बुन्देलखण्ड का चंदेरी नगर ओरछा के दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है। ओरछा से बेतवा नदी के किनारे चलते हुए चंदेरी नगर की दूरी लगभग 90 किलोमीटर के आसपास होगी, बेतवा नदी चंदेरी से लगभग 20 किलोमीटर दूर है। मोरक्को निवासी इब्नबतूता दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक (1325-1351 ई.) के समय में भारत की यात्रा पर आया था। उसने अपने यात्रा विवरण में चंदेरी के विषय में लिखा है, "यह नगर बहुत बड़ा है और बाजारों में सदा भीड़ लगी रहती है।" जनवरी, सन् 1528 ई. में बाबर ने चंदेरी पर आक्रमण कर उसे विजित किया था। उसने चंदेरी के विषय में लिखा है, "उस राज्य के आसपास अनेक नदियाँ हैं। उसका भीतरी किला बड़ी मजबूती के साथ एक पहाड़ी पर बना हुआ है। उसके भीतरी भाग में चट्टान को काटकर एक हौज बनाया गया है। एक दूसरा हौज दूसरी दीवार के रास्ते में उसके आखीर में बना हुआ है। उसी मार्ग में प्रवेश करके अपने आदमियों ने चंदेरी के भीतरी किले पर अधिकार किया था। चन्देरी के सभी मकान-छोटे और बड़े गरीबों के अथवा अमीरों के पत्थरों के बने हुए हैं।" अबुल फजल ने भी आईन-ए-अकबरी ग्रन्थ में चंदेरी में 14000 पत्थर के मकान, 12000 मस्जिदें, 360 धर्मशालाऐं और 364 बाजार बताए हैं। चंदेरी की धर्मशालाएं सदैव व्यापारियों से भरी रहती थीं।
चंदेरी नगर को मालवा प्रांत का प्रवेश द्वार माना जाता था और उसे दिल्ली सल्तनत काल से ही मालवा प्रान्त के अंतर्गत गिना जाता था। परन्तु मूलरूप से बेतवा से लगे हुए चंदेरी से ओरछा के बीच के भाग बुन्देलखण्ड के अन्तर्गत ही थे। चंदेरी से दक्षिण को जाने वाला मार्ग सारंगपुर, रायसेन, उज्जैन, देवगिरी होता हुआ जाता था। चंदेरी राज्य के दक्षिण भाग का हिस्सा मालवा के क्षेत्रान्तर्गत माना जाता था। चंदेरी को बुन्देलखण्ड और मालवा की राजनीतिक सीमा का संगम स्थल कहा जा सकता है। चंदेरी राज्य के अन्तर्गत रहा उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले का वह हिस्सा जो कभी झाँसी - टीकमगढ़ की ओर था, वह सभी भू-भाग बुन्देलखण्ड प्रदेश का हिस्सा था। सांस्कृतिक दृष्टि से चंदेरी - नगर सदैव से बुन्देली लोकसंस्कृति से प्रभावित रहा था.
चंदेरी नगर और क्षेत्र समृद्ध स्थिति में था, अतः महत्वाकांक्षी सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 1304 ई. में चंदेरी पर अधिकार कर समस्त मालवा को अपने अधिकार में कर लिया था। दिल्ली का चंदेरी पर अधिकार सन् 1400 ई. तक बना रहा था। सन् 1401 ई. के बाद मालवा के दिलेरखाँ गोरी ने अपने को सुल्तान घोषित कर मालवा प्रान्त को दिल्ली से अलग कर लिया था। तब से चंदेरी मालवा के सुल्तानों की क्रीड़ास्थली बन गया था। चंदेरी के बुनकर परिवार इसी काल में इस्लाम धर्म स्वीकार कर मुस्लिम बन गए थे। बुनकर परिवारों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रलोभित और विवश किया गया था। होशंगशाह (1405-1435 ई.) के शासन काल में चंदेरी में अनेक महत्वपूर्ण इमारतें, तालाब आदि बने थे, जिनमें दिल्ली दरवाजा उल्लेखनीय है। चंदेरी नगर मुस्लिम, हिन्दू व जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। पर्यटन के दृष्टिकोण से भी इसका महत्व बुन्देलों की राजधानी ओरछा से किसी भी प्रकार कम नहीं है। सुल्तान महमूद खिलजी (1431-1468 ई.) ने चंदेरी में अनावृष्टि के समय कृषकों-मजदूरों को राहत पहुँचाने के लिए अनेक निर्माण कार्य करवाए थे। उसके काल में चंदेरी में सुल्तानियाँ तालाब एवं मल्लूखाँ बने थे। चंदेरी नगर में निर्माण कार्य में उपयोगी इमारती पत्थर खदानों में बहुतायत से सुलभ हो जाता था। चंदेरी का इमारती पत्थर दतिया के सतखण्डा महल और ओरछा के जहाँगीर महल में भी लगा है। चंदेरी का लाल रंग का पत्थर अत्यन्त कड़क तथा मजबूत होता है। इसके खम्बे चौड़े तथा वजन सहन करने में सशक्त सिद्ध होते हैं। इसलिए चंदेरी में मालवा के सुल्तानों ने लगातार निर्माण कार्य करवाए थे। इस कारण इस काल में चंदेरी नगर में अनेक कुशल कारीगर और पत्थर तराशने वाले रहने लगे थे। चंदेरी में अनेक प्रसिद्ध सूफी सन्त भी हुए थे, जिनमें एक हजरत बुरहानुद्दीन रहमतुल्लाह भी थे। सन् 1510 ई. तक चंदेरी के अधिकतर हाकिम मुस्लिम ही रहे थे। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी का प्रभावशाली मंत्री मेदनीराय था, वह बड़ा दूरदर्शी चतुर और महत्वाकांक्षी राजपूत था। उसके पास शक्तिशाली राजपूतों की विशाल भी थी, उसने महमूद खिलजी की कमजोरी का लाभ उठाते हुए चंदेरी पर अधिकार कर लिया था और वह एक प्रकार से चंदेरी का शासक बन बैठा था, माना जाता है मेदनीराय चौहान - राजपूत था ।
चंदेरी का शासक मेदनीराय, चित्तौड़ के प्रसिद्ध राणा, संग्रामसिंह को अपना संरक्षक मानता था । राणा, संग्रामसिंह इतिहास में राणा साँगा नाम से विख्यात है। बाबर ने पानीपत के युद्ध में विजय के बाद राणा साँगा पर आक्रमण करने की योजना बनाई थीं, क्योंकि राणा साँगा उस समय राजपूतों का सबसे बड़ा नेता था और उसके पास एक लाख से अधिक सेना थी। राणा साँगा से बाबर का युद्ध मार्च 1527 ई. में भरतपुर के समीप के एक ग्राम खानुवा में हुआ था। इस युद्ध में चंदेरी का मेदनीराय, राणा साँगा की ओर से अपने 12,000 अश्वारोहियों के साथ बाबर से लड़ा था। इस घटना से यह तो आभास होता है, कि मेदनीराय देश में मुस्लिम सत्ता का पक्षधर नहीं था। परन्तु भाग्य के दुर्योग से यह युद्ध राणा साँगा जीत नहीं सका और घायल हो गया था, जिसके कारण जनवरी 1528 ई. में उसकी मृत्यु हो गई थी। चंदेरी के मेदनीराय के विषय में बाबर ने "बाबरनामा" नामक ग्रंथ में लिखा है कि मेदनीराय राणा सांगा का अत्यन्त विश्वासी आदमी था। इसलिए उसने चंदेरी को जीतकर वहाँ का अधिकार मेदनीराय को दे दिया। उसके साथ चार-पाँच हजार काफिरों की एक सेना थी। बाबर चाहता था कि मेदनीराय चंदेरी उसे सौंप दे, अतः उसने संदेश जनवरी, 1528 ई. में चंदेरी के पास पड़ाव डालकर मेदनीराय के अपने दूत भेजे। परन्तु मेदनीराय तो बाबर से युद्ध की तैयारी कर चुका था, अतः उसने बाबर के दूत को नकारात्मक उत्तर दिया। जनवरी, 1528 ई. के अंत में हुए इस में मेदनीराय की पराजय हुई और चंदेरी राजपरिवार की सैकड़ों महिलाओं ने मुसलमानों के हाथ होने के भय से जौहर कर लिया था। चंदेरी की राजपूतानियों का यह एक बड़ा एवं प्रसिद्ध जौहर था । बुन्देलखण्ड के इतिहास में इससे बड़ा जौहर और कहीं नहीं हुआ था। अकबर के समय में चंदेरी को मालवा की सरकार (जिला) का मुख्यालय बनाया गया था। इससे आगे का चंदेरी का इतिहास ओरछा के बुन्देला राज्य से संबंधित होकर आगे बढ़ा था । "
बार - चंदेरी राज्य की स्थापना
महत्वाकांक्षा और बैरभाव सदैव सत्ता की सहचरी बने रहे थे, बुन्देलखण्ड के मध्यकालीन इतिहास में ये चिन्ह पूरी तरह से देखे गए थे। ओरछा के शासक मधुकरशाह के ज्येष्ठ पुत्र रामशाह बुन्देला, मधुकरशाह के बाद सन् 1592 ई. में ओरछा के शासक हुए थे। परन्तु जहाँगीर की मुगल गद्दी पर ताजपोशी के पश्चात् वे ओरछा से बलात् अपदस्थ कर सन् 1605-1606 ई. में बार- चंदेरी के शासक बना दिए गए थे। मुगल सत्ता के इस हस्तक्षेप ने ओरछा के बुन्देला राज्य और चंदेरी के बुन्देला राज्य के बीच स्थाई रूप से वैमनस्य के बीज बो दिए थे। आपसी दुश्मनी की प्रतिस्पर्द्धा के चलते बुन्देलों की संगठन की क्षमता धीरे-धीरे कमजोर होती गई थी और ओरछा राज्य की शक्ति का गौरव लगातार विखंडित होता गया था ।
जहाँगीर बादशाह (1605-1627 ई.) ने ओरछा की गद्दी वीरसिंहदेव बुन्देला को सौंप उनके अग्रज रामशाह बुन्देला को बार- चंदेरी का शासक बना दिया था। यह "बार" नामक स्थान उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले की महरौनी तहसील के अंतर्गत है। रामशाह ने ओरछा की गद्दी पुनः प्राप्त करने के कई प्रयास किए, परन्तु उसें सफलता न मिल सकी थी। इसी बीच 1612 ई. में उसका निधन हो गया था। दुर्योग से उसके ज्येष्ठ पुत्र संग्रामशाह का निधन उसके जीवनकाल में ही हो चुका था ।
बार - चंदेरी के शासक
भारतशाह बुन्देला (1612 - 1634)
बार - चंदेरी के शासक के रूप में संग्रामशाह के पुत्र भारतशाह का कार्यकाल उल्लेखनीय है । मुगल बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ की आज्ञाओं का पालन करते हुए उसने दक्षिण भारत के तेलिंगाना में चले युद्धों में भाग लिया था। उसको इटावा का फौजदार भी नियुक्त किया गया था। भारतशाह ने चंदेरी के सूबेदार गोदाराय को पराजित कर अपनी राजधानी बेतवा के समीप चंदेरी में स्थानांतरित कर ली थी और मुगल संरक्षण में राज्य का विस्तार कर दुदाही, हर्षपुर, गोलकोट तथा भानगढ़ के चार परगने प्रशासनिक दृष्टि से अपने राज्य में कायम थे। वर्तमान का उत्तर प्रदेश का सम्पूर्ण ललितपुर परिक्षेत्र उसके कब्जे में आ गया था। उसका सर्वोच्च मनसब 4000 हजारी जात और 3500 हजार सवार का था। अप्रैल, 1634 ई. में उसका निधन हो गया था।
चंदेरी के अन्य शासक
देवोसिंह बुन्देला (1634-1670 ई.)
बुन्देलखण्ड के सभी शासकों को आंचलिक कागज पत्रों में "महाराजा" "महाराजाधिराज" ही लिखा जाता था । परन्तु मुगल भक्त शासक सदैव मुगल सत्ता से "राजा" की उपाधि, डंका, निशान, झंडा आदि के सम्मान प्राप्त करने के लिए लालायित रहते थे भारतशाह की मृत्यु के बाद देवीसिंह चंदेरी के शासक हुए, इनको शाहजहाँ ने पिता की मृत्यु की खबर सुनकर राजा का खिताब और 2000 हजारी सवार का मनसब दिया था। देवीसिंह बुन्देला का उच्च मनसब 15 2500 जात और 2000 हजार सवार का था। ओरछा के जुझारसिंह बुन्देला के विद्रोह और पलायन फिर मृत्यु के काल में सन् 1634-1636 ई. में, उसे ओरछा का प्रबंधक बनाया गया था। परन्तु ओरछा के सामंतों और विशेष तौर से चंपतराय बुन्देला के विरोध के कारण, वह ओरछा के प्रबंधन में पूरी तरह असफल रहा था। देवीसिंह बुन्देला ने बल्ख, बुखारा, काबुल के मुगल अभियानों में भाग लिया था और वह एक बार भेलसा, वर्तमान विदिशा का फौजदार भी बनाया गया था। सागर परिक्षेत्र के बहुत से भाग इस समय चंदेरी राज्य में शामिल कर लिए गए थे।
दुर्गसिंह बुन्देला (1670-1687 ई.)
दुर्गसिंह बुन्देला, देवीसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था, जो उसके बाद चंदेरी की गद्दी पर बैठा था। उसके समय राजस्थान से भागकर आए, बंजारों के एक बड़े दल ने चंदेरी परिक्षेत्र में अराजकता उत्पन्न कर दी थी। इन बंजारों के दल से मुकाबला करने के लिए दुर्गसिंह ने पूरा जोर लगाया था, तब कहीं जाकर उन्हें सफलता मिली थी। मुगलकालीन तवारीखों में दुर्गसिंह का उल्लेख नहीं मिलता हैं, अतः अनुमान होता है कि वह अधिक सक्रिय भूमिका में मुगल काल में नहीं रहा था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र दुर्जनसिंह बुन्देला (1687-1736 ई.) चंदेरी का शासक हुआ। चंदेरी के दुर्जनसिंह बुन्देला, दतिया के रामचन्द्र बुन्देला और ओरछा के उदोतसिंह इन तीनों के संबंध जयपुर के सवाई जयसिंह से काफी मधुर थे। तत्कालीन पतोन्मुख मुगल राजनीति में बुन्देलखण्ड के ये शासक मुगल सत्ता में ताकतवर सवाई जयसिंह (1700-1743 ई.) की ओर सलाहकार सहायक के साथ ही हिन्दू संस्कृति के रक्षक के रूप में देखते थे। दुर्जनसिंह के अंतिम समय में चंदेरी में मराठा शक्ति का प्रवेश हो चुका था। चंदेरी राजनीतिक रूप से मालवा सूबे की सरकार का मुख्यालय था। यह स्थान मध्यकाल में बुन्देलखण्ड के अंग के रूप में चर्चित रहा था, आज यह प्रसिद्ध स्थान मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले की तहसील के रूप में है।
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