अपने पिता शाहजहाँ को कैद में डालकर 1658 ई. में औरंगजेब मुगल सिंहासन पर बैठा।औरंगजेब ने मालवा में कई एक कार्य किये। 16 अगस्त, 1663 ई. को जफरखान को मालवा सूबे से बुलाकर वजीर बनाया गया और उसकी जगह पर नजावत खाँ की नियुक्ति की गई ।
अक्टूबर 1664 ई. को दरबार में खबर आई कि मालवा के सूबेदार की मृत्यु हो गयी है, तब औरंगजेब ने खानदेश के सूबेदार वजीरखाँ को उसकी जगह पर नियुक्त किया।
9 अक्टूबर, 1672 ई. को वजीरखाँ और मोहम्मद ताहिर की मृत्यु हो गई । अतः मीरखान को मालवा की सूबेदारी दी गई। सुल्तान को पता चला कि मालवा का नाजिम इस्लाम खाँ जिसे खाने जहान बहादुर को कालतास के तहत सेवा में नियुक्त किया था। 13 जून, 1673 ई. को वह खड़ा हुआ था कि दुर्भाग्य से बारुद का गोला उसके पास गिरा इससे घबराकर उसका हाथी दुश्मन के बीच में घुस गया, और उसे दुश्मन की सेना ने घेर लिया। दुश्मनों ने उसे नीचे गिराकर उसके लड़के व उसको मार दिया। सुलतान ने उसके बड़े लड़के अफरसियावखाँ की पदोन्नति कर दी और ढ़ाई हजार मनसब दिया और उसके छोटे भाई की भी पदोन्नति कर दी गयी। इस्लामखान की दो हजार अशर्फियाँ और अन्य सामान जो उज्जैन व शोलापुर के राज्यों ने जब्त कर लिया था, उसके लड़के को दे दिया गया। 24 सितम्बर, 1676 ई. को मोहम्मद अकबर को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया गया। उसे दो अरबी घोड़े और एक हाथी और सोना भेंट में दिया गया। 26 जून, 1682 ई. को मुख्तयारखान को हाफिज मोहम्मद अमीनखाँ अहमदाबाद के सूबेदार की मौत के बाद अहमदाबाद का सूबेदार बना दिया गया और मुख्तयारखान की जगह पर खान जमाने मालवा का सूबेदार हुआ और मुगलखान को खान जमान की जगह पर नियुक्त किया गया। 3 अगस्त, 1684 ई. में खान जमान के मरने के बाद मुगलखान को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर जुल्फकार नाम का हाथी उसे भेंट कर उसका मनसब साढ़े तीन हजार का कर दिया गया। अबुनसरखा जो कि शायस्ता खाँ का पुत्र था, का मनसब ढाई हजार कर दिया गया और मुख्तयारखान की जगह मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया गया और साथ में जिसने कि अपनी छावनी धार में बना रखी थी, अहमदाबाद के सूबेदार के रूप में प्रस्थान करने का आदेश दिया।
मालवा में गिरासिया का आतंक :
फाक क 1667 ई. के प्रारम्भ से ही परगना कम्पेल के गाँवों में जेतसिंह गिरासियों का आतंक बहुत फैल गया था । क्षेत्र के फौजदार, अमीन और चौधरी ने तत्कालीन मालवा के सूबेदार बीरखाँ को भी अवगत करा दिया था और वजीरखाँ ने उसके आतंक को समाप्त करने के लिए तत्कालीन फौजदार और अमीन को निर्देश दिये थे, और अधिकारियों को भी निर्देश दिया कि बिना भय . के वसूली आदि का कार्य करते रहें। शनिवार 11 मई, 1667 ई. को जेतसिंह गिरासिया ने एक सौ सवारों और सात सौ पैदल साथियों के गिरोह के साथ सूरतसिंह निवासी बागली, परगना ऊँचोद की सहायता से तीन पहर रात गाँव कम्पेल में आग लगा दी और सात लोगों को जान से मार डाला, कुछ लोगों को घायल कर गाँव को वीरान कर बागली में सूरतसिंह जमींदार के पास रहने लगा। जेतसिंह गिरासिया के अत्याचार और आतंक के कारण 7,999 रुपये आय के गाँव कम्पेल, बहुराव, बहूदा, तेलखेड़ी और भकरिया के निवासी गाँव छोड़कर अन्यत्र चले गये .
कुछ समय बाद जेतसिंह सूरतसिंह के यहाँ से भी चला गया और हमनवास के गाँव कान्ताखोर को अपना निवास स्थान बनाया। सूबेदार वजीर खाँ को उसका पता चल गया था, और वह निरन्तर उस पर दबाव बनाये हुए था। फिर भी क्षेत्र में शान्ति स्थापित नहीं हुई थी, तब मालवा के सूबेदार वजीरखाँ को शिकदार प्रतापसिंह ने शान्ति स्थापना हेतु प्रस्ताव भेजा.
प्रतापसिंह शिकदार ने मालवा के सूबेदार से यह भी निवेदन किया कि यदि जेतसिंह का क्षेत्र उसके पुत्र विजयसिंह के आधिपत्य में दे दिया जावे तो परगने में शान्ति व्यवस्था कायम हो सकती हैं। सूबेदार ने इस शर्त के साथ विजयसिंह को वह क्षेत्र दे दिया कि सरकार की बकाया राशि यथा समय खजाने में जमा करता रहेगा। अन्त में प्रतापसिंह शिकदार की मध्यस्थता से ई.सन् 1671 में मालवा में पुनः शान्ति स्थापित हो सकी।
पहाड़सिंह गोंड़ का विद्रोह :
पश्चिमी बुन्देलखण्ड में स्थित इन्दरखी का जमींदार पहाड़सिंह गौड़, मालया सूबा के शाहबाद धंधेरा का शाही फौजदार था। उसने लालसिंह खींची चौहान का पक्ष लेते हुए सन् 1685 ई. में बूंदी के हाड़ा अनिरुद्धसिंह को हराया तथा उसका पड़ाव, माल असबाब लूट लिया। इसके पश्चात् पहाड़सिंह मालवा के गाँवों में लूटमार करने लगा। इस समय मालवा में राय मलूकचंद था एवं उसने आक्रमण कर दिसम्बर, 1685 ई. पहाड़सिंह को मार डाला, परन्तु पहाड़सिंह का पुत्र भगवन्त इस विद्रोह को चलाता रहा। मार्च, 1686 ई. में भगवन्तसिंह को भी शाही अधिकारियों ने मार डाल। इसके पश्चात् भी युद्ध कई वर्षों तक चलता रहा एवं अन्ततः 1692 ई. में इन विद्रोहियों ने आत्म समर्पण कर दिया।
मराठा कृष्णाजी सावन्त का आक्रमण :
औरंगजेब के शासनकाल में मालवा पर मराठों का सर्वप्रथम आक्रमण 1699 ई. में हुआ। नवम्बर, 1699 ई. में जब औरंगजेब सतारा के किले का घेरा डालने के लिए जा रहा था, उसी समय कृष्णाजी सावन्त ने 1500 मराठा सवारों को लेकर नर्मदा नदी पार की और धामुनी के आस-पास के कुछ प्रदेशों में लूट खसोट कर लौट गया। भीमसेन लिखता है कि पहले के सुलतानों के समय से अब तक कभी भी मराठों ने नर्मदा को पार नहीं किया था, मगर कृष्णाजी सावन्त ने मालवा में आकर लूट खसोट की और बिना किसी प्रकार के विरोध के वह लौट गया । सर यदुनाथ सरकार लिखते है कि जो मार्ग इस प्रकार खुला वह 18वीं शताब्दी के मध्य में जब तक मालवा पूर्णतया मराठों के आधिपत्य में न आ गया किसी प्रकार बन्द नहीं हो पाया।
3 मार्च 1707 को दक्खिन में मुगल बादशह औरंगजेब की मृत्यु हो गयी। उसके बेटों में उत्तराधिकार के लिए जो युद्ध हुआ उसमें मुअज्जम विजयी हुआ और वह 1710 में बहादुरशाह के नाम से मुगल सिंहासन पर बैठा।
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