1627 ई. में जहाँगीर का निधन होने के बाद शाहजहाँ ने मुगल साम्राज्य की बागडोर संभाली। दक्खिन के राज्यों पर अभियान करने के लिये वह 1 मार्च 1630 ई. को बुरहानपुर पहुँचा और वहाँ वह दो साल रहा और बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुण्डा के विरूद्ध सैन्य गतिविधियों का संचालन करता रहा। (बनारसी प्रसाद सक्सेना, हिस्ट्री ऑफ देल्ही, 1987, पृ. 309)। आगे चलकर शाहजहाँ के शासनकाल में दक्खिन के जितने अभियान हुए वे बुरहानपुर को आधार बनाकर ही हुए।
बुरहानपुर में ही 1631 ई. में शाहजहाँ की प्रिय पत्नी मुमताजमहल बेगम का निधन हुआ। बुरहानपुर से ताप्ती नदी के दूसरे तट पर दफनाया गया और 6 माह बाद उसके अवशेषों उसे को आगरा ले जाया गया और वहाँ ताजमहल में उसके अवशेषों को फिर से दफनाया गया।
शाहजहाँ के राज्यकाल में खानदेश के साथ बुरहानपुर जिले और पूर्वी निमाड़ जिले का वैभव शिखर पर था । विदेशी यात्री टेवर्नियर इस इलाके की सम्पन्नता का उल्लेख करता है। और लिखता है कि बुरहानपुर एक बड़ा नगर है और वहाँ पारदर्शक मलमल तथा जरी के कपड़े बड़े पैमाने पर बनाये जाते हैं और ये फारस, तुर्की, रूस, पोलैंड, अरब, काहिरा तथा अन्य जगहों को निर्यात किये जाते हैं।
बुंदेलखण्ड का इतिहास
वीरसिंह देव के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र जुझारसिंह 1627 ई. में ओरछा का शासक बना। अपने शासन के प्रारंभिक वर्षों में जुझारसिंह ने शाहजहाँ को नाराज कर दिया और शाही कोप के भय से 11 जून 1628 ई. में आगरा से ओरछा भाग गया और बादशाह के खिलाफ विद्रोह कर दिया। आगरा में रहते समय जुझारसिंह ने बुंदेलखण्ड का शासन अपने पुत्र विक्रमादित्य के हाथों सौंप दिया था। विक्रमादित्य एक अंहकारी तथा क्रूर व्यक्ति था और शीघ्र ही उसकी रियासत के पुराने अधिकारियों से झगड़ा हो गया। उसने अकारण कतिपय अधिकारियों को दण्डित किया और दूसरों को कारागार में डाल दिया .
इस पर शाहजहाँ ने अपने तीन प्रमुख सेनापति महाबतखान, खानजहाँ तथा अब्दुल्ला खान के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। विद्रोही जुझारसिंह को बादशाह के सामने पेश किया, जिसने शाहजहाँ को युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में पाँच लाख रुपये और पेशकश के रूप में चालीस हाथी दिये । बदले में शाहजहाँ ने उसे उसका राज्य लौटा दिया किन्तु उसकी कुछ जागीरे जब्त कर ली। उसके पश्चात् जुझारसिंह को महाबतखान के साथ 2,000 घुड़सवारों तथा 2000 पैदल सेना के साथ दक्षिण में जाने के लिए आदेश हुआ। वह 1634 ई. तक शाही के साथ दक्षिण में रहा और उसके बाद ओरछा लौट आया और राजा प्रेमनारायण भीमनारायण पर आक्रमण कर चौरागढ़ (नरसिंहपुर) को घेर लिया इस पर शाहजहाँ ने औरंगजेब के नेतृत्व में सेना भेजी। शाही सेना ने जुझारसिंह के गढ़ों को घेर लिया और चौरागढ़ की ओर कूच किया। जुझारसिंह दक्षिण को भाग गया किन्तु गोंडों ने रास्ते में ही जुझारसिंह और उसके पुत्र विक्रमादित्य को मार डाला। ओरछा पर अधिकार करने के बाद शाहजहाँ ने चंदेरी के देवीसिंह बुंदेला को ओरछा रियासत का शासक घोषित किया। किन्तु वह दो वर्ष ही ओरछा गद्दी पर बैठ सका उसे जनता के विद्रोह के आगे चंदेरी भागना पड़ा, उसके बाद ओरछा रियासत को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया ।
मुगल साम्राज्य में ओरछा के विलय के चम्पतराय (महोगा के शासक उदयजीत का वंशज) ने जुझारसिंह के पुत्र पृथ्वीराज को गोद लिया और उसे बुंदेलखण्ड की गद्दी का विरोधी दावेदार बनाया और शाही तख्त के खिलाफ विद्रोही हो गया, तथा सिरोज, भिलसा और धामोनी तक लूटपाट करने लगा। मुगल उत्तराधिकार की लड़ाई में चम्पतराय ने शाहजादा औरंगजेब की सेवा की । धरमाट युद्ध के पश्चात् चम्पतराय को एक घोड़ा तथा राजसी पोषाक से सम्मानित किया गया। उसने औरंगजेब को चम्बल पार करने कि लिए एक अल्पज्ञात भाट बताकर और शामगढ़ 1658 ई. में उसकी ओर से युद्ध कर दारा से पूरा बदला लिया। शामूगढ़ की विजय के पश्चात् चम्पतराय को एक हाथी तथा मनसब प्रदान की गई 140 किन्तु औरंगजेब के चौथे वर्ष (20 अप्रैल, 1661 से 9 अप्रैल, 1662 ) के बीच चम्पतराय पुनः विद्रोही हो गया । किन्तु धंधेरों द्वारा चम्पराय मारा गया और उसका सर काट कर औरंगजेब के पास भेज दिया ।
चम्पतराय के चौथे पुत्र छत्रसाल ने अपने पिता की मृत्यु के बाद बादशाह को चुनौती दी उसने ऐसा संघर्ष आरम्भ किया जो पचास वर्षों से अधिक समय तक चला।
भागीरथ भील का विद्रोह :
मालवा में गौंड़ व भील समय-समय पर मुगल अधिकारियों के लिए कठिनाई का कारण बनते थे। दिसम्बर सन् 1632 ई. में भागीरथ भील ने जो कि खाताखेड़ी का जमींदार था मुगल सेना के विरुद्ध कई एक अनुचित कार्य कर दिये। अतः उसे दण्ड देने हेतु मालवा के मुगल सूबेदार नासिरखान ने उस पर आक्रमण कर दिया। इससे भागीरथ भील भयभीत हो गया और उसने अपने पड़ोसी कुनार (संभवतः गिन्नौर) के जमींदार संग्रामसिंह से याचना की कि वह उसके व मुगल सूबेदार के बीच मध्यस्थता करके उसे क्षमा दिलवाये भागीरथ ने यह भी स्वीकार किया कि वह भविष्य में आज्ञाकारी व निष्ठावान बना रहेगा, परन्तु इसी स्थिति में जबकि, उसे उसी के गढ़ में रहने दिया जाये, क्योंकि वह दीर्घकाल से उसी में निवास कर रहा है, तथा उसे दरबार में हाजिरी से मुक्त रखा जाये, परन्तु नासिरखान इन शर्तों से सन्तुष्ट नहीं था, उसे ये बातें टालमटोल सी प्रतीत हुई, अतः जब नासिरखान खाताखेड़ी के समीप पहुँच गया तब भागीरथ ने जीवनदान का आश्वासन प्राप्त कर गढ़ी उसे सौंप दी तथा आत्मसमर्पण कर दिया ।
24 दिसम्बर 1632 ई. को नासिरखान ने दुर्ग में प्रवेश किया तथा मन्दिर व मूर्तियों को तोड़ा गया ।
भारवी गोंड का विद्रोह :
गोंडवाना का एक जमींदार संग्रामसिंह मुगल शासन के प्रति निष्ठावान था, परन्तु उसकी के पश्चात् उसी का एक प्रमुख अधिकारी भारवी गोंड उसके (संग्रामसिंह के) पुत्र भूपति मृत्यु को गद्दी से हटाकर स्वयं गद्दी पर बैठ गया। तत्पश्चात् अपने को मुगल शासन से पृथक कर वार्षिक कर का भी भुगतान करना बंद कर दिया। इस घटना ने आसपास के जमींदारों को भी प्रभावित किया व उन्होंने इसका अनुसरण किया। इस प्रकार सम्पूर्ण क्षेत्र में अराजकता व्याप्त हो गई ।
अतः इस विद्रोह को दबाने हेतु खानेदौंरा रायसेन होता हुआ कुनार (संभवतः गिन्नौर ) पहुँचा । अत्यधिक जंगल होने के कारण उसने जगह-जगह चौकियाँ स्थापित कर सेना की टुकड़ियाँ नियुक्त की ताकि वापिसी का मार्ग सुरक्षित रहे। 26 अप्रैल, 1643 ई. को 5000 गोंडों की सेना से उसका सामना हुआ किन्तु थोड़े ही समय में खानेदौरा से पराजित हो गये। वर्षा के कारण खानेदौरा ने घाटी में ही डेरा डाल दिया एवं निकटवर्ती क्षेत्रों को लूटने हेतु कई टुकड़ियाँ इधर-उधर रवाना की। खानेदौरा के दृढ़ संकल्प ने भारवी गोंड को भयभीत कर दिया । उसने शान्तिपूर्ण समझौता हेतु खानेदौरा के प्रमुख विश्वासपात्र मिर्जावली एवं गोविन्ददास का सहारा लिया एवं अपनी मित्रता व निष्ठा के प्रमाण स्वरूप भूपति एवं कुछ प्रतिष्ठत व्यक्तियों को मुगल शिविर में भेजा ।
संधिवार्ता के दौरान ही गढ़रक्षकों का एक दल भूपति को खोजने के कार्य में पाया गया। 'खानेदौरा इस घटना से खिन्न हो गया उसने भूपति को गिरफ्तार कर नजरकैद कर लिया। इस पर भारवी गोंड़ ने किला सौंपने से इंकार कर दिया। इस पर खानेदौंरा ने लवारा की पहाड़ियाँ अपने कब्जे में कर ली परन्तु किले पर अधिकार नहीं हो पाया क्योंकि कुनार (संभवतः गिन्नौर ) किला एक दो मंजिला पहाड़ी की चोटी पर स्थित था, जो कि पत्थर का ठोस बना था जिस पर चढ़ पाना असम्भव था पूर्णतः प्राकृतिक किले बंदी थी, जिसमें मात्र एक दरार थी, जिसे ईट व चूने से भर दिया गया था। इस चुनाई पर थोड़े-थोड़े अन्तर से तोपें भी चढ़ी हुई थी ।
खानेदौंरा इस तथ्य को जान चुका था कि बगैर तोपखाना एवं बारुद के किले पर चढ़ाई असम्भव है। अतः उसने बादशाह से दो तोपें व कुमुक भेजने की विनती की । इस पर शाहजहाँ ने बुरहानपुर से राशिदखान अनसारी, जौनपुर से पहाड़सिंह बुंदेला, रामपुरा से पृथ्वीराज राठौड़ एवं मन्दसौर से जांनिसारखान को आदेश दिया कि वे शीघ्र ही खानदौरा की सहायता को पहुँचे । इस सेना के पहुँचने के पश्चात् 18 फरवरी, 1644 ई. को किले की घेराबंदी शुरु की गई, गोलाबारी भी प्रारम्भ हुई। अतः भारवी गोंड़ को यह अहसास हुआ कि व्यर्थ का विरोध करना असम्भव है। तब उसने संधि की योजना बनाकर खाने दुर्रानी के समक्ष प्रस्तुत हुआ । खानदौरा किले को अधिकृत कर अपने भाई मोहम्मद सालेह को सौंपा व उसकी सेवा में 500 घुड़सवार एवं 700 बंदूकची भी नियुक्त किये ।
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