मुगलकाल में लोकसाहित्य | Loksahitya in Mughal Period

मुगलकाल में लोकसाहित्य 

मुगलकाल में लोकसाहित्य | Loksahitya in Mughal Period

मुगलकाल में लोकसाहित्य 

लिपिबद्ध नहीं कर पाने के कारण लोक साहित्य का बड़ा हिस्साकालरचनाकार आदि की सटीक जानकारी नहीं मिलती। किन्तु फिर भी लोक साहित्यकारों के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिलती हैं। 

 

संत मिट्ठे - 

  • संत मिट्ठे का पूरा नाम हजरत सैय्यद शेख हमीउद्दीन चिश्ती खुरासानी था। इनका जन्म कन्नौज में सन् 1524 को हुआ था। संत मिट्ठे ने अजमेर से पड़दामनासाअफजलपुरगरोठभानपुराझलावाड़ होते हुए गागरोन पहुँचकर स्थायी निवास बनाया। वर्तमान में भी गागरोन में इनकी दरगाह स्थित हैजिस पर प्रतिवर्ष उर्स लगता है। मिट्टे साहब की बहुत सी रचनाएँ प्राप्त होती है किन्तु दुर्भाग्य से इनकी रचनाओं को लिपिबद्ध नहीं किया गया। पड़दा मुकाम के दौरान वाचिका परम्परा के कुछ दोहे पीर साहब की डायरी में लिखे थेजिन्हें एकलिंगदास ने उतारा था। एकलिंगदास के पुत्र मांगूदास से पूरन सहगल ने प्राप्त किये जो इस प्रकार है- 

 

ज्ञान भगति समरस कहेप्रेम पिलाओ पीव । 

मिट्ठा गुरु किरपा भलीमत भटकारे जीव ।। 

हिन्दू भी जाने नहींनहिं जाने तुरकान । 

मिट्ठा चल पूरब चलेंकरले निजल मुकाम ।। 


संत लालदास दरयायी

संत लालदास का समय वि.सं. 1597 से 1705 (ई.सन् 1540 से - 1648) बीच माना जाता है। ये मुख्यतः जावद में रहते थेपरन्तु इनका जीवन प्रायः घुमक्कड़ में ही बीता । 34 संत लालदास के जो उपदेश या साहित्य प्राप्त होता है वह दोहों के रूप में ही मिलता है जो इस प्रकार है -

 

कुण देख्यों बिस ब्रह्म ने जिण की नहिं पिछाण । 

लालदास सतगुरु दियोसबद गयन को भाण ।। 

तलफी लागी जीव में घुट-घुट पाणी पीव 

लालदास तलफी मिटे मिले पीव में जीव । । 

समरथ गुरु परबोधियोंदियो शब्द को दान 

गेल बताई अलख की लालदास परमान 

 

सन्तदास - 

सन्तदास भी लोकसाहित्य के प्रमुख रचनाकार थे। वि.सं. 1699 फाल्गुन बदी 9 गुरुवार को जन्म हुआ था। ये दशपुरभीलवाड़ासीमान्त मेवाड़ के प्रदेशजावदमनासागरोठ आदि क्षेत्रों में घूम-घूम कर जीवन यापन करते थे। इस क्षेत्र में अभी भी इनके गुटके मिलते हैंजिन्हें पूजा जाता है।

 

सतगुरु मेल मिलायासूरत सबद का संग । 

अब नहिं छुटत संतदासलग्यो करारो रंग ।। 

मैं हूँ दुरबल आत्मातुम सतबल हो राम । 

जम को भो लागे नहिं करूँ कोई ऐसो काम ।। 

साखी प्रेम प्रकास कीदनी रेती नाहि । 

प्रेम झकोली नीसरेसंतदास मुख नाहि । 


सन्त जग्गा 

सन्त जग्गा का जन्म सीतामऊ राज्य के अन्तर्गत गाँव सेमलखेड़ा में हुआ संत जग्गा था। जग्गा खिड़िया गौत्र के चारण थे। इनसे संबंधित जानकारी बिलाड़ा (मारवाड़) के समीप रामसानी गाँव में चारणों के भाट राव के पास उपलब्ध है। सन्त जग्गा रतलाम के महाराज रतनसिंह राठौड़ के राजकवि थे। धरमाट के प्रसिद्ध युद्ध में ये शामिल थे तब इनकी आयु 50 वर्ष थी। इस युद्ध में रतनसिंह की मृत्यु के बाद सन्त जग्गा ने वचनिका रतनसिंहजी महेशदासोत री में धरमाट युद्ध का वर्णन डिंगल भाषा में (1658-59 ई.) में किया थापरन्तु इस युद्ध की विभीषिका से कहते हैं कि उन्हें बेराग्य हो गया था और साधु हो गये थे। खाकी सम्प्रदाय की दीक्षा लेकर उन्होंने अपना संदेश मालवा में प्रसारित किया जिससे उनके कुछ दोहे प्राप्त होते हैं जिनसे इनके लोकसाहित्य पर प्रकाश पड़ता है। -

 

'हिन्दू ताम हकारिया सिंध जसौ जैसिंघ । 

किया बिदा करम कमंध से बैवे अरडिंग ।। 

दिया वधारा देस दे हैं वर द्रव्य हसति । 

पतिसाही था अप्सरांयूं कहियाँ असपति ।। 

सुज्जा दिसी जैसिंघसझि दुज्जौ मान दुबाह । 

पोतो साथै परढियोपूरब घर पतिसाह ।। 

साहिजादा बिहूँ सांमुहौअंक जसौ अणभंग । 

मॉडण असपति माँडियोंजोध कलोधर जग ।। 

 

मुगलकालीन मालवा में शाहजहाँ एवं औरंगजेब के काल में भी लोक साहित्य की रचना हुई थी । रतनरासो और वचनिका जैसे ग्रंथों की रचना इसी काल में हुई थी। इसी काल में कवि सुन्दर का साहित्यिक वर्णन भी काफी महत्त्वपूर्ण है। सुन्दर ने मालवी भाषा में साहित्य की रचना की हैजिसमें अलंकारछन्दललित श्रृंगारप्रणयरूपरसरंग और रति आदि का सुन्दर विवेचन है। सुन्दर की रचनाओं के कुछ साहित्यिक उदाहरण यहाँ देना विषय के अनुकूल होगा -

 

चंदा थारी चांदणी ताँ बी करी रात। 

सुन्दर पिव बिन रातड़ी नागण सी दसरात ।। 

सुन्दर सुरमो सारतां नेणा बण्या कटार। 

घूंघट में घायल करेतक-तक करे सिकार ।। 

रेसम डोरी नेह की मति उलझावो पीव 

सुन्दर पड़सी गांटणा घण कलफसी जीव ।। 

जुध जूझण जाओ पियाबांधो कमर कटार । 

सुन्दर जीत पधारजोराखूं रोज तैयार ।। 


अतः हम कह सकते हैं कि उपर्युक्त वर्णित लोक साहित्य में मुगलकालीन समय के प्रचलनरीति-रिवाजव्यवहार आदि की जानकारी प्राप्त होती हैतथा साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि तत्कालीन मालवा में तब खूब साहित्यिक रचनाओं की दृष्टि से सम्पन्न था। यहाँ की अपनी मालवी बोली में कई रचनाएँ हुई हैं जबकि मुगलकाल की राजभाषा फारसी थी .

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