मुगलकाल में कला और मध्यप्रदेश | Mugal Kal Me Kala Aur MP

 मुगलकाल में कला और मध्यप्रदेश 

मुगलकाल में कला और मध्यप्रदेश | Mugal Kal Me Kala Aur MP



मालवा संगीत

  • • मालवा संगीत के दृष्टिकोण से भी समृद्ध प्रान्त थाअकबर के काल में यहाँ रानी रूपमती व बाजबहादुर माण्डव के संगीतरत्न थे। मुगलकाल की स्थापना से पूर्व भारतीय संगीत स्थानीय शासकों के आश्रय में ही विकसित हुआइनमें रानी रूपमती एवं बाज बहादुर का स्थान सर्वोपरि है। बाज बहादुर ने कई संगीतकारों को अपने यहाँ आश्रय दे रखा थाजो दिन-रात संगीत की रचना करते व गाते बजाते ।

 

  • एक अन्य उदाहरण हुमायूँ के काल में प्राप्त होता हैजब उसने माण्डू पर आक्रमण किया व बहादुरशाह को परास्त किया तो उसने माण्डू में कत्लेआम की आज्ञा दीजो तीन दिनों तक जारी रहातब हुमायूँ ने बहादुरशाह के तत्कालीन दरबारी गायक कलावत मंझू का गायन सुनकर ही अपना क्रोध शांत कियाऔर मंझू के अद्वितीय फारसी गायन से प्रभावित होकर मंझू से कहा कि "जो माँगना चाहेमाँग ले।" तब मंझू ने जिसे कहा उसी व्यक्ति को मुक्त करजीवनदान दिया गया .

 

  • अतः स्पष्ट है कि मुगलकाल में संगीत कला अपने चरमोत्कर्ष पर थी। रानी रूपमती का भी इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान हैरानी रूपमती ने भारतीय संगीत की "भूप कल्याण" नामक रागिनी की रचना की थी।

 

  • इसके अतिरिक्त जन सामान्य के जीवन में भी संगीत व्याप्त था। जीवन से जुड़े प्रत्येक अवसर के गीत इतिहास की मौखिक परंपरा के अनुसार सम्पूर्ण समाज में व्याप्त थे। ये मौलिक होते थेजो जीवन के दृश्योंघटनाओंपौराणिक आधारोंव्यक्तित्वों आदि को केन्द्र में रखकर रचे जाते थे।

 

  • मुगलकाल में चित्रकला के विकास में मालवा का बड़ा योगदान रहा है। 15वीं सदी के प्रारम्भ में मालवा की चित्रकला के विषय धार्मिक थेमुगलकाल में बदल गये। मालवा में चित्रकला के दो केन्द्र रहे माण्डू और नरसिंहगढ़। माण्डू में लौरिक चन्दाचौर पंचशिका तथा नरसिंहगढ़ में अमरुशतक तथा रागमाला। इसके अतिरिक्त भी यहाँ कई एक ग्रंथ चित्रित हुए। कई चित्रों को भवनों की दीवारों पर उकेरा गया। माण्डू में गदाशाह के महल की ऊपरी मंजिल में अभी भी 3 महिलाओं के चित्र हैजो तत्कालीन समय के है। मुगलकाल में प्रेम प्रणय और रोमांस के विषय चित्रित किये जाते थे। इनमें स्त्रियों के मुख मंडलउनकी मदमाती आँखें और नाक को कामोत्तेजक घूंघट मेंउनके शरीर सौष्ठव और लावण्य की घटा के साथ चित्रित किया जाने लगा था। नारी चित्रों की लाल पृष्ठभूमि उनकी तीव्र लालसाओं और भावनाओं की प्रतीक सी हैं। इन चित्रों में मालवा के जीवन की नवीनता प्रदर्शित की गई है।

 

  • मुगलकालीन शासकों में बाबर व हुमायूँ दोनों को ही चित्रकला बहुत पसन्द थीपरन्तु उन दोनों का अधिकतर समय युद्धों में व्यतीत हो जाने से मालवा में इस कला के विकास में उनका प्रभावी योगदान नहीं रहा किन्तु अकबर के काल में मालवा पर बाज बहादुर का स्वतंत्र शासन थाउसने तथा उसकी रानी रूपमती ने जो स्वयं रोमांटिक प्रेम के प्रतीक थे ऐसी चित्रकला शैली को प्रेरणा दी जो प्रेमरोमांसरूपलावण्य पर आधारित थी। यह शैली मालवा चित्रकला शैली कहलायी और कला प्रेमी व संगीतज्ञ बाज बहादुर ने इस शैली को राज्याश्रय देकर प्रोत्साहन दिया ।

 

  • मुगलों से बाजबहादुर की पराजय और मालवा से पलायन के बाद मालवा का स्वतंत्र राज्य नष्ट हो गयापरन्तु मालवा चित्रकला शैली मुगल शैली से पृथक रहकर फलती फूलती रही। बाजबहादुर तथा रूपमती के इस शैली के चित्र वर्तमान में बड़ौदा म्यूजियम में संगृहीत हैं। 16वीं सदी में मालवा शैली विंध्य के पार महाराष्ट्र में पहुँचीवहाँ मालवा के कई चित्रों का चित्रण मिलता है। उत्तरप्रदेश के जौनपुर में भी 1580 ई. में इस शैली के कई चित्र मिलते हैं। यही शैली राजस्थान में भी देखने को मिलती है। सन् 1605 ई. में उदयपुर के समीप चावड़ में क्रमानुसार राग रागनियों को चित्रण मालवा शैली का उदाहरण है। सन् 1670 ई. में यह शैली मेवाड़ से बूंदी पहुँची और रोमांस के चित्रण में अत्यधिक सफल हुई।

 

  • मालवा के चित्रकारों द्वारा यदि अपने चित्रों में तिथि अंकन किया जाता तो यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता। परन्तु अब इनके चित्रणचित्रों के स्थानक्षेत्रवनस्पतियाँ आदि चित्रों के आधार पर ही यह अनुमान लगाना पड़ता है। जैसे अन्य तत्कालीन शैलियों में राजाराजदरबार आदि के चित्र प्राप्त होते हैंपरन्तु मालवा शैली में ऐसे चित्रों का पूर्णतः अभाव है। दूसरा मालवा शैली में प्रमुखता से ऐसे चित्रों का पूर्णतः अभाव है। दूसरा मालवा शैली में प्रमुखता से परम्परागत भारतीय विषयों के चित्रण प्राप्त होते हैं यथा रागमालागीतगोविन्दरसिकप्रियाअमरुशतकदेवी महात्मयकृष्णलीलारामायणबारहमासा आदि ये चित्र बड़ी संख्या में बने और बार-बार चित्रित हुएअतः निश्चित रूप से इस शैली की एक सुदीर्घ परम्परा रही होगी। सन् 1634 ई. में रसिक प्रिया की चित्रित प्रति जिसका अधिकांश भाग छिन्न-भिन्न हो गया है। इसमें मालवा शैली का पुराण हैइसमें सादगी है। इसी से मिलती जुलती - परन्तु अधिक विकसित चित्रशैली रामायण के पत्रों में हैजो कलाभवनदिल्ली में संग्रहीत हैं। इन चित्रों में नदी भूमिवृक्षपशु-पक्षी सर्वोपरि मानवरूपी देवों तथा दानवों का आकर्षक रूप प्रकट किया गया है। इस शाखा का विस्तार रसिकप्रियाकविप्रिया आदि के चित्रों में प्रकट होता है। सन् 1670 से 1680 तक आते-आते यह परम्परा शुष्क सी प्रतीत होने लगती है। सम्भवतया यह काल औरंगजेब का होने से राजनीतिक उथल-पुथल इसका कारण रहा होगा। 

 

  • सन् 1670 ई. तक आते-आते जो शैली जर्जरावस्था में थी वह सन् 1680 ई. तक पुनः जीवित हो चली। 1680 ई. में माधवदास नामक चित्रकार ने एक रागमाला चित्रावली नरसिंहगढ़ में तैयार की। इस चित्रमाला के अनेक चित्रित पत्र राष्ट्रीय संग्रहालयनई दिल्ली में है। नरसिंहगढ़ में ही 1652 ई. में अमरुशतक व 1680 ई. में रागमाला की चित्रावली बनी है। माण्डू में बाजबाहदुर के समय मुल्ला में दाउद की लौरिक चन्दा और संस्कृत कवि विल्हण की चौर पंचशिका काव्यों का चित्रण हुआ था । माधवदास और उनकी शिष्य परम्परा ने इस चित्र शैली को नये सांचे में ढाला। इस शैली में 1652 ई. में अथवा उसके समकक्ष अमरुशतक के चित्रों की दृश्यवलियाँ सीमित हैं। नायक-नायिका और उसकी सखी तक ही चित्रित हैं। ये सभी दृश्य कक्षों के अन्दर तक हैं। इसके विपरीत 1680 ई. की रागमाला का क्षेत्र व्यापक था तथा इसके चित्रों में वनउपवनप्रसादकक्षपर्वतमेघकमल आदि चित्र होते थेजो व्यापक स्वरूप में थे। माधवदास की इस शैली का अन्तिम उत्थान 1700-1710 ई. के चित्रों में प्राप्त होता हैये भी मुख्यतः राग माला के ही चित्र हैं जिनका आकार काफी बड़ा हो गया है ।

 

मुगलकाल में स्थापत्य कला : 

  • मुगल शासन की स्थापना के साथ ही मध्यप्रदेश में स्थापत्यकला के इतिहास में एक नवीन युग का प्रारम्भ होता है। इस युग में स्थापत्य कला के सर्वांगीण विकास का प्रमुख कारण मुगल बादशाहों की व्यक्तिगत अभिरूचि साम्राज्य का वैभव और धन धान्य की प्रचुरता थी। प्रत्येक मुगल बादशाह की बौद्धिक प्रखरता उन लोगों से बहुत आगे थीजो उनके आस-पास थे। शासकों और कलाकारों के बीच सहयोग के कारण ही कला की रानी को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ था।

 

  • मालवा में मुगलकाल में नई इमारतों का नवनिर्माण कम ही हुआ हैयद्यपि उनका जीर्णोद्धारपुनःनिर्माण आदि कार्य लगातार होते रहे थेइसका उल्लेख हमें मुगलकालीन स्रोतों से प्राप्त होता है। जहाँगीरनामा में लिखा है कि कालियादेह एकसुन्दर और आनन्दप्रद विलास स्थान हैयहाँ रुकने का निश्चय होने पर मैंने सिलावटों राजगीरों को भेजकर इस स्थान को सुधरवा लिया गया। जहाँगीर ने अब्दुलकरीम मामूरी को माण्डू की इमारतों के जीर्णोद्धार तथा निर्माण एवं सुधार हेतु नियुक्त किया थातथा जहाँगीर जब तक अजमेर में रुका थामामूरी ने कई पुराने हाकिमों की इमारतों की मरम्मत तथा कई नये स्थान बनवाये थेइस कार्य में तत्कालीन समय में तीन लाख रुपये खर्च हो गये थे ।

 

  • कुछ एक निर्माणों में बाबर के काल का चंदेरी विजय स्तम्भऔरंगजेब के उत्तराधिकार संबंधी धरमाट युद्ध के पश्चात् निर्मित रतनसिंह की छतरीशाहजहाँ कालीन शाजापुर की गढ़ीबाजबहादुर द्वारा माण्डू के महलों में रानी रूपमती महल में करवाये गये परिवर्तनरानी रूपमती व बाजबहादुर सारंगपुर में मकबरेरानी दुर्गावती की समाधि आदि प्रमुख हैं। मालवा के हिन्दू मन्दिरों और महलों पर भी मुगलकाल में इस्लामी कला का प्रभाव पड़ा। मालवा इस सम्मिलित श्रेणी के स्थापत्य गुणों से भरा पड़ा है तथा माण्डू जो कि मुगलकाल में मालवा की राजधानी थावहाँ इस कला के दर्शन होते हैं। माण्डू की इमारतों का निर्माण सल्तनतकालीन एवं मुगलकालीन हैं। परन्तु प्रत्येक काल में इनमें कुछ ना कुछ संशोधननिर्माण व जीर्णोद्धार हुआ है। अतः इनका वर्तमान स्वरूप स्वयं में कई शासकों एवं युगों के सुधारों का परिणाम है।

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