मुगलकाल में समाज का स्वरूप| Nature of society in Mughal period
मुगलकाल में समाज का स्वरूप
मुगलकाल में समाज का स्वरूप
- मुस्लिम शासन की स्थापना तथा मुस्लिम साम्राज्य के विस्तार के साथ ही मुसलमानों की बस्तियों का भी विस्तार प्रारम्भ हुआ। हिन्दू-मुस्लिम सहयोग के बावजूद समाज दो स्पष्ट भागों में विभक्त हो गया- हिन्दू और मुस्लिम । पारस्परिक संबंधों के रहते हुए भी इन दोनों के सामाजिक स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता है। 16वीं सदी तो उदारवादी युग माना जाता है। मुगलकाल में हिन्दू मुसलमानों का संबंध किसी आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं अपितु अनेक उदारवादी व्यक्तियों कबीर, नानक जैसे समाज सुधारकों, कलाकारों तथा अमीर खुसरो जैसे साहित्यकारों के निरन्तर प्रयास का परिणाम था। मुगल साम्राज्य की स्थापना के पहले ही हिन्दू-मुसलमानों ने सहयोग की आवश्यकता को समझा था ।
- बाबर ने अपनी आत्मकथा में हिन्दू-मुसलमानों को हिन्दुस्तानी कहकर सम्बोधित किया है। चंदेरी विजय के बाद मेदिनीराय की दो राजकुमारियों का विवाह मिर्जा कामरान तथा हुमायूँ से करके उसने अपनी उदारता का परिचय दिया, और अकबर की राजपूत नीति की पृष्ठभूमि तैयार की। हुमायूँ के मालवा अभियान के समय मंझू के सुझाव पर माण्डू में हिन्दुओं की हत्या बन्द कर दी थी ।
- अकबर के समय एक नई नीति का शुभारम्भ हुआ जो लगभग 1563 से 1679 ई. तक लागू रही । 1563 ई. में हिन्दुओं पर लगाये गये घृणित तीर्थ यात्रा कर को समाप्त कर दिया। फिर जजिया कर को समाप्त किया और हिन्दुओं को अपने नये मन्दिरों को बनवाने की आज्ञा प्रदान की। हिन्दू और मुसलमानों को केवल योग्यता के आधार पर राजकीय सेवाओं में स्थान दिया गया। हिन्दुओं में प्रचलित अनेक कुरुतियों को समाप्त करने का प्रयास किया गया। अकबर को इस बात का श्रेय है कि उसने एक ऐसी नीति को जन्म दिया जिसके आधार पर बहुसंख्यक हिन्दू देश में सफलता के साथ रह सकें।
- जहाँगीर के समय में मोटे रूप से अकबर की नीति का ही पालन किया गया, परन्तु फिर भी कुछ विरोधाभास उभर आया। उसने केवल उन लोगों को वृत्तियाँ देनी आरम्भ की जिन्होंने उसमें इस्लाम को स्वीकार किया। पुष्कर स्थित हिन्दुओं के मन्दिरों को गिराया और अप्रसन्न हो जैन धर्म वालों को 1617 ई. में राज्य से निष्कासित कर दिया। परन्तु इसके बाद भी उसके राज्यकाल में हिन्दुओं- के प्रति असहिष्णुता की नीति राज्य नीति का अंग नहीं बनी। शाहजहाँ के समय में इस नीति में परिवर्तन आया जो कि औरंगजेब द्वारा अपनाई नीति की प्रस्तावना थी। औरंगजेब की हिन्दू नीति का समुचित अध्ययन करने लिए कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियों तथा कुछ सम्मानित राज्याधिकारियों की जानकारी आवश्यक अनुभव होती है। जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह, जयपुर महाराजा जयसिंह तथा रघुनाथसिंह उसके राज्यारोहण के समय के प्रमुख व प्रभावशाली अधिकारी थे। राजा रघुनाथसिंह की 1663 ई. में, जयसिंह की 1667 ई. में और जसवंतसिंह की 1678 ई. में मृत्यु हो गई। जब तक ये जीवित थे, औरंगजेब ने अकबर कालीन दृष्टिकोण को ही अपनाया। इस काल में (1657-1678 ई.) उसने केवल दरबार संबंधी इस्लाम विरोधी रिवाजों को बन्द किया। जैसे तुलादान, झरोखा दर्शन, संगीत आदि । परन्तु 1679 ई. में उसने हिन्दू विरोधी नीति आरम्भ की। इसी वर्ष उसने पुनः हिन्दुओं पर जजिया लगाया, जोधपुर, उदयपुर, मथुरा तथा अन्य मन्दिरों को गिराने की आज्ञा दी। होली तथा दीपावली के त्यौहारों को मनाने पर प्रतिबंध लगाया और ये आदेश दिये कि भविष्य में हिन्दुओं को राजस्व अथवा सार्वजनिक विभागों के सम्भावित पदों पर नियुक्त न किया जावे। औरंगजेब ने व्यवस्थित रूप में हिन्दुओं को इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया।
मुगलकाल में अभिजात वर्ग का स्वरूप :
- सल्तनतकालीन शासकों की अपेक्षा मुगल अधिक सभ्य तथा संस्कृति के प्रेमी थे। उनका जीवन अधिक विलासप्रिय था। शासक को संगठित करने में मुगलों ने अमीर वर्ग को संगठित किया, उन्हें बड़ी-बड़ी जागीरें दीं। बाबर ने तातारखाँ को ग्वालियर जागीर के रूप में दिया था। सामाजिक जीवन में ये अमीर लोग शासक का ही अनुसरण करते थे। अमीर वर्ग में ईरानी, तुरानी, अफगान, अजबेग, भारतीय धर्म परिवर्तित मुसलमान तथा राजपूत राजा और राजकुमार थे। राजपूत अमीरों में रतलाम, झाबुआ, अमझेरा, सीतामऊ, अलीराजपुर, राघोगढ़, नरसिंहगढ़ आदि राजपूत राज्य थे। जो बादशाही शान-शौकत से जीवन व्यतीत करते थे ।
- मुगल शासनकाल में मुस्लिम समाज का साधारण वर्ग धर्म परिवर्तित हिन्दू थे। इनका समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं था। उसमें व्यापारी वर्ग, जुलाहे, पोची तथा कारीगर थे। साधारण वर्ग के नवमुसलमानों के दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं हुआ था। बहुत से मुसलमान अपने वंश के नाम को रखे हुए थे जैसे - शेरखाँ तंवर, सुलेमान पंवर तथा हसनखाँ बाचगाती । अधिकांशतः कारीगर वर्ग को ही मुसलमान बनाया गया था। इनकी नियुक्तियाँ शाही कारखाने में होती थी ।
- भारतीय सामाजिक परिवेश में इस्लामी समाज की समानता का सिद्धांत समाप्त हो गया। मुस्लिम समाज कई छोटे-छोटे वर्गों में विभक्त हो गया था। साधारण वर्ग की सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक दशा दयनीय रही है।
मुगलकाल में वेषभूषा :
- वस्त्र एवं पोशाक किसी भी सम्यता का दर्पण होती है। समाज के स्तर उन्नति एवं प्रचलित वस्तुओं की जानकारी बहुत सीमा तक वेशभूषा वस्त्रों, खान-पान के ढंग व रहन-सहन से ज्ञात हो जाती है। अतः यहाँ पर हम वस्त्रों की खोज-बीन व तत्कालीन प्रवृत्तियों एवं प्रचलनों की ही व्याख्या की जावेगी।
- मालवा में हिन्दू तथा मुस्लिम कुलीन वर्ग प्रायः शासक वर्ग के ही वस्त्रों को धारण करते थे, विशेष अवसरों पर बादशाहों द्वारा प्रदान की गई खिलअत भी पहनते थे। मालवा में उच्च वर्ग के लोग रेशमी मसलीन, छीट आदि वस्त्रों का उपयोग करते थे, उच्च वर्ग के लिए ये वस्त्र यहीं मालवा में तैयार किये जाते थे। मालवा में ही जरी रेशम व मसलीन तैयार की जाती थी, कसीदा और किमखाब का काम भी खूब होता था । हासिलपुर, धार, महेश्वर, सिरोंज व चंदेरी में उत्तम कोटि के वस्त्र निर्माण होते थे।
- पुरुषों के वस्त्रों में सिर पर पहना जाने वाला कुलाहा था, जिसे सुल्तान अमीर आदि पहनते थे, हिन्दू अमीर व सरदार भी सिर पर कुलाहा के स्थान पर पगड़ी पहनते थे या साफा बांधते थे, जो सफेद, लाल, पीले रंग का अधिक प्रचलन था। मुगलों के निरन्तर सम्पर्क एवं प्रभाव के कारण हिन्दुओं में 'साफा' का प्रचलन बढ़ा विशेष अवसरों पर चौकोर कुलाहा पहना जाता था जिस पर स्वर्ण एवं चाँदी के तारों की कढ़ाई होती थी। शरीर पर पहना जाने वाला काबा एक विशेष प्रकार का कुर्ता था जिस पर कसीदाकारी होती थी। यह प्रायः सफेद कलर का होता था और यह कुलीनों का वस्त्र था। कभी-कभी इन पर छपाई भी की जाती थी । अमीरों द्वारा इन्हें सोने के तारों तथा अन्य मंहगी सामग्रियों से बनवाया जाता था, और इस पर काली लाइनें भी डलवायी जाती थी। यह काबा कई प्रकारों का होता था, यह लम्बा भी होता था और प्रायः घुटनों तक आता था। इसे डोरियों द्वारा भी दायें और बायीं ओर बांधा जाता था। मध्य वस्त्र के रूप में कमर पर बांधा जाने वाला एक पट्टा भी होता था, इस पर प्रायः जरी का काम होता था। एक प्रकार का यह चौड़ा स्कार्फ के समान होता था, जिसे कमर के चारों ओर लपेटा जाता था। कभी-कभी कमरबंद में मंहगी सजावटी सामग्रियों, सोने-चाँदी एवं रत्नों का भी काम होता था, जो उपयुक्त अवसरों पर पहने जाते थे। यह कमरबंद तत्कालीन समय का अत्यन्त लोकप्रिय प्रचलन था जिसे कई रंगों में बनाया जाता था।
- नीचे के वस्त्रों में इजार हिन्दू और अमीर वर्ग द्वारा उपयोग में लाया जाता था, उसे विशेष मौकों पर पहना जाता था, यह अत्यन्त चुस्त चूड़ीदार पाजामा होता था जो लम्बाई लिए हुए रहता था। इसमें गोल सलों (सलवटें) की कई एक लाइनें रहती थीं। मुस्लिम अमीर वर्ग सलवार का भी उपयोग करते थे। ये भी चुस्त एवं कसी हुई रहती थी। अबुल फजल के अनुसार सलवारें तीन प्रकार की होती थीं - परत वाली, दो परतों वाली और भरी हुई ( इसमें रुई आदि भरी जाती थी) 20 इसके अलावा चौसर भी मालवा में पहने जाना पुरुष वस्त्र था। कोट, साफे, उत्तरी दुपट्टे आदि भी प्रचलन में थे। उच्च वर्ग एवं शासक वर्ग हीरे, जवाहारात सोने चाँदी से जड़ित वस्त्र धारण करते थे। इनमें जूतियाँ पहनने, तिलक लगाने, कुण्डल पहनने का भी प्रचलन था, मगर ये मात्र हिन्दू उच्च वर्ग में था बहुमूल्य रत्नों की मालाएँ, अगूठियाँ भी धारण की.
मुगलकाल में स्त्रियों की वेशभूषा :
- समकालीन वर्णनों से ज्ञात होता है कि स्त्रियों में भी अभिजात्य वर्ग की स्त्रियों के वस्त्र बहुत कीमती होते थे। उनमें जरी गोटे, मोती, सोना, चाँदी के सलमा-सितारे जड़े होते थे। स्त्रियों के वस्त्रों में मुख्य रूप से साड़ी 21 ही प्राचीनतम वस्त्र थी, जिसका प्रचलन तब से आज तक यथावत बना हुआ है। कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि मालवा में स्त्रियाँ 'धोती' पहनती थी । यह धोती शरीर को नीचे से ऊपर तक ढक लेती थी। इब्नबतूता ने भी धार व अमझेरा में स्त्रियों को सफेद धोतियाँ पहने देखा था। 22 बाबर ने भी धोती का वर्णन करते हुए लिखा है कि इसका एक सिरा कमर के चारों ओर लपेटा जाता था व दूसरा सिरा सिर के ऊपर ओढ़ा जाता था। धोती का प्रयोग प्रायः किसी अधोवस्त्र जैसे घाघरा, लहंगा आदि के साथ किया जाता था। मुगलकाल के सभी चित्रों में यह सामान्यरूप से घाघरे के ऊपर से पृष्ठ भाग को आवृत करती सिर पर जाती थी, इसका उपयोग ओढ़नी या दुपट्टे की तरह होता था। कभी-कभी इसे कंधे के ऊपर चुन्नटें बनाकर भी ओढ़ा जाता था। धोती में प्रायः महीन धागों का उपयोग होता था। मनुची के अनुसार हिन्दू स्त्रियों को लाल कलर अत्यन्त पसंद था .
- हिन्दू उच्च वर्ग की स्त्रियों की ही तरह उच्च मुस्लिम वर्ग की महिलाओं के वस्त्र भी कीमती एवं बहुमूल्य होते थे। मुस्लिम स्त्रियाँ ढीले पाजामें सलवार कुरता और सिर पर दुपट्टा तथा बुर्का पहनती थी। मुसलमानों के हरमों में हिन्दू स्त्रियों के प्रवेश करने के साथ ही वे प्रायः मुसलमान स्त्रियों के समान वस्त्र पहनने लगी। अमीरवर्ग की स्त्रियाँ साड़ी से एक विशेष प्रकार का घूंघट निकालती थीं, जबकि साधारण या निम्न वर्ग में ऐसा रिवाज नहीं था। सामान्यतः वे केवल अपने शरीर को ढंकने के लिए वस्त्र पहनती थी, जिनमें साड़ी, चोली व घाघरा होता था, जो कि प्रायः सूती ही होता था । इस प्रकार साड़ी तत्कालीन वेशभूषा में महत्त्वपूर्ण वस्त्र था। स्त्री वस्त्रों में ओढ़नी, दुपट्टा तथा महीन चादर का भी उल्लेख मिलता हैं। इस काल में हरी नीली, लाल और केसरिया आदि रंगों की ओढ़नी बाहर जाते समय ओढ़कर जाने का रिवाज था । हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों वर्गों की स्त्रियाँ इस उपयोग में लाती थी।
- मुगलकाल में लहंगा या घाघरा स्त्रियों का प्रमुख अधोवस्त्र था, जो कमर में पहना जाता था । आईन-ए-अकबरी के अनुसार लंहगा एक प्रकार की लुंगी थी, जिसके दोनों सिरे मिलाकर सिल दिये जाते थे, ऊपर की तरफ नेफा सिला जाता था तथा इसपर कई तरह की कशीदाकारी भी की जाती थी। लहंगा कमर में कसा रहता था और नीचे की ओर घेरदार और चुन्नट से युक्त होता था। बाबर एवं अबुल फजल के लेखों में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है। कल्पसूत्र में भी इसका चित्रण देखने को मिलता है। लहंगा या घाघरा उस काल में अत्यन्त प्रसिद्ध वस्त्र था, जो कमर से पैरों तक लम्बा एवं ढीला ढाला सा होता था। हिन्दू राजपूत महिलाएँ इसे बड़े शौक से पहनती थीं तथा कमर पर करधनी द्वारा कस लेती थीं। वर्तमान काल में भी इसका प्रचलन देखा जा सकता है। सर्वसाधारण वर्ग में भी लंहगे का प्रचलन था, इनके घाघरे प्रायः साधारण, सूती और कम घेर के होते थे।
स्त्री वस्त्रों में अंगिया भी एक महत्त्वपूर्ण वस्त्र था। इसे कंचुली भी कहा जाता था। प्राचीनकाल से ही अंगिया स्त्रियों के द्वारा पहनी जाती थी। जबकि अबुल फजल के अनुसार अंगिया को अमीर व गरीब दोनों वर्गों की स्त्रियाँ पसंद करती थीं। मुगलकालीन काव्य ग्रंथों में अंगिया का उल्लेख मिलता है। सामान्यतः अंगिया वक्षस्थल को आवृत्त करते हुए, कंधों पर फंसी रहती थी व पीठ की ओर डोरियों से बंधी रहती थी। लोक प्रचलित काव्यों में इसका वर्णन कुछ इस तरह देखने को मिलता है-
'जरदोसी की कंचुकी, लहंगा घूमरदार,
रमदारी साड़ी रुचे, सुन्दर निलमि हार ।'
कंचुकी बांहदार और बिना बांहों वाली दोनों ही प्रकार की होती थी। इसमें भी एक छोटी, जो केवल वक्षस्थल को ही ढकती थी, जिसे पीछे डोरियों में गाँठ लगाकर बांधा जाता था। दूसरी प्रकार की लम्बी जो शरीर के ऊपरी भाग को आवृत्त करती हुई कमर तक जाती थी। कंचुकी को सदैव लंहगा, घाघरा, या सूथन के साथ धारण किया जाता था। इसके अतिरिक्त शाल आदि वस्त्रों का भी प्रचलन था जो कि अन्य प्रदेशों की वेशभूषा से पृथक करता था।
मुगलकाल में स्त्री पुरुषों के आभूषण :
- मालवा में स्त्री और पुरुष दोनों में ही आभूषण अत्यन्त लोकप्रिय थे। स्त्रियों तथा पुरुषों के शरीर की सजावट के लिए अंलकार आवश्यक समझे जाते थे, स्त्रियाँ बाजुओं, नाव कानों, उंगलियाँ, गरदन, कमर तथा पांवों के लिए प्रयुक्त जेवरों संबंधी आइने अकबरी की अधिकारिक सूची को उद्धत करना यहाँ पर अनावश्यक होगा। सम्भवतया शरीर का कोई भी ऐसा भाग इससे वंचित नहीं था जहाँ पर इसे पहना अथवा लटकाया जा सकता था। मुस्लिम महिलाएँ नयनी तथा बालियाँ पहनती थी और कुलीन परिवारों की महिलाएँ अपने-अपने साधनों के अनुसार हीरे, मोतियों तथा अन्य कीमती पत्थरों से जड़े हार पहनती थी। कड़ा और पोंची महिलाएँ और पुरुष दोनों पहनते थे । पाजेब, झुमके, हार तथा अंगूठियाँ भी लोकप्रिय अंलकार थे।
- कल्पसूत्र और नियामतनामा के चित्रों में स्त्रियाँ कई प्रकार के आभूषण यथा झुमके, बिन्दी, हार, लोंग, नथनी, भुजबंध, कंगन, चूड़ियाँ आदि पहने हुए स्पष्ट चित्रित है। मालवा के वन प्रदेशों में रहने वाली जातियाँ सौंधिया, बनजारे, भील, भिलाला आदि एवं निम्न आर्थिक स्तर के लोंग चाँदी के अलावा लाख, हाथीदांत व अन्य सस्ती धातुओं के आभूषण पहनते थे । अतः यह कहा जा सकता है कि आभूषण सभी आयु एवं वर्ग के लोगों के द्वारा पहने जाते थे, पुरुष एवं स्त्री व बच्चे सभी के आभूषणों का उल्लेख प्राप्त होता है, गरीब वर्ग भी आभूषण धारण करता था, परन्तु वे बहुमूल्य नहीं होते थे।
मुगलकाल में खानपान :
- मुगलकालीन मध्यप्रदेश में शाकाहारी व मांसाहारी दोनों प्रकार का भोजन प्रचलित था। शीहाब हाकिम के अनुसार बहुसंख्यक हिन्दू शाकाहारी थे। टेरी ने भी जहाँगीर के समय बहुसंख्यक लोगों को शाकाहारी की पाया था। बंदायूंनी से ज्ञात होता है कि मालवा में ब्राह्मण जैन और वैश्य तो प्याज व लहसुन को सेवन तक नहीं करते थे। जीवन के प्रति इनका दृष्टिकोण जीने के लिए खाना था न कि खाने के लिए जीना था। मालवा में अमीर वर्ग सुस्वाद और विभिन्न प्रकार के मक्खनों से युक्त भोजन करते थे। मुसलमान अमीरवर्ग व राजपूत सामन्त मांसाहारी थे। दूध, दही, मक्खन और घी इनके भोजन के प्रमुख अंग थे। इब्नबतूता ने मालवा में कटहल, करेला, बैगन, प्याज, कद्दू आदि सब्जियों का उल्लेख किया है। पराठे, हलुआ, खीर, हरीला, खोये की मिठाइयाँ आदि पकवान अमीरों में बहुत लोकप्रिय थे। इब्नबतूता ने मालवा के आम, अदरक व मिर्ची के अचारों का उल्लेख किया है। इनके बिना खाने का मजा नहीं आता था.
- मालवा में आम, अंगूर और खरबूजे खूब पैदा होते थे। मालवा के आम और खरबूजे बहुत स्वादिष्ट होते थे, ये अमीरों के भोजन में परोसे जाते थे। मालवा के आमों के बारे में जहाँगीर ने लिखा था कि यद्यपि आम भारत के कई भागों में पाये जाते हैं पर कोई भी आम रंग स्वाद मीठेपन और आकार में मालवा के आमों की बराबरी नहीं कर सकते थे।
- मुगलकालीन मालवा में मध्यमवर्ग का भोजन वही था जो उत्तर भारत में था। गेंहू, चावल, दाल, दूध, दही खीर, गुड़ आदि मुख्य आहार था। इस वर्ग के लोग सात्विक भोजन करते थे। ये मिठाइयाँ भी थे। मध्यम वर्ग के लोग बहुधा पीतल व ताँबे के बर्तन काम मे लाते थे। भोज के अवसर पर सूखे पत्तों के पत्तल व मिट्टी के दोने काम में लाये जाते थे। मजदूर, कृषक लोग मोटा अनाज खाते थे। रोटी मुख्य रूप से ज्वार, मक्का या बाजरे की होती थी। टेरी जो शाही शिविर के साथ मालवा में आया था लिखता है कि निम्न वर्ग के लोग गेहूँ नहीं खाते थे वे एक तरह का मोटा अनाज काम में लेते थे। मोटी रोटी, दाल खिचड़ी आदि के भोजन में ही साधारण वर्ग संतुष्ट था।
- पान का प्रचलन भी अधिक था। पान का सामाजिक महत्त्व था । यहाँ पर बहुत ही अच्छी किस्म का पान पैदा होता था । इब्नबतूता और अबुलफजल से ज्ञात होता है कि मालवा के पानों की दिल्ली के अमीर वर्ग में बहुत मांग थी। विवाह व अन्य अवसरों पर पान अतिथियों को स्वागत व बिदाई में दिया जाता था । मनुची ने भी मालवा के सभी वर्ग के लोगों को पान का सेवन करते हुए देखा था ।
मुगलकाल में पेय पदार्थ :
- कई एक प्रकार के पेय पदार्थो का प्रचलन था । इनमें मदिरा, अफीम का पानी और मीठा शर्बत प्रमुख थे। मालवा में मदिरा अमीर वर्ग, राजपूत सामन्तों और निम्न वर्ग में सबसे अधिक प्रचलित थी । मालवा में मदिरा मुख्यतः महुए के फूलों से बनाई जाती थी। टेरी जब जहाँगीर के साथ शाही शिविर में था तो उसने महुए की शराब बनाते हुए लोगों को देखा था। वह यह भी लिखता है कि यहाँ के लोगों को शराब बनाने की विधि ठीक मालूम नहीं थी। बाबर ने चन्देरी विजय के समय एक देशी शराब को उल्लेख किया है। जिसे चम्बल नदी के आस-पास के लोग खजूर के पेड़ के रस से बनाते थे |
- मालवा में निवास करने वाले राजपूतों व अन्य वर्ग के लोगों में शराब से कहीं अधिक अफीम पीने का प्रचलन था । इसका सेवन, पेय व गोली के रूप में किया जाता था। यहाँ पर अफीम खाने व पीने की आदत केवल पुरुषों में ही नहीं थी स्त्रियाँ और बच्चे भी अफीम का सेवन करते थे । बर्नियर के अनुसार राजपूत लोग बचपन से ही अफीम पीना व खाना प्रारम्भ कर देते थे। युद्ध के दिनों में ये दुगनी मात्रा में अफीम खाते थे व सब कुछ भूलकर पागलों के समान युद्ध थे।
- मालवा में भांग का भी प्रचलन खूब था। जहाँगीर ने भी अपनी मालवा यात्रा के दौरान पहली बार इसका सेवन किया था। पीटर मण्डी लिखता है कि भांग मालवा के उज्जैन, धार, महेश्वर और ओंकारेश्वर आदि स्थानों पर खूब पी जाती थी। इसके साथ ही मालवा में गांजा पीने के भी सन्दर्भ मिलते हैं, इसकी पैदावार मालवा के दक्षिण में निमाड़ में होती थी।
Post a Comment