुछ साल के लिए शाही अधिकारियों के पास नजरबन्द रखा गया। पहले उसे शाही बख्शी के पास रखा गया और बाद में शाही शिविर में कोतवाल के रूप में दो रुपये के दैनिक भत्ते के रूप में रखा गया। उसके आसपास सुरक्षा गारद बनी रहती थी। 26 अगस्त 1695 ई. में उसने बादशाह से भेंट की उसे आजाद कर दिया गया, पर बादशाह औरंगजेब ने कहा, "वह भाग जायेगा, उस पर नजर रखो।" बख्तबुलन्द के शिविर के आसपास से सुरक्षा गारद हटा ली गई और हम पाते हैं कि वह अप्रैल 1696 ई. तक शाही सेना की सेवा में दक्खन में रहा |
- इस समय देवगढ़ में फिर से गड़बड़ी शुरू हो गई। दींदर खान के उद्धत व्यवहार के कारण देवगढ़ राज्य में अराजकता छा गई। उसने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह का आवाहन किया जिसके कारण उससे बादशाह नाराज हो गया। बादशाह ने उसे पदच्युत करने की आज्ञा दी। देवगढ़ राज्य का नियंत्रण लेने के लिए भेजे गये मुगल अधिकारी को उसने अधिकार नहीं सौंपे तब पवनार के फौजदार सद्रुद्दीन के अन्तर्गत एक सेना चाँदा के राजा किसन सिंग की सहायता से मार्च 1696 ई. में देवगढ़ पर अधिकार कर लिया और दींदर खान को भागना पडा ।
नेकनाम खान
- दींदरखान पर चाँदा के राजा किसन सिंग की विजय के बाद किसन सिंग के दूसरे बेटे कानसिंग ने देवगढ़ की खाली गद्दी को पाने के लिये सद्रुद्दीन के जरिए बादशाह से अर्ज किया कि देवगढ़ की जमींदारी मिलने पर वह देवगढ़ की जमींदारी के बदले 13 लाख रुपये पेशकश देगा और 5 लाख रुपये शुकराना देगा। इसके अलावा वह दींदर खान की बकाया राशि भी चुकाएगा। सद्रुद्दीन ने बादशाह को यह भी खबर भेजी कि राजा किसन सिंग का दूसरा बेटा कानसिंग अपनी माँ के साथ मुस्लिम होने के लिये तैयार है। इस खबर से औरंगजेब को बहुत खुशी हुई। कानसिंग ने अपनी माँ के साथ इस्लाम स्वीकार कर लिया और औरंगजेब ने उसका नाम नेकनाम खान रखा। अब नेकनाम को देवगढ़ का राजा बना दिया गया। देवगढ़ पर नेकनाम का अधिकार स्थापित हो जाने के बाद बख्तबुलन्द को देवगढ़ का राज्य वापिस मिलने की आशा धूमिल हो गई। लेकिन उसने अवसर मिलने पर अपने भाग्य की परीक्षा करने का फैसला किया।
बख्तबुलन्द
- देवगढ़ की गद्दी से हटे बख्तबुलन्द को पाँच साल होने को आ रहे थे और बख्तबुलन्द देवगढ़ पर अधिकार करने के लिए बख्तबुलन्द की बेचैनी का सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है। वह शाही सेना में सेवा पर था किन्तु उसका मन देवगढ़ में लगा हुआ था और वह ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में था कि शाही सेना को छोड़कर देवगढ़ पर अधिकार करने की कोशिश कर सके। 1696 ई. में ही एक ऐसा संयोग बना जो बख्तबुलन्द को अनुकूल सिद्ध हुआ। 1696 ई. में ही चाँदा के राजा किसन सिंग की मृत्यु हो गई और उसके स्थान पर किसन सिंग का ज्येष्ठ पुत्र वीरसिंग चाँदा की गद्दी पर बैठा। किसन सिंग के निधन से देवगढ़ में राज कर रहे उसके बेटे नेकनाम खान की स्थिति भी कमजोर हो गई। चॉदा और देवगढ़ दोनों के शासक अनुभवहीन होने से बख्तबुलन्द के लिये अच्छा अवसर आ गया और उसने अब अपना भाग्य आजमाने का तय किया। उसे यह अन्दाज था कि देवगढ़ राज्य की जनता प्रतिद्वन्द्वी राज्य चाँदा के राजवंश के शासक को गद्दी दिये जाने से खुश नहीं है और उसे विश्वास था कि यदि उसने देवगढ़ लेने की कोशिश की तो उसे समर्थन मिलेगा। और बख्तबुलन्द ने देवगढ़ की गद्दी हासिल करने के लिए शाही सेना को छोड़कर विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया |
- अक्टूबर 1698 ई. के पहले ही बख्तबुलन्द ने देवगढ़ से नेकनाम को खदेड़ दिया था क्योंकि हम पाते हैं कि अक्टूबर 1698 ई. में वह बरार के इलाके से वसूली करने लगा और होशंगाबाद के जमींदार पर लगान देने का दबाव डालने लगा। बादशाह की ओर से मुगल अधिकारी फीरोज जंग को आदेश दिया गया था कि वह बरार से बख्तबुलन्द को हटाए और उसे दण्ड दे। इसके तुरन्त बाद फीरोज जंग को दरबार से बुलावा आ गया इस कारण शाहजादा आजम को आदेश दिया गया कि वह बख्तबुलन्द को दबाए। बादशाह ने चाँदा के राजा बीरसिंह को भी लिखा कि वह अपने सैनिकों के साथ देवगढ़ जाएँ और अपने छोटे भाई नेकनाम को वहाँ के सिंहासन पर बिठाएँ ।
- जून 1699 ई. में फीरोज जंग की सेना के एक अधिकारी हामिद खान ने देवगढ़ पर आक्रमण करके उसे अधिकृत कर लिया और बख्तबुलन्द वहाँ से भाग खड़ा हुआ। उसने भागकर मालवा में प्रवेश किया और वहाँ बुन्देलखण्ड में धामोनी चला गया। रास्ते में उसने बहुत गड़बड़ी मचाई |
नरेन्द्रशाह से प्रदेश मिले
- उन दिनों गढ़ा राज्य का राजा नरेन्द्रशाह, जिसकी राजधानी मण्डला में थी, बड़ी मुश्किल में था क्योंकि उसके विरुद्ध अनेक विद्रोही उठ खड़े हुए थे। गढ़ा राजवंश के विद्रोही सदस्य पहाड़सिंह के दो बेटों - जो मुसलमान हो गये थे- अब्दुल रहमान और अब्दुल हाजी ने विद्रोह कर दिया। उधर बारहा (नरसिंहपुर जिला) के जागीरदार अजीम खाँ तथा चौरई (सिवनी जिला) के जागीरदार लोंडीखान ने भी विद्रोह कर दिया था। दुर्भाग्य से नरेन्द्रशाह का योग्य सेनापति अहमद खाँ और कुशल मंत्री गंगाधर वाजपेयी मारे जा चुके थे। ऐसे संकट के समय नरेन्द्रशाह ने बख्तबुलन्द और छत्रसाल से सहायता की याचना की। बख्तबुलन्द तब धामोनी में था। वह तुरन्त अपनी सेना के साथ धामोनी से गढ़ा की ओर चल पड़ा। बख्तबुलन्द और छत्रसाल की सहायता से नरेन्द्रशाह ने विद्रोहियों का दमन कर दिया। बख्तबुलन्द ने अब्दुल हाजी को परास्त किया और उसके 550 अफगान सैनिकों को मारकर उसके बेटे को बन्दी बना लिया। लोंडीखान सिवनी में और अब्दुल हाजी अब्दुल रहमान तथा अजीम खाँ गंगई खुलरी (जबलपुर जिला) में मारे गए। विद्रोह का अन्त 1699 ई. में हो गया। इस सहायता के बदले नरेन्द्रशाह ने बख्तबुलन्द को चौरई, डोंगरताल और घुन्सौर नामक तीन महाल दिये और छत्रसाल को भी महाल दिये। नरेन्द्रशाह ने अपनी बहिन मान कुँवर का विवाह भी बख्तबुलन्द से कर दिया। चौरई, डोंगरताल और घुन्सौर के तीन महाल मिल जाने से वर्तमान सिवनी जिले का पूरा इलाका बख्तबुलन्द को मिल गया। इन प्रदेशों को पाने से बख्तबुलन्द को एक आधार मिल गया। यह माना जा सकता है कि करीब 9 साल के भटकाव के बाद बख्तबुलन्द को फिर से राजसत्ता मिली, यह जरूर है कि अभी देवगढ़ उसके अधीन नहीं था। यह उल्लेखनीय है कि जो इलाके उसे नरेन्द्रशाह से प्राप्त हुए उसका अधिकांश हिस्सा उपजाऊ था और इससे बख्तबुलन्द को अपनी राजनीतिक और आर्थिक स्थिति मजबूत करने में सहायता मिली।
छत्रपति राजाराम का सहयोग
- स्वतंत्र अस्तित्व के लिए बख्तबुलन्द ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा और मुगलों ने भी का पीछा जारी रखा। जुलाई 1699 में खानदेश के सूबेदार ने बख्तबुलन्द के सहयोगी सदात अफगान के परिवार को बन्दी बना लिया और उसे समर्पण करने के लिए बाध्य किया। नवम्बर 1699 ई. में 3700 गोंड विद्रोही मुगल सेवा में आ गए। बख्तबुलन्द इस नुकसान की भरपाई करने की कोशिश में लग गया और जुलाई 1699 ई. में उसने तीस हजार रुपये छत्रसाल को इस निवेदन के साथ भेजे कि वह उसके लिये बुन्देला बन्दूकची भेज दे। इसके अलावा बख्तबुलन्द ने मराठों का सहयोग पाने के लिये छत्रपति राजाराम को दो दूत भेजे और उत्तरी इलाकों पर मिलकर अक्रमण करने का सुझाव दिया जिससे औरंगजेब का ध्यान बाँटा जा सके। जब राजाराम अपनी राजधानी सतारा में जून 1699 में ई. में लौटा तो बख्तबुलन्द के दूत उससे मिले। राजाराम ने जुलाई 1699 ई. में बसन्तगढ़ का भ्रमण किया और खानदेश और बरार पर आक्रमण करने की योजना 20 जुलाई 1699 ई. को बना ली।
- राजाराम ने एक विशाल सेना लेकर बरार पर धावा किया और बख्तबुलन्द की सेना के सहयोग से उसने प्रदेश के शहरों और गाँवों को बरबाद कर दिया। बादशाह को जब बख्तबुलन्द की गतिविधियों की सूचना मिली तो बादशाह ने उसका नाम बख्तबुलन्द से बदलकर निगूनबख्त कर दिया। शाहजादा आजम के बेटे शाहजादा बेदरबख्त को राजाराम और निगूनबख्त के खिलाफ अभियान करने का काम सौंपा गया। बादशाह ने शाहजादा को कठोर निर्देश दिया कि वह दुश्मन का तुरन्त पीछा करे और उसे ऐसा कुचले कि उसके फिर से उभरने की कोई भी गुंजाइश न रहे। 13 नवम्बर 1699 ई. को बेदरबख्त का मुकाबला राजाराम से हुआ जिसमें राजाराम की पराजय हुई और उसे पीछे लौटना पड़ा। राजाराम के विरुद्ध अभियान से शाहजादा बेदरबख्त 26 दिसम्बर 1699 ई. को लौटा और बादशाह से मिला ।
राजखान पठान
- उन दिनों भण्डारा जिले के परताबगढ़ में बख्तबुलन्द का ससुर रहता था। डोंगरताल में रहते हुए राजखान ने बख्तबुलन्द के ससुर की सहायता से परताबगढ़ और सानगढ़ी पर बख्तबुलन्द के नाम अधिकार कर लिया। बख्तबुलन्द ने अम्बागढ़ का महत्व पहचानकर अम्बागढ़ में किला बनाने के लिये राजखान से कहा और राजखान ने 1700 ईस्वी में अम्बागढ़ में एक विशाल किला बनवाया । राजखान के पराक्रम से प्रभावित होकर बख्तबुलन्द ने राजखान को सिवनी का दीवान बना दिया। राजखान के बेटे मुहम्मदखान पठान को उसे सानगढ़ी के किले का किलेदार बना दिया। बाद में राजखान पठान के एक वंशज मुहम्मद अमीर खान ने 1774 ई. में सिवनी शहर बसाया और अपना मुख्यालय छपारा से हटाकर सिवनी ले आया और यहाँ उसने एक किला बनवाया।
नेकनाम दिल्ली दरबार में
- नवम्बर 1700 ई. में देवगढ़ का शासक नेकनाम मुगल दरबार गया। जिस समय नेकनाम मुगल दरबार में था, उस समय औरंगजेब के आदेश से स्वर्गीय छत्रपति राजाराम की बन्दी बेटी से जनवरी 1704 ई. में उसकी शादी कर दी गई। यह उल्लेखनीय है कि राजाराम द्वारा 1698 ई. के प्रारम्भ में जिन्जी का किला छोड़ने के बाद उसकी चार पत्नि, तीन बेटे और दो बेटियाँ जुल्फिकार खान के हाथ में पड़ गईं थीं जिन्हें उसने बन्दी बनाकर बादशाह को भेज दिया और बादशाह ने उन्हें शाहू के शिविर के पास रखा था। 35 मुगल शिविर में यह अफवाह थी कि जुल्फिकार खान के हृदय में राजाराम के प्रति सहानुभूति है और वह मराठा शासक से कुछ गुप्त संवाद कर रहा है। असंभव भी नहीं लगता क्योंकि जुल्फिकर खान बादशाह की मृत्यु के बाद कर्नाटक में अपनी स्वतंत्र सरकार बनाने की योजना बना रहा था । जुल्फिकार के व्यवहार से बादशाह को सन्देह हुआ और खान को उसके मित्रों ने सलाह दी कि यदि वह जिन्जी पर अधिकार नहीं करता और खास लोगों को नहीं पकड़ता तो वह बादशाह की नजरों से गिर जाएगा और नष्ट हो जाएगा। यह जानकारी खान ने राजाराम तक पहुँचा दी और राजाराम के भागने में सहयोग दिया।
मुगल सेना से लड़ाई
- मार्च 1701 ई. में बख्तबुलन्द और जामगढ़ के जमींदार नवलशाह ने मराठों के साथ मिलकर 4 हजार घुड़सवारों और 12 हजार पैदल सैनिकों की सेना एकत्र की और बरार के सूबेदार अलीमर्दान खान पर आक्रमण कर दिया। वे पराजित हुए और नवलशाह मारा गया और बख्तबुलन्द घायल हुआ। मुगलों के 200 सैनिक मारे गये। सूबेदार ने विद्रोहियों का पीछा कालापुर के रास्ते किया और फिर से लड़ाई हुई जिसमें मई 1701 ई. में अमरावती के 28 मील पश्चिम में दरयापुर के पास बख्तबुलन्द के मराठा मित्रों की पराजय हुई। 1701 ई. में ही गाजीउद्दीन खान बहादुर फीरोज जंग को फिर से देवगढ़ उर्फ इस्लामगढ़ पर अधिकार करने के लिए भेजा गया इसके पहले भी फीरोज जंग सफलतापूर्वक देवगढ़ का अभियान कर चुका था । गाजीउद्दीन फीरोज जंग को निगूनबख्त को खत्म करने का काम सौंपा गया था, पर उसे शीघ्र वापस बुला लिया गया। अब उसकी जगह शाहजादा आजम को रखा गया किन्तु वह अपना अभियान पूरा नहीं कर पाया क्योंकि उसे गुजरात का सूबेदार नियुक्त कर दिया गया था।
- अब तक सिवनी जिला उसे गढ़ा के राजा नरेन्द्रशाह ने दे ही दिया था और खेरला पर भी उसने अधिकार कर लिया था। जिले में सानगढ़ी और परताबगढ़ को डोंगरताल के किलेदार राजखान पठान ने उसके लिये अधिकृत कर लिया था। देवगढ़ के राजा का इलाका इस जिले के उत्तर में अम्बागढ़ से लेकर तिरोड़ा तक फैल गया। 1707 ई. में दक्खन में ही औरंगजेब का निधन हो गया और इससे बख्तबुलन्द का मार्ग निष्कंटक हो गया। पर जैसा कि हम देखेंगे वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहा।
देवगढ़ राज्य का मूल्यांकन
बख्तबुलन्द के अन्तर्गत देवगढ़ राज्य की उन्नति को लेकर जेन्किन्स उसकी बहुत प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं कि "बख्तबुलन्द का शासन उसके राज्य के लिए अत्यन्त सुधार का युग था । उसने अपने राज्य में व्यवस्था और नियमितता कायम करने के लिए बिना भेदभाव के योग्य मुसलमानों और हिन्दुओं को नियुक्त किया। सभी दिशाओं से लोग गोंडवाना में बसने के लिए आकर्षित हुए। कई कस्बे और गाँव बसे और खेती, निर्माण और व्यापार में काफी उन्नति हुई उसका दरबार कई सैनिक साहसिकों का आश्रय स्थल था उनमें से कुछ के वंशज अभी भी हैं उसके विदेशी सैनिकों का बेहतर अनुशासन और साहस से उसकी ताकत को घर और बाहर दोनों जगह सम्मान मिला। इन तरीकों से उसने चाँदा और मण्डला से कई विजयें कीं, जो मूलतः देवगढ़ की तुलना में समृद्धि और ताकत में बहुत श्रेष्ठ थे। उसने मराठों की उभरती राजनीतिक ताकत के साथ औरंगजेब के संघर्ष से उत्पन्न उथलपुथल का काफी फायदा उठाया। हालाँकि समय परिपक्व नहीं हुआ था । बख्तबुलन्द के वंशजों के आपसी झगड़ों के कारण वे बाहरी विजय का शिकार हुए तथापि यह कहा जा सकता है कि मराठा प्रशासन की ज्यादातर सफलता उसके द्वारा पहले से ही कायम बुनियाद के कारण थी।
चाँद सुल्तान
- बख्तबुलन्द के निधन के बाद उसका ज्येष्ठ बेटा चाँद सुल्तान उसका उत्तराधिकारी हुआ। वह 1709 ई. और 1719 ई. के मध्य कभी गद्दी पर बैठा इतिहास बताता है कि 1707 ई. में औरंगजेब 1 के निधन के बाद के 13 साल अत्यन्त घटना प्रधान रहे और यही समय था जब चाँद सुल्तान देवगढ़ के सिंहासन पर बैठा था। औरंगजेब के बाद बहादुरशाह जहाँदारशाह और फिर फर्रुखसियार बादशाह हुए। 1719 में फर्रुखसियार की हत्या कर दी गई और मुगल दरबार अमीरों के संघर्ष का केन्द्र बन गया। मुगल राजनीति की इस उथल-पुथल का फायदा चाँद सुल्तान को मिला और उसके शासन काल में मुगल हस्तक्षेप से बचा रहा और वह बाहरी आक्रमण से निश्चिन्त होकर अपने संसाधनों का उपयोग देवगढ़ राज्य की उन्नति में लगा सका। जैसा कि हम आगे देखेंगे, चाँद सुल्तान का संबंध मुगल दरबार के प्रभावशाली अमीर सैयद हुसैन अली से बहुत अच्छे थे।
बरार में भोंसला
- इस समय की एक महत्वपूर्ण घटना थी बरार में भोंसला का प्रवेश। बरार में भोंसला के प्रवेश के बाद राज्य का उससे सम्पर्क हुए बिना नहीं रहा। जब तक देवगढ़ राज्य ताकतवर था तब तक तो भोंसला की उपस्थिति का देवगढ़ पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा, किन्तु जब देवगढ़ राज्य कमजोर हुआ तो भोंसला ने उससे फायदा उठाया और तब देवगढ़ के पतन का मार्ग प्रशस्त हो गया। बरार के इलाके में भोंसला का आना केवल देवगढ़ के लिए नहीं बल्कि मराठों की शक्ति के प्रसार के लिए भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ ।
- छत्रपति शाहू के आदेश से कान्होजी भोंसला को सेना साहेब सूबा नियुक्त किया गया था और उसे बरार तथा गोंडवाना से चौथ वसूल करने का अधिकार दिया गया। तदनुसार उसने देवगढ़ पर धावा किया और देवगढ़ के राजा चाँद सुल्तान से चौथ वसूल करने का अधिकार स्थापित किया । कान्होजी भोंसले के भतीजे और बाद में बरार और गोंडवाना में सेना साहेब सूबा के रूप में उसके उत्तराधिकारी रघुजी भोंसला कान्होजी से कुछ असन्तुष्ट होकर अपने 100 सैनिकों के साथ भोंसला शिविर छोड़कर देवगढ़ के राजा चाँद सुलतान के पास चला गया वहाँ उसका अच्छा स्वागत किया गया। रघुजी वहाँ कुछ समय रहा और वहाँ से एलिचपुर और फिर छत्रपति शाहू के पास सतारा चला गया।
पेशवा बाजीराव
- हालाँकि गोंडवाना और बरार पेशवा और भोंसला के अन्तर्गत थे पर दोनों में से किसी के पास भी चौथ वसूलने की नियमित सनद नहीं थी इसलिये पेशवा और भोंसला दोनों सैनिक ताकत के बल पर इस इलाके पर अपने अधिकार स्थापित करना चाहते थे। 1728 ई. में बाजीराव पेशवा बरार, नागपुर और गोंडवाना होकर उत्तर रवाना हुआ और चिमना जी खानदेश और नर्मदा घाटी होकर उत्तर की ओर चला। पेशवा बाजीराव अपने 4 हजार और देवलजी सोमवंशी सरलशकर के 10 हजार सैनिकों के साथ पिलाजी जाधव के साथ गोंडवाना रवाना हो गया। वह बीड औंध, वाशिम और माहुर के रास्ते कोराडी परगना 3 जनवरी 1729 ई. को पहुँचा जो नागपुर से देवगढ़ के रास्ते पर 8 मील दूर था । बाजीराव ने 9 जनवरी 1729 ई. को देवगढ़ की सीमा में पहुँचकर चाँद सुलतान को संधि का संदेश भेजा। पेशवा बाजीराव और देवगढ़ के राजा के बीच संधि हो गयी और बाजीराव गढ़ा राज्य से होकर बुन्देलखण्ड रवाना हो गया।
- चाँद सुल्तान ने इसके बाद कुछ साल और राज्य किया और 1735 ई. में उसका निधन हो गया। चाँद सुलतान की पत्नी का नाम रानी रतनकुँवर था और इससे उसके तीन बेटे थे- मीरबहादुर शाह, अकबर शाह और बुरहान शाह । चाँद सुल्तान की मृत्यु के समय मीरबहादुर, अकबर शाह और बुरहानशाह की आयु ज्यादा नहीं थी और हम देखेंगे कि इस कारण इन्हें चाँद सुल्तान के निधन के बाद मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
- देवगढ़ 1737 ई. तक देवगढ़ राज्य की राजधानी बना रहा। चाँद सुल्तान की मृत्यु के बाद जब वलीशाह ने गद्दी हथिया ली तो चाँद सुतान की विधवा रानी रतनकुँवर के निवेदन पर रघुजी ने वीशाह से युद्ध किया जिसमें वलीशाह मारा गया। उसके बाद रघुजी रानी रतनकुँवर और उसके दो नाबालिग बेटों को सुरक्षा के लिये नागपुर ले आया और वहाँ उसने किले में इनको रखा। अर्थात चाँद सुल्तान की मृत्यु के बाद 1737 ई. में ही नागपुर देवगढ़ राज्य की राजधानी बना।
चाँद सुल्तान के समय समृद्धि
- चाँद सुल्तान का शासनकाल देवगढ़ के इतिहास में समृद्धि के शिखर पर था। इन वर्षो में मुस्लिम इतिहास में देवगढ़ का एक भी बार उल्लेख नहीं आता। इसका कारण यह है कि 1707 ई. में औरंगजेब के निधन के बाद मुगल साम्राज्य बिखरने लगा और उसका परिणाम यह हुआ कि उसका नियंत्रण देवगढ़ राज्य पर कमजोर हो गया और देवगढ़ पर अब शाही दखलंदाजी का खतरा नहीं रहा और उसे मुगल सेनाओं से जूझने से मुक्ति मिल गयी। इसका सीधा असर यह हुआ कि देवगढ़ राज्य शान्ति और समृद्धि की ओर अग्रसर हुआ। सर आर. क्रेडाक ने अपनी सेटलमेन्ट रिपोर्ट में चाँद सुल्तान के समय की समृद्धि का विवरण दिया है- "बख्तबुलन्द के उत्तराधिकारी ने अच्छा काम जारी रखा। उसने नागपुर को राजधानी बनाकर उद्योगों को और बाहर से लोगों को बसा कर खेती को प्रोत्साहित किया और आक्रमणकारी अवसर पाते उस पर अधिकार करने की इच्छा करने लगे।
वलीशाह
- जैसा कि बताया जा चुका है, चाँद सुलतान के तीन वैध बेटे थे मीरबहादुरशाह अकबर शाह और बुरहान शाह । चाँद सुलतान के निधन के बाद बख्तबुलंद के अवैध पुत्र वलीशाह ने चाँद सुलतान के बेटों की कम आयु का और उनकी माँ रानी रतन कुँवर की असहाय स्थिति का लाभ उठाकर गद्दी पर अधिकार करने की कोशिश की। बख्तबुलन्द का बड़ा बेटा मीरबहादुर तो अपनी सुरक्षा के लिये देवगढ़ से नागपुर भाग गया जहाँ उसे वलीशाह द्वारा 1735 ई. में मार डाला गया इसके बाद लीशाह ने देवगढ़ की गद्दी पर अधिकार कर लिया और रतन कुँवर और उसके दोनों अल्पवयस्क पुत्रों अकबर शाह तथा बुरहान शाह को बन्दी बना लिया। अब रानी रतन कुँवर ने अपनी असहाय हालत का वर्णन करते हुए गुप्त रूप से रघुजी को पत्र लिखा और अपने पुत्रों की रक्षा करने के लिये उससे वलीशाह के खिलाफ मदद माँगी। इसके आगे की घटनाओं का विवरण नागपुरकर भोसल्यांची बखर में मिलता है।
- जब रघुजी को रानी रतनकुँवर का पत्र मिला वह अपने मुख्यालय भाम में था और वहाँ से वह रानी रतनकुँवर की मदद के लिये रवाना हो गया। उसने कड़ब का किला जीत लिया और वहाँ से अपने सैनिकों के साथ जिले में केलझर आया। केलझर में जो गढ़ी थी वह देवगढ़ के गोंड राजा के अधिकार में थी और वहाँ गोंड सेना थी। इस गढ़ी को रघुजी ने सरलता से जीत लिया। इसके बाद रघुजी ने वैनगंगा की घाटी में प्रसिद्ध जगह पवनी आया जहाँ गोंडों की एक मजबूत चौकी थी। रघुजी ने पवनी को अधिकृत कर लिया और पवनी के थाना उसने तुलोजी रामपंत को नियुक्त किया।
- भण्डारा आने के बाद रघुजी ने संत देवबा और पीरशाह बाबा के दर्शन किए और भण्डारा में भूईकोट किले में मोर्चा बाँधा। यह बात देवगढ़ के राजा वलीशाह को पता चलते ही उसने अपने दीवान रघुनाथ सिंग को सेना देकर रघुजी का सामना करने के लिये भेजा। रघुजी ने अपनी सेना वैनगंगा के उस पार गिरोला से सोनबर्डी तक याने तीन किलोमीटर तक रख छोड़ी थी। सोनबर्डी के पास वैनगंगा नदी के तट के दो गाँवों मीरनगर और सिरसघाट के बीच दोनों पक्षों का सामना हुआ।
सोनबर्डी में पराजय
- रघुनाथ सिंग की सेना और भोंसला की सेना के बीच वैनगंगा नदी थी । रघुनाथ सिंग ने नदी पार की और दूसरे तट पर मुकाबले के लिए आ गया। रघुजी के पास 5 हजार सेना थी और रघुजी करान्डे तथा कोन्हेरराम कोल्हटकर नामक सरदार भी थे।
- घमासान युद्ध में गोंडों के बहुत से सैनिक मारे गए। गोंड सेना पराजित हुई और मराठों ने उनका पीछा किया। कई गोंड सैनिक वैनगंगा में डूब गए। इसी समय भोंसला की सेना ने रघुनाथ सिंग पर आक्रमण किया जिससे रघुनाथ सिंग घायल हो गया। जख्मी हालत में रघुनाथ सिंह रघुजी भोंसला के हाथ पड़ गया। वह उसे अपने साथ ले गया और उसका इलाज कराया। इस प्रकार जीवनदान दिये जाने से रघुनाथ सिंग रघुजी भोंसला के प्रति बहुत अनुग्रहित हुआ। वह रघुजी भोंसला के पक्ष में आने को तैयार हो गया। किन्तु रघुजी के मन तो कुछ और ही योजना थी। रघुनाथ सिंग से रघुजी ने कहा कि वह देवगढ़ लौटकर जाए और किसी युक्ति से वलीशाह को किले के बाहर निकालें जिससे उसे बन्दी बनाया जा सके। रघुनाथ सिंग को आश्वासन दिया गया कि यदि वह वलीशाह को सौंप देगा तो उसका दीवान का पद बरकरार रखा जाएगा। रघुजी के व्यवहार से और मराठों की ताकत से प्रभावित होकर रघुनाथ सिंह ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इसके बाद रघुनाथ सिंग को देवगढ़ भेज दिया गया। रघुजी ने भण्डारा के किलेदार हरी पाटिल से लड़ाई जारी रखी। अन्त में रघुजी भोंसला ने हरी पाटिल को बन्दी बना लिया। अन्त में हरी पाटिल को क्षमा करके उसे फिर से भण्डारा के किले में नियुक्त कर दिया। भण्डारा पर रघुजी भोंसला का अधिकार होने से पूर्व की ओर उसके प्रसार का रास्ता साफ हो गया ।
रघुजी का देवगढ़ आक्रमण
- अब मराठा सेना देवगढ़ की ओर रवाना हो गयी। जब मराठा सेना देवगढ़ पहुँची तब वलीशाह देवगढ़ के किले में था। जब काफी दिनों तक किला सर न हुआ तो रघुजी भोंसला ने देवगढ़ के दीवान रघुनाथ सिंग को संदेश भेजा। योजना के अनुसार रघुनाथ सिंग ने वलीशाह को विश्वास दिलाते हुए खबर भेजी कि उसने किले के बाहर अच्छा इन्तजाम किया है और वलीशाह को किले के बाहर आने के लिये कहा वलीशाह किले के बाहर आया और एक संक्षिप्त मुठभेड़ के बाद वलीशाह को रघुजी ने बन्दी बना लिया। इसके बाद रघुजी ने रानी रतन कुँवर, उसके बेटों बुरहान शाह और अकबर शाह से मुलाकात की और सभी को कैद से छुड़ाकर वह 1737 ई. में नागपुर ले आया ।" रघुजी भोंसला ने के किले में संयुक्त रूप से देवगढ़ राज्य की गद्दी अकबर शाह और बुरहान शाह दोनों को नागपुर के किले में रूप पर बिठाया। राजमाता रतनकुँवर से राज्य का काम देखने और दीवान रघुनाथ सिंग को रतनकुँवर की सहायता करने के लिये कहा। 1738 ई. ईस्वी में राजमाता और रघुजी भोंसले के बीच संधि हुई । इस संधि के अनुसार रतनकुँवर ने रघुजी भोंसला को अपना तीसरा बेटा मानकर उसे देवगढ़ राज्य का तीसरा हिस्सा दिया। 2 इसके बाद देवगढ़ के शासक भोंसलों के अधीनस्थ हो गए और रघुजी नागपुर का स्वतंत्र शासक हो गया।
बुरहान शाह और अकबर शाह
- 1738 ई. में बुरहान शाह और अकबर शाह को नागपुर में संयुक्त रूप से देवगढ़ राज्य की गद्दी पर बिठाया गया और रघुनाथ सिंग देवगढ़ के राजा का दीवान बना रहा। दोनों भाईयों ने मिलकर देवगढ़ राज्य के अपने हिस्से का शासन तीन-चार साल तक किया। इसके बाद दोनों में विवाद पैदा हो गया और बुरहान शाह ने अकबर शाह के खिलाफ रघुजी से सहायता माँगी। रघुजी ने बुरहान शाह की सहायता की और अकबर शाह और बुरहान शाह के बीच 1740 ई. में ब्रह्मपुरी में लड़ाई हुई जिसमें अकबर शाह पराजित हुआ। पराजित होने के बाद अकबर शाह एलिचपुर के आसफजाह के पास सहायता के लिये गया और वहाँ से वह हैदराबाद निजाम के पास गया। दुर्भाग्य से उसे वहाँ संवत 1799 ई. याने 1742 ईस्वी में जहर देकर मार डाला गया। कहा जाता है कि रघुजी के द्वारा उसे जहर दिलवाया गया। अकबरशाह की मृत्यु से बुरहान शाह प्रसन्न हुआ और उसने देवगढ़ राज्य का अकबर शाह वाला हिस्सा रघुजी भोंसला को दे दिया। 1741 ई. में रघुजी ने खुद को नागपुर में स्थायी रूप से जमा लिया 43 1743 ईस्वी में रघुजी भोंसला ने नागपुर का शासन और फिर देवगढ़ तथा सिवनी का शासन अपने हाथ में ले लिया।
- 1749 ई. में रघुजी बंगाल के अपने चौथे अभियान में गया। वहाँ उसे खबर मिली कि बुरहान शाह के दीवान रघुनाथ सिंग ने चाँदा के राजा नीलकण्ठशाह के साथ मिलकर चौथ देना बन्द कर दिया है और रघुजी के खिलाफ विद्रोह कर दिया है। यह सुनकर रघुजी अपने अभियान से लौटा और पाटनसावंगी के पास उसने रघुनाथसिंग को हराया, जिसमें रघुनाथ सिंग मारा गया। इसके बाद रघुजी ने देवगढ़ के शासक बुरहानशाह को नागपुर के किले में नजरबन्द कर दिया |
देवगढ़ राज्य भोंसला के कब्जे में
- उस समय बुरहान शाह के पास के देवगढ़ राज्य की सालाना आय 12 लाख रुपये थी, जिसमें से 8 लाख रुपये रघुजी द्वारा ले लिए गए और बाकी 4 लाख बुरहान शाह को मिलने थे। लेकिन फिर बुरहान शाह को तीन लाख रुपये नियमित पेंशन दी जाने लगी और बाद में यह पेंशन डेढ़ लाख सालाना कर दी गयी । नागपुर आने के बाद बुरहान शाह के पास किसी भी प्रकार की राजकीय सत्ता नहीं रही।
- रघुजी भोंसला ने सदैव इस बात का स्मरण रखा कि उसे नागपुर का राज्य गोंड राजा से प्राप्त हुआ है। इसलिए शुरू में गोंड राजा के प्रतिनिधि के नाते रघुजी भोंसला ने राज्य का कारबार सम्हाला । हालाँकि गोंड राजा के पास कोई राजनीतिक शक्ति नहीं थी किन्तु भोंसला शासक सदैव उनका सम्मान करते रहे और हर भोंसला शासक के गद्दी पर बैठने के समय गोंड राजा की ओर से भोंसला राजा के माथे पर टीका लगाया जाता था और भोंसला भी गोंड राजा के माथे पर टीका लगाता था । राजा बुरहान शाह ने बहुत लम्बी उम्र पाई और उसका निधन भोंसला राजा के एक पेंशनर के रूप मे 1798 ई. में हुआ। उसके जीवनकाल में नागपुर में चार भोंसला शासक हुए- रघुजी प्रथम, जानोजी, साबाजी, मुधोजी और रघुजी द्वितीय। ये सभी शासक बुरहान शाह का सम्मान करते थे।
- गोंड राजा बुरहान शाह का स्थायी निवास नागपुर हो गया किन्तु उनका संबंध देवगढ़ के किले से बना रहा। गोंड राजवंश के राजा मुसलमान हो गए थे किन्तु वे धार्मिक कार्यों के लिये देवगढ़ जाते थे और वहाँ देवी की पूजा करते थे और अपने बच्चों के मुण्डन संस्कार भी करते थे। नागपुर के गोंड राजा स्वयं को देवगढ़ के "संस्थानिक" कहते थे।
राजा बुरहान शाह व्यक्तित्व
- राजा बुरहान शाह धार्मिक प्रवृत्ति का था। हर साल बुरहान शाह रमजान के रोजे रखता था, ईद और अन्य मुस्लिम किले में धूमधाम से मनाता था। इन अवसरों पर भोंसला राजा किले में जाकर बुरहान शाह के प्रति सम्मान प्रकट करता था और बुरहान शाह तथा उसके परिवार के अन्य सदस्यों को मूल्यवान वस्त्र भेंट करता था। बुरहान शाह अरबी, फारसी और उर्दू का विद्वान था । उसने की शिक्षा नागपूर के भोंसला के दरबार के पराक्रमी सेनापति और राजनीतिज्ञ भवानी पंडित कालू से प्राप्त की थी । बुरहान शाह ने विद्वानों, कवियों और लेखकों को उदारता से आश्रय दिया। कवि लाला प्रेमचन्द ने 1792 ई. में "तरजुमा शाहनामा-ए-फिरदौसी" नाम का ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथ के प्रारम्भ में बुरहान शाह के गुणों का वर्णन किया गया है। 1788 में जब अंग्रेज रेजीडेन्ट फार्स्टर नागपुर आया तो उसने बुरहान शाह के बारे में कहा "यह व्यक्ति (बुरहान शाह) 60 साल से ज्यादा आयु का है और उसमें अत्यन्त योग्यता और विवेक है और यह उसके सामान्य आचरण से झलकता हैं।
- बुरहानशाह के 6 बेटे थे- बहराम शाह, सुलेमान शाह उर्फ भूरे साहेब, फीरोज शाह, सिंकदर शाह, आजम शाह और अकबर शाह उर्फ अनवर शाह। इनके वारिस बाद में भी नागपुर के गोंड किले में रहते हुए अपने गाँवों और पेंशन का उपभोग करते रहे। यह अनोखी बात है कि राजसिंहासन छिन जाने के बाद भी देवगढ़ का गोंड राजवंश आगे आने वाले समय में अस्तित्व में रहा और अभी भी इस राजवंश के वारिस अपेक्षाकृत ठीक हालत में है और अपने वैभवशाली अतीत की यादगारें उनके पास हैं ।
Post a Comment