उत्सर्जन की कार्यिकी या मूत्र निर्माण | URINE FORMATION in Hindi
उत्सर्जन की कार्यिकी या मूत्र निर्माण
उत्सर्जन की कार्यिकी या मूत्र निर्माण
मूत्र निर्माण दो चरणों में पूर्ण होता है- (A) यूरिया का निर्माण एवं (B) मूत्र का निर्माण।
उत्सर्जन की कार्यिकी या मूत्र निर्माण
(A) यूरिया का निर्माण (Formation of Urea)
- अन्य कशेरुकियों के समान मनुष्य भी यूरियोटेलिक जन्तु है अर्थात् इसके मूत्र में यूरिया की मात्रा अधिक होती है। जब हमारे शरीर में प्रोटीन का पाचन होता है तब यह अमीनो अम्लों के रूप में अपघटित कर दिया जाता है। ये अमीनो अम्ल क्षुद्रान्त्र में अवशोषित होकर रुधिर परिसंचरण के द्वारा शरीर को विभिन्न कोशिकाओं में ले जाये जाते हैं। इन अमीनो अम्लों में से अधिकांश कोशिकाएँ अपने लिये उपयोगी प्रोटीनों का संश्लेषण करती हैं जिनका उपयोग कोशिकाओं की वृद्धि एवं अन्य कार्यों में किया जाता है। शेष अमीनो अम्लों का, मुख्यतः यकृत कोशिकाएँ और थोड़ी मात्रा में वृक्क कोशिकाएँ ऑक्सीजन को उपस्थिति में ऑक्सीकरण या डीएमीनेशन (Deamination) पाइरुविक अम्ल और अमोनिया में कर देती हैं। चूँकि इस क्रिया में डीएमीनेशन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है इस कारण इसे ऑक्सीडेटिव डीएमीनेशन कहते हैं। यह क्रिया यकृत कोशिकाओं की माइटोकॉण्ड्रिया में होती है।
आर्निथीन चक्र (Ornithin Cycle)
पायरुविक अम्ल रुधिर के माध्यम से शरीर की कोशिकाओं में जाकर क्रेब्स चक्र के द्वारा ऊर्जा उत्पन्न होने के कारण अमोनिया को यकृत में ही CO2 से क्रिया करके यूरिया में बदल देता है। यकृत के अन्दर अमोनिया से यूरिया निर्माण करता है। लेकिन विषैली की क्रिया को ऑर्निथीन आर्जिनीन चक्र या क्रेब्स हैंसिलेट चक्र भी कहते हैं। ऑर्निथीन-आर्जिनीन चक्र का सर्वप्रथम वर्णन क्रेन्स व हॅसिलेट (Krebs and Henseleit) ने 1932 में किया। इन्होंने चूहे के यकृत के टुकड़े का उपयोग करके यूरिया के निर्माण में आर्जिनेज प्रकिण्व के महत्त्व को भी समझाया।
आर्जिनीन चक्र या क्रेब्स हैंसिलेट चक्र की क्रियायें अग्र चरणों में पूर्ण होती हैं-
1- बायोटीन जो कि यकृत कोशिकाओं में उपस्थित रहता है, CO2 को सक्रिय कर देता है और यह CO2, ATP से लिये गये फॉस्फेट के साथ अमोनिया से क्रिया करके कार्बेमाइल फॉस्फेट बना देता है। यह क्रिया कार्बेमाइल फॉस्फेट सिन्ग्रेटेज प्रकिण्व की उपस्थिति में होती है और इसमें दो अणु ATP का प्रयोग होता है।
2. कार्बेमाइल फॉस्फेट कोशिका में उपस्थित ऑनिधीन से संयोग करके सीटुलीन बना देता है।
3. ATP को उपस्थिति में सीटुलीन कोशिकाद्रव्य में उपस्थित एस्पार्टिक अम्ल से क्रिया करके आर्जिनोसक्सिनिक अम्ल बना देता है।
4. आर्जिनोसक्सिनेज प्रकिण्व को उपस्थिति में आर्जिनोसक्सिनिक अम्ल, आर्जिनीन और फ्यूमेरिक अम्ल में विघटित हो जाता है।
5. अन्त में आजनीन, आर्जिनेज प्रकिण्व की उपस्थिति में पानी से क्रिया करके विघटित हो जाता है और यूरिया तथा ऑर्निथीन बना देता है, यह ऑर्निधीन पुनः कार्बेमाइल फॉस्फेट से क्रिया करता है। यह चक्र यकृत के अन्दर हमेशा चलता रहता है और यूरिया बनती रहती है।
यूरिया निर्माण की इस क्रिया को संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार से भी व्यक्त कर सकते हैं-
यकृत के अन्दर बनी अमोनिया का बहुत कम हिस्सा यूरिक अम्ल में बदला जाता है। इस प्रकार से की कोशिकाओं में बने यूरिया तथा यूरिक अम्ल रुधिर में मुक्त कर दिये जाते हैं। परिसंचरण हुये वृक्क में पहुँचते हैं तो वृक्कों को वृक्क नलिकाएँ या नेफ्रॉन्स इन्हें रुधिर से छानकर अलग कर देती हैं। इस प्रकार अलग की गयी यहाँ यूरिया व यूरिक अम्ल जल के साथ मिलकर मूत्र बनाते हैं, जिन्हें शरीर से बाहर कर दिया जाता है।
(B) मूत्र निर्माण (Urine Formation)
मूत्र निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है जो कि तीन चरणों में पूर्ण होती है-
1. अतिसूक्ष्म छनन (Ultrafiltration) -
यह क्रिया नेफ्रॉन के बोमन सम्पुट में होती है। ग्लोमेरुलस तथा बोमन सम्पुट की महीन भित्तियाँ आपस में सटी होती हैं और छन्ना (Filter) का कार्य करती हैं। वृक्क धमनियों में बहता हुआ रुधिर जब एफरेन्ट धमनिकाओं (Afferent arterioles) से होता हुआ ग्लोमेरुलस में जाता है तो इसका दाब काफी बढ़ जाता है क्योंकि (Efferent) धमनिकाओं का व्यास अपेक्षाकृत कम होता है। दाब के कारण ग्लोमेरुलस में रुधिर की गति भी धीमी हो जाती है। अधिक दाब के कारण केशिकागुच्छ (Glomerulus) से रुधिर में मिली यूरिया, यूरिक अम्ल, कुछ ग्लूकोज, लवण तथा अन्य वर्ज्य पदार्थ विसरित होकर बोमन सम्पुट में आ जाते हैं। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदशों में देखने पर ग्लोमेरुलस की केशिकाओं में असंख्य छिद्र दिखायी देते हैं जिनका व्यास लगभग 0-1pm होता है, ये छिद्र वर्ज्य पदार्थों को बोमन सम्पुट में पहुँचने में मदद करते हैं। बोमन सम्पुट में उनकर आये पदार्थों को ग्लोमेरुलस निस्यंद (Glomerular filtrate) कहते हैं। वृक्क नलिकाओं को आन्तरिक सतह पर उपस्थित सीलिया की गति के कारण फिल्ट्रेट वृक्क नलिकाओं में आगे बढ़ता जाता है और छनन की क्रिया तीव्र गति से होती रहती है। अन्त में यह छनित पदार्थ संग्रह नलिकाओं (Collecting ducts) द्वारा मूत्रवाहिनी में चला जाता है।
2. पुनः अवशोषण (Reabsorption ) --
जैसा कि हम देखते हैं कि व या उत्सर्जी पदार्थों के साथ कुछ उपयोगी पदार्थों जैसे--ग्लूकोज, जल तथा लवण को भी ग्लोमेरुलस द्वारा छानकर अलग कर दिया जाता है। चूंकि ये पदार्थ शरीर के लिये उपयोगी होते हैं, इस कारण इन्हें मूत्र के साथ बाहर न करके पुनः अवशोषित कर लिया जाता है। वृक्क नलिकाओं के चारों तरफ रौनल धमनिका तथा रोनल शिराओं का जाल बिछा होता है, जब रुधिर से चना भाग कुण्डलित वृक्क नलिकाओं से गुजरता है तो वृक्क नलिकाओं की एपीथीलियल कोशाएँ इन उपयोगी पदार्थों को अवशोषित कर लेती हैं तथा इसे रुधिर केशिकाओं में डाल देती हैं। यहाँ पर पानी की अधिकांश मात्रा (लगभग 90%) भी अवशोषित कर ली जाती है जिससे वृक्क नलिका का शेष द्रव गाढ़ा हो जाता है, अब इसे मूत्र कहते हैं। इसमें कुछ जल, यूरिया तथा कुछ लवण घुले होते हैं। यह मूत्र संग्रह नलिकाओं, संग्रह वाहिनियों व मूत्र वाहिनी से होता हुआ मूत्राशय में एकत्र किया जाता है। मूत्राशय की दीवार पारदर्शक तथा बाहर की ओर एपीथीलियम तथा बीच में अरेखित पेशियों व संयोजी ऊतकों की बनी होती है। जब ये अरेखित पेशियाँ संकुचित होती हैं तो मूत्र मूत्रमार्ग (Urethra) से होता हुआ शरीर से बाहर चला जाता है। पुनः अवशोषण की क्रिया नेफ्रॉन या वृक्क नलिका के स्रावी भाग में होती है।
स्त्रावण (Secretion)
ग्लोमेरुलस में छनन के बावजूद रुधिर में कुछ उत्सर्जी पदार्थ शेष रह जाते हैं जिन्हें वृक्क नलिका की दीवार को कोशिकाएँ अवशोषित कर लेती हैं क्योंकि ग्लोमेरुलस से आने वाली केशिकाएँ वृक्क नलिका के चारों तरफ जाल के रूप में स्थित होती हैं। वृक्क नलिका द्वारा अवशोषित ये वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिया, यूरिक अम्ल और अमोनिया वृक्क मलिका की कोशिकाओं से विसरित होकर नलिका के मूत्र में शामिल हो जाते हैं। उपरोक्त प्रक्रिया के फलस्वरूप वृक्क रुधिर मैं जल, लवण, नाइट्रोजनो वर्ज्य पदार्थों की मात्रा एवं रुधिर की आयनिक सान्द्रता को बनाये रखता है तथा शरीर में समस्थापन (Homeostasis) बनाये रखता है।
वृक्क में होने वाली अभिगमन क्रियाओं में ऊर्जा का व्यय भी होता है अर्थात् ये सक्रिय क्रियाएँ हैं और आवश्यकता पड़ने पर सान्द्रता प्रवणता के विपरीत भी हो सकती हैं।
Post a Comment