मध्यकालीन बुन्देलखण्ड के राज्यों का प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक | Bundelkhand Administraton History in Hindi
मध्यकालीन बुन्देलखण्ड के राज्यों का प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक इतिहास
बुन्देलखण्ड का प्रशासनिक स्वरूप और मुगल सत्ता
- अकबरकालीन मुगल प्रशासनिक व्यवस्था में बुन्देलखण्ड पर बुन्देला ठाकुरों के वंशानुगत अधिकार को मान्यता मिल गई थी। वे वंश परम्परा के रूप में यहाँ के राजा-महाराजा माने गये थे। परन्तु मुगलकालीन कागज-पत्रों में उन्हें जमींदार ही लिखा जाता था, राजा की उपाधि मुगलों की ओर से मिलने पर वे राजा-महाराजा कहलाने लगते थे। यद्यपि वे अपने अधिकार के क्षेत्रों को पुत्रों-रिश्तेदारों व सामंतों को जागीर के रूप में वितरित कर देते थे और अपने क्षेत्र के समकालीन कागज पत्रों व साहित्य में उनको सदैव राजा महाराजा और महाराजाधिराज ही लिखा जाता था। वंशानुगत शासकों एवं मुगल सत्ता के बीच यह परम्पराओं को मानने एवं उन्हें नीतिगत स्वरूप देने का एक सुविचारित व्यवहार था। मुगल सत्ता में वे मनसब अर्थात् पद स्वीकार कर उनके मुगल युद्ध - अभियानों व अन्य सौंपे गये कार्यों में योगदान देकर अपने वंश-परम्परागत क्षेत्रों में स्वतंत्र एवं निरंकुश शासक के रूप में कार्य कर सकते थे। राजस्थान और बुन्देलखण्ड में इस प्रकार के अनेक राज्य थे।
- मध्यकालीन बुन्देलखण्ड में बुन्देलाओं की प्रधान गद्दी ओरछा थी। इससे ही उद्गमित होकर इस काल के बार- चंदेरी और दतिया राज्य स्थापित हुए थे। पन्ना राज्य की स्थापना नुना - महेबा के जागीरदार चंपतराय बुन्देला के पुत्र छत्रसाल बुन्देला ने की थी। ओरछा राज्य जुझारसिंह बुन्देला के विद्रोह एवं मृत्यु सन् 1635 ई. के बाद कमजोर हो गया था। इसका लाभ चंपतराय बुन्देला ने उठाया और उसके पश्चात् उसके जुझारू - साहसी पुत्र छत्रसाल ने अपने प्रयासों से 1675 ई. में नवीन पन्ना राज्य की नींव रखी थी। बुन्देलखण्ड के ये राज्य अकबरकालीन व्यवस्था में आगरा, मालवा एवं इलाहबाद सूबे की ग्वालियर, पवाया, नरवर, कालपी, एरच रायसेन, सारंगपुर, चंदेरी, कालिंजर आदि जिलों के क्षेत्रान्तर्गत आते थे औरंगजेब के समय, सत्रहवीं सदी के अंतिम भाग में अकबरकालीन प्रशासनिक व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी। उस काल के मुगल जिलों (सरकार) के फौजदार लगातार पराजित हुए थे और उनके प्रबंध के क्षेत्रों को छत्रसाल बुन्देला ने अपने अधिकार में ले लिया था। छत्रसाल की अवधारणा थी, कि बुन्देलखण्ड के कुछ भागों पर मुगल सत्ता बलात् कब्जा किए है। अतः इन क्षेत्रों में अचानक धावा कर गुरिल्ला युद्धनीति से मुगल पदाधिकारियों से धन वसूल कर लेते थे । इस पूरे काल में सोलहवीं सदी से अठारहवीं सदी के तीन दशक तक कभी भी बुन्देलखण्ड को पूरे नियन्त्रण में नहीं कर सकी थी। इस काल के मुगल सत्ता से संरक्षित बुन्देलखण्ड के शासकों ने अपने मनमाफिक सत्ता का संचालन कर एक सीमा तक स्वतंत्र प्रशासनिक शक्तियों का उपभोग एवं उपयोग किया था।
बुन्देलखण्ड प्रशासन के प्रमुख अंग
1. राजा
बुन्देलखण्ड की मध्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था में शासक या राजा ही सर्वेसर्वा होता था। उसकी शक्तियाँ निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी होती थी। परंतु केन्द्रीय मुगल सत्ता की क्षेत्रीय सरकार अर्थात् जिलों के फौजदार आंचलिक वतन शासकों की गतिविधियों पर निगाह रखते थे और उनकी प्रत्येक क्रियाकलाप की गोपनीय सूचनाएँ मुगल राजधानी की ओर भेजते रहते थे। मुगल सत्ता की यह सुविचारित नीति थी कि वे इन बुन्देला मनसबदारों को सदैव अपने वतन क्षेत्र से सुदूर अंचल के मुगल युद्ध - अभियानों में व्यस्त रखते थे।
2. दीवान :-
बुन्देलखण्ड के शासकों के दीवानों के पास वित्त, राजस्व के साथ प्रशासनिक शक्तियाँ भी रहती थीं। एक प्रकार से शासक की अनुपस्थिति में वह राज्य संचालन के लिए आवश्यक सभी शक्तियाँ रखता था। प्रायः शासक जब सुदूर क्षेत्रों में युद्ध अभियान में व्यस्त रहते थे, तब दीवान महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए राजपरिवार के किसी विश्वासी कुँवर या दिमान से और जरूरत पड़ने पर शासक या राजा से पत्र-व्यवहार करके आवश्यक प्रशासनिक निर्देश भी माँग लेते थे। वैसे व्यवहारिक रूप में शासक अपने राज्य में पत्र आदेश पत्र, सनद आदि उसी सुदूर मुकाम से भेजते रहते थे। लेकिन छत्रसाल बुन्देला ने अपने समय में प्रशासन की पूरी कमान सीधे प्रायः अपने हाथ में ही रखी थी।
3. ब्राह्मण :-
व्यास वंशीय सनाढ्य ब्राह्मण बुन्देला शासकों के दीक्षा गुरू थे और किसी दूसरे वर्ग के ब्राह्मण को राजा अपनी पसन्द के अनुसार राजपरिवार के धार्मिक अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड संबंधी कार्यों के लिए राजपुरोहित नियत कर देते थे। इन ब्राह्मण पंडितों का बुन्देला सत्ता पर गहरा और व्यापक प्रभाव रहता था। राजपुरोहितों के युद्ध में भी भाग लेने के भी उल्लेख मिलते हैं। इन लोगों को "पादार्थ" भूमिदान, या पादार्थ पूरा गाँव, मंदिर की सेवा का व्यय चलाने के लिए या निजी व्यय चलाने के लिए मिल जाता था । पदार्थ भूमिदानों में कहीं कहीं यह भी लिखा मिलता है, कि "कृष्ण अर्पित - कर दई" या सेवा कार्य को प्रदान कर दी गई। ब्राह्मण, पण्डित, राजपुरोहित ये राज्य के सम्मानीय व्यक्ति थे और विशेष अवसरों पर राजा इनसे सलाह भी माँगता था। ओरछा नगर बसने की प्रक्रिया में समकालीन कवि केशव ने पुरोहित और व्यास की राजकीय भूमिका का उल्लेख किया है-
फेरि बसायो नगर नागर नर गायक |
थपे पुरोहित मिश्र व्यास परिगह पटु पायक ।।
4. दरबारखास :-
राजा के अधीन दरबारखास काम करता था, राज्य के सभी प्रकार के कर्मचारी, जागीरदार, गाँव के चौधरी माते आदि दरबारखास के नियंत्रण में रहते थे और हुजूर- दरबार 1 राजा के व्यक्तिगत जागीरदारों-सामंतों के लिए रहता था, यह एक प्रकार की विशेष सभा होती थी। मूलरूप में ओरछा, बार- चंदेरी, दतिया, पन्ना के राज्यों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र छोटे-छोटे गाँवों-पुरों के समूह भर थे। इस पूरे अंचल में ओरछा से बड़ा नगर नहीं था। अतः पूरा प्रशासनिक संगठन ग्रामीण स्वरूप में ही था। इसमें जनता का कोई दखल नहीं था, राज्य के सभी तलबारधारी ठाकुर उनके लिए राजा-महाराजा, ठाकुर साहब, दीवान साहब, कुँवर साहब ही हुआ करते थे।
5. दुर्ग -
महल, परगना- मौजा :- आईन-ए-अकबरी में दिये गये प्रशासन की इकाई में क्रमशः सूबा सरकार और महल का उल्लेख है। इस उल्लेख में बुन्देलखण्ड के अनेक सुदृढ़ और बड़े दुर्ग, गढ़ी वाले स्थान छूटे हुए हैं। इससे निष्कर्ष यह निकलता है, कि जहाँ आंचलिक सत्ता और उसके वतन शासक या राजा, जागीरदार, जमींदार या ठाकुर साहब शक्तिशाली होकर काबिज थे, उन स्थानों का आईन में उल्लेख नहीं किया गया है। क्योंकि उन वंशानुगत क्षेत्रों से राजस्व वसूली वहाँ के स्थानीय शासक करते थे। मुगल जिले, थाने केवल उन पर निगरानी रखने का कार्य करते थे। ये आंचलिक राज्य भी परगनों, मौजों में विभाजित रहते थे। इन परंगनों के प्रमुख व्यवस्थापक राजा के रिश्तेदार, कुँवर, ठाकुर, दीवान आदि रहते थे। गाँव से राजस्व संग्रह के लिए चौधरी, माते, नम्बरदार, कानूनगो, मुकद्म आदि कर्मचारी रहते थे। ये कर्मचारी प्रायः वंशानुगत ही हुआ करते थे। इनके अलावा अमीन, दरोगा, थानेदार, पटवारी, फौजदार, किलेदार, सिकदार, बख्शी, मुस्तोफी, मुख्तियार, कारिन्दा, तौजीनवीस आदि कर्मचारियों के भी उल्लेख मिलते हैं। चौधरी, माते नम्बरदार आदि गाँव के मुखिया के रूप में राजा व ग्रामीण जनता के बीच राजस्व व प्रशासन के लिए बिचौलिये की भूमिका में रहते थे। अमीन, पटवारी, कानूनगो आदि गाँव का राजस्व लेखा, रखते थे। थानेदार, फौजदार, पुलिस व सेना व्यवस्था के लिए उत्तरदायी रहते थे। कारिन्दा और मुख्तियार जागीरदार की ओर से उनकी जागीर के गाँवों से राजस्व वसूली का कार्य करते थे। दरोगा कई तरह के होते थे जैसे जंगल की देखरेख करने वाले दरोगा और खजाने की देखरेख करने वाले दरोगा । किलेदार अर्थात् दुर्ग की व्यवस्था के लिए, और सिकदार सेना की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होता था। बख्शी वेतन निर्धारण करने वाला तथा राजस्व की व्यवस्था की देख-रेख करने वाला अधिकारी होता था और मुस्तोंफी-लेखे का कार्य देखता था। इसके अतिरिक्त राज्य के निर्माण कार्य की देखरेख करने वाले प्रधान नाम के अधिकारी के भी उल्लेख मिलते हैं। राजा किसी भी पदाधिकारी से राज्य का कोई भी कार्य करा लेते थे, ऐसा कोई सर्वमान्य नियम नहीं था कि अमुक अधिकारी वही नियत कार्य करेगा। वंशानुगत, वतन शासक, के यहाँ पद प्रायः पुश्तैनी वंशानुगत तरीके से ही चलते थे। राजा और दरबार से जुड़े विभिन्न जातियों के सभी अधिकारी अपने नाम के साथ "सिंह" का सम्बोधन लगाते थे। बुन्देला शासकों जागीरदारों की परम्परा में वाल्मीकि जमादार समाज को सबसे विश्वस्त और वफादार सेवक के रूप में स्थान प्राप्त था। समकालीन कवि केशव ने पायक वसीठी नाम के कर्मचारियों का कई जगह उल्लेख किया है इन दोनों से तात्पर्य दूत-सेवक से होता था |
शेष कर्मचारी :-
रनिवास महल में महिला कर्मचारी रहती थीं, इनमें ड्योढ़ीदार जवाबबारी, टहलबाली, गायन-वादनबाली, मुख्य रूप से रहा करती थीं। रानियों की व्यवस्था देखने के लिए पृथक से उनके दीवान भी रहा करते थे, क्योंकि रानियों को प्रायः कुछ गाँव जागीर के रूप में उनके निजी व्यय को चलाने के लिए दे दिये जाते थे। राजा के अल्पवयस्क होने पर सत्ता संचालन के सूत्र रनिवास की ज्येठी रानीमाता के हाथ में आ जाते थे। धर्मदाय विभाग भी होता था, इसका कार्य गरीब, कमजोर लोगों को एवं ब्राह्मणों को दान देना होता था। खास कलम नाम के कर्मचारी का भी उल्लेख मिलता है। ये कायस्थ परिवार के होते थे और उनका का कार्य राजा के पत्र-व्यवहार, सनद आदि को सुलेख में लिखना होता था और वे इन कागज पत्रों का लेखा-जोखा भी रखते थे। डाक व संदेश भेजने के लिए वसीठी, पायक व दौआ सेवकों के विवरण मिलते हैं। राजा प्रायः जमीनों को जागीरदारों में बाँट देते थे, ये लोग पट्टीदार, सवाई दिमान भी कहलाते थे। राजा से जुड़ा "बिल्हनियाँ" नाम के कर्मचारी का भी उल्लेख मिलता है, राजा के विशेष सैनिकों के लिए, यह नाम लिया जाता था।
सम्पूर्ण प्रशासन का केन्द्र, राजा या शासक ही होता था। दतिया, बार- चंदेरी के राज्य ओरछा से ही बने थे, पन्ना भी ओरछा की ही शाखा थी। अतः प्रशासन के मामले में ओरछा ही इन सभी का आदर्श और पथप्रदर्शक था।
बुन्देलखण्ड सामाजिक स्थिति
- समाज चार वर्गों में विभाजित था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस काल में मुगल शक्ति के बल पर बुन्देलखण्ड में मुगल परगनों एवं थानों के आस-पास के क्षेत्रों में धर्म परिवर्तन भी हुआ था, इसके कारण एक नवीन वर्ग भी उत्पन्न हो गया था, जिसे मुगल सत्ता का समर्थन भी प्राप्त था। परन्तु परिवर्तित मुस्लिम समाज, अपने हिन्दू संस्कारों और रीति-रिवाजों को कभी नहीं छोड़ पाया था। सामाजिक स्थिति के अंतर्गत नारी की दशा, धार्मिक स्थिति, रीति-रिवाज, शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप एवं समाज का पारस्परिक लोक व्यवहार भी आता है। बुन्देलखण्ड के समाज में बुन्देला, परमार एवं धंधेरे ठाकुर सत्ताई वर्ग के होने के कारण ऊँचे स्थान पर थे। बुन्देलखण्ड में क्षत्रिय के स्थान पर उनके सम्बोधन के लिए ठाकुर शब्द का प्रचलन है, यह तीनों ठाकुर घराने संगठित सम्बोधन के रूप में "तीन कुरी" के ठाकुर कहे जाते हैं। यह एक राजनीतिक गठजोड़ था, पूरे मध्यकाल में इन तीनों ठाकुरों के बीच ही वैवाहिक संबंध करने की परंपरा रही थी ।
1. ब्राह्मण :-
राजा और राजपरिवार के गुरू, पुरोहित, मंदिरों की व्यवस्था करने वाले व समाज के अन्य वर्ग के लोगों के यहाँ कर्मकाण्ड, विवाह-संस्कार, शिक्षा प्रदान करने वाले, ज्योतिष विद्या के जानकार एवं किंचित वैद्यगिरि के जानकार ब्राह्मण ही होते थे। राजा ब्राह्मणों को गाँव के गाँव की भूमि दान में दे देते थे, जिसे "पादार्थ भूमि दान" कहा जाता था। ब्राह्मणों को ऐसे अनुदान पर लगान भी नहीं देना पड़ता था । पादार्थ भूमि दान बाबाओं, महात्माओं और भाटों या विरुदावली गायकों को भी मिलते थे। बुन्देलखण्ड में बुन्देलों के शासनकाल में सनाढ्य ब्राह्मणों का राजनीति में अच्छा प्रभाव था । ओरछा के वीरसिंहदेव बुन्देला समय के प्रसिद्ध महाकवि केशव सनाढ्य ब्राह्मण थे, भक्त कवि हरिराम व्यास भी सनाढ्य ब्राह्मण थे। केशव ने ओरछा के वैभव वर्णन के क्रम में लिखा है -
ताकी छबि मेरे मन बसी सोहती मनौ बारानसी ।।
पंडित मंडल मंडित लसै परम हंस के गनजंह बसें ।।
ओरछा बनारस के समान शोभित है, वहाँ ब्राह्मणों के झुण्ड के झुण्ड रहते हैं। आगे केशव ने सनाढ्य ब्राह्मणों के विषय में लिखा है कि उनकी ओरछा में पूजा की जाती थी और बुन्देलों के पूर्व चंदेलकाल में, इस भू-भाग का नाम "जेजाकभुक्ति" था, यह नाम इस क्षेत्र में जुझौतिया ब्राह्मणों की अधिकता के कारण पड़ा था। बुन्देलखण्ड के सभी परमार ठाकुरों के पुरोहित भार्गव ब्राह्मण ही रहे हैं। दतिया राज्य में कान्यकुब्ज या कनौजिया ब्राह्मणों का विशेष सम्मान था। अंत में यह कहा जा सकता है, राजपरिबार, सत्ता व समाज पर ब्राह्मणों का गहरा प्रभाव था और वे सम्पूर्ण समाज की दृष्टि में पूज्य थे ।
2. क्षत्रिय वर्ग :-
बुन्देलखण्ड में बुन्देला, परमार, धंधेरे आदि क्षत्रियों को ठाकुर ही कहा जाता था और यह शब्द पूरे इतिहासकाल में, इतिहास के संदर्भ में प्रचलित रहा था। ये ठाकुर सत्ताधारी होने के कारण स्वेच्छाचारी, सामंती और जनता पर रौब जमाने वाली प्रवृत्ति के होते थे। ये लोग महलों, हवेलियों आदि इमारतों में ऐश-आराम से रहकर विलासी जीवन बिताते थे। इनके पहनावे में पाग, सेला, मंडील, अँगरखा, जामा, कतैया आदि मुख्य थे। बाद में मुगलों की देखादेखी चूड़ीदार पायजामे का भी प्रचलन भी इन लोगों में हो गया था। चौगान खेलना और शिकार खेलना इनके प्रिय खेल थे, नाच-गायन पतुरियों से सुनना सामंतों को पसन्द था। गाँव के गरीबों, कमजोरों एवं कृषक वर्ग से बेगार लेने की प्रथा थी। बुन्देलखण्ड में बनाफर, गौड़, चौहान, भदौरिया, सेंगर, जाट, मैना, बड़गूजर, खींची आदि राजपूत सैनिक जातियाँ भी रहती थीं। आर्थिक दृष्टि से सत्ताधारी वर्ग से इस सैनिक श्रेणी की स्थिति कमजोर रहती थी। परन्तु सामान्यजन पर रुतबा दिखाने, मूछों का ताव दिखाने एवं बेगार लेने में सभी सैनिक जातियाँ लगभग बराबर की भागीदार रहती थी। महाकवि केशव ने लिखा है कि राजा सेना, दुर्ग, कोष का मालिक बाहुबली होता है। उल्लेखनीय है कि केशव का यह वर्णन पूरे बुन्देलखण्ड के सभी राज्यों के संबंध में था। उदाहरण-
जाके दल बल बहुत प्रकार दुर्ग कोस बल धर्म अपार ।।
मित्र मन्त्र मन्त्री बल होय। बाहु दन्ड बल राजा सोय ।।
कवि की दृष्टि में राज्य के सात अंग हैं, जिन पर राजा का नियंत्रण रहना चाहिए। ये अंग है- स्वामी, अमात्य, दुर्ग, कोष, दंड, प्रजा और मित्र । ये सब उदाहरण राजसी ठकुरासी प्रवृत्ति के परिचायक हैं। जनता सत्ताधारी ठाकुरों से दबती थी और उनको राजा, महाराजा, ठाकुर साहब, काकाजू आदि संबोधनों से पुकारकर और जुहारकर उनका सम्मान करती थी।
3. वैश्य वर्ग :-
वैश्य वर्ग से तात्पर्य, व्यापारी समाज से है, बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गाँव में गहोई - बानियों का एक न एक पुराना घर अवश्य मिल जाता है। गहोई - बनियों का उद्गम सिन्ध नदी के किनारे स्थित पवाया और उचाड़ से माना जाता यह गहोई कौम प्रत्येक गाँव में किराने, कृषि जिन्सों और साहूकारी के व्यवसाय के लिए विख्यात थी, गाँव के किसानों को बीज आदि के लिए सवाये पर या ड्योढ पर यह गल्ला भी उधार देती थी। सवाये अर्थात् एक मन गल्ले का किसान से फसल आने पर सवा मन वसूल किया जाता था, इसी प्रकार ड्योढ से तात्पर्य किसान से एक मन के स्थान पर डेढ़ मन गल्ला वसूल किया जाता था । मध्यकाल में व्यापार, व्यवसाय का कार्य करने को बंजी - भौरी आदि करना कहते थे। उस काल की शब्दावली में व्यापारियों के काफिलों को, जो देश में माल का संवाहन करते थे, इनको बंजारों के काफिले कहा जाता था। बंजारा जनजाति एक प्रजाति भी है, जिनका कार्य उस काल में मुख्य रूप से बैलों की पीठ पर जिंस-सामान आदि लादकर देश के विभिन्न भागों में ले जाना था । बुन्देलखण्ड के गहोई - बनिया मध्यकाल में आंचलिक गांवों में तलवार बाँधकर घोड़े की पीठ पर बैठकर किराने का सामान बेचने के लिए जाते थे। बुन्देलखण्ड में दूसरी प्रमुख व्यापारिक कौम जैनियों की थी। जैनियों के पुराने मंदिर ओरछा, बार- चंदेरी, दतिया राज्य के स्थानों में थे और इन मंदिरों का निर्माण शिल्प भी मध्यकालीन है। जैनियों के धार्मिक स्थान प्रायः जैन व्यापारियों द्वारा ही बनवाए गए थे। इससे यह स्पष्ट है कि जिन क्षेत्रों में जैनियों के पुराने मंदिर हैं, उन क्षेत्रों के आसपास के गाँवों में जैनी लोग व्यापार-व्यवसाय करते थे। इनके अलावा अग्रवाल, खत्री, मारवाड़ी व्यापारी भी बुन्देलखण्ड के मध्यकालीन राज्यों में थे। इन व्यापारिक कौमों को राजा - सामतों-ठाकुरास से दबकर रहना पड़ता था। इस प्रकार के उदाहरण भी देखने में आए हैं, कि कभी-कभी इन व्यापारियों को, ठकुरास को जिंसे, सामान, धान्य आदि भी बेगार के रूप में देना पड़ता था । कृषक, खेतिहर एवं कामगार श्रमिक वर्ग के लोग व्यापारी वर्ग और बनियों को, शोषक होने के कारण सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते थे। बुन्देलखण्ड के मध्यकालीन कवि सुखदेव ने अपनी कृति "वणिक प्रिया" में बनियों को व्यापारिक चतुराई का उपदेश देने के लिए चौपाई, दोहा, कवित्त आदि लिखे हैं, उनका एक उदाहरण इस प्रकार हैं-
आबै गाँव बिकान कछु कछु अधिक जो होय ।
ताहि न कबहुं छाड़िये, कछु देहगो सोय ।। 41
4. शूद्र वर्ग :-
इस वर्ग में दो श्रेणियाँ थीं, पहली श्रेणी में तेली, कुम्हार, तँबेरे, बढ़ई, लुहार, खवास, माली, सुनार, ग्वाले, ढीवर, लखेरा, कोरी, धोबी, काछी, कुर्मी, लोधी, गूजर, अहीर आदि जातियों के लोग थे। ये सभी लोग ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की रीढ़ थे, ऊपर वर्णित तीनों वर्गों के व्यक्ति विभिन्न प्रकार के उत्पादन, कृषि व्यवस्था, दुग्ध-धी उत्पादन एवं श्रम संबंधी कामों के लिए इन्हीं पर निर्भर रहते थे। दूसरी श्रेणी में अन्त्यज एवं स्वपच जातियों के व्यक्ति थे, जिन्हें प्रायः गाँव से बाहर रहना पड़ता था। पर फिर भी समाज के ग्रामीण व्यक्ति इन स्वपच जातियों से प्रेम का व्यवहार करते थे और बोलचाल में कक्को, कक्की, भईया आदि ही कहा करते थे। बुन्देली ठकुरास में मेहतर समाज को - विशिष्ठ सम्मान प्राप्त था और वे बुन्देलाओं के वफादार सेवक माने जाते थे। मध्यकालीन बुन्देलखण्ड के भक्त कवि हरिराम व्यास एवं महात्मा अक्षर - अनन्य ने अन्त्यज एवं स्वपच जातियों के प्रति सम्मान की भावना प्रकट की है,
बुन्देलखण्ड में नारी की स्थिति :-
शासकों एवं सामंतों में बहुविवाह प्रथा थी, वे खवासिनों या सेविकाओं के रूप में अनेक उपपत्नियाँ भी रखते थे । ठकुरासी विवाहों में दहेज के रूप में अनेक सेवकाएँ दिये जाने की प्रथा थी । और उनमें कन्या वध, सती प्रथा और जौहर प्रथा का भी प्रचलन था। बावर के आक्रमण के समय चंदेरी और करहरा क्षेत्र में हजारों महिलाओं ने जौहर किया था। जुझारसिंह बुन्देला के काल में ओरछा में मुगल सेनाओं ने राजपरिवार की महिलाओं का घोर अपमान और बलात् धर्मपरिवर्तन भी किया था। दतिया दुर्ग में सोलह सती की एक कोठरी है, जो आग की लपटों के चिन्हों से युक्त है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शासक वर्ग, एवं ठाकुरासी वर्ग में नारी को विलास की वस्तु समझा जाता था। मध्यम वर्ग में नारियों की दशा घर में ठीक रहती थी, आम रूप में बहु-विवाह प्रथा नहीं थी, परन्तु सन्तान न होने पर दूसरा विवाह कर लेते थे। पर्दा प्रथा सभी वर्ग की नारियों में प्रचलित थी | कामगार वर्ग एवं अन्त्यज वर्ग की नारियाँ ठकुरासी सामंती प्रवृत्ति के लोगों के सामने नहीं आतीं थीं। गाँव में ठकुरास की शिकार यात्राओं के समय या सैनिक टुकड़ी के पड़ाव के समय घर की नारियाँ, बेटियाँ कभी सामने नहीं पड़तीं थीं। कमजोर वर्ग की नारियाँ अपने पति के साथ खेती के काम में हाथ बटाती थीं। नारियों की शिक्षा के लिए विद्यालय नहीं होते थे, उन्हें प्रायः घर में ही शिक्षा मिलती थी। सामंत वर्ग की नारियों को ब्राह्मण, दुर्ग में जाकर धार्मिक शिक्षा देते थे, ठकुरास के ब्राह्मणों से वैद्यगिरी के हुनर भी सीखते थे।
6. बुन्देलखण्ड धार्मिक स्थिति, परम्परायें और शिक्षा :-
बुन्देलखण्ड के मध्यकालीन राज्य ओरछा, बार - चंदेरी, दतिया और पन्ना के क्षेत्र हिन्दू बहुल भाग थे, यहाँ की जनता ब्राह्मणों का पूरा सम्मान करती थी, और वेद-पुराणों में विश्वास करती थी। सभी बुन्देला शासकों ने अपने क्षेत्रों में मंदिर - देवालय, • बनवाये और उनकी पूजा के लिए ब्राह्मणों को नियत कर उन्हें "पादार्थ" भूमि दान दी थी। बुन्देलखण्ड की जनता ओरछा के रामराजा मंदिर के दर्शन और बेतवा नदी में स्नान करने को बड़ा पुण्य कार्य मानती थी। ओरछा में मंदिरों की श्रृंखला थी और बुन्देलखण्ड की ठकुरास ओरछा की धार्मिक यात्रा करती थी वीरसिंहदेव बुन्देला ने मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि स्थान पर केशोराय का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था, जो उस समय उत्तर भारत का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध मंदिर था। ओरछा के बुन्देला शासक और नगर की जनता वृन्दावन, अयोध्या, इलाहाबाद और चित्रकूट की धार्मिक यात्राओं पर जाती रहती थी । आंचलिक तीर्थों में जाने की परंपरा प्रत्येक राज्य में थी ही, ये आंचलिक तीर्थ प्रायः अंचल की नदियों के किनारे रहते थे। इन आंचलिक नदियों को परम्परागत रूप में बहुत पवित्र माना जाता था, और यह माना जाता था कि इनमें स्नान करने से शरीर निरोग हो जाता है।
इन क्षेत्रों में जैन धर्मावलम्बी जनता प्राचीनकाल से ही निवास करती थी। सोनागिर के जैन मंदिरों का स्थापत्य शिल्प है, इससे यह प्रकट होता है कि बुन्देला शासक जैन मंदिरों के निर्माण में पूरी रुचि लेते थे। बार- चंदेरी क्षेत्र में सल्तनत काल से सूफी और मुस्लिम संत रहते थे। यहाँ के बुन्देला शासक देवीसिंह ने चंदेरी के पठानी मोहल्ले की मस्जिद बनवाई थी। चंदेरी के दुर्जनसिंह बुन्देला ने भी एक बागीचा बनवाकर मुस्लिम सूफी संत को भेंट किया था। दतिया के दलपतराव के समय में मुस्लिम संतों का एवं रुहेला पठान सैनिकों का आगमन हो चुका था। कालपी, एरच, नरवर, पवाया आदि स्थानों में मस्जिदों का निर्माण हुआ था। अन्त्यज और स्वपच जातियों को सम्मान देने वाले वातावरण का निर्माण, मध्यकालीन संत हरीराम व्यास, अक्षर- अनन्य और प्राणनाथ ने बनाया था।
गाँव की ग्रामीण जनता लोक देवताओं को मानती थी, उनका विश्वास हनुमान पूजा, खेरे की भवानी, हरदौल, नागदेव, घटोरिया, गौड़ बाबा, नट बाबा, महादेव बाबा, बुन्देला बाबा आदि में अधिक था। जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार क्षेत्र की जनता मानती थी, और त्यौहार व्रत स्नान आदि भी चलते ही रहते थे, त्यौहारों और उत्सवों में नारियों की अहम् भूमिका रहती थी। शिक्षा व्यवस्था के केन्द्र मंदिर थे, यहाँ ब्राह्मण द्वारा ही शिक्षा प्रदान की जाती थी। कायस्थ, समाज, दरबारी, कागज पत्र लेखन में कुशल होता था। यह समाज व्यवसायिक शिक्षा वंशानुगत रूप मे घर से ही प्राप्त करता था।
मध्यकालीन बुन्देलखण्ड की आर्थिक स्थिति
मध्यकालीन बुन्देलखण्ड के राज्यों की आय के प्रमुख साधनों में राजस्व, वनसंपदा, राहदारी कर (चुंगी कर). हाट - बाजार, नजर भेंट, भूमियावट और युद्ध अभियानों से आय आदि प्रमुख स्त्रोत थे। आलोच्यकाल के इन मध्यकालीन राज्यों में 1531-1731 ई. के बीच अनेक दुर्ग, गढ़-गढ़ियाँ, महल, तालाब, बाग-बागीचे, कुएँ-बावड़ी, हवेली, सराय आदि बने थे। ये निर्माण चिन्ह इस बात के प्रतीक है कि इन राज्यों के पास इस काल में धन संपदा पर्याप्त मात्रा में रही थी।
1. राजस्व से आय :-
आलोच्य राज्यों की अधिकांश भूमि शासक या राजा के पुत्रों, रानियों, रिश्तेदारों, छोटे जागीरदारों, पादार्थ अनुदान प्राप्त महन्तों- ब्राह्मणों के बीच बँटी रहती थी। प्रायः इनसे लगान आदि नहीं मिलता था, परन्तु नजर भेंट, उपहार, सत्कार आदि में शासक को धन और धान्य दोनों इस वर्ग के लोगों से पर्याप्त मात्रा में मिलते रहते थे। जागीर प्राप्त जागीरदार लोग राजा की सेवा में प्रायः अपनी सैनिक टुकड़ी उनके आदेश अनुसार कार्य करने के लिए रखते थे और अन्य कार्य भी जो राजा जागीरदार को आदेशित करता था, वह भी उन्हें करना पड़ते थे। कई बार मतभेद हो जाने की स्थिति में बुन्देला शासक अपने जागीरदार को अपदस्थ कर उनसे सारी जमीन और पूरी सम्पत्ति छीन लेते थे। युद्ध अभियान के समय निजी टुकड़ियाँ रखने का व्यय भी आमतौर से शासक के अधीन कार्य करने वाले सामंत ठाकुर ही उठाते थे। गढ़, तालाब, कुएँ आदि लोकहित के कार्यों में भी शासक इन भूमिधारियों से धन ले लिया करते थे।
इन सभी राज्यों में दो फसलें खरीफ या सियारी, रबी या उन्हारी होतीं थीं, सियारी को कतिकी अर्थात कार्तिक की फसल के सम्बोधन से भी पुकारा जाता था। खरीफ की फसलों में तिली, ज्वार, मक्का, मूंग, मोठ, उड़द आदि थी और रबी की फसलों में गेंहू, पिसी आदि थीं। सभी जमीनें शासक, सामंत, जागीरदार की ही होती थीं, शासक अपने सीधे नियंत्रण की भूमि पर कास्त अपने कारिन्दों के माध्यम से करवाता था और जमीनधारी वर्ग के लोग कृषक खेतिहर को बटाई पर अथवा लगान की दर पर खेती करने को देते थे। खेतिहर अर्द्धदास की तरह रहता था, लगभग उसका आधा धान बँटबारे और गाँव के बनिये के पास बीज के सवाया के रूप में चला जाता था। माना जाता है कि ठकुरासी प्रवृत्ति गरीबों को पिसी की रोटी नहीं खाने देती थी, उन गरीबों का पेट तो वन-उपजों, कोदों, राली, राला, कुटकी, बसारा, समां मटा, बट्टा, मुक्सा, महुआ से ही भरता था। इन लाभों के बदले में गरीब-खेतीहर, श्रमिक को, ठकुरास के यहाँ बेगार भी करनी पड़ती थी। बेगार प्रथा परोक्ष रूप में राज्य की आय का एक बड़ा साधन होती थी। महुआ से शराब उतारी जाती थी, शासक को इससे भी कर मिलता था। इस काल में खेती लाभ का धंधा नही थी, और किसी प्रकार विषम स्थिति के बीच गरीब खेतीहर का पेट पल जाता था। खेती से जो कुछ लाभ होता था, उसका लगभग 90 प्रतिशत लाभांश शासक या सामंत वर्ग को मिलता था। 44
2. वन-संपदा, चुंगी, हाट-बाजार से आय :-
मध्यकालीन बुन्देलखण्ड पठारी क्षेत्र के रूप में था, यहाँ बरसाती नदी-नालों और वनों की अधिकता थी। यह पूरा भू-भाग छोटे गांव, मौजों, खेरों आदि से भरा हुआ था। उस काल में बहुत अधिक वन थे और वे वन हमारी अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ी थे। बुन्देलखण्ड में वनों को डांग कहा जाता था, यहाँ साज, सागौन, महुआ, नीम, बाँस आदि ही इमारती लकड़ी एवं अन्य उपयोग के लिए खैर, तेंदू, आम, चिरौंजी, खजूर, सलैया, जामुन, बेल, बेर, मुनगा, आँवले आदि के वृक्ष उपलब्ध थे। वनों से गोंद, शहद, खैर, जानवरों की खालें, जड़ी-बूटियाँ, बेर आदि के उत्पादन मिलते थे। जिनसे गरीब को आमदनी तथा पेट भरने के साधन मिल जाते थे, गाँव में बढ़ई लकड़ी से खेती के औजार बनाता था, लुहार लोहे का काम करता था एवं कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता था। इनको राज्य का भाग भी अपनी आय से कर के रूप में देना पड़ता था । हाट बाजार में सामान विक्रय के लिए ले जाने पर राज्य को चुंगी कर देना पड़ता था ।
आगरा से दक्षिण के क्षेत्रों की ओर और मालवा के क्षेत्रों की ओर जाने वाले मार्ग बुन्देलखण्ड के आलोच्य राज्यों से होकर ही गुजरते थे। कालपी मार्ग से बुन्देलखण्ड का व्यापार पटना, इलाहाबाद, बनारस और बंगाल के भागों से होता था। बुन्देलखण्ड के इन मार्गों से गुजरने वाले व्यापारिक काफिलों को राहदारी कर, या चुंगी कर देना पड़ता था। माना जाता है कि ओरछा के वीरसिंहदेव बुन्देला ने अपनी शक्ति के बल पर और जहाँगीर बादशाह के संरक्षण के चलते व्यापारिक काफिलों से राहदारी कर के रूप में काफी धन एकत्रित किया था। छोटे ठाकुर और जागीरदार भी प्रायः इन व्यापारियों से कुछ न कुछ धन-धान्य कर के रूप में प्राप्त कर ही लेते थे। आंचलिक शासकों के लिए राहदारी कर सबसे बड़ी आय का स्रोत था। गाँवों में एवं राज्य की राजधानी के कस्बे, नगर में हाट-बाजार सप्ताह में एक दिन जरूर लगते थे, आसपास से आये सामान की बिक्री से राज्य को कर मिलता था। बाग-बगीचों, कछवाई अर्थात् जल के साधन के पास सब्जी का क्षेत्र, तालाबों की फसलों से भी राज्य को आय होती थी। बुन्देलखण्ड अंचल के गाँवों में "गोबर की हवेली" होने के उल्लेख भी मिले हैं, इससे अनुमान होता है कि इस हवेली का मालिक उस क्षेत्र में गाय आदि जानवर दूध उत्पादन के लिए रखता था। इस प्रकार के दुग्ध उत्पादन क्षेत्रों से भी राज्य को घी-दूध तो मिलता ही था, साथ में राजस्व आय में भी वृद्धि होती थी। पान की खेती, डंगाई क्षेत्र के पन्ना राज्य में होती थी, इस उत्पादन से भी राज्य को आय होती थी। इस काल में गाँव के गरीब के पास सदैव नगद पैसे का अभाव रहता था। इसलिए गाँव के गरीब खेतिहर को मजबूरी में व्यापारी से अपने धान्य के बदले विनिमय करके आवश्यक सामान क्रय करना पड़ता था। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वन संपदा और चुंगी, हाट-बाजार तथा सब्जी, दूध, पान आदि का उत्पादन करने वाला वर्ग राज्य की आय का प्रमुख साधन हुआ करते थे। शासक वर्ग के ठकुरासी लोग इन वनों में शिकार भी करते थे और शिकार से जो खाल आदि, गाँव के अन्त्यजों को प्राप्त हो जाती थी। बेगार प्रथा बुन्देलखण्ड अंचल के राज्यों में बहुत थी. परोक्ष रूप में राज्य को जो बेगार से सुविधा मिलती थी, वह राज्य की आय के रूप में ही थी।
3. नजर भेंट और भूमियावट :-
उत्सवों, पर्वो व राजा के जन्मदिन आदि पर आमजन, सामंत, जागीरदार, मुलाजिम आदि सभी लोग शासक को नजर भेंट के रूप में कुछ न कुछ धन-धान्य अवश्य देते थे, यह पूरी आय राज्य के खजाने में जाती थी। नजर भेंट की परम्परा मुगलों में भी थी और बुन्देलखण्ड के आंचलिक शासकों के साथ छोटे जागीरदारों और ठाकुरों में भी यह प्रथा थी, इस परंपरा से इन लोगों को कुछ न कुछ आय हो ही जाती थी और भेंट के रूप में कभी-कभार वस्त्र- कपड़ा आदि सामान भी मिल जाता था। "भूमियावट" के विषय में विद्वान डॉ. गुप्त ने लिखा है, "राज्य की सीमाओं से लगे गाँव की लूटपाट करना और संभव हो तो उन्हें अपने राज्य में मिला लेना • बुन्देलों की स्वीकृत परंपरा थी, इसे भूमियावट कहा जाता था। ओरछा, चंदेरी, दतिया, पन्ना के शासकों ने इसी भूमियावट से अपने-अपने राज्यों की सीमाओं का विस्तार किया था और अनेक मौकों पर धन भी वसूल कर लिया था ।" मुगल अभियानों एवं वहाँ दुर्ग की फौजदारी आदि मिल जाने पर और दूसरे क्षेत्रों की जागीदारी मिल जाने पर भी बुन्देला शासक उन क्षेत्रों से अच्छी मात्रा में धन कमा लिया करते थे। राज्य की आय के स्रोत पर विचार करते समय बुन्देलखण्ड के आंचलिक शासकों की. कोई स्थिर आर्थिक नीति सामने नहीं आती है। व्यावहारिक रूप में देखने में यह आता है कि जब भी उन्हें मुगल अभियानों, व्यापारिक काफिलों, आसपास के क्षेत्रों पर बलात् कब्जा करने का अवसर मिला और छत्रसाल जैसे शासक को मुगल थानों को लूटने जब भी कोई भी अवसर मिला, तो उन्होंने इस प्रकार के सुअवसरों का अपने राज्य की आय बढ़ाने में पूरा लाभ उठाया था।
4. शेष आय के साधन :-
बुन्देलखण्ड के शासकों को अपने क्षेत्र की खनिज संपदा से भी आय होती थी। पन्ना राज्य में हीरे, जवाहरातों की खानें थीं, इनसे राज्य को बहुत अच्छी आय हो जाती थी, पन्ना राज्य की समृद्धि का यह बड़ा कारण था ।
निष्कर्ष रूप में यहाँ यह कहा जा सकता है, कि बुन्देलखण्ड के आंचलिक वंशानुगत शासकों की अच्छी आय थी और ये राज्य समृद्ध थे, मध्यकाल की इमारतें इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। यद्यपि यह माना जाता है, कि गाँव का खेतिहर, गरीब, कामगार, श्रमिक इन शासकों के काल में बमुश्किल पेट ही भर पाता था और प्रायः अपना जीवन सर्दी-गर्मी सहन कर अधनंगे ही व्यतीत करता था। राज्य के सारे आर्थिक साधनों का उपयोग शासक अपने हित में विलासी जीवन बिताने के लिए करता था।
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