बुरहानपुर के सूफी संत | Burhanpur Sufi Sant
बुरहानपुर के सूफी संत
बुरहानपुर के सूफी संत
शाह ईसा जुनदुल्लाह सिंधी
हजरत शाह ईसा का जन्म 951 हि. में शहर एलिचपुर में हुआ था, उन्हें प्रारंभिक शिक्षा उनके पिताजी से मिली। उन्होंने अपने परिजनों सहित एलिचपुर से आकर बुरहानपुर में निवास किया। यह मोहल्ला इन लोगों के परिवार और शिष्यों के निवास की वजह से "सिंधीपुरा" के नाम से विख्यात हो गया। वे हजरत शाह लश्कर मोहम्मद आरिफ बिल्लाह के शिष्य एवं प्रतिनिधि थे। हजरत शाह ईसा महान सूफी संत ही नहीं वरन् हिन्दी, फारसी और अरबी भाषा के महान एवं प्रसिद्ध कवि भी थे। सन् 1031 हि. याने सन् 1622 ई. में सत्तर वर्ष की आयु में बुरहानपुर में इनका देहांत हुआ। सूबेदार अब्दुर्रहीम खानखाना ने उनकी मजारपर शानदार मकबरा बनवा दिया था। बुरहानपुर में जितने भी सूफी संतों के मकबरे है, उन सब में हजरत शाह ईसा सा. का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यही कारण है कि आप शहंशाहे वली कहलाते हैं।
शेख मोहम्मद बिन फजलुल्लाह "नायब-ए-रसूल"
हजरत शेख मोहम्मद शाह फजलुल्लाह का जन्म सन् 1537 में अहमदाबाद में हुआ था। वे प्रसिद्ध विद्वान एवं सूफी संत हजरत शेख अली मुत्तकी बुरहानपुर की संगति में रहे और फिर वे अहमदाबाद चले गये। वहाँ से वे फिर से बुरहानपुर आए। बुरहानपुर के मोहल्ला हमीदपुर में उन्होंने मस्जिद और खानकाह का निर्माण कराया। उन्होंने अरबी और फारसी में कुछ किताबों की भी रचना की थी। 1620 ई. में शेख सा. का स्वर्गवास हो गया। उनका मजार शनवारा गेट के बाहर पश्चिम में कब्रिस्तान के समीप हमीदपुरा से लगे मोहल्ले शेखपुरा में स्थित हैं।
मोहम्मद हाशम किश्मी
ख्वाजा हाशम सा. का जन्म शहर कुश्म (बदख्शा) में सन् 989 हि. अर्थात् 1581 ई. में हुआ था । सन् 1029 हि. (1620 ई.) में आप बुरहानपुर आये और सपरिवार बुरहानपुर में स्थायी तौर से निवास किया था। हजरत एक सूफी संत महान दार्शनिक ज्ञानी और फारसी भाषा के उच्चकोटि के कवि भी थे। 1045 हि. याने 1640 ई. में आपका स्वर्गवास हो गया। पहली उनकी मजार शाही ईदगाह के निकट पांडारोल नदी के किनारे पर थी।
सैयद मोहम्मद शाह दूल्हा
इनका पूरा नाम सैयद मुहम्मद शाह तथा उपनाम "शाह दूल्हा" था। मुहम्मद शाह दूल्हा का जन्म सन् 1594 ई. में पीराना "अहमदाबाद" में हुआ था। आपने अपने पिता मुहम्मद हाशम से प्रतिनिधित्व प्राप्त किया। वे सन् 1650 ई. में अहमदाबाद से बुरहानपुर पधारे। वे रोजाना लाल वस्त्र धारण करते और दूसरे दिन उन वस्त्रों को गरीबों में बांट देते थे। इसी कारण से आपको "दूल्हा" की पदवी मिली और आप इसी नाम से प्रसिद्ध हुए । उनके रचे हुए ग्रंथ में दोनों धर्मों की अच्छी बातें संग्रहित हैं। उनका 9 मई 1657 का बहादुरपुर तहसील बुरहानपुर में ही देहांत हो गया। उनका शानदार मकबरा बुरहानपुर से 6 किलोमीटर दूरी पर ग्राम बहादुरपुर में है
बुरहानुद्दीन राज-ए-इलाह
उनका पुरा नाम शेख बुरहान मोहम्मद शेख कबीर गुजराती और उपनाम बुरहान था। वे बुरहानउद्दीन औलिया के नाम से मशहूर हुए हैं। उनका जन्म 988 हि. (1580 ई.) में सूबा खानदेश के परगना बोदवड़ के ग्राम रांझी में हुआ था। उन्होंने यह महान सुफी संतों, विद्वानों से शिक्षा प्राप्त की थी। सबसे पहले इन्होंने हजरत मलिक हुसैन बम्बानी से शिक्षा हासिल की और फिर हजरत शाह ईसा जुनदुल्लाह की सेवा में पहुँचकर उनके शिष्य हो गये। बहुत कम समय में वे आध्यात्मिकता के क्षेत्र में शिखर तक पहुँच गये थे।
वे आध्यात्मिक विद्या, ज्ञान, ध्यान, शास्त्र, बह्यज्ञान काव्य साहित्य हेतु वाद शास्त्र और गणित शास्त्र में पारंगत हुए। आध्यत्मिकता के श्रृंखला में वे ही "राजे इलाह' (ईश्वर रहस्य) और कवित्व में "बुरहान" हो गये। वे अरबी साहित्य के ज्ञाता थे। फारसी एवं हिन्दी भाषाओं का भी उन्हें ज्ञान था । उनकी कविताओं में फारसी एवं हिन्दी भाषा का मेल था। इन्होंने शरह आमन्तुबिल्लाह, बसीयतनामा, हवाला - ए - आखिर, हवाला ए जाहिर और हवाल ए बातिन पुस्तकों की रचना की थी। 92 वर्ष की आयु 1672 ई. में उनका देहावसान हो गया। उनका मकबरा मोहल्ला सिंधीपुरी में स्थित है।
श्रृंगार प्रसाधन : -
- श्रृंगार-प्रसाधन एवं नारी का संबंध स्वाभाविक रूप से अटूट है। वे पुरुषों की अपेक्षा अपने प्रसाधनों हेतु अधिक सतर्क होती हैं। वे अपने समय का एक बड़ा हिस्सा अपने शारीरिक सौन्दर्य को निखारने एवं बढ़ाने में खर्च कर देती हैं। खासकर हिन्दू महिलाओं में इनका प्रचलन अधिक है, क्योंकि ये श्रृंगार प्रसाधन उनके धार्मिक रीतियों एवं परंपराओं से जुड़े होते हैं। सम्पूर्ण मुगलकाल व उससे पूर्व में भी हिन्दू औरतों में सोलह श्रृंगार का विशेष महत्त्व व प्रचलन था। अबुल फजल ने इन सोलह श्रृंगारों में - प्रातः कर्म शौच, दाँत, मुँह, आँख आदि स्वच्छ करना, सुगंधित तेल की मालिश के पश्चात् स्नान करना, बाल सँवारना तथा सिर पर आभूषण पहनना, तिलक, बिन्दी लगाना, गाल पर तिल बनाना हाथों में मेहन्दी लगाना, पैरों में महावर रँगना, स्वर्णाभूषण पहनना, कमर में करधनी पहनना, पैरों में स्वर्ण आभूषण पहनना, होंठ रंगने के लिये पान खाना, आँखों में काजल लगाना आदि थे।° प्रातः स्नान महिलाओं का नित्य कर्म था, इसे पवित्र कर्म माना जाता था। फॉस्टर लिखता है कि- "ब्राह्मण स्त्रियाँ दस बीस, या तीस के झुण्ड में गाती हुई नदी पर जाती हैं, तथा स्नान कर धार्मिक अनुष्ठान करती .
- उपरोक्त के अतिरिक्त बालों को मुलायम, चमकदार व साफ करने के लिये आँवला, त्रिफला, चन्दन, मुल्तानी मिट्टी तथा पीली मिट्टी का उपयोग किया जाता था, स्त्रियों के लम्बे बालों को सौन्दर्य प्रतीक माना जाता था, विदेशी यात्रियों ने भारतीय स्त्रियों के लम्बे, काले बालों की प्रशंसा की है।
- इसके अलावा विभिन्न प्रकार के सौन्दर्य संवर्द्धक लेप, उबटन हल्दी, फूलों से निर्मित कई अन्य प्रसाधन आदि प्रचलित थे, तथा नित्य स्नान, मालिश, पान चबाना आदि को स्वास्थ्य रक्षा के लिये आवश्यक माना जाता था।
- पान मालवा में विशेष रूप से प्रचलित थे, यहाँ इसकी खेती की जाती थी तथा इसका प्रयोग होठों व दाँतों को रंगने व आकर्षण बढ़ाने के लिये स्त्री व पुरुष दोनों के द्वारा किया जाता था। इस अध्याय में मालवा के मुगलकालीन श्रृंगार-प्रसाधनों एवं तत्कालीन सौंदर्य विधियों को सुस्पष्ट करने हेतु " श्रृंगाररत रानी रूपमती" का छाया चित्र दिया जा रहा हैं, जो रानी रूपमती के दुर्लभ चित्रों में से एक है, इसके अवलोकन से तत्कालीन मालवा के सौंदर्य प्रसाधनों, वस्त्रों, आभूषणों एवं विधियों संबंधी सूक्ष्म जानकारी प्राप्त होती है।
पुरुष प्रसाधन :
- उच्च वर्ग के लोग अपने शरीर सौष्ठव व आकर्षण के लिये विभिन्न प्रकार के तरीके अपनाते थे। अपनी वास्तविक उम्र से कम दिखने के लिये सफेद बालों को रंगवा कर उन्हें काले करवाना आम बात थी .
- बंगाल से सुगंधित तेलों को बालों व शरीर पर मालिश हेतु आयात किया जाता था। अमीर वर्ग द्वारा चंदन का एवं साधारण वर्ग द्वारा नारियल तेल का उपयोग मालिश हेतु किया जाता था । गर्मियों के दिन में उच्च वर्ग इसमें गुलाबजल का मिश्रण करता था, ताकि उनके शरीर में ठंडक रहे । अबुल फजल के अनुसार 12 प्रसाधनों का प्रमुखतः रेखांकित किया है- 1. दाढ़ी बनवाना, 2. स्नान करना, 3. जातिसूचक चिन्ह धारण करना 4. सुगंध व तेल लगाना, 5. स्वर्ण कर्णाभूषण पहनना, 6. जामा धारण करना, 7. पगड़ी या साफे के ऊपर मुकुट (कलंगी) धारण करना, 8. तलवार धारण करना, 9. कमर में कटार धारण करना, 10. अँगुली में अगूठी धारण करना, 11. पान चबाना, 12. जूते पहनना ।
- उच्चवर्गीय हिन्दू स्नान करने के बाद अरगजा, केसर, कस्तूरी, कुमकुम, चन्दन, इत्र आदि लगाते थे। साबुन के स्थान पर आँवला उपयोग किया जाता था। हिन्दू पुरुष घर से निकलने के पूर्व अपने पर तिलक अवश्य लगाते थे। आँखों में काजल लगाया जाता था ताकि उनकी चमक व प्रभाव बढ़े, होठों व दाँतों को लाल करने व आकर्षित दिखाने हेतु पान चबाया जाता था। दाँतों की देखभाल का विशेष ख्याल रखा जाता था, तथा प्रतिदिन सोकर उठने के बाद दातुन किया जाता था। प्रतिदिन दातुन किये जाने से उनके दाँत एवं मसूड़े इतने शक्तिशाली हो जाते थे कि सौ सालों तक भी वे उनके दाँत मजबूत व स्थिर रहते थे। दातों के लिये दंतकुरेदनी, मिस्सी का भी उपयोग किया जाता था.
- दर्पण सामान्य उपयोग की वस्तु था। हिन्दू वर्गीय पुरुष सिर पर लम्बे बाल रखते, जबकि मुस्लिम उन्हें साफ करवाते थे। कुछ हिन्दू छोटी दाढ़ी रखते थे, जबकि कट्टर मुस्लिम लम्बी दाढ़ी रखते थे, जो सीने तक लम्बी होती थी। मूँछे दोनों वर्ग के लोग रखते थे, शुरुआत में उन्हें लम्बी की जाती थी, व बाद में छंटवा कर बीच में से व दोनों किनारों पर से पतली करवायी जाती थी ।
- अतः उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि विभिन्न प्रकार के प्रसाधन तत्कालीन समय में प्रचलित थे, जिन्हें स्त्री व पुरुष दोनों वर्ग उपयोग में लाते थे।
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