मुगल उत्तराधिकार युद्ध | धरमाट का युद्ध | Mugal Utradhikar Yudh
मुगल उत्तराधिकार युद्ध , धरमाट का युद्ध
मुगल उत्तराधिकार युद्ध
इस समय शाहजहाँ 67 वर्ष का हो चुका था और इसी दौरान 6 सितम्बर, 1657 ई. को एकाएक दिल्ली में शाहजहाँ बीमार पड़ गया। इस बीमारी के दौरान दारा ने उसकी बड़ी लगन व श्रद्धा पूर्वक सेवा की। 46 शाहजहाँ जीवन से निराश हो चुका था, अतः उसने विश्वस्त दरबारियों व मंत्रियों को बुलाकर दारा को बादशाह बनाने की अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त कर दी, परन्तु दारा ने इसमें कोई उत्सुकता नहीं दिखाई और वह शाहजहाँ के नाम से ही शासन संचालित करता रहा। शाहजहाँ की बीमारी की खबर से एक अफवाह फैल गई कि शाहजहाँ की मृत्यु हो गई। यह खबर पाते ही औरंगजेब, शुजा और मुराद में तेजी से पत्र व्यवहार होने लगता है। 17 शुजा के अत्यधिक दूर होने के कारण उसके साथ का पत्र व्यवहार अधिक निश्चित या व्यवहारिक नहीं रहा पाया, परन्तु औरंगजेब व मुराद ने पूरे षडयंत्र की रूपरेखा तय कर ली। उन दोनों के मध्य कुरान को साक्षी मानकर एक सन्धि भी हुई जिसकी शर्तें इस प्रकार थी -
1. पंजाब, अफगानिस्तान, कश्मीर और सिंध मुराद के अधिकार में रहेंगे और इन पर वह एक स्वतंत्र बादशाह के रूप में शासन करेगा व मुगल साम्राज्य का शेष भाग औरंगजेब के अधिकार में रहेगा।
2. युद्ध में प्राप्त सामग्री का एक तिहाई हिस्सा मुराद को मिलेगा और दो तिहाई भाग औरंगजेब को दिया जावेगा ।
इधर दारा शिकोह शाहजहाँ की बीमारी के कारण विश्वासपात्रों के अतिरिक्त अन्य किसी को उससे मिलने नहीं देता था, उसने पत्र वाहको पर भी कड़ी नजर रखना प्रारम्भ कर दिया और बंगाल, गुजरात व दक्षिण की डाक को उसने रोक दिया। परन्तु राजधानी का समाचार प्राप्त नहीं हो पाने का उल्टा परिणाम निकला और दूरस्थ प्रजा शाहजादों ने शाहजहाँ की मृत्यु की अफवाह सत्य मान ली एवं दिल्ली की ओर प्रस्थान की तैयारिया प्रारम्भ की। 5 फरवरी, 1658 ई. को औरंगजेब औरंगाबाद से कूच कर 18 फरवरी को वह बुरहानपुर पहुँचा लगभग एक माह के पड़ाव के बाद 20 मार्च को अपने श्वसुर शाहनवाज खाँ को कैद कर लिया क्योंकि वह शाहजहाँ के प्रति वफादार था। औरंगजेब ने 3 अप्रैल को बिना किसी अवरोध के अकबरपुर के घाट पर नर्मदा पार की, और उत्तर में उज्जैन की ओर बढ़ा। 14 अप्रैल को उज्जैन से 58 कि.मी. दक्षिण में देपालपुर के समीप औरंगजेब को ज्ञात हुआ कि मुराद बख्श भी उससे पश्चिम में कुछ ही दूरी पर आ पहुँचा है। अगले दिन दोनों की सेनाएँ देपालपुर के तालाब के पास मिल गई एवं शाम के समय उज्जैन से 23 कि.मी. दूर धरमाट नामक स्थान पर डेरा डाला
इस प्रकार यह आपसी मनमुटाव व गृहयुद्ध एक भयंकर युद्ध में परिणित हो गया, जिसे टाल पाना अब किसी के वश में न था। शाही दरबार में जब यह समाचार पहुँचे तो इस युद्ध को टालने व शाहजादों को रास्ते से ही पुनः उनके प्रान्तों में चले जाने का आदेश देकर शाहजहाँ ने जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह के नेतृत्व में शाही सेना भेजी.
17 दिसम्बर 1657 ई. को आगरा से शाही सेना ने जोधपुर महाराजा जसवन्तसिंह के नेतृत्व में धरमा युद्ध के लिए प्रस्थान किया । 23 जनवरी, 1658 ई. को जसवन्तसिंह शाही सेना के साथ उज्जैन से 3 कोस पर कालियादेह गये। 11 दिन पड़ाव करके 6 फरवरी को उज्जैन शहर के बाहर पड़ाव किया।
2 अप्रैल, 1658 ई. को शाही सेना खाचरोद पहुँची जो कि उज्जैन से 10 कोस की दूरी पर स्थित है। यहीं पड़ाव किया व दशहरा का उत्सव मनाया। यहीं मांडव से राजा शिवराम गोड़ की खबर प्राप्त हुई कि मुरादबख्श दूसरे रास्ते से होकर के औरंगजेब की सेना से जा मिला है, और औरंगजेब नर्मदा नदी के पास आ पहुँचा है। तब महाराजा जसवन्तसिंह ने खाचरोद से पीछे पलटकर 10 अप्रैल, 1658 ई. को उज्जैन से 5 कोस दूर गंभीर नदी के किनारे चोरनारायण नामक स्थान पर पड़ाव डाला .
धरमाट का युद्ध
16 अप्रैल, 165850 को दोनों पक्षों की सेनाएँ आमने-सामने हो, युद्ध के लिये सज्जित होने लगी। सेनापतियों ने एक बार पुनः समझौते का प्रयास किया, एवं इस हेतु दूतों का आदान- प्रदान भी हुआ राजा जसवन्तसिंह ने अपने वकील को एवं औरंगजेब ने आजमुशिकोह को भेजा परन्तु कोई भी नतीजा नहीं निकल आया. परिणामतः एक पहर दिन चढ़े भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया जो ढाई-तीन पहर दिन चढ़े तक चलता रहा ।
बिन्हैरासो के अनुसार भी एक पहर दिन चढ़े हुआ दिन चढ़े युद्धारंभ हुआ - "कनवज्जनाथं चढ़ियो कहर, पहर दीत वढ़ियों परे।" इसी प्रकार मारवाड़ रा परगना री विगत के अनुसार एक पहर चढ़ते, डेढ़ पहर दिन चढ़ गया तब लड़ाई शुरू हुई । - "बैसाख बद 9 दिन पोहरु चढ़ा पोहर डेढ़ चढ़ा श्री महाराजा जी लड़ाई कीवी ।
औरंगजेब की सेना, शाही सेना की ओर बढ़ी, विपक्षी सेना ने उन परजोलियाँ बरसाना प्रारंभ कर दिया, युद्ध स्थल के चयन में हुई राजा जसवंतसिंह की भूल का खामिषाजा भुगतते हुए, वे उस स्थान से हिल-डुल कर स्थान परिवर्तन भी नहीं कर पाये और गोलियों शिकार होने लगे। इसी समय उनकी सेना का अग्रभाग युद्ध हेतु आगे बढ़ा जिसका संचालन मुकुंदसिंह हाड़ा, दयालदास झाला, अर्जुनसिंह गोंड़, सुजानसिंह सिसौदिया आदि कर रहे थे, एवं इस भाग में उन्हीं की जातियों के चुने हुए वीर सवार थे। वे अपनी सभी सैन्य योजनाओं को भूलकर राम-राम का जयनाद करते हुए, शत्रुओं पर शेरों की तरह टूट पड़े ।
राजपूतों के इस आक्रमण का पूरा आवेग औरंगजेब की सेना के तोपखाने को ही झेलना पेड़ा, तोपखाने का प्रधान सरदार मुर्शिदकुली खाँ वीरतापूर्वक लड़ता हुआ मारा गया, तथा उसके साथी सैनिक घबरा उठे परन्तु तोपखाने को कोई हानि नहीं हुई। तोपखाने से होते ये राजपूत बीर औरंगजेब की सेना के अगले भाग पर झपटे। इस भाग में घमासान युद्ध हाथों से ही लड़ा गया। यह राजपूती दल इस प्रारंभिक सफलता से उन्मत्त होकर औरंगजेब की सेना के मध्य तक घुस गया। उस सारे दिन के युद्ध में यह समय ही सबसे अधिक संकटपूर्ण था, अगर राजपूतों के इस आक्रमण को तब न रोका जाता तो औरंगजेब को सफलता प्राप्त नहीं होती ।
परन्तु शाहजादे की सेना के इस भाग में बहुत ही चुने हुए वीर अनुभवी सैनिक थे। इस भयंकर आक्रमण से भी उनके पैर नहीं राजपूतों का यह तीव्र आवेगपूर्ण आक्रमण उनके चारों ओर मंडराता ही रह गया, उस दिन का सबसे भयंकर निर्णयात्मक युद्ध यहीं हुआ, अतः राजपूतों की सारी शक्ति विपक्षी सेना के इस सुसंगठित एवं मजबूत भाग से युद्ध करने में ही समाप्त हो गई .
"गुजरात के नवनियुक्त सूबेदार कासिम खान ने युद्ध में हाथ नहीं बंटाया। युद्ध प्रारंभ होने पर कासिम खाँ ने कुछ गोलियाँ हवा में चलाई और गोला-बारूद को रेत में छिपाकर वह, रणक्षेत्र से भाग गया। उसकी इच्छा औरंगजेब के विरुद्ध होने की नहीं थी मगर शाहजहाँ को प्रसन्न करने हेतु उसे युद्ध में आना पड़ा। एवं राजपूतों के इस आक्रमण से औरंगजेब की जो सेना अस्त-व्यस्त हो गई थी वह राजपूती दल के पीछे पुनः एकत्रित होने लगी। इस दल को उन्होंने सब ओर से घेरकर उनके सामने दायें बायें से भयंकर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया धीरे-धीरे राजपूती दल की संख्या कम होने लगी और वीरता से लड़ते हुए वे सभी योद्धा रणभूमि में काम आए.
अब तक सारे युद्ध क्षेत्र में सर्वत्र लड़ाई छिड़ चुकी थी, मुकुन्दसिंह के राजपूत साथी जब दूसरी ओर बढ़े थे, तब उनके इस हमले के प्रभाव से संभलकर के औरंगजेब के तोपचियों ने अपनी तोपों को पुनः संभाला और उन्हें ऊँची पहाड़ी पर जमाकर गोले बरसाना प्रारंभ कर दिया, वे जसवंतसिंह की सेना के मध्य भाग पर जोर-शोर से गोलाबारी कर रहे थे। इससे शाही फौज में भगदड़ मच गई, शाही सेना एक बड़े संकरे मैदान में सिमट गई, जिसके दोनों ओर गहरी खाइयाँ तथा दलदल थी। अपने विजयी हरावल को इस प्रकार नष्ट होते देख एवं औरंगजेब की सेना को तीव्र वेग से आगे बढ़ता हुआ देखकर शाही सेना की प्रधान सेना के दायें बाजू से रायसिंह सिसौदिया, सुजानसिंह बुन्देला और अमरसिंह चन्द्रावत अपने-अपने सैनिकों सहित युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए। अतः शाही सेना की दाहिनी पंक्ति अरक्षित हो गई।
दूसरी ओर मुराद ने शाही सेना के पड़ाव पर हमला किया, जिससे देवीसिंह बुन्देला तो मुराद के साथ शामिल हो गया, कई रक्षकों को मुराद की सेना ने मार भगाया, तथा दोनों ही मराठा सेनानायक भाग खड़े हुए। मुराद अपनी सेना सहित अब इस पड़ाव को अधिकृत कर युद्ध क्षेत्र में आ गया एवं शाही सेना के बाएँ भाग पर हमला किया, इस भाग का सेनानायक इफ्तिखार खान लड़ता हुआ मारा गया और यह भाग भी अब सुरक्षित नहीं बचा।
अब शाही सेना की पराजय का लगभग निर्णय हो चुका था, जसवन्तसिंह और उसके वीर साहसी सेनानायकों एवं सैनिकों पर आक्रमण हेतु सामने से औरंगजेब, बायीं ओर से मुराद एवं दाहिनी ओर से सफशिकन ससैन्य बढ़ रहे थे। स्वयं महाराजा जसवन्तसिंह को दो घाव लग चुके थे, वह वीरोचित प्राणोत्सर्ग हेतु उद्धृत था, परन्तु उसके मंत्रियों, राठौड़ वीरों एवं सेनानायकों ने उसे युद्ध भूमि छोड़कर जोधपुर जाने को बाध्य किया ।
रतनसिंह ने भी जसवन्तसिंह को कुछ समझाया बुझाया, तदुपरान्त राठौड़ वीर आसकरण तथा महेशदास सूरजमलोत ने जसवन्तसिंह के घोड़े की लगाम पकड़ ली, एवं उसे युद्ध क्षेत्र बाहर खींच लाये और जोधपुर की ओर ले चले। कुछ साथियों ओर सैनिकों ने कहा कि आप जीवित हैं, तो अच्छा ही होगा।
जसवन्तसिंह ने युद्ध क्षेत्र को छोड़ते समय युद्धरत शाही सेना वः वीर राठौड़ों का सेनापतित्व रतनसिंह को सौंपा था। रतनसिंह अब बाकी बची सेना के साथ अपने जीवन का अन्तिम युद्ध लड़ने को सिंहों सी वीरता से शत्रु सेना पर काल बनकर टूट पड़ा। परन्तु युद्ध तो शत्रुसेना को उलझाए रख कर उन्हें रणक्षेत्र छोड़कर जाने वालों का पीछा नहीं करने देने का प्रयास मात्र ही रह गया था।
रतनसिंह अपने निजी सेनानायकों और सैनिकों के अतिरिक्त जोधपुर की सेना के भी कई वीर सेनानियों के साथ युद्ध में रत था, परन्तु शाही सेना में अब भगदड़ मच गई थी एवं इस हारी हुई बाज़ी को पलट देना रतनसिंह और उसके मुट्ठी भर वीरों के लिये कदापि संभव नहीं था । वीरतापूर्वक लड़ते हुए अंततः रतनसिंह व उसके साथी भी वीरगति को प्राप्त हुए, भागती हुई बची-खुची सेना का किसी ने पीछा न किया क्योंकि विजेताओं के सम्मुख विजय में प्राप्त सारा लूट का माल धन आदि प्रस्तुत थे। शाहजादों ने शाही सेना के पड़ाव को अधिकृत कर शाही तोपें, तम्बू, हाथी, घोड़े, खजाना सब कुछ लूट लिया ।
औरंगजेब के लिए इस धन-संपत्ति से भी अधिक महत्त्वपूर्ण इस युद्ध में प्राप्त यश था, जिससे वह दाराशिकोह के समकक्ष आ चुका था । भाग्य की कृपा उसी पर है, यह स्पष्ट हो चुका था। औरंगजेब युद्ध विजित कर धरती पर उतरा और वहीं रणभूमि में घुटने टेक कर बैठ गया। अपने दोनों हाथों को जोड़कर विजय प्रदान करने वाले परमपिता को धन्यवाद दिया ।
इस युद्ध में जितने सैनिक काम आये उनमें अधिकांश संख्या राजपूत सैनिकों की ही है । राजपूतों के हर वंश जाति के वीरों ने इस युद्ध में स्वामीभक्ति व वीरोचित कर्त्तव्य निभाया । विशेषतः रतलाम, सीतामऊ और सैलाना के राजघरानों के आदि पुरुष रतनसिंह राठौड़ की स्मृति में उसके वंशजों ने युद्ध भूमि में जहाँ उस शव की दाह क्रिया की गई थी वहीं संगमरमर का एक सुन्दर स्मारक बनवाया है।
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